रेडियोनामा पर जानी मानी समाचार वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने दिलचस्प पाक्षिक संस्मरण लिख रही हैं। उनके सारे लेख आप यहां चटका लगाकर पढ़ सकते हैं।
एक समय था जब स्कूल-कॉलेज या ऑफिस जाने वालों के लिए आकाशवाणी का सवेरे आठ बजे का बुलेटिन घर से रवाना होने की पहली घंटी के समान होता था. जिसको जब भी रवाना होना होता था, वह आठ बजे के बुलेटिन को मीन टाइम बनाकर, उसके इर्द गिर्द अपने चाय - नाश्ते का क्रम बता देता था. मसलन मेरी स्कूल बस लगभग पौने नौ बजे आती थी तो मैं घर वालों को आगाह कर देती थी कि मैं बुलेटिन के साथ नहाने जाऊंगी और उसके फ़ौरन बाद नाश्ता करूंगी. मेरे पापा चाय - काफी नहीं पीते थे. तो उनके लिए भी मेरे साथ ही दूध का गिलास तैयार कर दिया जाता क्योंकि वे दूध काफी ठंडा करके पीते थे. पापा हिंदी और अंग्रेज़ी के दोनों बुलेटिन अहिंसा की तरह "परम धर्म" मानकर सुनते थे और उसके बाद स्नान - ध्यान में लग जाते थे. बुलेटिन शुरू होने के समय से घर की घड़ियाँ मिलायी जाती थीं. घड़ी का समय बिलकुल सही है, यह बताने के लिए बस इतना ही कहना काफी होता था कि "रेडियो टाइम" से मिली है. आगे तर्क की कोई गुंजाईश ही नहीं रह जाती थी.
यह बहुत ख़ुशी की बात है कि तमाम अच्छे - बुरे परिवर्तनों के बीच आकाशवाणी की यह परंपरा आज तक क़ायम है. आठ बजे का बुलेटिन अब भी ठीक आठ बजे प्रसारित होता है .... न एक सेकण्ड पहले, न एक सेकण्ड बाद. पहले इसकी ज़िम्मेदारी दिल्ली केंद्र के तकनीकी सहायकों की होती थी.... अब स्वचालित यंत्रों की है. ठीक समय पर स्टूडियो की लाल बत्ती जल जाती है और शुरू हो जाता है समाचारों का सिलसिला.
आज से कोई २४-२५ वर्ष पहले सुबह आठ बजे और रात पौने नौ बजे के बुलेटिन इतने अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते थे कि नये वाचकों को कई-कई बरस तक पढ़ने को नहीं मिलते थे. किसी को १३ तो किसी को १७ बरस तक इंतज़ार करना पड़ा.
इस बारे में वरिष्ठ समाचार वाचक हरी संधू एक मज़ेदार क़िस्सा सुनाते हैं. बताते हैं कि उन्हें न्यूज़ रूम में आये कई साल हो गये थे लेकिन तब भी रात पौने नौ का बुलेटिन पढ़ने को नहीं मिला था. संधू जी को पान खाने का शौक़ है. कई बार दुकान से पान बँधवा कर ले आते हैं. एक दिन न्यूज़ रूम में शाम सात बजे के आस-पास चाय का दौर चला. चूँकि अगले बुलेटिन में अभी काफी देर थी, सो संधू जी ने सोचा - तब तक पान जमाया जाये.
पान का दोना निकाला ही था कि इंदु वाही सामने आ गयीं. इंदु जी ने कहा - पान तो हम भी खायेंगे.
संधू जी ने दोना उनके आगे बढ़ा दिया.
इंदु जी ने उसमें से दो पान निकाले और मुंह में रख लिए. दोना वापस संधू जी के पास आ गया.
इंदु जी ने सिद्धहस्त पान खाने वालों की तरह पान मुंह में घुला तो लिया, लेकिन जैसे ही उसका कुछ अंश भीतर गया.....सर पकड़ कर बैठ गयीं.
नाराज़ होकर बोलीं- संधू, इसमें क्या है ?
संधू जी बोले - पान.
इंदु जी बोलीं- हाँ हाँ, पान तो है लेकिन इसके अंदर क्या है?
संधू जी ने निहायत मासूम अंदाज़ में गिनाना शुरू किया - चूना, कत्था, सुपारी, ख़ुशबू और तम्बाखू .....
तम्बाखू भी था?.....कहती हुई इंदु जी बाहर भागीं.
पान थूकने, कुल्ले करने और ठंडा पानी पीने के बाद भी जब उनकी तबियत नहीं संभली, तब आखिरकार पौने नौ का बुलेटिन उनकी जगह संधू जी को पढ़ना पड़ा.
संधू जी कहते हैं कि उन्होंने जान बूझ कर इंदु जी को तम्बाखू वाला पान नहीं दिया था. उधर, इंदु जी कहती थीं कि पान देने से पहले उन्हें बताना चाहिए था कि उसमें तम्बाखू पड़ा हुआ है. मेरे न्यूज़ रूम में आने के बाद तक दोनों के बीच यह बहस जारी थी.
दूसरी तरफ थीं एक कैजुअल समाचार-वाचिका, जो मेरे लगभग दो वर्ष बाद के पैनल में चुनकर आयी थीं. जिस दिन उनकी न्यूज़ रूम में पहली ड्यूटी लगी, संयोग से मैं भी ड्यूटी पर थी. शायद किसी ने उन्हें मुझसे बात करने और काम समझने की सलाह दी होगी. वे मेरे पास आकर बैठीं. लेकिन मैंने देखा कि उनकी
दिलचस्पी काम समझने में कम और यह समझने में ज़्यादा थी कि न्यूज़ रूम का असली कर्ता-धर्ता कौन है. जब मैंने उनके तिरछे सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं दिया तो उन्होंने सीधे-सीधे पूछ लिया - वाचकों का ड्यूटी चार्ट कौन बनाता है?
मैंने उन्हें बताया कि विनोद कश्यप जी सबसे सीनियर समाचार वाचिका हैं और वे ही वाचन का चार्ट बनाती हैं.
इस पर उन्होंने पूछा कि विनोद जी कब और कहाँ मिलेंगी.
मैंने उन्हें ले जाकर विनोद जी से मिलवा दिया.
उन्होंने नमस्कार किया और कहा - मैं पौने नौ का बुलेटिन पढ़ने आयी हूँ.
मैं और विनोद जी, दोनों अवाक........ बस उनका चेहरा ही देखते रह गये.
फिर विनोद जी ने अपनी गुरु गंभीर आवाज़ में कहा - तो फिर कबसे पढ़ना चाहेंगी?
इसके पहले कि वे कोई और ज़बरदस्त बयान देतीं, मैं उन्हें कोहनी से पकड़ कर विनोद जी के आगे से हटा ले गयी.
अब सुनिए मेरा हाल.... मुझे न्यूज़ रूम में दाख़िल हुए लगभग दो वर्ष हुए थे. जुलाई १९८७ से मैंने आकाशवाणी में ड्यूटी शुरू की थी और यह बात होगी मई १९८९ की. ज़ाहिर है तब तक मैंने न तो सवेरे आठ बजे का कोई बुलेटिन पढ़ा था और न रात पौने नौ का. बल्कि छोटे-मोटे बुलेटिन बनाने या पढ़ने की ज़िम्मेदारी निभाते हुए भी अक्सर लोग-बाग मुझे छेड़ते रहते थे कि - मैडम अब बस एक- दो महीने की बात है. प्रोबेशन पीरियड किसी तरह शांति से बीत जाने दो.
पिछली किसी कड़ी में मैंने ज़िक्र किया है कि उन दिनों ड्यूटी लगाने से पहले प्रशासन के लोग फोन कर, हमारी सुविधा पूछ लिया करते थे. ऐसे ही एक दिन प्रशासन से गिलानी जी का फोन आया. उन्होंने पहले तो मेरी उपलब्धता पूछी और फिर मुझे बताया कि इस बार वे मेरी ड्यूटी आठ बजे के बुलेटिन के संपादन पर लगा रहे हैं.
मैं बुरी तरह घबड़ा गयी. पहला तर्क तो मुझे यही सूझा कि भाई, जिस व्यक्ति को आप बुलेटिन पढ़ने के योग्य नहीं समझते हैं, उसे संपादन की ज़िम्मेदारी कैसे सौंप सकते हैं?
लेकिन इस तर्क को गिलानी जी ने नकार दिया. बोले - यह सोचिये कि कितने लोग होंगे, जिन्होंने पढ़ने से भी पहले बुलेटिन बनाया होगा?
मैंने तरकश से दूसरा तीर निकाला. कहा - मैं अभी अपने को इस योग्य नहीं समझती.
गिलानी जी ने मेरा यह तीर भी काट दिया. कहने लगे - आप ख़ुद जो चाहे समझें... लेकिन अफसरों ने काफी सोच समझ कर ये फ़ैसला किया है. और आज नहीं तो कल, जब आपको संपादन करना ही है तो आज ही क्यों नहीं कर लेतीं.
मैं और कोई तर्क नहीं दे पायी. मुझे बुलेटिन बनाना ही पड़ा..... और वह भी पढ़ने से पहले.
बहुत सारी यादें उमड़ घुमड़ कर आती जा रही हैं. पहला बुलेटिन बनाना.....पढ़ना....महानिदेशक की बैठक में जाना....आलोचना सुनना..... और बेहतर काम करने का संकल्प लेना और भरसक उस संकल्प को पूरा करना.
आज की हमारी-आपकी बातचीत शुरू हुई थी बुलेटिन के ठीक समय से प्रसारण को लेकर तो चलते- चलते इसी सन्दर्भ में एक क़िस्सा सुनाती चलूँ. हुआ यों कि उस दिन भी मेरी आठ बजे का बुलेटिन बनाने की ड्यूटी थी. बुलेटिन की ख़बरें तो तैयार थीं, मगर यह अंदाज़ नहीं लग रहा था कि हेडलाइन्स क्या होंगी और उनका क्रम क्या होगा. हमारे बुलेटिन का समय पास आता जा रहा था. सिर्फ दो मिनट रह गये थे जब हेडलाइन्स हमारे पास पहुंची. इतना समय नहीं था कि उनका अनुवाद कराया जा सके. मैं अंग्रेज़ी हेडलाइन्स ही हाथ में लेकर स्टूडियो की तरफ दौड़ी. सोचा था.... ख़बरों के पहले वाक्य हेडलाइन्स के तौर पर पढ़वा दूँगी. लेकिन उसके लिए उन सभी ख़बरों का मेरे हाथ में होना ज़रूरी था. इसलिए दौड़ते-दौड़ते भी ख़बरें छांटती जा रही थी. कमरे के बाहर पैर रखा ही था कि धड़ाम से गिरी.
समाचार पत्रों की सुर्ख़ियों वाला अंश पढ़ने के लिए राजेंद्र चुघ मेरे पीछे आ रहे थे. मुझे गिरते देखा तो एकदम चिल्ला पड़े - अरे रे.... क्या करती हो.
उन्हें देख कर मेरी जान में जान आयी. मैंने कहा- मुझे छोड़ो... हेडलाइन्स लेकर भागो. मैं आ रही हूँ.
चुघ साहब वाक़ई मेरे हाथ से हेडलाइन्स लेकर बगटूट भागे.
मैं जब तक लंगड़ाती हुई स्टूडियो में पहुंची, वे मुख्य वाचक से हेडलाइन्स पढ़वा चुके थे.
उन्होंने मुझे इशारा किया कि तुम बैठ जाओ .... मैं बुलेटिन पढ़वा देता हूँ.
लेकिन मैंने उन्हें इशारा किया कि मैं अब ठीक हूँ. कर लूंगी.
बुलेटिन के बाद मुझे 'झाँसी की रानी' और 'राणा सांगा' जैसी उपाधियों से नवाज़ा गया. कुछ लोग मेरे गिरने के स्थल पर मरने वाली चींटियों को गिनने भी गये. ड्यूटी के बाद मैं गाड़ी चलाकर घर भी आ गयी.
शाम को मेरे डिब्बे जैसे फूले पैर के एक्स-रे से पता चला कि उसकी एक कोई बेचारी मुन्नी-सी हड्डी टूट गयी है. अब दर्द के बावजूद हंसने की मेरी बारी थी.
5 comments:
बड़ा ही दिलचस्प किस्सा है..
पौने ९ के समाचार की घंटी तो हमारे लिए पढ़ाई से छुट्टी की घंटी होती थी...पिता जी समाचार प्रेमी हैं उन्हे समाचारों के बीच किसी दखलदंजी पसंद नही तो समाचार शुरू होते ही हमे खाने के लिए भेज देते थे..
पौने नौ बजते ही घर में एकदम सन्नाटा पसर जाता था कारण ! समाचार ! मेरे पिताजी को अगर समाचार के बीच कोई बोलता या फुसफुसाता मिल जाए तो खैर नहीं उसकी देवकी नंदन पांडे जी की आवाज का जादू था या समाचार सुनने का हाँ लेकिन मैं इस बीच यानी उन पुराने दिनों में अपने पिताजी से खूब पिटा ! अब कम से कम रेडियो नामा के जरिये उस याद को ताजा ही कर लिया चाहे वो पीटने वाली ही थी !
--
kafi achcha laga ye sansmaran padker... vakai 8 baje ki sawere ki news se ghari milayi jati thi ... aaj bhi yaad hai... ashok vajpayee ji ki awaaz aur vinod kashyap ki aawaz... radio ke din bade dilchasp hua kerte the... news ke beech me majal hai koi bol jaye ... use buri wali daant khani perti thi ... maza aa gaya aap logo ki baante pardker
सुबह आठ बजे का बुलेटिन हो या रात पौने नौ बजे का बुलेटिन हम जैसे लोगों को इन्तेज़ार रहता था देवकी नंदन पाण्डेय जी का क्योंकि उनसे हम लोग सीख सकते थे कि किस शब्द को कैसे बोलना है? अशोक बाजपेयी भी थे, विनोद कश्यप भी थीं और उसके बाद इंदु वाही और, और भी बहोत सारे लोग मगर न जाने क्यों , लगता था सही वही है जो कि पाण्डेय जी बोला करते थे. बरसों बाद मुंबई से दिल्ली आते हुए जब पाण्डेय जी के दर्शन हुए तो लगा जीवन सफल हो गया.मैं उनके पैरों पर बरबस ही झुक गया , उन्होंने उठाया और पूछा "भाई आप कौन हैं ?" मैंने अपना नाम बताया और कहा मैं विविध भारती में हूँ.उन्होंने फिर पूछा "किस पद पर हैं?" मैंने बहुत संकुचाते हुए कहा "जी ए एस डी हूँ" वो मुस्कुराए और बोले "अच्छा तो भाई आप तो हमारे अफसर हैं." मुझे लगा ज़मीन फट जाए और मैं उस में समा जाऊं,मैंने बहुत संकोच के साथ कहा " सर कैसी बात कर रहे हैं? मैं तो आपका बच्चा हूँ, रेडियो पर जो भी टूटा फूटा बोलता हूँ आप के समाचारों को सुनकर ही सीखा है" उसके बाद घंटों उनके पास बैठकर उस अमृत जैसी वाणी को सुनता रहा मैं. वो आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूँज रही है और शायद अंतिम सांस तक इसी तरह गूंजती रहेगी.
Ham bhi 8:45 pm ka samachar daily sunte hain, vividh bharti ke madhyam se. AIR aur Doordarshan News ki gunvatta ke sath koi samjhauta nahi hota. jahan tak ham sabhi jante hai.
Sandeep (Sani) singh chandel (Allahabad) @sanialld
http://www.facebook.com/sanialld
Post a Comment
आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।