रेडियोनामा पर जानी-मानी समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने संस्मरण लिख रही हैं। पिछली कड़ी में रेडियो-जगत में चाय-पुराण की बातें की गयी थीं। चूंकि इन दिनों हम रेडियो के इतिहास में खूब ग़ोते लगा रहे हैं इसलिए शुभ्रा जी ने इस बार आकाशवाणी के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पन्ना पेश किया है। शुभ्रा जी की पूरी श्रृंखला यहां क्लिक करके पढ़ी जा सकती है।
फेसबुक पर रेडियोनामा और श्रोता बिरादरी समूह इन दिनों इतिहास के समंदर में गोते लगा रहे हैं. दो बड़े अवसर तब आये जब ३१ जुलाई को रफ़ी साहब को और ४ अगस्त को किशोर दा को ज़ोर-शोर से याद किया गया. कुछ पुराने रेडियो सेटों की चर्चा हुई. प्रसारण के इतिहास के कुछ सुनहरे पलों का भी ज़िक्र हुआ.
वैसे भी हम भारतीयों के लिए अगस्त का महीना विशेष महत्त्व रखता है. सन बयालीस के "भारत छोड़ो" आन्दोलन और १५ अगस्त सन सैंतालिस के नेहरु जी के "ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी" उद्बोधन की याद दिलाने वाला महीना है यह. तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं भी अपने पाठकों के लिए इतिहास के समंदर से एक मोती चुनकर लेती चलूँ.
अलग-अलग राज्यों के शौकिया रेडियो प्रसारणों को छोड़ दें तो अखिल भारतीय स्तर पर इंडियन स्टेट ब्रॉडकास्टिंग सर्विस के दिल्ली केंद्र से प्रसारण की विधिवत शुरुआत १ जनवरी १९३६ से हुई. १९ जनवरी को पहला समाचार बुलेटिन प्रसारित हुआ और उसी वर्ष ब्रॉडकास्टिंग सर्विस का नाम बदलकर ऑल इंडिया रेडियो रखा गया.
शुरू-शुरू में ये प्रसारण १८, अलीपुर रोड पर स्थित एक कोठी से किये जाते थे. यह कोठी प्रसारण के उद्देश्य से तो बनी नहीं थी इसलिए इसमें ध्वनि नियंत्रण यानी साउण्ड-प्रूफिंग की व्यवस्था करना टेढ़ी खीर थी. हंसराज लूथरा साहब ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जब कभी किसी विशिष्ट व्यक्ति को रिकॉर्ड करना होता था, तब बाहर सड़क पर दो लोगों को खड़ा किया जाता, जो वहां से गुजरने वाली गाड़ियों से कुछ देर रुकने या कम से कम हॉर्न न बजाने का अनुरोध करते थे. बाद में साउण्ड-प्रूफिंग की कामचलाऊ व्यवस्था की गयी. अलीपुर रोड की यह कोठी सात साल तक दिल्ली केंद्र के तौर पर काम करती रही, जब तक कि संसद मार्ग स्थित प्रसारण भवन बनकर तैयार नहीं हो गया.
प्रसारण भवन की परिकल्पना और उसके निर्माण का श्रेय भारत के पहले प्रसारण नियंत्रक लियोनेल फ़ील्डन को जाता है. उनका कहना था कि प्रसारण भवन का डिज़ाइन कुछ ऐसा होना चाहिए कि स्थापत्य से ही उसके काम काज का आभास मिल सके. अगर आप साथ दिये चित्र को ध्यान से देखें तो पायेंगे कि वह आपको ग्रामोफोन रिकॉर्ड और स्पूल टेप की याद दिलाता है. रिकॉर्ड और टेप की तरह इस भवन का डिज़ाइन भी गोल चक्रों को केंद्र में रखकर किया गया है. सामने से देखने पर भवन के तीन चक्र नज़र आते हैं, जिन्हें ध्यान से देखें तो ऐसा लगता है जैसे टेप मशीन पर चढ़ा हुआ स्पूल टेप हो. प्रसारण भवन के बीचोबीच एक लम्बा ऊंचा गुम्बदनुमा चक्र है और दोनों सिरों पर कुछ छोटे दो चक्र हैं. तीनों को आपस में जोड़ते लम्बे गलियारे हैं, जिनके पीछे बने कमरों में कला, संस्कृति, साहित्य और संगीत की एक से एक दिग्गज हस्तियों को भरपूर मान-सम्मान और प्रोत्साहन मिला. पीछे की ओर एक चौथा चक्र भी है, जो संसद मार्ग से नज़र नहीं आता. प्रारंभ में हिंदी और अंग्रेज़ी के न्यूज़ रूम यहीं हुआ करते थे.
इस प्रसारण भवन का उद्घाटन ६ फरवरी १९४३ को हुआ. विश्व युद्ध का ज़माना था, इसलिए जल्दी-जल्दी में, लम्बे-चौड़े समारोह के बिना ही दिल्ली केंद्र यहाँ स्थानांतरित कर दिया गया. वर्ष २००३ में प्रसारण भवन की हीरक जयंती के अवसर पर एक स्मारिका प्रकाशित की गयी थी, जिसमें रेडियो से जुड़े बहुत सारे लोगों ने इस भवन के विषय में अपनी भावनाएं व्यक्त की हैं. उनमें से कुछ मैं यहाँ आपके लिए चुरा लायी हूँ.
कमलेश्वर :
यह मात्र एक खूबसूरत इमारत नहीं, बल्कि सन १९४३ से लेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और सन १९४७ में जीती गयी आज़ादी के संघर्षपूर्ण इतिहास का तथा भारतीय लोकतंत्र की स्थापना व इस देश के संवैधानिक मान-मूल्यों का सबसे बड़ा अभिलेखागार और संग्रहालय भी है. यही वह इमारत है, जिसमें भारत की विविधतावादी समन्वित संस्कृति के स्वर, महान लोगों की आवाजें और शब्द सुरक्षित हैं. मैं जहाँ तक जानता हूँ, इसके आधार पर कह सकता हूँ कि संस्कृति, कलाओं और विचार का ऐसा अभिलेखागार दुनिया के किसी और देश के पास नहीं है.
प्रो. गोपीचंद नारंग :
पार्लियामेंट स्ट्रीट पर ऑल इंडिया रेडियो की जगमगाती इमारत हम नौजवानों के दिलों की धडकनों में शामिल थी. आते-जाते मेरी निगाहें रह-रह कर इसकी तरफ उठती थीं. इसके दूधिया बरामदे और हरे-भरे लॉन अजीब बहार रखते थे.......इमारत के रखरखाव और सफाई सुथराई के अपने क़ायदे थे, जिनकी निहायत सख्ती से पाबंदी की जाती थी. ...पचास-पचपन साल की यादें और पुरानी बातों का एक रेला है जो काफिला-दर काफिला उम्दा चला आता है. कहाँ तक ज़िक्र किया जाये और क्या लिखा जाये.
कुछ हवा तेज़ थी, खुली थी किताब
एक पिछला वरक़ पलट आया.
भीष्म साहनी :
शाम का वक़्त रहा होगा जब मैंने पहली बार इसे देखा. यह बिल्डिंग अपने फैलाव के बावजूद मुझे बड़ी नाज़ुक सी नज़र आयी थी. इसमें अपनी एकविशेष कमनीयता थी, एक तरह का इकहरापन, कुछ-कुछ खिलौने जैसा हल्का-फुल्का. इमारत तो बहुत सी ज़मीन को घेरे हुए थी पर उसके निर्माण में एक छरहरापन सा था, जो आँखों को बंधता था. उस वक़्त शाम के साये उतर रहे थे, इस कारण भी उसकी छवि और भी प्रभावशाली लग रही थी.
रेवती सरन शर्मा :
क्या नाज़ुक सपने सी इमारत थी..... ऐसी हलकी-फुल्की, न आयताकार न चौकोर, न भव्य न ठोस, न किसी की देखी न किसी की सोची, गोलाकार भी और गोलाकार नहीं भी. लेखकों, गायकों और कल्पना में खोये लोगों के लिए ऐसी ही इमारत होनी चाहिए, जो किसी बड़े पक्षी के उड़कर आये पंख की तरह हौले से आकर धरती पर टिक जाए - बिना बोझ का, बिना जब्र का एहसास दिलाये.
तो इस परों सी उड़कर आयी और धरती पर हौले से टिक गयी इमारत में प्रवेश करते हुए मन में कैसे-कैसे ख्याल आते थे, आपको क्या बताऊँ. कुछ-कुछ "आज कल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे" वाली कैफियत होती थी. बीच वाले गुम्बद में प्रविष्ट होते ही सामने दीवार पर किम्वदंतियों सरीखे स्वामी हरिदास और तानसेन के पत्थर पर उत्कीर्ण चित्र जहाँ संगीत को ईश्वर की आराधना का माध्यम बनाने वालों की याद दिलाते; वहीँ पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर, भातखंडे जी, बड़े ग़ुलाम अली खान और फ़य्याज़ खान साहेब की आवक्ष प्रतिमाएं उसे जन-जन तक पहुँचने वालों का गुणगान करती नज़र आतीं.
बायीं ओर स्टूडियोज़ का प्रवेश द्वार है, जहाँ से अंदर जाते हुए मैं हमेशा ठिठक जाती थी और सोचने लगती थी कि अब तक न जाने कितनी विभूतियों ने इन्हीं स्टूडियोज़ में बैठकर अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करायी होंगी. देश की स्वतंत्रता की कितनी ढेर सारी खुशियों और देश के विभाजन के कैसे असहनीय दुःख को यहाँ से अभिव्यक्ति मिली होगी. साहित्य और संगीत के न जाने कितने दिग्गज इन्हीं गलियारों से होकर गुज़रे होंगे, हँसे-बोले होंगे, और उनकी आवाज़ यहाँ से हवा के पंख लगाकर सीधी लाखों करोड़ों हिन्दुस्तानियों के दिलों तक पहुंची होगी. इतिहास की कितनी सारी घटनाओं का मूक साक्षी होगा यह.
अगर यह हमसे बातें कर सकता तो कितना कुछ कहता, कौन -कौन सी घटनाएँ सुनाता.... शायद ३ जून १९४७ की उस परिचर्चा का विवरण सुनाता, जब लॉर्ड माउन्टबेटन,जवाहर लाल नेहरु, मोहम्मद अली जिन्ना और बलदेव सिंह ने पहली बार पार्टीशन का कड़वा सच देश की जनता के सामने रखा था.
या फिर ३० जनवरी १९४८ की उस काली रात का हाल सुनाता जब नेहरु जी ने रुंधे गले से कहा था - हमारे जीवन से प्रकाश चला गया है और चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा है.
या निरंतर आगे बढ़ते इस देश की तमाम सफलताओं को एक-एक कर गिनवाता ....१९७१ की विजय का उल्लास, पोखरण परमाणु परीक्षण, एशियाई खेलों का सफल आयोजन और अंतरिक्ष से आती राकेश शर्मा की आवाज़ - यहाँ से तो मैं बस यही कह सकता हूँ कि "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसतां हमारा" .....
बचपन से इस प्रसारण भवन में आती-जाती रही हूँ, पिछले २६ वर्षों से तो हर रोज़ ही आना हुआ है, लेकिन पहली बार गंगा में डुबकी लगाते समय जो क्षण भर के लिए साँस रुक जाने जैसी अनुभूति होती है, कुछ वैसा ही मेरे साथ प्रसारण भवन में प्रवेश करते समय भी होता है. अंदर आते ही कभी स्वामी हरिदास तो कभी बड़े ग़ुलाम अली खान साहब की तरफ आँखें घूम जाती हैं और तब अपना आप बहुत छोटा, बड़ा तुच्छ महसूस होता है. मैं जानबूझ कर स्टूडियो के प्रवेश द्वार पर लिखा गांधीजी का वह सन्देश पढ़ने लगती हूँ, जिसमें उन्होंने कहा था कि
"मैं यह नहीं चाहता कि मेरे घर के सारे दरवाज़े-खिड़कियाँ बंद कर दी जायें. मैं चाहता हूँ कि सभी देशों की संस्कृतियाँ यहाँ हवा की तरह खुलकर आयें-जायें. लेकिन ऐसा भी न हो कि वे हवायें मेरे पैरों को मेरी ही ज़मीन से उखाड़ दें".
इतने लम्बे समय तक इतिहास के साक्षी रहे प्रसारण भवन में अब कुछ कार्यालय और कुछ रेकॉर्डिंग स्टूडियो ही शेष रह गये हैं. प्रसारण का लगभग पूरा काम-काज इस भवन के ठीक पीछे बने नये प्रसारण भवन या न्यू ब्रॉडकास्टिंग हाउस से होने लगा है.लाखों रूपये की लागत से बनी यह इमारत भी शानदार है, इसमें कोई दो राय नहीं. लेकिन मेरे लिए इस इमारत के साथ वह तिलिस्म जुड़ा हुआ नहीं है, जो मेरे बी एच यानी पुराने प्रसारण भवन के साथ जुड़ा था, जिसमें पैर धरते ही मेरा सर अचानक, अनायास गर्व से ऊंचा हो जाता था.
8 comments:
बहुत रोचक है रेडियो का सफरनामा। पढ़कर कईं बातों से इत्तफाक हुआ।
अच्छी जानकारी - आभार
अन्नपूर्णा
GGShaikh said:
शुभ्रा जी,
सच में एक पिछला वरक़ पलट आए...
कमलेश्वर जी, भीष्म सहनी, रेवती शरण जी इत्यादि के विचार
सूचक रहे... खोजबीन का शुक्रिया...
आपकी वर्णनात्मक शैली तेज़दम...
बहुत ही रोचक जानकारी है। विशेषत: जब सड़क पर लोगों को कम आवाज करने के लिये कहा जाता था ताकि प्रसारण ठीक से हो सके । बहुत दुर्लभ जानकारी है मेरे लिये तो।
बहुत ही शोधपरक-रोचक जानकारी ! विशेष रूप से उनके लिये जो रेडियो से प्यार करते हैं.
हैलो मेम,
वाकई में यह जानकारी बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्द्धक है। बहुत-बहुत धन्यवाद।
कोषा
Bhasha aur drishti virasat mein mili hai, radionaama padha kar samajh gaya hun. Behad rochak shaili mein padhane ko mila radio ka itihas.
Post a Comment
आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।