
रेडियोनामा पर हर दूसरे बुधवार मशहूर समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा की श्रृंखला चल रही है 'न्यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा'। हर दूसरे बुधवार मैं 'अग्रज पीढ़ी' नामक एक ऑडियो-श्रंखला लिख रहा हूं। जिसका मक़सद रेडियो में अपना अमूल्य योगदान करने वाले पुरानी पीढ़ी के लोगों को याद करना। चूंकि ऑडियो-श्रृंखला है, इसलिए ध्वनि जरूर होती है इसमें। चाहे इंटरव्यू हो या गीत या संकेत-ध्वनि। इस बार आकाशवाणी की संकेत-ध्वनि की दास्तान।
तब कितनी सुहानी होती थी हर भोर। वो भोर जिसका आग़ाज़ रेडियो पर ‘संकेत ध्वनि’ के साथ होता था।
आकाशवाणी की ‘संकेत-ध्वनि’। हर सुबह का एक ख़ास गूंजता हुआ आरंभ बरसों-बरस तक होता रहा। तब ये आवाज़ अनगिनत घरों में गूंजा करती थी। तब वॉल्व वाले बड़े-बड़े रेडियो-सेट होते थे। और हां, तब के रेडियो की लोकप्रियता आज के टी.वी. से कहीं ज़्यादा थी। दुनिया रेडियो को एक जादुई और आकर्षक माध्यम मानती थी।
आज हो सकता है कि रेडियो सुनने वाले घरों की तादाद कम हो गयी हो। पर आकाशवाणी की संकेत-ध्वनि कायम है। इसके बाद होता है ‘वंदे मातरम्’ और ‘मंगल-ध्वनि’। सचमुच अनमोल है वो आवाज़। अफ़सोस कि आकाशवाणी के जो केंद्र अब चौबीस घंटे चलते हैं, यानी जहां अलग से सुबह, दोपहर या शाम की सभाएं नहीं होतीं, वहां से ये ‘सिग्नेचर-ट्यून’ नहीं बजाई जाती। क्योंकि अब वहां प्रसारण कभी बंद नहीं होता, अबाध रूप से जारी रहता है। विविध-भारती ऐसे स्टेशनों में से एक है। आज कई लोगों के मोबाइल पर इसे ‘रिंग-टोन’ के रूप में सुनता हूं तो आश्चर्यमिश्रित हर्ष होता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि आकाशवाणी की संकेत ध्वनि का क्या इतिहास है।
आम धारणा ये है कि इस संकेत-ध्वनि को पंडित रविशंकर या फिर पंडित वी.जी.जोग ने बनाया। लेकिन ये सच नहीं है। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि ठाकुर बलवंत सिंह ने सन 1936 में आकाशवाणी की इस संकेत धुन को बनाया था। ये भी सच नहीं है। तो फिर सच क्या है। दरअसल आकाशवाणी की इस अनमोल, कलाजयी, अनूठी और असाधारण ‘सिग्नेचर-ट्यून’ को बनाया था चेकोस्लोवाकिया में जन्मे कंपोज़र वॉल्टर कॉफमैन ने। तीस के दशक में वॉल्टर कॉफमैन मुंबई आकाशवाणी के वेस्टर्न म्यूजिक डिपार्टमेन्ट में कंपोज़र का काम कर रहे थे। उसी दौरान उन्होंने ये ट्यून बनाई थी। इस धुन में आपको तानपूरा, वायलिन और वायोला सुनाई देता है। संगीत के कुछ विद्वान तो ये भी कहते हैं कि इस धुन में ब्रह्मांड में गूंजते ओंकार-नाद का सा स्वर है। और ये बात सही भी लगती है। तो चलिए इसे सुना जाए। और आनंदलोक की सैर की जाए।
आपको ये भी बता दें कि असल में वॉल्टर कॉफमैन पश्चिमी क्लासिकी संगीत की एक बड़ी हस्ती थे। उनके एक ‘सोनाटा’ में ये धुन शामिल थी। बाद में इसे काटकर आकाशवाणी की संकेत-ध्वनि बना दिया गया। कहते हैं कि कॉफमैन ने बाद में इसमें थोड़ा बदलाव भी किया था। अपनी खोज-बीन में मुझे ये भी पता चला कि इस धुन में वायलिन मेहली मेहता ने बजाया था, जो विश्व-प्रसिद्ध ऑकेस्ट्रा कंडक्टर ज़ूबिन मेहता के पिता थे।
वॉल्टर काफमैन का जन्म एक अप्रैल 1907 को कार्लोवी-वैरी, बोहेमिया, चेकोस्लोवाकिया में हुआ था। वो ना केवल कंपोज़र, कंडक्टर और संगीत-शास्त्री थे बल्कि संगीत-शिक्षक भी रहे। संगीत की शुरूआती तालीम उन्होंने कार्लोवी-वैरी के Staatsrealgymnasium में ली। 1926 में उन्होंने बर्लिन के Staatlich Hochschule für Musik से मैट्रिक किया। ग्रैजुएशन के बाद उन्होंने प्राग यूनिवर्सिटी में संगीत की अपनी पढ़ाई जारी रखी। हालांकि उन्होंने उस दौर में संगीत में शोध की तैयारी पूरी कर ली थी। पर राजनीतिक उथल-पुथल ने उनका ये सपना पूरा नहीं होने दिया।
1927 से 1933 तक काफमैन बर्लिन, कार्लोवी-वैरी, एगर और बोहेमिया में ओपेरा कंपोज़ करते रहे। उसके बाद सन 1935 से 1946 तक ग्यारह साल उन्होंने भारत में बिताए। भारत में शुरूआती दो साल वो मुंबई की एक फिल्म-कंपनी में संगीतकार रहे। इस दौरान उन्होंने बॉम्बे चैम्बर म्यूजिक सोसाइटी में बतौर म्यूजिक-डायरेक्टर भी काम किया। इसके बाद 1937 से लेकर 1946 तक वॉल्टर काफमैन ऑल इंडिया रेडियो बंबई में डायरेक्टर ऑफ म्यूजिक बन गए। आखिरी दो साल उन्होंने मुंबई के सोफ़ाया कॉलेज में भी पढ़ाया। सन 46 में वो इंग्लैन्ड चले गए। और बी.बी.सी. लंदन में गेस्ट-कंडक्टर बन गए। इसके बाद सन 1947 में हैलिफैक्स कन्ज़रवेट्री ऑफ़ म्यूजिक नोवा स्कॉशिया कनाडा में वो पियानो विभाग के हेड बन गए । आगे के साल उन्होंने अलग अलग संस्थानों में पढ़ाते हुए बिताए। सन 1957 में काफमैन स्थाई रूप से अमेरिका चले आए। और इंडियाना यूनिवर्सिटी ब्लूमिंगटन में संगीत के प्रोफेसर बन गए।
भारत में काफमैन ने अपना ज्यादातर वक्त भारतीय संगीत पद्धति का अध्ययन करने में बिताए। भारतीय शास्त्रीय संगीत का असर उन पर काफी गहरा था। पूर्वी और पश्चिमी शैलियों के मिश्रण से उन्होंने एक नई शैली रची। वो ख़ासतौर पर ओपेरा और पश्चिमी ऑर्केस्ट्रल म्यूजिक की जानी मानी हस्ती थे। भारत में रहते हुए उन्होंने संगीत पर काफी लिखा। उनकी पुस्तक ‘रागाज़ ऑफ नार्थ इंडिया’ भारतीय शास्त्रीय संगीत पर एक बेहद महत्वपूर्ण किताब मानी जाती है।
तो कितनी दिलचस्प है आकाशवाणी की सिग्नेचर-ट्यून की ये कहानी। इस मायने में तो और भी...कि इसे एक भारतीय संगीतज्ञ ने नहीं बनाया, लेकिन इसकी विलक्षणता, दिव्यता और भारतीयता पर भला कोई कैसे सवाल उठा सकता है। कितनी कितनी संस्कृतियों, कितने व्यक्तित्वों...कलाकारों, तकनीशियनों, लेखकों सबसे मिलकर समृद्ध हुआ है हमारा रेडियो।
(लखनऊ से छपने वाले जन-संदेश टाइम्स में प्रकाशित)