१३ वें एपिसोड में हुई घटना ने अचानक मुझे बड़ा कर दिया था...... उस रात मैं जब चीख मारकर ज़मीन पर गिरा था, मुझे बरसों तक पता नहीं चल पाया कि उसके बाद क्या हुआ था. मुझसे ना मेरे घर के सदस्य ने इस बारे में कोई बात की और ना ही भोजाई के घर के किसी सदस्य ने. सही पूछिए तो मैं इस क़दर डर गया था कि मैंने भी उस घटना के बारे में किसी से कुछ नहीं पूछा बल्कि कुछ वक्त बाद तो मुझे खुद शक होने लगा था कि ऐसी कोई घटना हुई भी थी या मैंने कोई सपना देखा था. बरसों बाद जब मैं आकाशवाणी ज्वाइन कर चुका था, मैंने पिताजी से इस बारे पूछा तो उन्होंने बताया कि ये कोई सपना नहीं था, सच में ये घटना ठीक वैसे ही घटी थी जैसी कि मुझे याद थी लेकिन दोनों घर के लोगों ने तय किया कि मेरे सामने कोई इस घटना का ज़िक्र नहीं करेगा क्योंकि उससे कुछ ही वक्त पहले मैं कल्याण सिंह के क़त्ल की वारदात को झेल चुका था. ऐसा न हो कि इस दुर्घटना की वजह से मेरे दिमाग पर कोई ऐसा असर पड़े कि मैं अपने दिमाग का संतुलन खो बैठूं. मैंने संतुलन पूरी तरह खोया तो नहीं मगर इन दोनों ही घटनाओं का असर पूरी तरह से मेरे दिमाग से कभी नहीं गया. आज भी जब बारिश के मौसम में बादल गरजते हैं तो मेरी आँखों के आगे एक चेहरा आ खडा होता है, कल्याण सिंह का और उसकी चीख मेरे कानों में गूंजने लगती है और फिर अचानक उस चीख में से रंजू की चीख उभर आती है. ये चीखें निश्चित रूप से मुझे बहुत परेशान करती थीं मगर मेरे अंदर बैठा कलाकार इन चीखों से कुछ सीख भी रहा था ये मुझे सबसे पहले उस वक्त समझ आया जबकि आकाशवाणी बीकानेर के स्टूडियो में नाटक का स्वर परीक्षण देने गया था. कुछ तो स्टूडियो के सांय-सांय करते सन्नाटे ने एक अजीब सा माहौल बना दिया था, कुछ मुझे मिले संवादों ने मानो मुझे किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंचा दिया था. मेरे सह-कलाकार के रूप में स्टूडियो में खड़े आकाशवाणी बीकानेर के प्रोग्राम अधिकारी श्री सुरेन्द्र विजय शर्मा आँखे फाड-फाड कर मुझे देखे जा रहे थे क्योंकि उन्हें बिलकुल उम्मीद नहीं थी की उन संवादों के दौरान धीरे धीरे मेरा रूप ही बदल जाएगा और दूसरी बार जब सूरतगढ़ में पोस्टेड था और हमारे एक साथी गोकुल गोस्वामी ने एक नाटक लिखा “अश्वपुरुष”. मुझे आलेख दिया इस आग्रह के साथ कि मैं खुद अश्वपुरुष की भूमिका करूं......मैंने उस नाटक को रिकॉर्ड किया तो मुझे लगा मेरे अंदर कल्याण सिंह और रंजू दोनों की आत्माएं प्रवेश कर गईं थीं. इस क़दर चर्चित हुआ वो नाटक कि मुझे उसके कारण लोग पहचानने लगे या यूं कहूँ कि उस नाटक की वजह से विश्वम्भर नाथ जी जैसे लोग मेरी असली पहचान को भूल गए तो भी गलत नहीं होगा. जी हां विश्वम्भर नाथ जी दोनों बार किसी न किसी रूप में नाटक की इन घटनाओं से जुड़े रहे....... पर नहीं....... ये घटनाएं बहुत बाद की हैं, इनका विस्तार से वर्णन मैं आगे चलकर करूँगा वरना बहुत कुछ अधूरा छूट जाएगा........
जैसा कि मैंने पहले एक एपिसोड में जिक्र किया, आज़ाद भारत और मेरा बचपन साथ साथ गुजरा....... फिर भी इंसान की औकात ही क्या होती है एक समाज या एक कौम या एक देश के सामने ? एक इंसान की कुल उम्र ६०-७० साल होती है और उस ६०-७० साल के जीवन में ५-७ या १०-२० बरस का हिस्सा बहुत अहमियत रखता है जबकि वही ५-१०-२० बरस किसी समाज या मुल्क के लिया वक्त का एक बहुत छोटा सा टुकड़ा होते हैं...... यानी मेरा और आज़ाद भारत का बचपन शुरू तो करीब करीब एक साथ हुए थे मगर जहां मेरे जीवन के बरस बहुत तेज रफ़्तार से कट रहे थे वहीं आज़ाद भारत खरामा खरामा आगे बढ़ रहा था....... मैं एक बात आपको बता चुका हूँ कि मेरा मोहल्ला शेखों का मुहल्ला कहलाता था. इसी मोहल्ले का एक और नाम भी था हलाल खोरों का मोहल्ला. हलालखोर का अर्थ है हक की कमाई खाने वाला......... पूरे मोहल्ले में हिदुओं के महज़ पांच सात घर थे बाकी सारे घर मुसलमानों के थे........ हालांकि उन शेखों से हमारे रिश्ते एक थाली में बैठकर खानेवाले नहीं थे लेकिन आपस में कोई गैरियत भी नहीं थी. सब मिलजुलकर रहते थे, वक्त ज़रूरत एक दूसरे के काम आते थे और बचपन से हिन्दू मुसलमान दोनों घरों के बच्चों को यही संस्कार दिए जाते थे कि हम सब एक ही परिवार के हिस्से हैं. मेरी दादी जी का चूंकि इस मोहल्ले में पीहर था, सभी हम उम्र उनके भाई भाभी थे और बड़े चचा ताऊ........
अपने जीवन की कथा सुनाते सुनाते काफी आगे पहुँच गया था एक बार फिर मेरा वापस मुड़कर अपने बचपन की तरफ जाना हो सकता है आपको थोड़ा अजीब लगे लेकिन आज जो हर तरफ सहिष्णुता और असहिष्णुता के सवाल उठ रहे हैं, साम्प्रदायिक सद्भावना पर दोनों ही पक्षों के लीडरान प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहे हैं, ५८-५९ साल पहले मेरी दादी जी की सुनाई हुई एक घटना याद आ रही है......... मैं चाहता हूँ आपको आज वो घटना सुनाऊँ और हाँ ये भी बता दूं आपको कि ये घटना किसी तीसरे पक्ष के जीवन की घटना नहीं है, मेरे जीवन पर, मेरे संस्कारों पर, मेरे विचारों पर इसका गहरा असर रहा है.
पहली बार मेरी दादी जी और मेरे पिताजी दोनों से टुकड़ों टुकड़ों में ये सब कुछ मैंने सुना था और न जाने ये उनके सुनाने के तरीके का कमाल था या कि मेरे बालमन की कल्पनाशीलता कि सब कुछ मेरे जेहन में कुछ इस तरह बैठ गया कि एक फिल्म की तरह आज भी सब कुछ पूरी तरह महफूज़ है.१९४७ में पूरे देश में विभाजन की आग लगी हुई थी....... हर तरफ मार-काट मची हुई थी........ पाकिस्तान से आने वाली गाडियां लाशों से भरी हुई आ रही थीं और भारत से मुसलमान घबराए हुए जितना कुछ समेट सकते थे समेट कर पाकिस्तान भाग रहे थे. हर शहर से ख़बरें आ रही थीं कि आज फलां जगह इतने लोग मारे गए, फलां जगह इतने लोग. फलां जगह बच्चों को हवा में उछाल कर तलवार में बींध दिया गया और फलां जगह पूरे परिवार को आग के हवाले कर दिया गया......... ये सारी ख़बरें इतनी तेज़ी से फैलती थीं कि मिनटों में एक शहर से दूसरे शहर और दूसरे शहर से तीसरे शहर. उस समय बीकानेर के महाराजा थे शार्दूल सिंह जी. हालांकि देश स्वतंत्र हो चुका था और राजाओं महाराजाओं के हाथ में कोई खास अधिकार नहीं थे लेकिन चूंकि ये संक्रमण काल था, लोग अभी भी उनकी बहुत इज्ज़त करते थे और उनकी बातों में असर था.......... महाराजा शार्दूल सिंह जी ने हिन्दू मुसलमान दोनों पक्षों के मुअज्ज़िज़ लोगों को बुलाया और कहा. “ मेरे बीकामेर में हिन्दू मुसलमान भाई भाई की तरह रहे हैं और मैं चाहता हूँ कि अब भी भाई भाई की तरह रहें. कोई किसी तरह की मार-काट नहीं करेगा. अव्वल तो मैं मुसलमान भाइयों को विश्वास दिलवाना चाहूँगा कि वो यहाँ सुरक्षित हैं, इस बात की गारंटी आप हिन्दू भाई ही देंगे, फिर भी किसी के साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं है. अगर कोई मुसलमान परिवार ये तय करता है कि उसे पाकिस्तान ही जाना है तो हम इस पर कोई एतराज़ नहीं करेंगे.....”
सभी हिन्दू बुजुर्गों ने इस बात की जिम्मेदारी ली कि मुसलमान भाइयों की रक्षा की जायेगी और उनके साथ कोई हिंसा नहीं होगी. जो मुसलमान भाई पाकिस्तान जाना चाहेंगे उन्हें इज्ज़त के साथ बीकानेर की सीमा से बाहर तक पहुंचाया जाएगा. महाराजा साहब ने कहा कि हालांकि वो ऊपर के स्तर पर बात कर कोशिश करेंगे कि जो मुसलमान भाई पाकिस्तान जाना चाहते हैं, बीकानेर से निकलने के बाद भी उन्हें किसी तरह का कोई नुकसान ना हो लेकिन बीकानेर की सीमा के बाद की वो कोई गारंटी नहीं ले सकते.
बीकानेर में हर तरफ एक बहस छिड़ गयी. गूजरों का मुहल्ला, कयामखानियों का मोहल्ला, चूनगरों का मोहल्ला, मीरासियों का मोहल्ला, शेखों का मोहल्ला....... ऐसे कितने ही मोहल्ले थे जिनमे हिंदुओं के घर तो गिनती के थे...... ज़्यादातर घर मुसलमानों के ही थे. सभी मुहल्लों में मीटिंग्स होने लगी कि आखिर क्या किया जाए? मुसलमानों का अपना एक देश बना है वहाँ चले जाना चाहिए या जिस जगह पर वो पीढ़ियों से रहते आये हैं वहीं आगे भी रहा जाए.........
ज़्यादातर बड़े बुजुर्गों का सोचना था कि जिस ज़मीन पर हम पीढ़ियों से रहते आये हैं वही हमारा मुल्क है, जबकि जवान लोगों में से कुछ का सोचना था कि इतनी जद्दोजहद के बाद मुसलमानों को अपना मुल्क मिला है तो हमें वहीं जाकर बसना चाहिए...... इसी बीच मुस्लिम लीग के कुछ बाहर से आये नेताओं ने बीकानेर की जनता को भड़काने की कोशिश की कि अगर आप आज पाकिस्तान नहीं गए तो आपकी आने वाली पीढियां आपको सदियों तक इस बात के लिए कोसती रहेंगी. पूरा शहर मानो तपते हुए तवे पर बैठा था. कोई परिवार एक लम्हे पाकिस्तान जाने का फैसला करता था तो दूसरे ही लम्हे जब सीमा के उस पार से आई खबर सुनता था कि मुहाजरों के साथ पाकिस्तान में कितना बुरा सुलूक हो रहा है तो फिर हिम्मत हार बैठता था......
इसी माहौल में एक दिन देर रात हमारे घर का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया. पिताजी ने दरवाजा खोला तो देखा हमारे मोहल्ले के एक बहुत ही मोतबिर और मुअज्ज़िज़ बुज़ुर्ग कुछ घबराए हुए से खड़े हैं...... मेरे पिताजी ने झुककर उनके पैर छुए और कहा “ सिलाम(सलाम) मामा, क्या हुआ? इतनी रात को ? और आप इस तरह घबराए हुए क्यों हैं?” वो हमारे मोहल्ले में रहने वाले एक मुसलमान बुज़ुर्ग थे जो कानूनगो के पद पर स्टेट में काम करते थे. बड़ा सा परिवार और बहुत बड़ा सा मकान, शायद हमारे मोहल्ले का सबसे बड़ा मकान. वो घबराए हुए से बोले...” बेटा सब वक्त का फेर है, जमुना (मेरी दादी जी ) कहाँ है? उस से थोड़ी सलाह करनी है.” पिताजी उन्हें घर के अंदर ले आये और पिताजी ने आवाज़ लगाई “ माँ देख कानूनगो मामा आये हैं.” मेरी दादी जी कमरे से बाहर आईं और बोली “ सिलाम भाई जी आओ, अंदर आ जाओ कईं बात है?”
परेशान से कानूनगो जी कमरे में आकर बैठे और उनकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगे. दादी जी बोली “ क्यों भाई जी आंसूं क्यों? आछो बगत नई रहवे तो माडो भी हमेशा नईं रहवे, ओ भी निकल जासी.”
कानूनगो जी ने रोते रोते कहा “ कईं बताऊँ बाई रोज नई नई खबरां सुन’र जी बहुत घबरा रयो है. बेटां री राय है के पाकिस्तान में जा’र रयो जावै.”
मेरी दादी जी की आँखें भी भर आईं. वो बोलीं “ भाई जी म्हारी बात मानो, बच्चां नै समझाओ. मैं तो इत्तो कह सकूं के भाई जी कोई आपने मारसी बींसू पैली बीने म्हां सब री लाश पर सूं गुजरनो पड़सी.” कानूनगो जी दहाड़ मार कर रो पड़े और बोले “ नईं बाई , म्हारे कारण सूं थारे पर बिपत्त आवै तो म्हारै भाई हुवण रो काई अरथ?” थोड़ी देर चुप रहकर वो बोले “ बाई अब तो बस समझ ले के तय ही कर लियो है. काल सुबह चार बजी म्हे सब निकलसां” और एक दम से उठकर इस तरह चल दिए मानो उन्हें डर हो कि अगर वो दो पल भी रुक गए तो कोई उनके पाँव में बेडियाँ न डाल दे. पिताजी और दादी जी सकते की हालत में खड़े ही रह गए. अन्दर से मेरी माँ ने आकर बंद दरवाज़ा किया.
मेरे और कानूनगो जी के, दोनों के घरों में शायद रात आँखों में ही कटी. ३.३० बजते बजते कानूनगो जी फिर हमारे घर आये और दादी जी के पैरों में चाबियों का एक गुच्छा रखते हुए बोले “ ले बाई जमना, ऐ म्हारे घर री चाबियाँ है. अगर पाकिस्तान में म्हारो गुजर हूग्यो तो ओ घर थारो है अर जे मन नईं लाग्यो तो वापिस आसां, जे थारो मन करे तो म्हाने आसरो दे दीये”
दादी जी भी रो पड़ीं “ भाई जी ओ घर आपरो है आपरो ही रहसी. आपरी आगली पीढियां आ’र चाबियाँ मांगसी तो ऐ चाबियाँ म्हारा बेटा पोता राजी हू’र बियाने सूंपसी....... पण भाई जी एकर फेर अरदास करूँ, ना जावो आप.”
“नईं बाई अब रुक तो नईं सकां म्हे....... अल्लाह आप सबने खुश राखे, आप लोग म्हारे वास्ते भी अल्लाह सूं दुआ करया, खुदा हाफ़िज़.”
और कानूनगो जी अपने परिवार को लेकर पाकिस्तान की और चल पड़े......मेरी दादी जी को एक जिम्मेदारी सौंपकर...... देश में हर तरफ दंगों की आग फैली हुई थी. दूसरी जगहों की तुलना में बीकानेर में बहुत शान्ति थी मगर फिर भी जब एक बड़ा सा मकान दूसरे मोहल्ले के लोगों को सूना नज़र आने लगा तो उनके मुंह में पानी आने लगा. ऐसे में मेरी दादी जी ने तय किया कि रोज उस घर की साफ़ सफाई होगी और कोई न कोई रात में वहाँ सोयेगा...... मोहल्ले के लोगों ने तो दादी जी को कहा “ इतना बड़ा मकान है कानूनगो जी का और वो आपको खुद देकर गए हैं, हम सबको पता है इस बात का, तो आप अपने पूरे परिवार को लेकर उस घर में ही रहो.” लेकिन दादी जी नहीं मानीं, बोलीं “ म्हने बिस्वास है भाई जी वापिस आवैला.”
और वो सच निकलीं. दो महीने पाकिस्तान में धक्के खाकर कानूनगो जी का परिवार आखिरकार लौट आया. जो रूपया पैसा, सोना-चांदी यहाँ से बटोरकर बड़ी बड़ी उम्मीदें लेकर वो लोग गए थे वो सब लुटाकर बहुत बुरी हालत में वो बीकानेर लौटे. दादी जी के सामने शर्मिन्दा से कानूनगो जी ने हाथ जोड़कर कहा “ बाई म्हने माफ कर दे, मैं थारी बात नईं मानी, बस यूं समझ ले कि जान बची है किसी तरह, बाकी सब लूट लियो म्हारा पाकिस्तान वालां. ओ घर तो मैं तनें दे दियो, अब कोई एक कोनो दे दे तो थारी किरपा हूसी.” रोते रोते दादी जी ने चाबियों का गुच्छा उन्हें सौंपते हुए कहा “ भाई जी जान है तो जहान है...... आप बिलकुल चिंता मत करो, सोनो चांदी गयो, भूल जाओ. दो बगत री रोटी री जिम्मेदारी म्हारी है. घर पैली भी आपरो हो अर अब भी आपरो ही है, पधारो आप.”
और हमारे परिवार का एक हिस्सा भटक कर चला गया था वो वापस लौट आया था...... दादी जी ने इस घटना को हम लोगों को आँख में आंसू भरे इतनी बार सुनाया कि इसका एक एक शब्द हमें कंठस्थ हो गया और खुशी की बात ये है कि आज इस घटना के ७० साल बाद तक कानूनगो जी के उस परिवार के साथ हमारे वैसे ही मधुर सम्बन्ध बने हुए हैं
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