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Saturday, January 23, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- भाग १३

रेडियो की दुनिया में महेंद्र मोदी का नाम किसी के लिए अनजान नहीं है। हिंदी रेडियो नाटकों में उन्‍होंने अपना महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है। हमारे लंबे इसरार के बाद आखिरकार मोदी जी रेडियोनामा के लिए अपने संस्‍मरणों की श्रृंखला शुरू की थी। और आपने इसके ग्‍यारह भाग पढ़े भी थे। राजस्‍थान के बीकानेर से विविध-भारती मुंबई तक की इस लंबी यात्रा में रेडियो के अनगिनत दिलचस्‍प किस्‍से इस सीरीज़ में पिरोये गये थे। फिर हालात कुछ ऐसे बने की इस श्रृंखला को विराम देना पड़ गया। अब वे पुन: हाजिर हैं। तो हर शनिवार हम इस श्रृंखला की नयी कड़ी लेकर हाजिर होंगे। आज तेरहवीं कड़ी।

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- भाग १३
इससे पहले कि हम लोग आगे बढ़ें मैं आपको थोड़ा पीछे लिए चलता हूँ. पिताजी की सरदारशहर पोस्टिंग हुई थी जब मैं बीकानेर के गंगा संस्कृत विद्यालय में ६ठी कक्षा में पढ़ रहा था. वहाँ से सरदारशहर गया तो इत्तेफाक से वहा भी एक संस्कृत विद्यालय में ही प्रवेश लिया. मेरे एक रिश्तेदार कसाइयों के मोहल्ले में रहते थे, उनका दो मंजिला घर था. नीचे वो दोनो पति पत्नी रहते थे और ऊपरी हिस्से में हम लोगों ने डेरा डाल दिया. अगले ही दिन एक ज़ोरदार चीख से मेरी नींद टूटी...... मैंने घबराकर चीख की दिशा में देखा...... एक बाडे में एक बकरे को दो लोगों ने पकड़ रखा था और एक आदमी उसके गले पर छुरी फेर रहा था. उसका गला आधा काटकर छोड़ दिया गया था जिसमे से खून उबल उबल कर बाहर निकल रहा था. उस बकरे के गले से एक दो बड़ी दर्दनाक चीख निकली और फिर वो धीरे धीरे शांत हो गया. उसके बाद उसका सर धड से अलग कर दिया गया और उसे उलटा टांगकर उसकी खाल उतारने का काम शुरू हुआ. मैं खिड़की में खडा देखे जा रहा था. इधर एक बकरे की खाल उतर रही थी, मैंने दूसरे बाड़े की तरफ निगाह डाली तो देखा कि एक आदमी एक बकरे को झुण्ड में से निकाल कर एक तरफ ला रहा है. उस बकरे को शायद अपनी मौत की पदचाप सुनाई दे गयी थी वो जोर जोर से चीखने लगा था और उसे चीखता देख वहा बंधे कई और बकरे भी चीख पड़े.......जिस बकरे को काटने के लिए लाया गया उसे दो लोगों ने पकड़कर लिटाया और एक आदमी ने उसके गले पर छुरी फेर दी..... एक बेहद दर्दनाक वैसी ही चीख फिजा में गूँज गयी जिसे सुनकर मेरी नींद टूटी थी. मेरा शरीर थर-थर थर-थर कांप उठा और मैं जाकर माँ के आँचल में छुप गया. हालांकि पिताजी ने बहुत कोशिश की मगर कोई और ढंग का मकान नहीं मिलने के कारण हमें उसी घर में रहना पड़ा. सरदारशहर में ही मेरे बहुत अच्छे दोस्त कल्याण सिंह को डाकुओं ने उस वक्त मार डाला जबकि वो शनिवार होते हुए भी हमेशा की तरह अपने गाँव नहीं जा पाया और उसके पिताजी जो कि बैंक में सुरक्षा गार्ड थे और उस दिन उन्हें कहीं बाहर जाना पड गया था. वो बैंक में वहाँ के चपरासी आसूराम के पास सोया था और डाकुओं ने उसका आधा गला ठीक वैसे ही काट कर छोड़ दिया था जैसे कि कसाई बकरे का गला आधा रेतकर छोड़ दिया करते हैं. मैंने उसकी लाश को इस हालत में देख लिया था. एक महीने तक मुझे रात को न जाने कैसे कैसे सपने आते. कल्याण सिंह और पड़ोस में कटने वाले बकरों की अजीब अजीब सी चीखें मुझे सुनाई देती थी और फिर वो चीखें मिलकर आपस में गड्ड-मड्ड हो जाती थी. मैं रात में नींद में उठकर चल पड़ता था और पिताजी रात-रातभर मेरी रखवाली करते थे. आखिरकार उन्होंने तय किया कि मुझे लेकर माँ को बीकानेर लौट जाना चाहिए, मेरे लिए वो हादसा बहुत भारी था और वो मुहल्ला भी. मैं और माँ दोनों बीकानेर आ गए. भाई साहब पहले से ही वहाँ थे. हम तीनों बीकानेर में रहने लगे और मैंने फिर से गंगा संस्कृत विद्यालय में दाखिला ले लिया. मैं धीरे धीरे सामान्य होने लगा था मगर अब भी कभी सपने में कल्याण सिंह का आधा कटा हुआ सर दिखाई दे जाता और कभी बकरों की चीखें सुनाई दे जाती थीं और मैं पसीने से तरबतर होकर जाग जाया करता था.
बीकानेर में हमारे बिलकुल पास वाले घर में श्याम भाई जी का परिवार था जिसमे श्याम भाई जी थे उनकी पत्नी सुगना भौजाई थीं उनकी बड़ी बेटी रंजू  थी छोटी बेटी कक्कू थी और तीन बेटे थे जीतू  , शंभू और शिव. मुझे इससे ज्यादा कुछ पता नहीं था कि भोजाई किसी ठाकुर साहब के बेटे के दहेज में एक गांव से बीकानेर आइ थीं और उनकी शादी श्याम भाई जी  से कर दी गयी थी . जैसे सारे लोग जीते थे वैसे ही वो लोग भी रहते थे . भाई जी सरकारी प्रेस में काम करते थे. जीतू सिंह मुझसे कोई एक साल छोटा था और रंजू मुझसे दो-तीन साल बड़ी थी. बचपन से मैं मेरे ताऊ जी के बच्चे विमला, रतन, निर्मला, मग्घा रंजू और जीतू साथ मिलकर साथ खेला करते थे. मैं जब सरदारशहर से वापस लौटकर आया तब   तक १३-१४ साल का हो गया था और रंजू १६-१७ साल की.   
हमें साथ खेलना होता था, हम साथ खेलते थे, उसमे आम दिनों में कोई मनाही भी नहीं थी . दोनों घरों में एक परिवार की ही तरह आना जाना था. सुगना भौजी बहुत स्नेही थीं. घर के हालात बहुत अच्छे नहीं थे सो अक्सर मेरी माँ के पास आकर कभी एक कटोरी चीनी ले जाती थीं और कभी एक कटोरी मिर्चे जो वो अक्सर लौटा भी देती थीं. खुद सिलाई मशीन चला कर कपडे सीती थीं और चाय की बड़ी शौक़ीन. उनके पीहर के लोग यानी भाई बहन अकसर उनके यहाँ ही पड़े रहते थे. सबकी चाय बनती लेकिन घर में गाय होते हुए भी बेचने के बाद इतना दूध नहीं बचता था कि चाय में डाला जा सके इसलिए अक्सर काली चाय ही पी जाती थी . मुझे दूध से शुरू से ही एलर्जी थी, मैं दूध वाली चाय नहीं पी सकता था, काली चाय मैंने उनके घर ही चखी थी. हालांकि ये मैंने अपने घरवालों की जानकारी के बिना ही किया था . हम लोग खूब साथ साथ खेलते, कभी कभी मैं उनके यहाँ वो काली चाय भी पी लेता, कभी कभी उनके यहाँ खाना भी खा लेता, न मेरे घर के लोग इस पर ध्यान देते न उनके घर के लोग.
लेकिन न जाने क्या होता था, मुझे उस वक्त कुछ समझ नहीं आता था , न कोई मुझे बताता था..... अचानक अगर मैं वहाँ होता तो मुझे मेरे घर किसी न किसी बहाने से भेज दिया जाता था और वो छोटा सा घर एक किले में तब्दील हो जाता था. मैं जीतू से पूछता कि क्या हुआ है आखिर ? बस वो एक ही जवाब देता था “ बन्ना आ रहे हैं.” मुझे कुछ समझ नहीं आता था कि ये बन्ना आखिर कौन हैं और उनके आने पर हम सबको वहाँ से क्यों हटा दिया जाता है? अगर कोई भी आ रहां है तो हम वहाँ क्यों नहीं रह सकते? तभी पता लगता कि घर की साफ़ सफाई हो रही है, गर्मियों के मौसम में छत पर छिडकाव करके कुछ लोगों के बैठने का इंतज़ाम किया जा रहा है और सर्दियों में कमरों को धो कर कोयले की कई सिगडियो को जला कर कमरों को गरम करने का इन्तेजाम किया जा रहा है.
घर के सब लोग ही नहीं भोजाई के रिश्तेदार भी न जाने किस किस इन्तेजाम में व्यस्त हो जाते थे. मेरी कोशिश ये रहती थी कि मैं उनके इंतज़ामो में उनकी मदद करू और कभी कभी मुझे छुप छुपाकर वहाँ थोड़ी देर मौजूद रहने में सफलता भी मिल जाती थी लेकिन जैसे ही किसी का ध्यान मेरी तरफ चला जाता तो फ़ौरन मुझे मेरे घर भेज दिया जाता था. मैंने एक बार भौजाई से पूछ भी लिया कि मैं यहाँ क्यों नहीं रह सकता ? कौन हैं ये बन्ना और उनके आने का नाम आते ही मुझे घर क्यों भेज दिया जाता है?  उन्होंने कामों के बोझ से झुकी अपनी गर्दन उठाई और एक लंबी सांस भर कर बोलीं “ महेंदर जी अभी आप बच्चा हो, कुछ बरस बाद आपने समझ आवेला, अभी आप जाओ.” मैं वहाँ से चला तो आता था लेकिन मुझे ये सब बड़ा रहस्यमय लगता था.  हर तरफ साफ़ सफाई, साफ़ बिस्तर, हलकी हलकी रौशनी. पूरा घर एक अलग तरह के रोमांटिक रंग में रंग जाता था जो मुझे उस वक्त अजीब भी लगता था और आकर्षक भी मगर कुछ समझ तब तक नहीं आया जब तक कि थोड़ा और बड़े होने के बाद मैंने आचार्य चतुरसेन की गोली और यादवेन्द्र शर्मा चंद्र की कृति ज़नानी ड्योढी नहीं पढीं.
भाई जी बकरे का ढेर सारा मांस खरीद कर लाते , एक बड़े से देग में मांस उबालने को चढ़ा दिया जाता और भोजाई के सारे रिश्तेदार लहसुन छीलने प्याज काटने में लग जाते. फिर मांस पकाने का सिलसिला शुरू होता. लहसुन प्याज भुनने की गंध पूरे मोहल्ले में फैल जाती. भाई जी कई तरह की बोतलें लेकर आते जिनमे शराब होती थी. सर्दियों में जबकि ये सब कार्यवाहियां होती थीं मुझे देखने का कोइ मौक़ा मुश्किल से ही मिलता था लेकिन गर्मियों में जबकि सारा इन्तेजाम छत पर होता था मुझे अपनी छत से छुप छुपाकर ये सब देखने का मौक़ा मिल ही जाता था.
मेरे घर की छत भाई जी की छत से थोड़ी ऊंची थी. बचपन से ये देखा था कि उनके घर से किसी बच्चे के रोने की आवाज़ आती थी और मेरी माँ और पिताजी एक बांस लेकर उनकी छत पर खटखटाते थे क्योंकि भाई जी और भौजी बहुत गहरी नींद में सो जाते थे और उन्हें पता ही नहीं चलता था कि उनका बच्चा रो रहा है. बांस की जोर जोर की खटखटाहट सुनकर वो बच्चे को संभालते थे . तो अपने घर की छत के के थोड़ी ऊंची होने का मैं भी फायदा उठाता था. जब तक बहुत छोटा था मुझे इस बात की उत्सुकता तो होती थी कि उस तरफ क्या हो रहा है लेकिन उधर झाँकने की हिम्मत नहीं होती थी. अब १३-१४ बरस का हो चुका था और अपने आप को थोड़ा बड़ा महसूस करने लगा था क्योंकि मेरी लम्बाई तेज़ी से बढ़ रही थी.मुझे ये भी समझ आने लगा था कि दीवार के उस तरफ कुछ समारोह हो रहा है क्योंकि लोगों की जोर जोर से बोलने की, हँसने की और कई बार गाने की आवाजें इस तरफ मेरे कानों तक भी पहुँच ही जाती थीं. मन में ये जानने की उत्सुकता होती थी कि आखिर वहाँ हो क्या रहा है?
एक ऐसा ही दिन था. मैं भौजाई के घर खेल रहा था. भौजाई की एक बहन सिलाई मशीन चला रही थी और भौजाई की कुशल उंगलियां कपड़ों की सिलाई कर रही थी कि एक बड़ी बड़ी मूछों वाला आदमी घर के आगे साइकिल से उतरा. घर का दरवाजा खुला ही रहता था, भौजाई की बहन ने कहा “ सुगना, खवास जी आया है”
भौजाई सिलाई छोड़कर उठ खड़ी हुई और बोली “ पधारो खवास जी, काई हुकुम है?” खवास जी ने जेब में से कुछ नोट निकाल कर देते हुए कहा “ शाम ने सवारी पधारसी........ऐ रुपिया राखो, सारो इंतजाम कर’र राख्या.”
भौजाई के चेहरे पर कुछ चिंता की लकीरें उभरीं. उन्होंने वो रुपये अपनी बहन के हाथ में देकर कहा “ ले बहनडी, करवा सारो इंतजाम.” और बस उसी पल चारों तरफ भाग दौड मच गयी................ वही साफ़ सफाई, छत पर छिडकाव का इंतजाम, पीतल के जग और गिलासों की धुलाई........... ऊपर छत पर गद्दे और गाव तकिये पहुंचाए जाने लगे. मैं भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार सबकी मदद करने की कोशिश कर रहा था कि भौजाई की आवाज़ आई, “ महेंदर जी अबे आप घरे पधारो, काल फेर आया.” मैंने कहा “ पण भौजाई........” भौजाई बोलीं “ आप समझदार बच्चा हो नी, जाओ..... पधारो, चाओ तो जीतू नै भी ले जाओ साथै.” अब कोई रास्ता नहीं था मेरे सामने. मैं जीतू को साथ लेकर घर आ गया, लेकिन मेरे कान बराबर भौजाई के घर की तरफ ही लगे हुए थे. शाम में भी खूब गहमागहमी थी दीवार के उस पार. धीरे धीरे शाम रात में तब्दील होने लगी. मैंने और जीतू ने खाना खा लिया था और मेरे घर में सन्नाटा पसरने लगा था.
घर के सभी लोग सो चुके थे. जीतू भी मेरे पास ही बिस्तर पर गहरी नींद में सो चुका था, मगर मेरी आँखों की नींद जाने कहाँ उड़ गयी थी.  थोड़ी देर में ही मुझे पड़ोस से गाने की आवाज़ सुनाई दी. संगीत में शुरू से ही मुझे रूचि रही इसलिए थोड़ी देर तक तो मैं गाना सुनता रहा फिर उत्सुकता हुई कि आखिर ये कौन गा रहा है, तो मैं चुपके से उठकर दीवार के ऊपर से झाँक कर देखने लगा.
मैंने देखा, सुगना भौजी की छत पर कुछ लोग अधलेटे से बैठे हुए हैं और सबकी हाथों में पीतल के गिलास हैं और एक ढोली, ढोलक बजाते हुए गा रहा था “ भर ला ए कलाली दारू दाखां रो, पीवण आळो लाखां रो.................” बीच में बैठा एक आदमी बोल उठा “ वाह वाह ..........” मुझे समझ अया गया, यही है बन्ना. लकदक करते कपडे और ढेर सारे गहने पहने हुए बन्ना बाकी सबसे अलग ही नज़र आ रहे थे. दो क्षण रुक कर बन्ना बोल उठे “ अरे सुगना, तू भी गा साथै” भौजी ने झुक कर मुजरा किया और ढोली के सुर में सुर मिला दिया........ गीत का मिठास अचानक दस गुना हो गया......... पूरा माहौल संगीतमय हो उठा.
बन्ना ने एक घूँट लिया और कहा “ वाह सुगना वाह....... तू अठे क्यूं रहवे ? म्हारे महलां में चाल “
भौजी मानो निहाल हो गई और बोली “ हुकुम पगां री जूती ने पगां में ही रहण दो बन्ना “
बन्ना ने अपने पास पडी थैली में से कुछ सिक्के निकालकर उछाल दिए.
बन्ना बोले “ गिलास खाली हुगी “
सुगना भौजी ने आगे बढ़कर उनके गिलास में शराब उंडेली तो मस्त हुए बन्ना ने आगे बढ़कर सुगना भौजी की ओढनी नोच कर फेक दी .
मैंने देखा छत की सीढ़ियों में बोतल हाथ में लेकर आते हुए भाई जी वहीं रुक गए लेकिन बन्ना ने शायद उन्हें देख लिया था. आवाज़ ऊंची करके बोले “ अरे आजा गोलिए, रुक क्यों गयो?”
भाई जी चुपचाप ऊपर आये और बोतल सुगना भौजी के सामने रखकर मुड गए. बन्ना का मुंह फिर खुला “ अरे गोला, आ लुगाई कोनी, म्हारे दहेज में आयोडी चीज़ है, पूरो अधिकार है म्हारो ई रे ऊपर”
भाई जी नीची नज़रें किये बोले “ हुकुम बन्ना “
और वहीं नज़रें नीची किये खड़े हो गए.
बन्ना को पता नहीं क्या सूझा, बोले “ दो गिलास में दारू भर, एक तू ले अर एक सुगना ने दे “
भाई जी ने दो गिलास उठाये दोनों में दारू भरी एक नज़रें नीची किये ही सुगना भौजी को पकडाई और दूसरी खुद लेकर खड़े हो गए .
बन्ना फिर बोले “ गट गट पी जाओ दोनूं “
क्या मजाल थी कि बन्ना की बात टालें वो , एक घूँट में दोनों ने गिलास खाली कर दिए.
बन्ना फिर गरजे “ फेर भरो “
दोनों ने फिर गिलास भरे.
“पी जाओ गट गट “
गिलास फिर खाली हो गए.
दारू अपना असर दिखाने लगी थी. सुगना भौजी लडखडाने लगी थी........
बन्ना अपने साथियों से बोले “ अरे एक किनारे फेंको रे गोले ने “
दो लोगों ने भाई जी को उठा कर दूसरी छत पर ले जाकर पटक दिया. अब वहाँ ७-८ पुरुष थे और उनके बीच नशे में धुत सुगना भौजी थी. ढोली गाये जा रहा था  
“पियो पियो सा बन्ना.............” और बन्ना ने हाथ से इशारा किया और सुगना भौजी नाचने लगी. मेरे लिए सुगना भौजी का ये रूप एकदम नया था. मैं एकदम दम साधे सब देख रहा था. मुझे डर भी लग रहा था कि अगर मेरे घर में से कोई जाग गया और मुझे ये सब देखते हुए पकड़ लिया तो क्या होगा लेकिन बहुत चाहकर भी मैं वहाँ से हट नहीं पा रहा था हर अगले पल वो हो रहा था जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी. इधर घूमकर देखा कि जीतू गहरी नींद में सोया हुआ था इस बात से बेखबर कि उसके घर में क्या हो रहा है. मेरा एक मन हुआ उसे नींद से जगाकर कहूँ कि देख ये सब क्या हो रहा है तेरे घर में ? लेकिन फिर दूसरे ही पल लगा, नहीं ऐसा करना ठीक नहीं होगा, सुगना भौजी हमेशा के लिए उसकी नज़रों से गिर जायेंगी.
मैं यही सब कुछ सोच रहा था कि अचानक बन्ना की आवाज़ मेरे कानों में गूंजी “ अरे सुगनकी .......... थारी छोरियां कठे है ? बुला तो ...........”
सुगना भौजी का जैसे सारा नशा उतर गया . बोली “ हुकुम अन्नदाता, टाबर है छोरियाँ तो “
बन्ना का पारा जैसे सातवें आसमान पर चढ गया. माँ बहन की दो तीन भद्दी गालियाँ दी और गुर्राए “गोली री औलाद अर बच्ची? जा ले र आ बीने......”
मरे मरे कदमों से सुगना भौजी नीचे गयी और अगले ही पल रंजू को लेकर लौट आई .............
बन्ना ठहाका मार कर हंस पड़े और बोले “ मर तू परे बल.......... तू अठे आ छोरी......... ला गिलास भर” सुगना भौजी पीछे हट गई और रंजू को आगे कर दिया. मुझे लगा रंजू के हाथ काँप रहे थे. उसने कांपते हाथों से गिलास भरा और बन्ना के आगे बढ़ा दिया. बन्ना ने एक बार फिर ठहाका लगाया और उसका हाथ पकड़ कर खींच लिया. दुबली पतली रंजू धम्म से नीचे आ गिरी. रंजू जो मेरे साथ खेलती कूदती बड़ी हुई थी उसका इस तरह धडाम से नीचे गिरना मुझे अंदर तक झकझोर गया. बन्ना ने बैठे बैठे ही छत के फर्श पर गिरी हुई रंजू के एक लात जमाई और चिल्लाये “ तू जाणे है नी कि तू म्हारी रियाया है ?” मैंने देखा रंजू का चेहरा सफ़ेद हो गया था, वो अपनी घबराहट पर काबू करते हुए  बोली “ खम्मा अन्नदाता” नशे में धुत हुए बन्ना बडबडाए “अन्नदाता री बच्ची......... अठीनै मर..........” दुबली पतली रंजू के पैर जैसे मन मन भर के ह्ओ गए थे...... बड़ी मुश्किल से वो छोटे छोटे कदम भरती बन्ना के करीब पहुँची........ अचानक बन्ना का हाथ आगे बढ़ा और उस हाथ ने रंजू की कुर्ती नोच ली...... एक तरफ कुर्ती के फटने की जर्र की ज़ोरदार आवाज़ आई और साथ ही पूरे वातावरण को चीरती रंजू की एक चीख गूँज गयी.......... मुझे लगा मैं सरदारशहर में अपनी खिड़की पर खडा हूँ और मेरे सामने के बाडे में एक बकरे के गले पर छुरी फेरी जा रही है, तभी कल्याण सिंह का आधा कटा सर मेरी आँखों के आगे घूम गया......भौजी की छत पर फटी हुई कुर्ती से अपने शरीर को ढकने की कोशिश करती रंजू की चीख, सरदारशहर के कसाइयों के मोहल्ले में गर्दन पर छुरी झेलते बकरे की चीख और डाकुओं के हाथों कटते कल्याण सिंह की चीख........ सब कुछ जैसे मेरी आँखों के सामने गड्डमड्ड हो गया और मुझे बस इतना ही याद है कि मेरे गले से भी एक चीख निकल गयी......... और मैं धडाम से अपने घर की छत पर गिर पड़ा.


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