रेडियोनामा पर महेंद्र मोदी अपने संस्मरणों की पाक्षिक श्रृंखला लिख रहे हैं--'कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन'। इस श्रृंखला में राजस्थान से शुरू होकर देश के अलग अलग शहरों तक पहुंची उनकी रेडियो-जिंदगी की यादें आप पढ़ रहे हैं। दूसरी कड़ी।
उस ज़माने में राजस्थान में कहने को पांच रेडियो स्टेशन हुआ करते थे जिनमें से एक अजमेर में सिर्फ ट्रांसमीटर लगा हुआ था, जो पूरे वक्त जयपुर से जुड़ा रहता था. मुख्य स्टेशन जयपुर था और बाकी स्टेशन यानी जोधपुर, बीकानेर और उदयपुर केन्द्रीय समाचार दिल्ली से रिले करते थे, प्रादेशिक समाचार जयपुर से, कुछ प्रोग्राम के टेप्स जयपुर से आते थे उन्हें प्रसारित करते थे और कुछ प्रोग्राम जिनमें ज़्यादातर फ़िल्मी गाने बजाये जाते थे, अपने अपने स्टूडियो से प्रसारित करते थे. मुझे इस से कोई मतलब नहीं था कि कौन सा प्रोग्राम कहीं और से रिले किया जाता है और कौन सा बीकानेर के स्टूडियो से प्रसारित होता है, मैं तो अपने मालिये ( छत पर बने कमरे ) में बैठा अपने उस छोटे से रेडियो को कानों से लगाए हर वक्त रेडियो सुनने में मगन रहता था. जब भी संगीत का कोई प्रोग्राम आता तो मैं बैंजो निकालकर उसके साथ संगत करने लगता...... उस वक्त मुझे इस बात का ज़रा भी आभास नहीं था कि खेल खेल में की गयी ये संगत आगे जाकर हर उस स्टेशन पर मेरे साथियों के बीच मुझे एक अलग स्थान दिलवाएगी जिस जिस स्टेशन पर मेरी पोस्टिंग होगी. हर बुधवार और शुक्रवार को रात में नाटक आया करता था जिसे मैं किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ सकता था. रविवार को दिन में पन्द्रह मिनट की झलकी आती थी और महीने में एक बार रात में नाटकों का अखिल भारतीय कार्यक्रम. ये सभी कार्यक्रम मेरे सात रुपये के उस नन्हें से रेडियो ने बरसों तक मुझे सुनवाए.
उन दिनों जयपुर केंद्र से नाटकों में जो आवाजें सुनाई देती थीं उनमें प्रमुख थीं- श्री नन्द लाल शर्मा, श्री घनश्याम शर्मा, श्री गणपत लाल डांगी, श्री देवेन्द्र मल्होत्रा, श्री गोरधन असरानी (आगे चलकर फिल्मों के प्रसिद्ध कलाकार बने असरानी), श्रीमती माया इसरानी, श्री सुलतान सिंह, श्रीमती लता गुप्ता . इन सब कलाकारों के इतने नाटक मैंने सुने कि सबकी अलग अलग तस्वीरें मेरे जेहन में बन गईं. वो तस्वीरें इस क़दर पक्की हो गईं कि 22-23 बरस बाद सन १९८५ में जब मैं नाटकों के अखिल भारतीय कार्यक्रम के एक नाटक में भाग लेने के लिए इलाहाबाद से दिल्ली आया और नन्द लाल जी को पहली बार देखा तो मैं मानने को ही तैयार नहीं हुआ कि मेरे सामने खड़े सज्जन नन्द लाल जी हैं क्योंकि मेरे तसव्वुर के नन्द लाल जी तो लंबे चौड़े बहुत स्मार्ट से नौजवान थे मगर जो सज्जन मेरे सामने स्टूडियो में खड़े थे वो तो छोटे से कद के, मोटे शीशे का चश्मा लगाए अधेड उम्र के थे. उस दिन मेरे दिल-ओ-दिमाग में बनी एक शानदार तस्वीर चकनाचूर हो गयी थी मगर फिर सोचा, कितना बड़ा है ये कलाकार जिसने अपने अभिनय से मेरे जेहन में इतनी कद्दावर तस्वीर उकेर दी. मैं उनके कदमों में झुक गया था, श्रद्धा से सराबोर. खैर ये बात आगे चलकर पूरी करूँगा. तो........ इन सभी कलाकारों के नाटक सुनते सुनते पता नहीं कब नाटक का एक बीज मेरे भीतर भी फूट पड़ा. कहते हैं आप चाहकर भी किसी को कलाकार बना नहीं सकते.... कला का बीज तो हर कलाकार में जन्म से ही होता है......जब भी उसे सही वातावरण मिलता है वो बीज अंकुरित होने लगता है……नाटक करने की कितनी क्षमता मुझमें रही है इसका आकलन तो मैं खुद नहीं कर सकता मगर नाटक करने का शौक़ मुझे बचपन में उस वक्त से रहा है जब मुझे पता भी नहीं था कि जो मैं कर रहा हूँ उसे नाटक कहते हैं.
मुझे याद आ रही है ऐसी ही एक घटना...... बात उस वक्त की है जब मेरी उम्र थी लगभग चार साल. मेरी एक रिश्ते की मौसी जी उज्जैन से आए हुई थीं. वो, मेरी माँ और मेरी मामी जी बैठी हुईं बातें कर रही थीं और मैं जो कि अपनी मौसी जी के बहुत मुंह लगा हुआ था, वहाँ खूब शैतानियां कर रहा था. सभी लोगों ने मुझे शैतानियाँ न करने के लिए कहा लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं हुआ और मैंने अपनी मस्ती चालू रखी. जब सब लोग तंग हो गए तो मेरी मौसी जी ने आख़िरी हथियार का उपयोग किया. वो बोलीं “ देख महेन्द्र, अब भी तू नहीं मानेगा तो मुझे तेरी शिकायत जीजा जी (मेरे पिताजी) से करनी होगी.” लेकिन मैं शैतानी करने से फिर भी बाज़ नहीं आया क्योंकि मैं मान ही नहीं सकता था कि मेरी इतनी प्यारी मौसी जी मेरी शिकायत पिताजी से कर सकती हैं. जब मैं किसी भी तरह काबू में नहीं आया तो मौसी जी उठीं और अंदर की तरफ जिधर के कमरे में पिताजी बैठे हुए थे चली गईं. दो मिनट बाद लौटकर आईं और बोलीं “ महेन्द्र , जा तुझे जीजा जी बुला रहे हैं.” मुझे अंदाजा हो गया कि वो मुझे बेवकूफ बना रही हैं, उन्होंने मेरी शिकायत हरगिज़ नहीं की है. मैं उठा.... अंदर आँगन के चार चक्कर लगाए और रोता हुआ वापस उस कमरे में आ गया जहां मौसी जी वगैरह बैठे थे. मैं सिर्फ नकली रोना चाह रहा था मगर न जाने कैसे नकली रोते रोते सचमुच मेरी आँखों में आंसू आ गए. मौसी जी घबराईं.... बोलीं “ अरे क्या हुआ? क्यों रो रहे हो?” मैं रोते रोते बोला “ पहले तो मेरी शिकायत पिताजी से करके डांट पड़वा दी और अब पूछ रही हैं क्यों रो रहे हो?” उन्होंने मुझे गोद में लिया और बोलीं “लेकिन बेटा न तो मैं उनके पास गयी और न ही तुम्हारी शिकायत की . मैं तो वैसे ही आँगन में चक्कर लगा कर आ गई थी.” मेरी आँखें तो अब भी आंसुओं से भरी हुई थी मगर मुझे जोर सी हंसी आ गयी और मैंने कहा “ तो मैं कौन सा उनके पास गया था? मैं भी आँगन में चक्कर लगाकर लौट आया था.” इस पर वो बोलीं “ अरे राम...... फिर ये इतने बड़े बड़े आंसू? ये कैसे आ गए तुम्हारी आँखों में ?” इसका मेरे पास भी कोई जवाब नहीं था ....... क्योंकि मुझे खुद पता नहीं लगा कि रोने का अभिनय करते करते कब मेरी आँखों में सचमुच के आंसू आ गए. शायद ये मेरी ज़िंदगी का पहला मौक़ा था जब मैंने सफलतापूर्वक नाटक किया था. उस वक्त मेरी उम्र महज़ चार साल थी, मुझे कहाँ समझ थी कि जो मैंने किया, उसे नाटक कहते हैं और आगे जाकर ये नाटक मुझे ज़िंदगी के कितने कितने रंग दिखायेगा?