रेडियोनामा पर ना सिर्फ रेडियो की यादों का कारवां चल रहा है। बल्कि हमारा प्रयास है कि रेडियो की दुनिया की दशा और दिशा पर विमर्श भी किया जाता रहे। रेडियो की दुनिया से जुड़े रहे अरूण जोशी का ये इंटरव्यू 7 जनवरी 2012 को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था। इसे रेडियोनामा के पाठकों के लिए और रेडियो की दुनिया के लिए संदर्भ-सामग्री जमा करने के मक़सद से यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
आकाशवाणी के न्यूज सेक्शन से अरसे तक जुडे़ रहे अरुण जोशी ने देश और विदेशों में कई महत्वपूर्ण न्यूज कवरेज की हैं। रिटायर होने के भी वे आकाशवाणी के कई कार्यक्रमों से जुड़े हैं। फिलहाल वे इग्नू के 37 ज्ञानवाणी एफएम रेडियो स्टेशन में बतौर सलाहकार अपनी सेवाएं दे रहे हैं। रेडियो की भूमिका पर उनसे राजेश मिश्र की बातचीत :
क्या आपको नहीं लगता कि इंटरनेट के इस युग में रेडियो अपनी उपयोगिता खो रहा है ?
रेडियो की उपयोगिता विश्व में कहीं पर भी कभी भी समाप्त नहीं हुई है। आज अमेरिका और यूरोपीय देशों में रेडियो के कई स्टेशन काम कर रहे हैं। साथ ही वहां एक के बाद एक स्टेशन खुलते चले जा रहे हैं। इनमें सरकारी और प्राइवेट दोनों तरह के रेडियो स्टेशन हैं। अगर भारत की बात करें, तो यहां जैसे ही टेलिविजन की एंट्री हुई तो ये फर्क जरूर आया कि रेडियो कुछ समय के लिए लोगों की नजरों से ओझल हो गया। लेकिन एफएम क्रांति के बाद रेडियो आम श्रोताओं के बीच फिर से अपनी जगह बनाने में कामयाब रहा। रेडियो आज सर्वव्यापी हो गया है।
दिल्ली जैसे शहर में आज करीब 45 लाख से अधिक कारें हैं। इनमें कुछ ही ऐसी गाड़ियां होंगी जिसमें एफएम रेडियो के सेट न लगे हों। देखिए, इस भागदौड़ से भरी दुनिया में आपका अधिकांश समय ऐसी जगहों पर बीतता है जहां आप टीवी और न्यूजपेपर का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। वहां रेडियो आपका सबसे अच्छा दोस्त साबित होता है। गांव में जहां बिजली नहीं है, वहां रेडियो ही सबसे बेहतर माध्यम है। दरअसल रेडियो आज आपकी मुट्ठी में है।
आम लोगों के लिए रेडियो किस तरह फायदेमंद रहा है?
देश में ग्रीन रिवोल्यूशन, ऑपरेशन फ्लड जैसे अभियानों की सफलता में रेडियो की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। क्योंकि रेडियो आम भाषा और बोलियों में बात करता रहा है। नॉर्थ ईस्ट में कई रेडियो स्टेशन हैं। वे वहां की लोकल लैंग्वेज में कार्यक्रमों का प्रसारण करते हैं। हमारे देश के गांवों में साक्षरता का प्रतिशत कम रहा है। पहले वहां न्यूजपेपर्स भी बहुत मुश्किल से पहुंचा करते थे। खेती से जुड़ी पत्रिकाएं भी नहीं पहुंच पाती थीं। वैसे समय में कृषि जगत कार्यक्रम में छुट्टन काका जैसे पात्र किसानों को उनसे जुड़ी तमाम जानकारी दे रहे थे। आज भी वही स्थिति है। दिल्ली के बाहर निकलकर जाएं तो पाएंगे कि शाम पांच बजे के बाद कई जगहों पर बिजली की सप्लाई होती ही नहीं है, इस कारण वहां टीवी चल नहीं पाते हैं। ऐसे में लोगों के लिए एकमात्र सहारा रेडियो ही है।
रेडियो के प्राइवेटाइजेशन का क्या असर हुआ?
प्राइवेट एफएम चैनल महज एंटरटेनमेंट चैनल बनकर रह गए हैं। यह स्थिति सही नहीं है। हेल्थ, एजुकेशन, राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र को मजबूत करने वाले कार्यक्रम भी उन्हें प्रसारित करने चाहिए। उन्हें भाषा की शालीनता का ध्यान रखना चाहिए। मैं पिछले दिनों एक प्राइवेट एफएम पर कार्यक्रम सुन रहा था। उनमें वे ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे थे जो हमारी संस्कृति के अनुरूप नहीं कहे जा सकते हैं। लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण निश्चित रूप से जीवंत है। वे सीधे श्रोताओं से संवाद स्थापित करते हैं।
क्या एफएम चैनलों ने आकाशवाणी पर दबाव बढ़ा दिया है?
हां, यह बात सही है। एफएम क्रांति के बाद से आकाशवाणी पर दबाव बढ़ गया है। लेकिन मैं मानता हूं कि बदलती चुनौतियों के अनुरूप आकाशवाणी को बदलना होगा। इसके प्राइमरी चैनल पर पहले वाले फॉर्मेट आज भी चल रहे हैं। रेडियो पर आज भी नाटक होते हैं। रूपक और झलकियों का प्रसारण होता है। लेकिन ये सब प्राइमरी चैनल तक सीमित हैं। आज देश में कम से कम दो सौ रेडियो स्टेशन हैं। कोशिश जरूर की जानी चाहिए कि उनको नया फॉर्मेट दिया जाए। उनमें परिवर्तन लाने की जरूरत है। बदलते युग के हिसाब से रेडियो को ज्यादा इंटरेक्टिव बनाने की जरूरत है। उसे श्रोताओं के साथ संवाद स्थापित करना होगा। कुछ परिवर्तन आए भी हैं।
आज आकाशवाणी के कई केंद्रों से विभिन्न विषयों पर फोन इन जैसे कार्यक्रम चल रहे हैं। ये बहुत पॉप्युलर हुए हैं क्योंकि इसमें श्रोताओं की सीधी भागीदारी होती है। पहले भी आकाशवाणी पर फरमाइशी कार्यक्रमों में श्रोताओं से संवाद स्थापित करने की कोशिश की जाती थी। लेकिन इसमें और विस्तार की आवश्यकता है। प्रचलित आकाशवाणी के सेंटरों को अपनी प्रसारण तकनीक में बदलाव करना होगा। क्योंकि जितना शक्तिशाली प्रसारण का क्षेत्र होगा, उतना वह श्रोताओं तक पहुंच पाएगा। कार्यक्रमों में कुछ ऐसी चीजें डालनी होंगी जो श्रोताओं को आकर्षित कर सके। आप विज्ञापन जगत में हुए चेंज को देख सकते हैं। विज्ञापनों ने खुद को नए संदर्भों में पेश किया और यही उनकी सफलता का राज है। रेडियो प्रोग्राम्स को भी इसी आधार पर आज के बदलते संदर्भ में पेश करना होगा।
2 comments:
अच्छी रही बातचीत..
ये अरुण जोशी जी बहुत बड़े फैंकू रहे हैं अपने ज़माने के । इनकी केवल एक ही योग्यता थी .. अफ़सरों की चाटुकारिता के लिए कुछ भी कर गुज़रने को हमेशा तत्पर । सभी बड़े अफ़सरों को जेब में रखने की शौकीन थे । कार्यक्रमों अथवा समाचारों की कभी कोई समझ नहीं रही। माफ़ कीजिए मेरी साफ़गोई।
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