सुजॉय चैटर्जी पेशे से इंजीनियर हैं। लेकिन संगीत का एक बड़ा ख़ज़ाना है इनके पास और संगीत पर लिखने की ऊर्जा भी। सुजॉय अलग अलग ग्रुप्स पर विविध भारती के विशेष कार्यक्रमों को transcript करते रहे हैं। ये इतना मुश्किल और श्रमसाध्य काम है कि उन्हें हमेशा मन ही मन सलाम करता रहा हूं। आज सुजॉय रेडियोनामा पर अपनी पहली पोस्ट लेकर आ रहे हैं। उम्मीद है कि रेडियोनामा और सुजॉय का साथ लंबा और सुंदर रहेगा। सुजॉय का ज्यादातर काम आप 'आवाज़' पर पढ़ सकते हैं।
सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! आज रक्षाबंधन है। भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को मनाता यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ लेकर आये, यह हमारी शुभकामना है। आप सभी को इस पावन पर्व रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज के इस शनिवार विशेषांक में मैं अपने ही जीवन के का अनुभव आप सभी के साथ बाँटने जा रहा हूँ जो शायद आज के दिन के लिए बहुत सटीक है।
किसी नें ठीक ही कहा है कि कुछ रिश्तों को नाम नहीं दिया जा सकता। ये रिश्ते न तो ख़ून के रिश्ते हैं, न ही दोस्ती के, और न ही प्रेम-संबंध के। ये रिश्ते बस यूं ही बन जाया करते हैं। मेरा भी एक ऐसा ही रिश्ता बना है रेडियो की तीन उद्घोषिकाओं के साथ, जिनकी आवाज़ें मैं करीब २७-२८ सालों से सुनता चला आ रहा हूँ, पर जिनसे मिलने का मौका अभी पिछले वर्ष ही हुआ। इस रिश्ते की शुरुआत शायद तब हुई जब मैं बस चार साल का था। मेरी माँ स्कूल टीचर हुआ करती थीं जिस वजह से मैं और मेरा बड़ा भाई दोपहर को घर पर अकेले ही होते थे। ८० के दशक के उन शुरुआती सालों में मनोरंजन का एकमात्र ज़रिया रेडियो ही हुआ करता था। हम लोग गुवाहाटी में रहते थे जहाँ के स्थानीय रेडियो स्टेशन से दोपहर के समय १२:३० से २:१० बजे तक 'सैनिक भाइयों का कार्यक्रम' प्रसारित होता था (औत अब भी होता है)। इसके अन्तर्गत फ़िल्मी गीतों पर आधारित अलग अलग तरह के कार्यक्रम पेश होते थे, और इन्हें पेश करने वाले थे तीन महिलाएँ जो अपना नाम अपने सैनिक भाइयों को रेखा बहन, सीमा बहन और मीता बहन बताया करतीं। इस कार्यक्रम को निरन्तर सुनते हुए उनकी आवाज़ें इतनी जानी-पहचानी से बनती चली गईं कि वो आवाज़ें कब मेरे जीवन का हिस्सा बन गईं पता ही नहीं चला। व्यक्तिगत रूप से उन्हें न मिलने के बावजूद ऐसा लगता कि जैसे उनको मैं पहचानता हूँ। जिस दिन उनमें से एक छुट्टी पर होतीं तो दिल जैसे थोड़ा उदास हो जाता। और इस तरह से उन्हें सुनते रहने का सिलसिला जारी रहा, दिन, महीने, साल गुज़रते चले गए। रविवार को और किसी भी छुट्टी के दिन दोपहर के वक़्त रेडियो सुनना नहीं भूलते।
फिर एक दिन शुरु हुआ पत्र लिखने का सिलसिला। हिम्मत जुटा कर मैंने उस कार्यक्रम में पत्र लिखा, कार्यक्रमों के लिए सुझाव दिए, कुछ चीज़ों की आलोचना भी की। पर मेरा पत्र कभी कार्यक्रम में शामिल नहीं किया गया। कारण एक ही था, मैं सनिक नहीं था और वह केवल सैनिक भाइयों का कार्यक्रम था। मुझे अफ़सोस तो हुआ पर ज़्यादा बुरा नहीं लगा। पर मन ही मन तरसता रहा कि काश कभी उनके मुख से मेरा नाम सुनने को मिल जाता रेडियो पर। पर वह दिन कभी नहीं आया। फिर टेलीविज़न भी आ गया, पर रेडियो मेरी ज़िंदगी में अपनी जगह पर कायम रहा, और रेखा-सीमा-मीता बहनों की आवाज़ें भी। फिर मैं स्कूल और कॉलेज की दहलीज़ पार कर एक दिन इंजिनीयर बन गया। पत्र लिखने का सिलसिला भी वैसा चलता रहा, और जवाब न पाने का सिलसिला भी। लेकिन एक शाम ऐसी आई जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। एक दिन मेरे घर के फ़ोन पर कॉल आई। लाइन के दूसरी तरफ़ महिला बिना अपना नाम बताए मुझे इंजिनीयरिंग् में प्रथम आने की बधाई देने लगीं। धन्यवाद देते हुए फिर जब मैंने उनसे उनका नाम पूछा तो बोलीं, "मैं सीमा बहन बोल रही हूँ"। एक पल के लिए तो जैसे मेरी सांस रुक गई। समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोलूँ। दरसल प्रथम आने पर मेरा नाम और जगह का नाम अख़्बार में छपा था। और क्योंकि मैं अपने पत्रों में अपना फ़ोन नंबर लिख दिया करता था, वहीं से उनको मेरे बारे में पता चल गया। मैं तो यही समझता था कि वो लोग शायद ही मेरे पत्रों को पढ़ती होंगी, पर सीमा बहन नें मुझे फ़ोन पर बताया कि वो लोग मेरे हर पत्र को बड़े ध्यान से पढ़ते थे और अफ़सोस भी करते थे कि चाहते हुए भी मेरे पत्र कार्यक्रम में वो शामिल नहीं कर सकते। फ़ोन पर ये सब बातें सुन कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। ऐसा लगा कि जैसे पिछले १८ वर्ष की मेरी साधना का फल मुझे मिल गया हो।
उस दिन के बाद मैंने कई बार सोचा कि रेडियो स्टेशन जाकर तीनों बहनों से मिलूँ, पर संकोच वश ऐसा न कर सका। फिर मैं गुवाहाटी छोड़ उच्च शिक्षा और नौकरी के लिए बाहर चला गया। कई साल बाद जब मैं गुवाहाटी लौटा और डरते डरते रेडियो ऑन किया कि कहीं रेखा, सीमा और मीता बहनें सेवा से निवृत्त न हो गई हों। पर ऐसा नहीं था। रेडियो पर उन बहनों की आवाज़ें बिल्कुल उसी तरह सुनने को मिली और एक अजीब सी ख़ुशी महसूस हुई। अभी पिछले वर्ष दुर्गा पूजा के दौरान मैं गुवाहाटी गया और इस बार मैंने ठान लिया कि रेडियो स्टेशन जाकर उनसे मिल कर ही आना है। थोड़े संकोच के साथ जब मैं 'सैन्य कार्यक्रम' के बोर्ड वाले स्टाफ़ रूम में उपस्थित हुआ और अपना परिचय दिया तो वहाँ बैठीं सीमा और मीता बहन चौंक उठीं। सीमा बहन नें तो 'प्रोग्राम एग्ज़ेक्युटिव' को बुलाकर मेरी प्रशंसा की, और इस कार्यक्रम के प्रति मेरी वफ़ादारी और कीमती सुझावों के बारे में बताया। किसी श्रोता से मिल कर उद्घोषक को कितनी ख़ुशी मिल सकती है, उसका अंदाज़ा मुझे पहली बार हुआ। उनकी आँखों में वही चमक मैंने देखी जो चमक शायद मेरी आँखों में भी उस दिन आई होगी जिस दिन सीमा बहन नें पहली बार मुझे फ़ोन किया था। उस दिन सीमा बहन मुझे अपने साथ अपने घर ले गईं, अपने पति से मिलवाया और मेरा अतिथि-सत्कार किया। रेखा बहन कुछ वर्ष पहले और मीता बहन पिछले वर्ष रिटायर हो गईं। मीता बहन के रिटायरमेण्ट पर जब मैंने उनको शुभकामना स्वरूप ग्रीटिंग् कार्ड भेजा तो उसे पाकर उनकी आँखें भर आई थीं, ऐसा उन्होंने मुझे फ़ोन करके बताया था। और सीमा बहन अभी हाल ही में ३१ जुलाई को रिटायर हो चुकी हैं। इस तरह से रेखा, सीमा और मीता बहनों की आवाज़ें तो रेडियो से ग़ायब हो गईं, लेकिन उनकी गूंज आज भी मुझे सुनाई देती है अपने दिल में और शायद हमेशा सुनाई देती रहेंगी। मैं दिल से इन तीनों बहनों की सलमती की दुआ करता हूँ। उद्घोषक-श्रोता का रिश्ता ही कह लीजिए या भाई-बहन का, यह मेरे जीवन का एक बहुत ही सुखद अनुभव रहा है जिसे मैं उम्र भर रेलिश करता रहूंगा। आज रक्षाबंधन पर मैं इन तीनों को ढेर सारी शुभकामनाएँ देता हूँ, और आपको सुनवाता हूँ यह सदाबहार राखी गीत सुमन कल्याणपुर की सुरीली आवाज़ में।
गीत - बहना नें भाई की कलाई से प्यार बांधा है (रेशम की डोरी)
6 comments:
बहुत ही खूबसूरती के साथ बयां किया है अपना अनुभव सुजॉय....एक उद्घोषक और श्रोता का रिश्ता आवाज और पत्रों के जरिये भावनाओं के साथ किस तरह जुड़ जाता है...इस पोस्ट से बखूबी समझा जा सकता है...आभार
बहुत भावुक पोस्ट !
अन्नपूर्णा
सुजॉय की पोस्टें 'आवाज' साइट पर लगभग रोज पढ़ते हैं और इनके संगीत ज्ञान के खजाने के, इनकी नियमित्ता के कायल हैं। ये तभी हो सकता है जब किसी को संगीत का जनून हो और इनका जनून साफ़ दिखता है। अब तक मैं सिर्फ़ इनके नाम से परिचित थी, आज आप के ब्लोग पर इनके बारे में और जान कर और इनका चेहरा देख कर अच्छा लगा।
बहुत बहुत शुक्रिया आप सभी का!
सुजॉय चटर्जी
I can relate to Sujoy's sentiments.
In my decade long association with the radio,I have experienced that,in modern times (which are the times of electronic communications and mobile phones) and in foreign lands,the music links do bring people together.
Please re-post the link to the blog aawaaz written by Mr Chatterji. Here its opening the radiovani page.
really enjoyed it....thanx for posting, and would love to see ur blogs here frequently.
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