ज़िंदगी का वो वक्त बड़ा
अजीब सा होता है जब इंसान १५-१६ बरस की वय में पहुंचता है. बड़े उसे कहते हैं अमां
मियाँ जाओ बच्चों के साथ खेलो, अभी तो बच्चे हो अभी तो दाढ़ी मूंछ भी ठीक से फूटी
नहीं है...... बच्चे अपने पाले में से पहले ही निकाल चुके होते हैं. इधर स्कूल में
अध्यापक बोर्ड की परीक्षा का नाम लेकर डराते हैं उधर घर में कोई न कोई अच्छा करियर
चुनने का दबाव बढ़ने लगता है. आजकल तो गली गली में इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज खुल
गए हैं साठ के दशक में पूरे राजस्थान में दो इंजीनियरिंग और चार मेडिकल कॉलेज हुआ
करते थे. आज तो हर प्राइवेट कॉलेज एम् बी ए का पाठ्यक्रम शुरू किये बैठा है उस
वक्त पूरे राजस्थान में शायद एक भी कॉलेज में एम् बी ए नहीं था. शायद इसलिए कह रहा
हूँ क्योंकि कि मैंने तो उस वक्त तक एम् बी ए का नाम भी नहीं सुना था. ये तो हर
माता पिता जानते थे कि इतने कम कॉलेजों में सबके बच्चों का दाखिला होना तो मुमकिन
नहीं है मगर हर माँ बाप की जी तोड़ कोशिश तो यही रहती थी कि किसी और का नंबर आये
चाहे ना आये, उनके बच्चे का तो नंबर आना ही चाहिए. ये ‘चाहिए’ वाला भाव बच्चों पर
भयंकर दबाव डालता था. मुसीबत इतनी ही नहीं थी, यही वो उम्र होती है जब कि शरीर में
हार्मोन्स में कुछ बदलाव आते हैं, दाढ़ी मूंछ फूटने लगती है. आज की पीढ़ी शायद इसे
नहीं समझ पायेगी कि ये हलकी हलकी उगती दाढ़ी मूंछे भी हमारे ज़माने में एक अजीब सा
काम्प्लेक्स पैदा करते थे मन में. एक अरसे तक मैंने अपने माता पिता के सामने शेव
नहीं बनाई. नहाने के लिए बाथरूम में घुसता था तो वहीँ एक रेज़र और ब्लेड का पैकेट
छुपाये रखता था. शेविंग क्रीम की जगह नहाने वाली साबुन के झागों से ही काम चल जाता था. ब्लेड्स न तो आज के स्तर की
होती थी और न ही आज की कीमत की. आज की पीढ़ी दोनों की तुलना करना चाहे तो बता दूं,
आज एक अच्छी ब्लेड लगभग १२० रुपये की आती है. उस वक्त १० भारत ब्लेड का एक पैकेट
एक आने का आता था. यानि एक रुपये के १६ पैकेट या १६० ब्लेड्स.
हालांकि मेरे घर का माहौल ऐसा था कि बच्चों पर कोई दबाव नहीं डाला जाता था था लेकिन भाई साहब का दाखिला मेडिकल कॉलेज में हो चुका था इसलिए मुझपर एक तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव तो था ही कि मुझे कुछ करके दिखाना है. लिहाजा कुछ दिनों के लिए मैंने खेल, संगीत, नाटक सब कुछ छोड़ दिया और पढाई में जुट गया. लेकिन थोड़े दिन की पढाई से क्या होने वाला था? कुल मिलाकर ५५% अंक आये. राजस्थान के दो इंजीनियरिंग कॉलेजों में से तो इन अंकों से कहीं एडमीशन होने का सवाल ही नहीं था. राजस्थान के बाहर के कॉलेजों में फॉर्म भरे गए. एक कॉलेज ने सिविल इंजीनियरिंग के डिग्री कोर्स में एडमिशन दिया. उन दिनों सिविल इंजीनियरिंग लोगों की आख़िरी पसंद थी. सिविल इंजीनियर्स में भयंकर बेरोजगारी भी थी. मेरी रूचि मैकेनिकल इंजीनियरिंग में थी. मुझे ये भी लगा कि अगर मैंने सिविल शाखा को चुन लिया तो मेरा संगीत, मेरा ड्रामा सब ईंट पत्थरों के नीचे दफ्न हो जायेंगे.. एक और बात मुझे परेशान कर रही थी कि पिताजी रिटायर होने वाले थे, भाई साहेब के नौकरी में आते आते ही उन्हें रिटायर होना था. ऐसे में अगर मैं कहीं बाहर रहकर पढूं तो उसका खर्च कहाँ से आएगा? घर का पूरा खर्च और मेरे बाहर रहकर पढ़ने का खर्च भाई साहब के कन्धों पर आएगा और अगर उससे गुज़ारा नहीं होता है तो पिताजी को कर्ज़ लेना पडेगा. लिहाजा मैंने तय किया कि नहीं, मैं कुछ भी करूँगा मगर सिविल इन्जीनियरिंग नहीं करूँगा. इसी समय मेरे दोस्त ब्रजराज सिंह के बड़े भाई शिवराज सिंह जी मेरे घर आये. वो पोलिटेक्निक कॉलेज में पढ़ाते थे. उन्होंने आकर मेरे पिताजी से कहा “हमारी कॉलेज में कई सीट्स खाली पडी हैं, जो मार्क्स महेंद्र के हैं उनके आधार पर आराम से उसका एडमिशन मेरे यहाँ हो सकता है.” ब्रजराज सिंह और मैं राजकीय प्राथमिक पाठशाला नंबर नौ में कक्षा चार से कक्षा नौ तक साथ ही पढ़े थे, उनका घर हमारे घर के सामने की तरफ था. मेरे पिताजी ने जवाब दिया “देखो शिवराज, मैं बच्चों पर ज़बरदस्ती कुछ लादने के पक्ष में नहीं हूँ, अगर वो पोलिटेक्निक में एडमिशन लेना चाहे तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन मैं उसपर ज़बरदस्ती नहीं कर सकता.” शिवराज सिंह जी ने मुझसे बात की तो मैंने उनके यहाँ एडमिशन लेने से इनकार कर दिया.
अब सवाल ये था कि मैं
आखिर करूं क्या? घर के सब लोगों का मानना था कि अगर मैं फर्स्ट ईयर टी डी सी में
बायो ग्रुप ले लूं तो सिर्फ गणित की जगह मुझे बायोलॉजी पढ़ना पडेगा, बाकी दोनों
विषय भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र तो मैं नौवीं से पढता ही आ रहा था. एक साल की
पढाई के बाद, पी एम् टी देकर मैं मेडिकल कॉलेज में एडमिशन ले सकूंगा और मैं भी भाई
साहब की तरह डॉक्टर बन जाऊंगा. सबसे पहला फायदा तो ये होगा कि मुझे पढ़ने के लिए
कहीं बाहर नहीं जाना पडेगा. दूसरा फायदा ये होगा कि भाई साहब की किताबें मेरे काम
आ जायेंगी और भाई साहब पढाई में मेरी मदद भी कर सकेंगे.
मेरा मन अभी भी संगीत में
अटका हुआ था. मैं चाहता था कि मैं संगीत के क्षेत्र में पढाई करूं मगर समस्या ये
थी कि उन दिनों लडकियां इंजीनियरिंग में नहीं जाती थीं और लड़कों के लिए बीकानेर
में किसी भी कॉलेज में संगीत पढ़ने की व्यवस्था नहीं थी. इस श्रृखला के नौवें
एपिसोड मैं मैंने विस्तार से वर्णन किया है कि संगीत की पढाई करने के लिए किस
प्रकार दुःसाहस करके मैं लड़कियों के कॉलेज में एडमिशन लेने जा पहुंचा था और वहाँ
की प्रिंसीपल और लेक्चरर ने मेरे प्रति सहानुभूति तो प्रकट की लेकिन मुझे एडमिशन
नहीं दे पाईं. बहुत सोच विचार के बाद मैंने सबकी राय मानकर कॉलेज में बायो ग्रुप
लेने का निर्णय लिया. अब गणित की जगह मुझे जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान विषय
पढ़ने थे. डूंगर कॉलेज में एडमिशन लिया और कक्षाएं लगने लगीं. मुझे जीव विज्ञान और
वनस्पति विज्ञान पढ़ने में ज़रा भी अच्छा नहीं लगता था खास तौर पर मेंढक का डिसेक्शन
करना मुझे कभी रुचिकर नहीं लगा.
जीवन बहुत नीरस हो चला
था. मुझे लग रहा था कि शायद मैं जीवन में कुछ नहीं कर पाऊंगा. आस पास के लोग जले
पर नमक छिडकने के लिए कहीं क्लर्क की कोई वैकेंसी की सूचना लाकर देते थे तो कभी
पिताजी को समझाते थे कि मुझे एस टी सी करवा दें या फिर पटवारी की ट्रेनिंग दिलवा
दें ताकि आने वाले जीवन में दो रोटी तो कमा कर खा सकूं. पिताजी सुनते सबकी थे मगर
मुझसे कुछ नहीं कहते थे. मन ही मन मुझे आभास हो रहा था कि उन्हें भी ये चिंता सता
रही है कि मेरा भविष्य क्या होगा? और शायद वो मुझसे नाराज़ भी हैं, इसी बीच एक ऐसी छोटी सी घटना हुई जिसने मेरे दिमाग से इस
गलतफहमी को निकाल दिया कि पिताजी मुझसे नाराज़ हैं. हुआ ये कि एक दिन ब्रजराज सिंह
के पिताजी नारायण सिंह जी आकर मेरे पिताजी के पास बैठे. मुझे उनके लिए चाय पानी
लेकर जाना ही था. जैसे ही मैं बैठक में पहुंचा, नारायण सिंह जी बोले “ लीजिए ये आ
गए आपके लाडले कँवर साब, मोदीजी..... आपका ये बेटा और मेरा ब्रजराज, ये दोनों तो बिलकुल
निकम्मे ही हैं. खा खा कर सांड हो रहे हैं और करने को कुछ नहीं. पढाई वढ़ाई इनके बस
की बात नहीं है, इन दोनों को मैं अपने गाँव ले जाता हूँ....... खेत में काम
करवाऊंगा तो सारी हीरोगिरी भूल जायेंगे.”
मैं चाय के ट्रे लिए खडा
सब सुन रहा था. मुझपर मानो किसी ने घडों पानी डाल दिया. मेरी समझ नहीं आ रहा था कि
मैं क्या करूं ? इस तरह से, इन कटु शब्दों में अपनी आलोचना मैंने कभी किसी के मुंह
से नहीं सुनी थी. हालांकि अभी इस से दो तीन दिन पहले ही ताऊ जी के एक बेटे यानि
मेरे एक भाई साहब ने मेरी माँ से कहा था “ काकी,
राजा(भाई साहब का घर का नाम) तो खैर पढ़ने में अच्छा निकल गया, डॉक्टर बन ही
जाएगा लेकिन महेंदर कुछ बनेगा तब जानेंगे हम लोग तो, देखना वो हम लोगों जैसा ही
रहेगा.” और आज नारायण सिंह जी मेरे पीछे हाथ धोकर पड गए हैं........ मैं असमंजस में वहाँ खडा हुआ ही था कि मैंने
पिताजी की गुस्से से तमतमाती हुई आवाज़ सुनी और मैंने देखा वो अपनी कुर्सी से उठ
खड़े हुए थे. उनका चेहरा गुस्से से लाल था. वो हाथ जोड़े हुए बोले “ माफ करें नारायण
सिंह जी, आप अपने बेटे को सांड कहें या ऊँट मुझे इस से कोई मतलब नहीं है लेकिन
खबरदार अगर मेरे बेटे के बारे में आगे एक शब्द भी बोला तो......... आपको शायद पता
नहीं कि इसका इंजीनियरिंग कॉलेज में आराम से एडमिशन हो रहा था और आपके बड़े कँवर
साहब अपने कॉलेज में दाखिला देने के लिए मेरे घर आये थे, लेकिन मैं अपने बच्चों को
बच्चे समझ कर व्यवहार करता हूँ आपकी तरह गुलाम समझ कर नहीं. मैं क्या जानता नहीं
कि आपने किस तरह ब्रजराज को अलवर से ये कहकर बुलाया कि शिवराज की शादी है और उस
बेचारे दसवीं में पढ़ रहे बच्चे की बन्दूक की नोक पर शादी कर दी........... आप क्या
समझते हैं? आपके ये बच्चे आपको माफ कर देंगे.....? आप गलतफहमी में हैं, एक दिन आएगा
जब ये बच्चे आपसे इतनी नफरत करेंगे कि आपका बुढापा नर्क बन जाएगा. अब आपके लिए
बेहतर ये होगा कि आप यहाँ से उठकर चले जाएँ और आइन्दा कभी मेरे घर की तरफ का रुख न
करे.”
मैं अवाक् रह गया. मैंने
पिताजी को इस तरह किसी से भी बोलते हुए नहीं सुना था. नारायण सिंह जी गुस्से से
मुंह मुंह में बडबडाते हुए उठे और घर से बाहर निकल गए. मैं पिताजी के सामने खडा
था, मैंने कहा “सॉरी”
उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर
बिठाया और कहा “सॉरी क्यों कह रहे हो? ऐसे लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना
चाहिए. देखो हर बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन सकता. इस दुनिया में और भी बहुत
काम हैं करने के लिए. तुम्हें जो भी फील्ड पसंद है, तुम उसे चुनो, मुझे कोई दिक्कत
नहीं है. ये दो रोटी कमाकर खाने की बात करने वाले भूल जाते हैं कि पेट भरने को दो
रोटी तो कुत्ते को भी मिल ही जाती है, मैं तो चाहता हूँ कि तुम जो भी फील्ड चुनो
उसमे कुछ ऐसा करो कि लोग तुम्हें जानें.”
इस घटना ने मुझे बहुत
सहारा दिया. मेरे मन में पल रहा एक तरह का काम्प्लेक्स मेरे दिनाग से निकल गया कि
मेरे पिताजी की नज़र में मैं एक नाकारा इंसान हूँ और वो मुझसे नाराज़ है. मैं पढाई
में जुट गया इस नीयत के साथ कि मैं पूरी ईमानदारी से पी एम् टी दूंगा और अगर चयन
हो जाता है तो इन सब लोगों को डॉक्टर बनकर दिखाऊंगा. विधाता ऊपर कहीं सातवें आसमान
पर बैठा मेरी बातें सुनकर ठहाका लगाकर हंस पड़ा था क्योंकि मेरे लिए उसने कुछ और ही
योजनाएं बना रखी थीं.
इस घटना के कुछ ही दिन बाद
एक रविवार को दिन में खाना खाकर बैठा अखबार देख रहा था कि किसी ने घर की कुंडी
खटखटाई. मैंने दरवाजा खोला तो देखा सामने मेरा सहपाठी और दोस्त मोहन प्रकाश शर्मा
खडा हुआ था. मैंने कहा “आओ” वो अंदर आते हुए बोला “तुम कपडे चेंज कर लो, ज़रा बाहर
चलेंगे”
मैंने उसे बैठने को कहा
और अंदर जाकर पांच मिनट में कपडे बदलकर आ गया. साइकिल की चाबी उठाते हुए कहा
“लेकिन हम चल कहाँ रहे हैं और कितनी देर में लौटेंगे ये तो बताओ, ताकि मैं घर में
बता सकूं.”
उसने मेरी बात का जवाब
देने की बजाय उलटा सवाल किया “ तुमने रेडियो सुना?”
मैंने कहा “हाँ रेडियो तो
हमेशा ही सुनता हूँ लेकिन तुम कहना क्या चाहते हो साफ़ साफ़ बताओ ना यार.”
“अच्छा.... तो तुम्हें
मालूम नहीं है...... ऐसा है रेडियो पर पिछले दो तीन दिन से एक अनाउंसमैंट हो रहा है कि
आकाशवाणी में नाटकों का एक स्वर परीक्षण होने वाला है.....अब तक ये स्वर परीक्षण
सिर्फ जयपुर में ही होता था, पहली बार बीकानेर में होने जा रहा है.”
मैं उसका मुंह देख रहा
था....... और सोच रहा था, अरे मैं तो इतने बरसों से आकाशवाणी के नाटकों को बिला
नागा सुनता आ रहा हूँ. नंदलाल जी, सुलतान सिंह जी, देवेन्द्र मल्होत्रा जी, ओम शिवपुरी
जी, सुधा शिवपुरी जी, लता गुप्ता जी,
असरानी जी, माया जी, मदन शर्मा जी ....... सारे नाम तो जुबानी याद हैं
मुझे. मैंने उससे कहा “तो तुम क्या चाहते हो”
वो बोला “देखो यार मेरे
एक रिश्ते के मामा जी आकाशवाणी, बीकानेर में अफसर हैं, उनका नाम श्री सुरेन्द्र
विजय शर्मा है. हम लोग उनके घर चलते हैं, मुझे इस स्वर परीक्षण का फॉर्म भरना है.
मेरे मामाजी हैं तो कुछ तो काम आयेंगे ही. मैं मन ही मन सोच रहा था कि आज तक कभी
सुना नहीं कि मोहन नाटक करता है या रेडियो पर नाटकों को सुनने का शौक़ीन है. ये
अचानक उस पर नाटक के स्वर परीक्षण का भूत कैसे सवार हो गया. फिर मैंने सोचा , हो
सकता है, ये भी नाटक का शौक़ीन हो. दरअसल हमारी कॉलेज की नयी नयी दोस्ती थी, स्कूल
में तो हम लोग साथ थे नहीं, इसलिए एक दूसरे के बारे में ज़्यादा नहीं जानते थे. मैं
चुपचाप तैयार होकर उसके साथ सायकिल उठा कर चल पड़ा.
रथखाने में मोहन के मामा
जी रहते थे. हम दोनों ने जाकर अपनी अपनी सायकिलें खडी कीं और दरवाज़े पर लगी घंटी
बजाई. दो ही मिनट बाद एक सुदर्शन व्यक्ति ने दरवाजा खोला. मोहन प्रणाम मामा जी
कहते हुए उनके पावों में झुका तो मैंने भी उसका अनुसरण किया. आशीर्वाद देते हुए वो
बोले “ आओ आओ मोहन अंदर आ जाओ.”
हम दोनों उनके ड्राइंग
रूम में बैठ गए, इतने में मामी जी पानी के ग्लास लेकर आ गईं. हम दोनों ने उनके भी
पाँव छुए और बैठ गए. मामाजी कुछ गुनगुना रहे थे जैसे कोई धुन बना रहे हों और मोहन
तथा मैं चुपचाप बैठे हुए थे. अचानक मामाजी ने गुनगुनाना बंद किया और कहा “हाँ
मोहन, घर में सब लोग ठीक हैं?”
“जी मामा जी, आप बहुत दिन
से घर नहीं आये.........और..... मुझे एक काम भी था आपसे.”
“क्या करें बेटा आजकल काम
बहुत है ऑफिस में. ऊपर से पहली बार यहाँ एक ऑडिशन भी होने वाला है नाटक का, तो उसकी
तैयारी में लगे हुए हैं हम लोग... खैर उसे छोडो.... तुम बताओ, भाइयों की दुकान के
सेठ जी के बेटे को हम कलाकारों से क्या काम पड गया?”
मोहन थोड़ा लड़ियाता हुआ सा
बोला “ मामाजी मुझे भी नाटक का स्वर परीक्षण देना है.”
मामाजी हँसे “ देखो बेटा
ये कोई आम परीक्षा नहीं होती जिसमे ३६ अंक लाकर पास हुआ जा सकता हो. ये एक
प्रोफेशनल परीक्षा है. इसके लिए हमारे जयपुर के डिरेक्टर अपनी टीम के साथ आ रहे
हैं.”
“लेकिन मुझे भी रेडियो
आर्टिस्ट बनना है”
“अच्छा तुम कल ऑफिस में
आकर फॉर्म भर दो.”
मैं अब तक खामोशी से
दोनों की बातचीत सुन रहा था कि मामा जी ने मोहन से एक सवाल किया “अच्छा मोहन तुम
रेडियो के नाटक सुनते हो?”
“जी कभी कभी”
“अच्छा नन्द लाल जी का
नाम सुना है?”
अब मोहन चुप. मामाजी को
लग गया कि मोहन नाटक सुनता वुनता कुछ नहीं, बस यूंही हांक दी है कि हाँ सुनता
हूँ.”
पता नहीं कैसे मेरे मुंह
से निकल गया “ जी मैंने नंदलाल जी के कई नाटक सुने हैं” और मैंने एक के बाद एक
उनके कई प्रसिद्ध नाटकों के नाम गिनवा दिए.
मामाजी ने आँखे बंद कर
लीं. मैं जैसे ही चुप हुआ, बोले “बेटा बोलते जाओ...... बोलते जाओ”
मैं एक दम सकपका गया.
मुझे लगा कि मैं बिना पूछे बीच में बोलने लगा, वो शायद उन्हें बुरा लगा. मैंने कहा
“जी सॉरी मुझे बीच में नहीं बोलना चाहिए था.”
वो हंसकर बोले “अरे नहीं
बेटा, मैं तो तुम्हारी आवाज़ का आनंद ले रहा था. बहुत दिनों बाद एक अच्छी आवाज़
सुनने को मिली है..... देखो बेटा अब सुनो ध्यान से मेरी बात.........”
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा
था कि ये सब क्या हो रहा है? क्या मेरी आवाज़ अच्छी आवाजों की श्रेणी में आती है?
आज तक तो किसी ने भी नहीं कही ये बात? मैं सहमा हुआ सा मामा जी की तरफ देख रहा था
कि वो फिर बोले “ये मोहन फॉर्म भरे या न भरे, तुम्हें स्वर परीक्षण का फॉर्म ज़रूर
भरना है.”
मैने कहा “जी”
मन ही मन मुझे लग रहा था
कि मोहन को ज़रूर बुरा लगा होगा कि मैं बीच में बोल पड़ा और मामा जी की पूरी तवज्जो
मेरी तरफ हो गयी. हम लोग प्रणाम कर वहाँ से चल पड़े. रास्ते में मैंने मोहन से माफी
मांगते हुए कहा “यार माफ कर देना वो नंदलाल जी के बारे में बात करने लगे तो मुझसे
चुप नहीं रहा गया क्योंकि वो मेरे सबसे प्रिय कलाकार हैं.”
मोहन भी बड़े दिलवाला
निकला. बोला “ कोई बात नहीं यार, फॉर्म तो हम दोनों भरेंगे, देखते हैं कौन पास
होता है कौन फेल.”
अगले ही दिन हम दोनों ने
ऑडिशन के फॉर्म भरे. ऑफिस में कलाकारों की भीड़ लगी हुई थी. बीकानेर के इतिहास में
पहली बार नाटक का ऑडिशन हो रहा था. उम्र की कोई पाबंदी थी नहीं, लिहाजा १७-१८ साल
से लेकर ७० साल का हर कलाकार फॉर्म भर रहा था.
फॉर्म तो भर दिया लेकिन
क्या तैयारी करनी है ये किससे पूछा जाय? क्योंकि जब ऑडिशन हो ही पहली बार रहा था
तो कोई अनुभवी कलाकार कहाँ से आता? एक दिन मोहन ने मुझे बताया कि वो मामाजी के घर
गया था और उनसे कुछ सीख कर आया है. मुझे उससे ये पूछना ठीक नहीं लगाकि उसने मामाजी
से क्या सीखा? फिर भी मुझे अंदर ही अंदर अपने पर थोड़ा विश्वास था कि जिस तरह की
एक्टिंग नंद्लाल जी करते हैं, मैं थोड़ी बहुत तो उसकी नक़ल कर ही सकता हूँ. दूसरे
मुझे थोडा भरोसा था अपने उच्चारणों पर जो उस्ताद जी से उर्दू सीखने की वजह से और
लोगों से बेहतर हो गए थे.
कुछ ही दिनों में ऑडिशन
का कॉल लैटर आ गया. मेरा बहुत मन हुआ कि एक बार अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करके सुनूं तो
सही लेकिन बहुत हाथ पैर मारने पर भी इसकी कोई व्यवस्था नहीं हो सकी क्योंकि सिवाय
रेडियो स्टेशन के टेप रिकॉर्डर कहाँ होते थे उन दिनों? आज की पीढ़ी को ये बात भी एक
अजूबा ही लगेगी कि मुझे अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करने के लिए कोई साधन नहीं मिला लेकिन
ज़रा सोचिये कहाँ से आता कोई साधन?कसेट रिकॉर्डर तो तब तक भारत में आया ही नहीं था.
बस १९६२ से सुने नाटकों
और खास तौर पर नन्द लाल जी की थोड़ी बहुत नक़ल करने की कूव्वत के बल पर जा पहुंचा
मैं ऑडिशन देने.
पहले मोहन का नंबर आया .
वो अंदर गया और दो मिनट बाद बाहर आ गया. कलाकारों का हुजूम उमड़ा हुआ था. कोई कह
रहा था ३०० लोग हैं तो कोई कह रहा था ५०० लोगों ने फॉर्म भरे हैं.चार पांच दिन तक
चलने वाला था ऑडिशन.
मुझे भी एक ७-८ पेज की
स्क्रिप्ट पकड़ा दी गयी थी जिसमे अलग अलग तरह के अलग अलग मूड के नाटक के ९-१० टुकड़े
थे.
थोड़ी ही देर में मेरा
बुलावा आ गया. मैं स्टूडियो में घुसा. एक अजीब सी सांय सांय की आवाज़ ने मेरा
स्वागत किया. पहली बार महसूस किया कि सन्नाटे की भी अपनी एक ध्वनि होती है. मेरी
कल्पना में ऑडिशन का जो स्वरुप था उसके अनुसार वहाँ ५-७ कलाकारों को होना चाहिए था
जिनके साथ मुझे नाटक करना था. लेकिन वहाँ
तो ऐसा कुछ नहीं था. स्टूडियो के बीचोबीच दो माइक खड़े हुए थे. मैंने अंदर घुसते ही
देखा उन में से एक के सामने मोहन के मामाजी खड़े हुए थे. मुझे देखते ही वो हलके से
मुस्कुराए. मेरा तनाव थोड़ा कम हुआ. तभी एक बड़े से स्पीकर पर एक गंभीर आवाज़ गूंजी
“अपने रोल नंबर बताइये और पहले पेज पर लिखे हुए शब्दों को पढ़िए......” मैं पढ़ गया.
उर्दू की जो जानकारी थी वो काम आयी, सारे शब्द पढ़ गया. अब एक रोमांटिक पीस था,
जिसमे मुझे पुरुष वाले डायलॉग बोलने थे और मामाजी स्त्री वाले डायलॉग बोल रहे थे.
मुझे जैसा समझ में आया मैं बोलता चला गया. मुझे नहीं पता कि मैं क्या बोल रहा था
कैसा बोल रहा था, लेकिन बीच बीच में मामाजी इशारे से मुझे शाबाशी दे रहे थे तो
मेरा उत्साह बढ़ता जा रहा था और मैं खूब खुलकर एक्टिंग करने की कोशिश कर रहा था.........पेज
पर पेज पूरे होते गए और फिर आया एक बहुत ही सीरियस पीस जिसमे एक पागल का चरित्र
मुझे करना था जिस पर लोग बहुत ज़ुल्म करते हैं. न जाने कैसे अचानक मेरी आँखों के
सामने सरदारशहर के कसाइयों के मोहल्ले में हलाल होते बकरों की चीख , कल्याण सिंह
की आधी गर्दन कटी लाश और कुर्ती के फटने पर रंजू के गले से निकली चीख आ गयी और
मुझे खुद पता नहीं, उन डायलॉग्स में मैं क्या कर गया कि जब वो पेज पूरा हुआ, मैंने
देखा, मेरा चेहरा पूरा आंसुओं में डूबा हुआ था और मोहन के मामाजी मुझे ताज्जुब से
घूरे जा रहे थे, मानो उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब मैं कर रहा था.........थैंक्स
कहा गया तो मैं बाहर आया और मामाजी ने आते आते हलके से मेरे कंधे को थपथपा
दिया......... इस ऑडिशन के कई दिन बाद जब मैं उनसे मिला था तो वो बोले “महेंद्र,
ऑडिशन वाले दिन मैं तो घबरा गया था, मुझे लगा तुम सचमुच पागल हो गए हो.”
मेरा ऑडिशन उस दिन के
ऑडिशंस में सबसे लंबा चला था. मैं जैसे ही बाहर आया, एक हाथ मेरे कंधे पर पड़ा.....
मैंने देखा एक लंबे से सज्जन मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुस्कुरा रहे हैं.... मैंने
सवालिया निगाह से उनकी तरफ देखा तो वो मुस्कुराते हुए बोले “मेरा नाम विश्वंभर नाथ
तिलक है. मैं आकाशवाणी जयपुर में प्रोग्राम एक्सिक्यूटिव हूँ. अभी आप ही अंदर थे
न?”
मैं मुंह बाए उन्हें देख
रहा था...... जल्दी से बोला “जी सर”
“अरे आप हैं तो बहुत छोटे
से लेकिन माशाल्लाह आपकी आवाज़ बहुत मैच्योर्ड आती है माइक पर”
मैं क्या कहता ? मैंने आज
तक अपनी आवाज़ सुनी ही कहाँ थी?
मैंने बस इतना सा कहा “जी
थैंक्स”
वो फिर प्यार से बोले
“नाम क्या है आपका ?”
“जी महेंद्र मोदी”
“देखिये महेंद्र जी, मैं
आपको बताना चाहता हूँ कि आपकी आवाज़ बहुत अच्छी है. उस कमरे में हमारे डिरेक्टर
मंजूरूल अमीन साहब बैठे हैं. उन्होंने आपके लिए एक सन्देश भिजवाया है.”
मैं तो जैसे सपना देख रहा
था. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जयपुर स्टेशन के डिरेक्टर ने मेरे लिए कोई
सन्देश भिजवाया है.....जी.... मेरे लिए .... जिसे नारायण सिंह जी ने बिलकुल नाकारा
करार देकर सांड के नाम से पुकारा था.
मैंने कहा “जी फरमाएं”
“उन्होंने कहा है कि आप
चाहें तो अनाउंसर की पोस्ट पर हम आपको लेना चाहेंगे” “जी.......जी........जी............”
मेरी कुच्छ समझ नहीं आया
कि मैं क्या जवाब दूं?
तभी वो बोले “ नहीं नहीं
आप घबराइए मत....... आराम से सोच लीजिए.... अपने माता पिता से भी सलाह कर लीजिए,
उसके बाद अगर आपका मन बनता हो तो जयपुर आकर ज्वाइन कर लीजिए. ये एक परमानेंट
पोस्टिंग होगी, आप चाहेंगे तो हम आपका ट्रांसफर बीकानेर कर देंगे.”
मैंने कहा “जी मुझे तो
......... अभी पढाई करनी है, अभी तो सिर्फ हायर सैकेंडरी पास हूँ”
“देखिये हमारे लिए इसमें
कोई प्रॉब्लम नहीं है क्योंकि इस पोस्ट के लिए ज़रूरी योग्यता सिर्फ दसवीं पास
है....... फिर भी आप सोच लीजिए..... अगर आप चाहें तो अगले सोमवार के बाद कभी भी
जयपुर आकर ड्यूटी ज्वाइन कर लीजिए.
मैंने उन्हें धन्यवाद
दिया और बाहर आ गया. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर ये सब हो क्या रहा है ? एक
तरफ मुझे किसी लायक नहीं समझा जा रहा और दूसरी तरफ मुझे आगे होकर हाथोंहाथ लिया जा
रहा है. हालांकि उस वक्त मैंने उन्हें ज्वाइन करने से मना कर दिया था और घर आकर जब
सबको बताया तो सबने यही कहा कि अभी नौकरी की क्या जल्दी है, अभी पढाई करो लेकिन
कहाँ पता था मुझे और कहाँ पता था मेरे घर के लोगों को कि विधि ने मुझे बनाया ही इस
काम के लिए है जिसे मैं अभी ठुकरा रहा हूँ और कहाँ पता था विश्वंभर नाथ जी को कि
मैं फिर उनके सामने आऊँगा और वो नहीं पहचान पायेंगे कि ये सामने खडा अधेड वही लड़का
है जिसे मैंने नौकरी ऑफर की थी.
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