सत्तर के दशक के शुरूवाती वर्षों की एक बेहतरीन फ़िल्म है - कोरा काग़ज़
इस फ़िल्म का लताजी का गाया एक गीत आज मुझे याद आ रहा है जो पहले रेडियो के लगभग सभी केन्द्रों के फ़रमाइशी और ग़ैर फ़रमाइशी कार्यक्रमों में बहुत सुनवाया जाता था, अब बहुत दिनों से नहीं सुना है।
जया भादुडी (बच्चन) और विजय आनन्द पर फ़िल्माए गए इस गीत के बोल है -
रूठे रूठे पिया मनाऊँ कैसे
आज न जाने बात हुई वो क्यों रूठे मुझसे
जब तक वो बोले न मुझसे मैं समझूँ कैसे
रूठे रूठे पिया, पिया आ आ आ आ
रूठे रूठे पिया मनाऊँ कैसे
रूठे रूठे पिया
वो बैठे है कुछ ऐसे शादी में दुल्हन जैसे
क्या बन के दूल्हा मैं जाऊँ और उनकी मांग सजाऊँ
लम्बी दुल्हन ठिंगना दूल्हा जोडी जमे कैसे
रूठे रूठे पिया पिया आ आ आ आ
रूठे रूठे पिया मनाऊँ कैसे
रूठे रूठे पिया
क्या मुझसे हसीं है किताबें, पिया प्यार से जिनको थामे
मैं नैन मिलाना चाहूँ पर नैन मिला न पाऊँ
सौतन चश्मा बीच में आए, नैन मिले कैसे
रूठे रूठे पिया पिया आ आ आ आ
रूठे रूठे पिया मनाऊँ कैसे
रूठे रूठे पिया
बोलों में हास्य का पुट है पर गीत फ़िल्म में देखने में बहुत ही भावुक है।
पता नहीं विविध भारती की पोटली से कब बाहर आएगा यह गीत…
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Tuesday, January 5, 2010
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