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Wednesday, June 29, 2011

shifts के किस्‍से: न्‍यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा कड़ी 3


रेडियोनामा पर जानी-मानी समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। आज तीसरी कड़ी। पुरानी सभी कडियों को पढ़ने के लिए आप टैग news room se shubhra sharma का इस्‍तेमाल कर सकते हैं।

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न्यूज़ रूम से यादों का सिलसिला क्या शुरु हुआ जैसे हम सभी रेडियो-प्रेमी पुराने दिनों की यादों की रिमझिम फुहारों से भीग उठे. न्यूज़ रूम के मेरे उन शुरुआती दिनों के साथी डॉ हेमंत जोशी ने कहा कि उनकी यादें ताज़ा हो गयीं. संजय पटेल भाई ने लेख में आये नामों के अलावा और भी बहुत से नाम याद दिलाये. लोकेन्द्र शर्मा जी अपनी यादों का पिटारा खोलने को तैयार हो गए. और यूनुस खान ने तो फरमाइशों की झड़ी ही लगा दी. उनकी आधी फरमाइश तो मैंने पूरी कर दी है - मेलविल डि मेलो साहब के बारे में अपना संस्मरण भेजकर. आधी फिर कभी.

आज जो बात सबसे ज़्यादा याद आ रही है, वहीँ से शुरुआत करती हूँ. पहले-पहल रात की ड्यूटी मिला करती on-air-radio थी. नौ बजे से ढाई बजे तक. एक या डेढ़ महीने में ड्यूटी लगती थी और एक बार में सिर्फ छह. यानी लगातार छह रातों का जागरण. बाद में मैंने इसका एक तोड़ निकाल लिया था. बजाय छह रात लगातार रात की ड्यूटी करने के, एक रात और एक तड़के की ड्यूटी एक साथ करने लगी. इस तरह एक रात जागने के बाद एक रात सोने को भी मिल जाता था. यह भी सुविधा थी कि प्रशासनिक स्टेनो नौटियाल जी ड्यूटी लगाने से पहले फ़ोन करके पूछ लेते थे कि अगले सप्ताह आपकी ड्यूटी लगने जा रही है, आप उपलब्ध हैं या नहीं. इस एक फोन कॉल के कारण कितना झमेला बच जाता था. अगर हमें कोई असुविधा होती तो हम कह देते थे और हमारी ड्यूटी नहीं लगायी जाती थी.

तड़के शिफ्ट की ड्यूटी तीन बजे से शुरू होती थी हालाँकि उसके लिए ऑफिस की गाड़ी सवा दो बजे ही मेरे घर पहुँच जाती थी. बनारसी होने के नाते नहाने का मर्ज़ मुझे शुरू से रहा है. डेढ़ बजे का अलार्म लगाती और नहा-धोकर गाड़ी के इंतजार में कालोनी के मेन गेट पर जाकर बैठ जाती थी. सर्दियों में भी यही सिलसिला जारी रहा. नतीजतन ऐसा ज़बरदस्त ज़ुकाम हुआ कि लगभग ढाई महीने माइक के सामने फटक भी नहीं सकी. लेकिन इस आदत की वजह से ऑफिस के सभी ड्राईवर मुझसे बहुत खुश रहते थे कि मैं उन्हें कभी इंतजार नहीं करवाती थी. उन दिनों का एक मज़ेदार क़िस्सा याद आ गया. पहले वही सुन लीजिये.

एक दिन ड्राईवर राजेंद्र सिंह ने मुझे पिक-अप करने के बाद कहा - ज़रा संभलकर बैठिएगा.

मैंने कहा - क्यों क्या बात है?

बोला - कुछ नहीं, आपको एक मज़ा दिखाता हूँ. 

मैं ज़रा पाँव जमाकर बैठ गयी और गेट के ऊपर लटका हैंडल कसकर पकड़ लिया.

अगले पिक-अप के लिए हम एक गेट के अन्दर जाकर, कई बार दाहिने-बाँये मुड़ते हुए आखिर एक फ्लैट तक पहुंचे. कोई सात मिनट तक हॉर्न बजाने के बाद एक महिला ने बालकनी से इशारा किया कि ठहरो आ रही हूँ. और पूरे दस मिनट बाद वे गाड़ी में प्रविष्ट हुईं. बैठते ही उन्होंने मेरी तरफ सवाल दाग़ा - न्यू ?

मैंने शराफत से हाँ में सर हिला दिया.

उन्होंने फिर पूछा - इंग्लिश?

मैंने कहा - जी नहीं, मैं अभी-अभी हिंदी में कैज़ुअल न्यूज़रीडर चुनी गयी हूँ.

उनका अगला सवाल मुझे चौंका गया - नहाकर आई हो क्या?

मैंने डरते डरते हामी भरी, जैसे यह बड़ी शर्मिंदगी की बात हो. 

उन्होंने मुझे समझाया - ऐसी बेवकूफी मत किया करो. बेकार बीमार पड़ जाओगी. इस ड्यूटी पर आने के लिए जो कपड़े पहनने हों, रात ही में पहन कर सो जाओ. और जब गाड़ी हॉर्न दे तब आकर उसमें बैठ जाओ. इस तरह नींद कम से कम ख़राब होती है.

अब तक हम उनकी कालोनी से बाहर मेन रोड पर आ गये थे. मैंने देखा कि उन्होंने भी मेरी तरह छत से लटकता हैंडल पकड़ा और आँखे बंद कर लीं. जब तक गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ी, वे गहरी नींद में थीं.

राजेन्द्र ड्राईवर ने फुसफुसा कर मुझसे कहा - संभलना.

और अगले मोड़ पर गाड़ी कुछ ऐसी अदा से मोड़ी कि मेरे साथ बैठी मैडम मेरे साथ बैठी न रह सकीं बल्कि 'नागिन सी भुइं लोटी' पायी गयीं.

बाद में उनसे अच्छा परिचय हो गया था. वे विदेश प्रसारण सेवा की एनाउंसर थीं और पापा को भी जानती थीं. लेकिन उनकी पल भर में सो जाने वाली अदा ऐसी दिलफ़रेब थी कि बस कुछ मत पूछिए. एक बार मैं खाड़ी देशों के लिए २३:४५ से २३:५५ तक प्रसारित होने वाला बुलेटिन पढ़ने पहुंची. उन्होंने मुझे क्यू किया. मैंने बुलेटिन शुरू कर दिया. उन्होंने कंसोल पर एक बाँह फैलायी, उस पर सर टिकाया और क्षण भर में जा पहुंची स्वप्नलोक में. इधर मेरा बुलेटिन ख़त्म हो रहा था. मैं बार-बार उनकी तरफ देख रही थी कि वे उठें और मेरा फेडर बंद करें. पर शायद उस दिन उनके सपने कुछ ज़्यादा ईस्टमैनकलर में रंगे हुए थे. मैंने बुलेटिन समाप्त कर दिया. वे फिर भी नहीं उठीं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था क्या करूँ. आख़िरकार मैं कुर्सी से उठी, उनके पास जाकर धीरे से उनका कन्धा हिलाया. वे चौंककर जागीं. एक आश्वस्त करने वाली मुस्कान मेरी दिशा में फेंकी और फेडर ऑन करके कहने लगीं - अभी आप सुन रहे थे समाचार. भारतीय समय के अनुसार इस समय रात के साढ़े बारह बजा चाहते हैं......जबकि उस समय बारह भी नहीं बजे थे.    

उन दिनों आकाशवाणी से "चौबीस घंटे - हर घंटे" समाचार प्रसारित नहीं होते थे. ज़्यादातर स्टेशन ग्यारह बजे और बचे हुए बारह बजे समाचार प्रसारित करने के बाद सभा समाप्त कर देते थे. साढ़े बारह बजे के ग्रेट ब्रिटेन के बुलेटिन के बाद सीधे ०४:३५ पर दक्षिण-पूर्व एशिया का ही बुलेटिन होता था. यानीकि एक बजे से चार बजे तक कोई खास काम नहीं होता था. बस, कहीं कोई अप्रत्याशित घटना न हो जाये, इसलिये न्यूज़ रूम में मौजूद रहना ज़रूरी था. समय काटे नहीं कटता था. सर्दियों में तो स्वेटर बुन लेती थी पर गर्मियों में किताबें भी नींद के झोंके रोकने में कारगर साबित नहीं होती थीं. सरकारी कैंटीन यों तो २४ घंटे चलने का दावा करती थी, मगर रात ग्यारह बजे के बाद उससे चाय तक की उम्मीद रखना फ़िज़ूल था. उसका कौन सा कर्मचारी, किस बोतल के तरल पदार्थ का सेवन कर, कहाँ लुढ़का पड़ा होगा, यह देवता भी नहीं बता सकते थे, मनुष्य की तो बिसात ही क्या.

ऐसे में बातचीत के अलावा समय काटने का और कोई साधन नहीं था. इसीलिए उन दिनों जिन सहकर्मियों से जान-पहचान और दोस्ती हुई, बहुत गहरी और पक्की हुई. उमेश जोशी, हेमंत जोशी, मुकेश कौशिक, अजित गाँधी, रवि कपूर, राकेश चौधरी, रीता पॉल, सतपाल जी और छाया जी ऐसे ही कुछ नाम हैं. इनमें से कुछ लोग फिर कभी नहीं मिले, लेकिन जो मिल जाते हैं, उनके साथ मानो २५ वर्ष पुराने दिन भी वापस लौट आते हैं और हम उन मस्ती भरे दिनों को याद कर हँस लेते हैं.

इनमें से एक थे - जयभगवान पाराशर. विनोद जी के बाद वही मेरे दूसरे गुरु बने. रोहतक के पास के किसी गाँव में अध्यापक थे और ढाई बजे तक ड्यूटी करने के बाद न जाने कहाँ से बस पकड़कर सीधे स्कूल पहुँचते थे. एक-दो साल के बाद उन्हें कभी नहीं देखा लेकिन उँगली पकड़कर चलना सिखाने वाले बड़े भाई जैसी उनकी छबि आज तक मन में है. उसके बाद एक छोटा भाई भी मिला - शुभेंदु अमिताभ के रूप में. काफी दिनों तक उसके साथ रस्मो-राह रही. बल्कि जिस दिन सवेरे आठ बजे का समाचार प्रभात अपने मौजूदा रूप में शुरू हुआ, उस दिन मुख्य बुलेटिन राजेन्द्र अग्रवाल जी ने, समीक्षा मैंने और समाचार पत्रों की सुर्ख़ियाँ शुभेंदु ने पढ़ी थीं. इस बात का मुझे आजतक गर्व है जबकि कुछ अन्य लोगों को आज तक मलाल है.

कुछ संपादकों से भी जान-पहचान हुई. इनमें सबसे पहले तो वही शम्भू जी थे, जिनकी चर्चा मैं पिछली कड़ी में कर चुकी हूँ. उनके अलावा भी कुछ उल्लेखनीय हस्तियाँ थीं, जैसे सुरेश मिश्र जी, जो सुना है एक दिन पौने नौ का बुलेटिन बनाते-बनाते अचानक बाहर चले गये. लोगों ने सोचा कि किसी से मिलने या किसी अन्य आवश्यक काम से गये होंगे, कुछ देर में लौट आयेंगे. जब आधे घंटे तक नहीं लौटे तो इधर-उधर फोन करके ढूँढा गया. कुछ पता नहीं चला. किसी जानकार ने कहा घर पर फोन करके देखो, वहाँ तो नहीं पहुँच गये. वाक़ई वे घर पहुँच गये थे. पान खाने निकले थे, अपने घर जाने वाली बस दिख गयी तो उसी में चढ़ गये.

एक नन्दगोपाल गोयल जी थे. होम्योपैथी के डॉक्टर थे या शायद शौकिया दवा देते थे. बुलेटिन बनाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी, बस उन्हें इसको-उसको फोन करके ये बताना अच्छा लगता था कि वे आकाशवाणी में ड्यूटी पर हैं. एक-एक समाचार की कई- कई कापियां टाइप करा लेते कि कहीं कम न पड़ जायें और स्टूडियो में जाकर यही भूल जाते थे कि कौन सी ख़बर पढ़वा चुके हैं और कौन सी बाकी है. कभी बांये हाथ का गत्ता आगे बढ़ाते तो कभी दाहिने हाथ का. कई बार तो समाचार उनसे छीनकर पढ़ना पड़ता था. बाद में इस दुर्दशा से बचने के लिए मैं काफी देर पहले उनसे बुलेटिन मांग लेती थी और ख़ुद ही उसे अंतिम रूप दे देती थी. बेचारे बड़ा अनुगृहीत महसूस करते थे और हर बार मुझे मोटापा कम करने की अचूक दवा लाकर देने का वादा करते थे.

एक रिटायर्ड फ़ौजी खनका जी भी आया करते थे. सुबह ६ बजे का बुलेटिन बड़ी निष्ठा से बनाते और पढ़वाते थे. उसके बाद हम सबको ज़बरदस्ती कैंटीन लेकर जाते और चाय पिलवाते थे.

कभी-कभी राजेन्द्र धस्माना जी आया करते थे. उनके बारे में एक क़िस्सा मशहूर था. एक दिन उन्हें सुबह आठ बजे का बुलेटिन बनाना था. कोई चार बजे ऑफिस आये और काम में लग गये. जब बुलेटिन प्रसारित हो गया तो लोगों ने कहा - चलिए कैंटीन में चलकर चाय पी जाये.

बोले - नहीं मैं घर जाऊंगा.

लोगों ने कहा - ऐसी भी क्या जल्दी है, चाय पीकर चले जाइएगा.

तब बोले  - रात पिताजी का देहांत हो गया है. घर में अभी शायद किसी को पता भी न हो. दरअसल ऑफिस आने से पहले उनके कमरे में गया, तो देखा वे जा चुके हैं. तो मैंने सोचा तुम लोग इतने कम नोटिस पर संपादक कहाँ से लाओगे, इसलिए उनका दरवाज़ा बाहर से बंद करके चला आया. अब जाकर सारे इंतजाम करने होंगे.

चाय की ज़िद करने वाले अवाक् खड़े रह गये. ऐसी कर्तव्य निष्ठा भी होती है आज के ज़माने में!

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