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डी एस रेड्डी जी और महेंद्र भट्ट जी दोनों ही बहोत खुश थे क्योंकि मैं उनके संगीत विभाग की ज़्यादातर रिकॉर्डिंग्स करने लगा था. जब कभी कोई ख़ास रिकॉर्डिंग होती थी तो मन करता था कि इसमें थोड़ा सा एको डाला जाए. श्री चंद्रेश गोयल, श्री एस एन छाबला, श्री एम् पी श्रीवास्तव, श्री जी पी शर्मा, श्री ऋषि राम, श्री जगदीश गुप्ता जैसे सभी इंजीनियर साथी हालांकि हर तरह से मदद करने को तैयार रहते थे लेकिन हर बार उन्हें स्टूडियो के आउटपुट को कंट्रोलरूम में लेना पड़ता था और वहाँ से फिर वापस स्टूडियो में लाना पड़ता था. इस सबमें उन्हें काफी मशक्क़त करनी पड़ती थी. मशीनों पर काम करते करते मेरी मशीनों से काफी दोस्ती हो चुकी थी. मेरे दिमाग़ में आया कि क्यों न एक टेप रिकॉर्डर के आउटपुट को स्टूडियो में ही निकालकर वापस उसी में डाल दिया जाए. इससे जो डिले होगा उससे कुछ तो एको का प्रभाव रिकॉर्डिंग में आयेगा ही. बैल की मशीनों में ऊपर जहां लेवल बताने वाला मीटर लगा रहता था, उसके पास तीन बटन लगे रहते थे. बीच का बटन टोन के लिए होता था. इस टोन की मदद से मशीन की सैटिंग की जाती थी. ऊपर का बटन दबाने पर इनपुट सुनाई देता था और नीचे का बटन दबाने पर आउटपुट यानी रिकॉर्डिंग के बाद की ध्वनि सुनाई देती थी. मशीनों से छेड़छाड़ करने की, उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा समझने की आदत तो शुरू से ही रही, मैंने कुछ सोचा और इनपुट, आउटपुट दोनों बटन दबा दिए ताकि उस मशीन का आउटपुट उसके इनपुट में मिक्स हो जाए. मेरा प्रयोग सफल रहा. रिकॉर्डिंग में एको का प्रभाव आ गया था. बस जितना एको बढ़ाना हो मशीन पर लगे आउटपुट के फेडर को उतना ही ज़्यादा खोल दो. मेरी इस कारस्तानी पर किसी की नज़र ना पड़े इसके लिए मैं अपने रुमाल को तह करके मशीन पर कुछ इस तरह रख दिया करता था कि मशीन के ऊपर लगे तीनो बटन्स उसके नीचे छुप जाएँ और किसी को पता न चले कि मैंने दो बटन एक साथ दबा रखे हैं. एक अरसे तक मैं इस तकनीक को काम में लेता रहा. एक अरसे बाद एक इंजीनियर साथी कंट्रोल रूम से उठकर उस वक़्त स्टूडियो में आ गए जब मैं एक रिकॉर्डिंग कर रहा था. मैंने उनसे एको के लिए वो सारे इंतजाम करने के लिए कहा नहीं था, जो उन्हें कंट्रोल रूम में करने पड़ते थे. उन्होंने स्टूडियो में आकर देखा कि इसके बावजूद मेरी रिकॉर्डिंग में एको का प्रभाव था. उन्हें थोड़ा ताज्जुब हुआ. वो बोले, “ये एको दे रखा है आपने ?”
मैंने कहा, “ जी हाँ..........”
तभी उनका ध्यान मशीन पर
रखे मेरे रुमाल पर गया. कुछ लम्हे वो उसे ध्यान से देखते रहे फिर उन्होंने उसे हटाया
तो उन्हें दो बटन दबे हुए दिखाई दिए. वो मुस्कुराए और बोले, “अच्छा तो आप इस तरह
से एको का प्रभाव दे रहे हैं. “
मैंने कहा, “जी हाँ.”
उन इंजीनियर साहब से मेरी
अच्छी दोस्ती थी तो उन्होंने इस बात पर कोई हंगामा नहीं किया. हाँ अब तक जो तकनीक
मेरी सीक्रेट तकनीक थी, अब वो सीक्रेट नहीं रही. धीरे धीरे ये तकनीक आम हो गयी और
सभी इसका इस्तेमाल करने लगे.
कमर भाई स्पोकन वर्ड के
प्रोड्यूसर थे. लिहाजा सभी कवि, लेखक उनके पास ही आया करते थे. मैं कभी कभी कमर
भाई के कवियों, लेखकों, कहानीकारों वगैरह की रिकॉर्डिंग में उनका हाथ बंटा दिया
करता था. इसी दौरान मेरी पहचान श्री हरीश भादानी, श्री मोहम्मद सद्दीक, श्री
यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र जैसी हस्तियों से हुई. हालांकि ये सभी लोग उम्र में मुझसे
बहोत बड़े थे, फिर भी इनसे दोस्ती का एक ऐसा रिश्ता कायम हुआ जो तब तक चलता रहा जब
तक कि ये लोग इस दुनिया में रहे. श्री शूभू पटवा, श्री मनोहर चावला जैसे पत्रकारों
से भी मेरे रिश्ते इसी दौरान बने और मेरी खुशकिस्मती है कि वो रिश्ते आज भी बने
हुए हैं.
शहर में कोई साहित्यिक
अथवा सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था तो उसकी रिकॉर्डिंग और उसपर रेडियो रिपोर्ट
बनाने की ज़िम्मेदारी कमर भाई पर थी. मेरे बीकानेर ट्रान्सफर से पहले आम तौर पर कमर
भाई रिकॉर्डिंग के लिए किसी अनाउंसर को भेजा करते थे और उस रिकॉर्डिंग को लेकर
रेडियो रिपोर्ट खुद बनाया करते थे. मुझे उन्होंने पूछा कि क्या मैं शहर में जाकर
इस तरह की रिकॉर्डिंग करना चाहूंगा? मुझे तो रेडियो का ज़्यादा से ज़्यादा काम सीखना
था. मेरा जवाब हाँ में ही होना था. अब मैं रिकॉर्डिंग करके लाता.ज़ाहिर है,
प्रोग्राम के नैरेशन भी वो मेरी आवाज़ में रिकॉर्ड करते और उसके बाद रेडियो रिपोर्ट
बनाते. मैं उनके काम को गौर से देखता. बहो त साफ़ सुथरा काम किया करते थे वो. मैं
उन्हें उनके काम में असिस्ट करता. धीरे धीरे मैंने रेडियो रिपोर्ट्स बनाना सीख
लिया. निश्चित रूप से रेडियो के इस काम में मेरे गुरु कमर भाई ही रहे. एक वक़्त वो
भी आ गया जबकि एक टैण्डबर्ग अल्ट्रा पोर्टेबल रिकॉर्डर कमर भाई के कमरे में रखी एक
अलमारी में रहता था, जिसकी चाबी मेरे पास रहती थी. जब भी कोई रिकॉर्डिंग करने जाना
होता तो कमर भाई मुझे बता देते. मैं रिकॉर्डिंग करके ले आता और आकर अकेले दम पर
रेडियो रिपोर्ट बना कर कमर भाई को पकड़ा देता. शुरू शुरू में वो उसे पूरी सुना करते
थे उसके बाद प्रसारण के लिए दे देते थे. कुछ वक़्त गुजरने के बाद जब उन्हें यकीन हो गया कि
मुझे रेडियो रिपोर्ट बनाना अच्छी तरह आ गया है तो उन्होंने उसे सुनकर चैक करना बंद
कर दिया.
जैसा कि मैंने बताया, मेरे
बीकानेर आने से पहले रिकॉर्डिंग करके लाने का काम अनाउंसर लोग किया करते थे.
नैरेशन का काम भी अनाउंसर ही किया करते थे. अब ये सारे काम मुझे सौंपे जाने लगे तो
कुछ अनाउंसर्स को लगा कि उनकी दुकानदारी बंद हो रही है और उसकी वजह हूँ मैं. बस
यहाँ से शुरू हुआ मेरे खिलाफ अफ़सरों के कान भरने, मेरे खिलाफ साजिशें रचने का एक
दौर. इन साजिशों में जहां कुछ अनाउंसर मेन रोल अदा कर रहे थे वहीं उनका साथ दे रहे
थे एक एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर और कुछ क्लर्क लोग. ये लोग ऐसा करेंगे इसका अंदाजा
मुझे थोड़ा बहोत था ही क्योंकि जब मैं स्टाफ में नहीं आया था, एक ड्रामा आर्टिस्ट
था और भट्ट साहब ने अपने फीचर्स के नैरेशन मुझसे करवाए थे तो दिल जलने की बू मुझे
उसी वक़्त आ गयी थी.
आकाशवाणी में लोगों का न
जाने कब से ये मानना रहा था कि ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव का काम ड्यूटीरूम में
बैठकर ड्यूटी अफसरी करना भर है. प्रोग्राम तैयार करेंगे प्रोड्यूसर या प्रोग्राम
एग्जीक्यूटिव, जहां आवाज़ देने की बात आती थी तो उसके लिए किसी अनाउंसर को ही लिया
जाएगा. जबकि इसी ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव को आगे जाकर प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बनना
होता था. यानी लोग ये मानते थे कि लॉगबुक भरते भरते एक दिन जब वो प्रमोट होकर
प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बनता तो रातोंरात उसे प्रोग्राम बनाना आ जाता. होना तो ये
चाहिए था कि ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव रहने के दौरान इंसान प्रोग्राम बनाने की इतनी
ट्रेनिंग ले ले कि जब वो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बने तब तक उसमें बिना किसी की मदद
के कोई प्रोग्राम तैयार करने की कूव्वत पैदा हो जाए. यही वजह रही कि ये ट्रांसमिशन
एग्जीक्यूटिव आगे जाकर जब प्रमोट होकर प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बनते थे तो उनमें से
वो लोग तो कामयाब प्रोग्रामर बन जाते थे जो किसी तरह उखाड़ पछाड़ करके अपने
ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव काल में काम सीख जाते थे, बाकी लोग बस मैनेजमेंट ही कर
पाते थे प्रोग्राम नहीं. मैं तो रेडियो में आया ही प्रोग्राम्स करने था. प्रोग्राम
करना कैसे छोड़ देता.
धीरे धीरे आकाशवाणी,
बीकानेर का एक हिस्सा पूरी तरह मेरे खिलाफ हो गया. जब तक भट्ट साहब का अम्बिकापुर ट्रान्सफर
नहीं हुआ तब तक वो और कमर भाई मेरी इस लड़ाई में हमेशा मेरे साथ खड़े रहे. भट्ट साहब
के जाने के बाद श्री भीमराज शर्मा उनके स्थान पर आये तथा एक और प्रोग्राम
एग्जीक्यूटिव श्री एस बी खरे ने भी आकाशवाणी बीकानेर ज्वाइन कर लिया. भीमराज जी मन
से तो मेरे साथ थे, हर काम में मेरी मदद लेते थे, लेकिन हम जानते हैं ,हर इंसान एक
जैसा तो होता नहीं, वो खुलकर मेरे पीछे खड़ा होने से बचते थे. खरे साहब सबसे दोस्ती
निभाने में यकीन रखने वाले इंसान थे. उनका खुद का कोई दुश्मन भी अगर उनके सामने
आकर झोली फैला देता तो वो महर्षि दधीचि की तरह अपनी हड्डियां उसे समर्पित कर देते.
ऐसे में अफ़सरों में सिर्फ कमर भाई ऐसे थे जो हर अच्छे बुरे में मेरा साथ देने के
लिए तैयार रहते थे.
कमर भाई मुझसे उम्र में
काफी बड़े हैं मगर जब मैं १९७७ में ट्रान्सफर होकर बीकानेर पहुंचा, तब भी कुआँरे घूम
रहे थे. सादुल कॉलोनी में एक किराए का घर ले रखा था, जिसमें वो बहोत सलीके से रहते
थे. उनके घर को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि ये किसी छड़े का घर है. सूट बूट पहन
कर वो जब अपने बजाज स्कूटर पर घर से निकलते थे तो हर तरफ से निगाहें उनपर उठ जाती
थीं. खाना बनाने की ज़हमत वो नहीं कर पाते थे. लिहाजा लंच और डिनर उनका बाहर ही
होता था. मैं अक्सर उन्हें कहा करता था, “भाई जान अब शादी कर लीजिये. कम से कम इस
बाहर के खाने से तो निजात मिले. ये बाहर का खाना खा खा कर क्यों अपनी सेहत बर्बाद
करने पर तुले हैं?”
वो भी अक्सर कुछ लिफ़ाफ़े
खोलते और उनमें से कुछ फोटोग्राफ निकालते और कहते, “देखो महेन ये फोटो आये हैं
लड़कियों के. घरवालों ने भेजे हैं.”
“ तो कर दीजिये न इनमे से
ही किसी को फाइनल.”
वो हंस कर बोलते,“ अरे
नहीं यार, पूरी ज़िंदगी का सवाल है, ऐसे कैसे फाइनल कर दूं? और उन फोटोज़ को देखकर
हर एक में कोई न कोई कमी निकालकर सबको रिजेक्ट कर देते. मैं हर बार उनसे कहता,
“भाई जान जल्दी कीजिये, वक़्त बहोत तेज़ी से गुज़र रहा है. आप शादी करने में इतना
वक़्त लगा रहे हैं, और दो चार साल निकल गए तो बहोत गड़बड़ हो जायेगी. शादी के बाद कुछ
साल आपके बच्चे पैदा होने में लग जायेंगे अगर पहली लड़की पैदा हो गयी तो रिटायरमेंट
तक तो आप उसका जहेज़ ही जुटा रहे होंगे. उसके बाद मान लीजिये दो लड़के पैदा हुए तो
आपके रिटायरमेंट तक वो लड़के दसवीं बारहवीं में पढ़ रहे होंगे और उनकी शादियों में
आप पचहत्तर की उम्र को छू रहे होंगे. ज़रा सोचिये, पचहत्तर की उम्र में अपने बेटे की
शादी में नाचते हुए कैसे लगेंगे ?” ऐसे में वो डांटकर मुझे चुप करा दिया करते थे.
लेकिन मैं ग़लत नहीं था. हुआ
भी कुछ ऐसा ही. बेटी तो खैर ऊपर वाले ने उन्हें नहीं दी लेकिन उनके दो बेटे हुए,
फ़राज़ और फहाद. इस वक़्त जब मैं ये लाइनें लिख रहा हूँ, कमर भाई अपने छोटे बेटे की
बरात अपने घर पिपरिया से मुम्बई लाने की तैयारी कर रहे हैं. कल यानी १० नवम्बर, २०१७
को फहाद का निकाह है और सचमुच उनकी उम्र पचहत्तर को छू रही है.
हमारे साथ एक ट्रांसमिशन
एग्जीक्यूटिव थी कुमारी संतोष शर्मा. वो कुछ दिन जोधपुर में भी हम लोगों के साथ
काम कर चुकी थीं और उसके बाद बीकानेर आ गयी थीं जबकि हम दोनों सवा साल उदयपुर रहकर
बीकानेर आये थे. बच्चों की तरह सीधी सादी, लिखने पढ़ने वाली, बहोत मुहज्ज़ब ख़ानदान
की संतोष जी हमेशा मुस्कुराती रहती थीं. बड़ी से बड़ी बात को हल्की सी हंसी में उड़ा
देना उनकी खासियत थी. आजकल तो इस बात को बहोत सीरियसली नहीं लिया जाता कि कोई
ट्रांसमिशन से जुड़ा इंसान चाहे वो ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव हो, इंजिनीयर हो या फिर
एनाउंसर, अपनी ड्यूटी के दौरान स्टूडियो परिसर में है या नहीं है, लेकिन हम लोगों
को तो आकाशवाणी ज्वाइन करते ही जो पहली बात सिखाई गयी वो यही थी कि चाहे आसमान टूट
पड़े, आपको अपना ड्यूटी प्लेस नहीं छोड़ना है. जब ट्रांसमिशन सागर रोड़ पर बने
ट्रांसमीटर के इमरजेंसी स्टूडियो से होता था तो सुबह स्टाफ कार घर लेने आती थी
लेकिन कभी कभी कार का ब्रेक डाउन हो जाता या ड्राइवर बीमार हो जाता तो ये हम लोगों
की ज़िम्मेदारी होती थी कि कैसे भी करके छः किलोमीटर दूर बने ट्रांसमीटर, ट्रांसमिशन
शुरू होने से पहले पहुंचें .
सर्दी के मौसम में ये ऐसा
मुश्किल काम होता था कि बीकानेर की ज़बरदस्त ठण्ड में रज़ाई से बाहर निकलकर स्कूटर
पर बैठ कर जाने का क़तई दिल नहीं करता था. उस वक़्त लगता था, बस रजाई में मुंह डालकर
सो जाएँ. ऐसा रोज़ रोज़ नहीं होता था, कभी कभार ही होता था, लेकिन जब भी होता था,
पूरे ऑफिस में हंगामा मच जाया करता था. एकाध बार मुझे भी ऐसे हादसे से रूबरू होना पड़ा
लेकिन कुछ गड़बड़ नहीं हुई क्योंकि रजाई में मुंह डालकर सो जाने की अपनी ख्वाहिश को
मैंने पूरी तरह कुचल दिया और अपने आप को चारों तरफ से भारी भरकम कपड़ों में लपेटकर
स्कूटर से वक़्त पर पहुँच गया. एक बार जब संतोष जी की ड्यूटी थी, कार का ब्रेक डाउन
हो गया, कार उन्हें लेने नहीं पहुँची. उन्होंने कोई हड़बड़ी नहीं की और आराम से दिन
निकल जाने दिया उसके बाद ट्रांसमीटर पहुँचीं. तब तक ड्यूटी पर लगे अनाउंसर ने
अफ़सरों को फोन करके इस बात की इत्तेला दे दी कि ड्यूटी ऑफिसर ड्यूटी पर नहीं
पहुँची हैं. चारों तरफ हंगामा मच गया, लेकिन संतोष जी ने उस सारे हंगामे को ज़रा सी
हंसी में उड़ा दिया.
उनके बड़े भाई ज्ञान प्रकाश
शर्मा जी रेलवे में काम करते थे और अक्सर संतोष जी को छोड़ने ऑफिस आया करते थे. जब
भी आते तो मेरी भी उनसे मुलाक़ात हो जाया करती थी. एक रोज़ जब मैं ऑफिस में ही था,
ज्ञान भाई साहब संतोष जी को छोड़ने आये. मुझसे बोले, “आपसे एक बात करनी थी. क्या
पांच मिनट का वक़्त है आपके पास ?”
मैंने कहा, “जी भाई साहब
फरमाइए..........”
“ दरअसल संतोष की शादी की
बात चल रही है. लड़का एम ई एस में इंजीनियर है.”
“ जी ये तो बहोत अच्छी बात
है, मेरे लायक सेवा हो तो बताइये.”
“ वो लड़का आपका दोस्त है,
ऐसा मैंने सुना है. आप संतोष के साथ इतने वक़्त से काम कर रहे हैं, ये हमारी बहना
कितनी भोली भाली है, आपसे कुछ छुपा नहीं है. मैं चाहता हूँ कि आप उस लड़के के बारे
में अपनी राय दें और बताएं कि क्या ये जोड़ी ठीक रहेगी ?”
मैं समझ गया कि ज्ञान भाई
साहब श्री सतीश शर्मा की बात कर रहे हैं क्योंकि एम् ई एस में मेरे वो एकमात्र
दोस्त थे. मैंने एक लम्हे सोचकर कहा, “भाई साहब आप सतीश जी की बात कर रहे हैं न ?”
“ हाँ महेंद्र जी......
सही समझा आपने. अब अपनी राय भी दें.”
“ जी भाई साहब, जितना मैं
सतीश जी को जानता हूँ, बहोत अच्छे और नेक इंसान हैं लेकिन संतोष जी की तरह भोले
भाले नहीं, तेज़ दिमाग़ और महत्त्वाकांक्षी हैं. जोड़ी मेरे ख़याल से अच्छी रहेगी.”
“ धन्यवाद महेंद्र जी,
आपकी बेशकीमती राय के लिए.”
भाई साहब चले गए. उसी दिन
संतोष जी ने भी सतीश जी से रिश्ते को लेकर मुझसे बात की. मैंने जो बात ज्ञान भाई
साहब को कही वही बात संतोष जी को भी कह दी. थोड़े ही दिनों बाद संतोष जी और सतीश जी
की धूमधाम से शादी हो गयी. बहोत खुश थीं संतोष जी शादी के बाद. एक दिन ड्यूटीरूम
में पहुंचा तो देखा कटे बालों वाली एक महिला ड्यूटीरूम में खड़ी हैं. मेरी तरफ उनकी
पीठ थी इसलिए मैं पहचान नहीं पाया कि आखिर ये लेडी कौन है क्योंकि मेरे हिसाब से
उस वक़्त संतोष जी को ड्यूटी पर होना चाहिए था. तभी उन्होंने गर्दन घुमाई और मैं
हैरान रह गया. अरे...... ये तो संतोष जी ही हैं !!!!!!
मैंने कहा, “ अरे संतोष जी,
ये तो आपने अच्छा सरप्राइज़ दे दिया........इतने लम्बे बाल थे आपके, ये...ये क्या
किया आपने ? आपने अपने बालों को क्यों कटवा लिया ?”
हमेशा की तरह मुस्कराहट
उनके चेहरे पर खिल गयी लेकिन..... लेकिन होठों पर मुस्कराहट के साथ ही उनकी आँखें
भर आईं. मुझे समझ नहीं आया कि मैं होठों पर आई मुस्कराहट को सही मानूं या कि आँखों
में भर आये आंसुओं को ? मैंने कहा, “अरे संतोष जी आखिर बात क्या हुई है? आप परेशान
क्यों हो रही हैं ?”
संतोष जी ने दोनों हाथों
से अपने चेहरे को ढांप लिया. अब मेरी आँखों के सामने न उनकी मुस्कराहट थी और न ही
उनके आंसू. बस कुछ हल्की हल्की सिसकियाँ मेरे कानों तक पहुँची. कुछ लम्हे इसी तरह
गुज़र गए. फिर उन्होंने अपने आंसुओं को पोंछा और मुस्कुराते हुए बोलीं, “कुछ नहीं
मोदी जी, बचपन से माता पिता ने जिस तरह का जीवन जीना सिखाया, उसी तरह जी रही थी.
बिलकुल सादा पहनावा, सादा रहन सहन. अब आपके दोस्त का कहना है कि आर्मी के लोगों
में उठना बैठना होता है, इसलिए मुझे अपना
जीने का ढंग थोड़ा बदलना होगा. बाल कटवाना उस बदलाव की पहली सीढ़ी है. उन्होंने कहा,
कटवा लो, मैंने कटवा लिए. आप बताइये, क्या कुछ ग़लत किया मैंने ?”
“अरे नहीं, बिलकुल ग़लत नहीं
किया आपने. स्त्री एक ही जीवन में कई जीवन जीती है संतोष जी. पहला जीवन माता पिता
के घर बीतता है, उसका दूसरा जन्म तब होता है जब उसकी शादी होती है. उसे सास ससुर
और अपने पति के दृष्टिकोण से जीवन को देखना होता है और उसका जीवन तब फिर एक बार
नया रूप लेता है जब वो माँ बनती है. अभी आपकी शादी हुई है, अब आगे का जीवन तो आपको
अपने नए परिवार के हिसाब से ही जीना है.”
थोड़े दिन तक ऑफिस में हर
इंसान ने संतोष जी को टोका, धीरे धीरे सबकी आदत पड़ गयी उन्हें बॉब्ड हेयर में
देखने की. वो खुद भी कुछ रोज़ तक इस तरह से रहीं मानों बाल कटवा कर कोई गलती कर दी
हो लेकिन संतोष जी तो आखिर संतोष जी ही थीं. मुस्कराहट फिर से उनके चेहरे पर खिलने
लगी और वो बिलकुल नॉर्मल हो गईं.
यहाँ तक तो सब कुछ ठीक था,
मगर सतीश शर्मा जी तो रेडियो में काम करते नहीं थे, इसलिए रेडियो के रिवाज-रवायतें,
कायदे-क़ानून कुछ भी नहीं जानते थे. नई नई शादी हुई थी. लोग डिनर पर बुलाते थे. जिस
दिन संतोष जी की शाम की ड्यूटी होती थी, उस दिन के डिनर का दावतनामा भी कुबूल कर
लेते थे और शाम को आ पहुँचते थे ऑफिस,
संतोष जी को डिनर पर ले जाने के लिए. संतोष जी खुद भी हालांकि इस मामले में बिंदास
थीं, फिर भी धर्मसंकट में पड़ जातीं. एक तरफ आकाशवाणी के सख्त क़ानून कायदे थे तो
दूसरी तरफ नई नई शादी होने की वजह से मना करना मुश्किल. साथ के लोगों ने भी उनकी
शिकायत नहीं की मगर एक तरह की खुसर पुसर दफ्तर के गलियारों में होने लगी. जब मेरे
कानों तक ये बात पहुँची तो मैंने उन्हें समझाया, “ संतोष जी ऐसा मत किया कीजिये.
ये कुर्सी ऐसी है कि आप कई मुसीबतों से बच सकती हैं अगर आकाशवाणी परिसर को न छोड़ें.
अगर आप अपनी ड्यूटी के दौरान और ख़ास तौर पर ट्रांसमिशन के दौरान आकाशवाणी से बाहर
जाती हैं तो कभी भी बहोत बड़ी मुसीबत में फँस सकती हैं.” लेकिन न वो मानीं और न ही
सतीश जी. आगे जाकर वो इसी वजह से एक बार बहोत बड़ी मुसीबत में फंसते फंसते बचीं,
लेकिन वो बात आगे चलकर करूंगा.
मैं रेड्डी जी के साथ रहकर
संगीत की रिकॉर्डिंग सीख रहा था, कमर भाई और भट्ट साहब के साथ रहकर फीचर्स और
रेडियो रिपोर्ट्स बनाना सीख रहा था. हालांकि जोधपुर में रहा तो ज्वाला प्रसाद जी,
सुबोध निगम, मुकुट जी, अरविन्द माथुर वगैरह के साथ उनके नाटकों में रोल तो किये थे
लेकिन कभी नाटक खुद तैयार करने का मौक़ा नहीं मिला था. यहाँ कोई नाटक का ऐसा जानकार
था भी नहीं जिससे मैं नाटक प्रोड्यूस करना सीख सकता. एक दिन ड्यूटीरूम में बैठा
हुआ था . मेरी ड्यूटी ख़त्म होने वाली थी. मेरे बाद संतोष जी की ड्यूटी थी. वो आईं
तो उनके हाथ में कुछ कागज़ थे. मैंने वैसे ही पूछ लिया, “संतोष जी, कुछ लिखा है
क्या ?”
वो अपनी हमेशा की आदत के
अनुसार मुस्कुराते हुए बोलीं, “जी हाँ मोदी जी, एक नाटक लिखने की कोशिश की है.”
नाटक का नाम सुनते ही मेरी
आँखों में भी चमक आ गयी क्योंकि मैं भी बहोत वक़्त से सोच रहा था कि रेडियो पर नाटक
तैयार करने की शुरुआत की जाए. जहां तक सीखने का सवाल था, तो कौन सा तांगा चलाना
किसी से सीखा था, या मोटर साइकिल चलानी किसी से सीखी थी या बैंजो, हारमोनियम वगैरह
बजाना किसी से सीखा था? ये सब अपने आप ही तो कोशिश करके सीखा, तो क्यों न नाटक भी
खुद ही प्रोड्यूस करने की कोशिश की जाए?
मैंने कहा, “क्या आप मुझे पढ़ने
को देंगी एक बार ?”
“जी हाँ, लेकिन एक शर्त पर.”
“वो शर्त क्या है ये भी
बता दीजिये.”
“अगर आपको नाटक पसंद आये
तो इसे रिकॉर्ड करते हैं. भट्ट साहब से इजाज़त लेने की ज़िम्मेदारी आपकी.”
“जी मंज़ूर है. लाइए
स्क्रिप्ट दीजिये.”
मैंने नाटक की स्क्रिप्ट
ली और स्टूडियो में जाकर उसे पढ़ा. मुझे लगा, इसे प्रसारित किया जा सकता है. इतने
बरसों से रेडियो पर ड्रामा सुनता आ रहा था. किस तरह से साउंड इफेक्ट्स दिए जाते
हैं और किन किन जगहों पर म्यूज़िक इफेक्ट्स दिए जा सकते हैं इसकी एक तस्वीर बनने
लगी थी दिमाग़ में. मैंने बाहर आकर संतोष जी से कहा, “आकाशवाणी, बीकानेर का ये पहला
ड्रामा हम लोग ज़रूर करेंगे. आपने बहोत अच्छा लिखा है, अब कोशिश ये रहेगी कि ये प्रोड्यूस
भी उतना ही अच्छा हो.”
मैं और संतोष जी पहले कमर
भाई के पास गए. उन्हें स्क्रिप्ट पढ़कर सुनाई गयी. उन्हें भी स्क्रिप्ट पसंद आई.
इसके बाद हम पहुंचे भट्ट साहब के पास. उन्हें बताया कि संतोष जी ने नाटक लिखा है
और हम लोग चाहते हैं इसे तैयार करके प्रसारित किया जाए. उस वक़्त तक आकाशवाणी,
बीकानेर सारे नाटक जयपुर से ही रिले करता था. भट्ट साहब बोले, “ये तो बहोत अच्छी
बात है कि आप लोग नाटक करना चाहते हैं लेकिन हमारे पास नाटक का तो कोई चंक ही नहीं
है. नाटक तो सारे जयपुर से रिले करते हैं हम लोग. हाँ आप लोग चाहें तो इसे युववाणी
में प्रसारित किया जा सकता है.”
मैंने और संतोष जी ने एक दूसरे
की तरफ देखा. हम ये तो उम्मीद भी नहीं कर रहे थे कि ये नाटक राजस्थान के सारे
स्टेशंस से प्रसारित होगा. फिर चाहे किसी और चंक में हो या युववाणी में क्या फर्क
पड़ता है ? मैंने कहा, “हाँ सर, युववाणी में ही प्रसारित कर देंगे इसे.”
“ठीक है आप लोग रिकॉर्ड
कीजिये. जैसी ड्यूटी चाहिए आप लोग बता दीजिये. आर्टिस्ट्स तो आपको स्टाफ में से ही
लेने होंगे क्योंकि हमारे पास स्टाफ से बाहर तो ज़्यादा आर्टिस्ट्स हैं नहीं.”
हम वहाँ से खुश खुश उठकर आ
गए और आकाशवाणी बीकानेर के पहले नाटक को रिकॉर्ड करने की तैयारियां करने लगे. ये
खबर जैसे ही ऑफिस में चारों तरफ फैली, कई लोग जो अपने आपको प्रसारण के धुरंधर
समझते थे लेकिन अपनी इतनी लम्बी नौकरी में एक भी नाटक नहीं कर पाए थे, उनके ऊपर से
लेकर नीचे तक आग लग गयी. आर्टिस्ट्स फाइनल करके हमने नाटक रिकॉर्ड किया. म्यूज़िक
इफेक्ट्स के नाम पर हमारे पास आकाशवाणी वाद्यवृन्द के कुछ टेप्स थे या फिर फ़िल्मी
गानों के इंट्रो म्यूजिक के निकाले हुए कुछ टुकड़े थे. जब नाटक की मिक्सिंग करने
बैठे तो देखा कि फ़िल्मी गानों के इंट्रो और इन्टरल्यूड म्यूज़िक तो बहोत ब्राइट थे
जबकि आकाशवाणी वाद्यवृन्द की रिकॉर्डिंग में उतनी ब्राइटनैस नहीं थी. आखिर आकाशवाणी
बीकानेर के उस पहले नाटक में हमने फ़िल्मी गानों के रिकार्ड्स में से ही ढूंढ ढूंढ
कर निकाले गए टुकड़े लगाए. इस तरह २२-२३ मिनट का वो नाटक तैयार हुआ. नाटक प्रसारित
भी हुआ और सुननेवालों ने इसकी तारीफ़ भी की लेकिन इसके बाद हम दोनों के खिलाफ होने वाली साजिशें और बढ़ गईं.
आये दिन मेरे स्कूटर के दोनों पहिये पंक्चर होने लगे........ आये दिन हमारे चैक
किये हुए ट्रांसमिशन मैटेरियल में से टेप्स गायब होने लगे.........और भी जाने
कितनी तरह की बद्तमीज़ियाँ वो लोग करने लगे जिन्हें मेरे प्रोग्राम से जुड़े होने पर
एतराज़ था.
उसी समय सुनने में आया कि
दिल्ली से किसी असिस्टेंट डायेक्टर की पोस्टिंग हुई है आकाशवाणी बीकानेर पर. इससे
पहले जो सबसे सीनियर प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव होता था, वही प्रोग्राम हैड होता था
आकाशवाणी बीकानेर का. मुझे लगा अब तो शायद दिन बहुरेंगे इस स्टेशन के. थोड़े ही
दिनों बाद एक संभ्रांत महिला आ पहुँचीं और बताया कि उनका नाम एम् एस रुग्मिनी है
और वो असिस्टेंट डायरेक्टर की पोस्ट पर ज्वाइन करने आई हैं. रुग्मिनी मैडम यू पी एस
सी से असिस्टेंट डायरेक्टर सलैक्ट होने से पहले मलयालम भाषा की न्यूज़ रीडर थीं.
बरसों से रेडियो में थीं, इसलिए रेडियो के पूरे सिस्टम को अच्छी तरह जानती थीं.
कौन कहाँ क्या कर रहा है और कौन क्या कह रहा है, कुछ दिन तक उन्होंने इस पर चुपचाप
अपनी पैनी निगाहें रखीं और उन्हें समझ आ गया कि इस स्टेशन पर एक ए ओ और एकाध
एनाउंसर की लीडरी में कुछ ऐसे लोगों ने ग्रुप बना रखा है जो सबके सब बीकानेर के ही
रहने वाले हैं और उन्हें पता है कि उन्हें बीकानेर से बाहर नहीं जाना है. इसलिए जो
बीकानेर से बाहर से आया है, या तो इस ग्रुप की हर जायज़, नाजायज़ बात को स्वीकार करे,
वरना उसे वो सब लोग मिलकर तंग करेंगे. मैं हालांकि बीकानेर का रहने वाला हूँ,
लेकिन मुझसे इस ग्रुप के लोग खफा थे क्योंकि उनमें से कुछ की दुकानदारी मेरी वजह
से बंद हो गयी थी और मैं उन लोगों में से नहीं था जो जिंदगी भर बीकानेर में रहने के
ख्वाहिशमंद हों . उन लोगों में से कुछ ऐसे भी थे जिनसे मेरी थोड़ी पटरी बैठती थी.
वो मुझसे कहते, “मोदी जी क्यों पंगे लेते हो इन लोगों से ? आप भी तो बीकानेर के ही
हो!!!”
मैं कहता, “हाँ बीकानेर का
हूँ, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि जो बाहर से आये हैं उन्हें अपना दुश्मन मानूं .
हर जायज़ बात में मैं आप लोगों के साथ हूँ लेकिन ये ग़लत बात है कि हर बाहर से आने
वाला इंसान हमारे सामने झुक कर रहे क्योंकि हम बीकानेर के हैं. अरे आकाशवाणी की
नौकरी है, आज यहाँ पोस्टिंग है तो कल कहीं और भी पोस्टिंग होगी. इस पोस्ट पर नहीं
तो प्रमोशन के बाद प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बनूंगा तो देश के किसी भी हिस्से में
मेरी पोस्टिंग हो सकती है. आज ऐसा बर्ताव मैं बाहर से आये लोगों के साथ करूंगा तो
कल जब कहीं बाहर जाऊंगा तो वैसा ही बर्ताव मेरे साथ होगा. नहीं मैं इस मामले में
आप लोगों के साथ नहीं हूँ.”
आकाशवाणी बीकानेर से एक साप्ताहिक
प्रोग्राम होता था, ‘बीकानेर दर्पण’ . इस प्रोग्राम में बीकानेर में उस हफ्ते में
जो भी गतिविधियाँ होती थीं, उन सब गतिविधियों की वहाँ जाकर रिकॉर्डिंग की जाती थी
और उन रिकॉर्डिंग्स को लेकर एक न्यूज़ रील बनाई जाती थी. एक अनाउंसर महोदय इस
प्रोग्राम को तैयार किया करते थे. रुग्मिनी मैडम ने आने के कुछ ही हफ्ते बाद एक
ऑर्डर निकाला जिसके अनुसार ‘बीकानेर दर्पण’ अब मुझे सौंपा गया था. पूरे दफ्तर में
हंगामा मच गया क्योंकि आउटडोर रिकॉर्डिंग के ज़्यादातर प्रोग्राम पहले से ही मैं कर
रहा था. अब एक ये बचा हुआ प्रोग्राम भी मुझे दे दिया गया था. बस वो पूरा ग्रुप हम
दोनों और कमर भाई के खिलाफ तो था ही, अब रुग्मिनी मैडम के पीछे भी हाथ धोकर पड़
गया. मैडम अपने पति को तलाक़ दे चुकी थीं. उनके एक छोटा सा बेटा था, जिसके साथ वो
एक किराए का मकान लेकर रहती थीं. आये दिन रात में उनके घर पत्थर फेंके जाते,
उन्हें डराने के लिए कई नाटक किये जाते, लेकिन बहादुर औरत थीं वो, इन सारी
कारस्तानियों का मुकाबला करती रहीं और अपना काम करती रहीं. इधर काम का बोझ मुझपर
बढ़ता ही जा रहा था. ट्रांसमिशन ड्यूटीज़ करता था. म्यूज़िक की रिकॉर्डिंग्स करता था.
सारी आउटडोर रिकॉर्डिंग्स करता था. बीकानेर दर्पण करता था. रेडियो रिपोर्ट्स बनाता
था. गाहे बगाहे नाटक भी करता था. कमर भाई के सेक्शन में होने वाली रिकॉर्डिंग भी
करता था. खरे साहब जैसे लोग कोई काम सौंप देते थे तो उन्हें भी इनकार नहीं करता
था.
15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे
दिन तो ऐसे होते थे मेरे लिए कि 24 घंटे में से 22 घंटे काम करना होता था. सुबह
जल्दी उठकर ६ बजे दफ्तर पहुंचता. रिकॉर्डिंग टीम के साथ स्टेडियम पहुंचता जहां मुख्य
समारोह होता था. ढाई तीन घंटे की उस रिकॉर्डिंग के बाद स्टूडियो में आकर कमर भाई
के साथ मिलकर एडिटिंग में जुट जाता. अपने स्टेशन से प्रसारित होने वाली रेडियो
रिपोर्ट के लिए एडिटिंग करके रखता और जयपुर की विशेष न्यूज़ रील के लिए कैप्सूल बना
कर रखता. उसके बाद स्काउट गाइड रैली की रिकॉर्डिंग के लिए निकल पड़ता. वो
रिकॉर्डिंग लाकर उसकी एडिटिंग मैं और कमर भाई किया करते. अब हमारे स्टेशन के
संवाददाता श्री शूभू पटवा आ जाते. आकाशवाणी दिल्ली और आकाशवाणी दिल्ली के लिए उनका
वॉयस कट रिकॉर्ड करता और एडिट किये हुए टुकड़ों को लेकर मैं और कमर भाई रेडियो
रिपोर्ट बनाने में जुट जाते. उसी बीच में आकाशवाणी जयपुर से कॉल आ जाता, कैप्सूल
फीड करता, शूभू जी के वॉयस कट जयपुर और दिल्ली को फीड करता. फिर रेडियो रिपोर्ट
में जुट जाता. रेडियो रिपोर्ट के प्रसारण समय से दस बीस मिनट पहले तक ही रेडियो
रिपोर्ट तैयार होती थी क्योंकि बीच बीच में कई काम करने पड़ते थे. रेडियो रिपोर्ट
ड्यूटीरूम में बैठकर ही सुननी होती थी, घर जाने का मौक़ा नहीं होता था क्योंकि
बीकानेर की एक बहुत पुरानी रवायत रही थी कि हर स्वतन्त्रता दिवस और गणतंत्र दिवस
को रात में एक लंबा मिला-जुला कवि सम्मलेन और मुशायरा होता था और मुझे उसकी
रिकॉर्डिंग के लिए जाना होता था. रेडियो रिपोर्ट सुनकर मैं रिकॉर्डिंग टीम लेकर कवि
सम्मलेन-मुशायरे में चला जाता था. रात ढाई-तीन बजे तक ये प्रोग्राम ख़त्म होता था.
वहाँ से ऑफिस आकर टेप्स को अच्छी तरह से सहेजकर रखना होता था क्योंकि ऑफिस में हम
लोगों के खैरख्वाह भी तो कम नहीं थे. लोग तो ताक में रहते थे कि हम टेप्स इधर उधर
कहीं रख दें और उन्हें इरेज़ कर दिया जाए. घर पहुँचते पहुँचते मुझे अगले दिन सवेरे
के चार-साढ़े चार बज जाया करते थे.
मैंने रेडियो के कामों में
इतनी भागीदारी निभा रहा था, इस बात की तो खुशी होती थी मगर रह रह कर बवेजा साहब से
उदयपुर में हुई बातचीत याद आ जाती थीं, “तुम चाहोगे तो मैं तुम दोनों का ट्रान्सफर
बीकानेर करवा दूंगा लेकिन मेरी राय ये है कि तुम बीकानेर न जाओ तो तुम्हारे लिए बेहतर
होगा. मैं देख रहा हूँ कि तुम यहाँ प्रोग्राम्स में खूब पार्टिसिपेट कर रहे हो.
वहाँ जाकर भी मैं जानता हूँ तुम चुपचाप लॉगबुक तो भरोगे नहीं.”
“ जी सर, मैं आकाशवाणी में
सिर्फ लॉगबुक भरने हरगिज़ नहीं आया हूँ. “
“ मैं जानता हूँ और ये भी
जानता हूँ कि अगर तुम अपने आपको सिर्फ लॉगबुक तक महदूद रखना भी चाहोगे तो तुम्हारे
जो भी ऑफिसर होंगे वो तुम्हें ऐसा करने नहीं देंगे. वो तुम्हारी आवाज़ को इस्तेमाल
करना चाहेंगे, तुम्हारे टैलेंट को इस्तेमाल करना चाहेंगे.”
“ जी सर तो फिर प्रॉब्लम
क्या है ?”
“ महेंद्र, यहाँ तुम
प्रोग्राम्स में हिस्सा ले रहे हो.......... मुझे मालूम है तुम्हें विरोध झेलना पड़
रहा है, लेकिन ये विरोध तो कुछ भी नहीं है. बीकानेर में बहोत पॉलिटिक्स है. वहाँ
तुम प्रोग्राम्स में हिस्सा लोगे तो लोग तुम्हारे पीछे पड़ जायेंगे और तुम्हारा
जीना हराम कर देंगे. इसलिए मेरी सलाह तो ये है कि तुम यहीं रहो. बीकानेर जाने की
ना सोचो, बाकी जैसा तुम ठीक समझो.”
लेकिन अब तो ओखली में सर डाल ही लिया था...........
अब क्या किया जा सकता था...............?
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