स्कूल से घर लौटकर बस्ता रखा और मुंह हाथ धोकर खाना खाने बैठा ही था कि दरवाज़े की सांकल बजी. सोचा, लाय ( आग ) बरसती ऐसी दुपहरी में कौन होगा भला? घर में और कोई था नहीं उस वक्त, भाई साहब अपने किसी सहपाठी के यहाँ गए हुए थे, पिताजी अपने दफ्तर और माँ मौसीजी के घर. उठकर दरवाज़ा खोला तो देखा पसीने से सराबोर मेरा दोस्त हरि अपनी साइकिल को सामने के पेड़ की हल्की सी छाया में खड़ी कर दरवाज़ा खुलने की राह देख रहा है. दरवाज़ा खुलते ही वो चिलचिलाती धूप को भागकर पार करते हुए घर के अंदर घुस गया. बीकानेर की गर्मी के तेवर उन दिनों कुछ ज्यादा ही तेज हुआ करते थे. ए. सी. तो बहुत दूर की चीज़ थी, कूलर भी नहीं होते थे उन दिनों. पचास में से किसी एक घर में पंखा होता था और बाकी लोग खस की टट्टियाँ खिड़कियों पर लगाकर उस से छनकर यदा कदा आती हवा से ही गुज़ारा किया करते थे. नींद की मीठी मीठी झपकियों के बीच बार बार हाथ के पंखे को झलना बहुत अखरता था और भगवान पर बड़ा गुस्सा आता था कि वो गर्मी के मौसम में खूब तेज हवा क्यों नहीं चलाये रखता? मगर हवा जो बंद होती थी तो कुछ इस तरह बंद होती थी कि पेड़ का पत्ता तक नहीं हिलता था और मुझे याद है कि घर में बिजली लगने से पहले कई बार मेरी माँ रात रात भर बैठ कर हम लोगों को पंखा झलती रहती थीं. जब कई कई दिन इसी तरह गुजर जाते तो सब लोग भगवान से अरदास(प्रार्थना) करते “हे भगवान और कुछ नहीं तो आंधी ही भेज दे.”
भगवान को भी पश्चिमी राजस्थान की इस धोरों (रेत के टीलों) की धरती पर बसे हर तरह के अभाव झेलते लोगों पर थोड़ी दया आ जाती और इधर उधर से कोई आवाज़ आ जाती “अरे काली पीली आंधी आ रही है रे ......” और सब लोग उठ खड़े होते थे काली पीली आंधी को देखने के लिए. क्षितिज पर उभरता एक छोटा सा काला पीला धब्बा थोड़ी ही देर में रेत का समंदर बनकर पूरे आकाश को ढंक लेता था . हर ओर बस रेत ही रेत .... सड़क की बत्तियाँ जला दी जाती थीं क्योंकि इस काली पीली आंधी की परत इतनी मोटी होती थी कि सूर्य देवता की तेज किरणें भी उस परत को भेद नहीं पाती थीं. हर तरफ मिचमिचाती आँखें और सर पर रुमाल या गमछा लपेटे लोग.....और हाँ हर आँख रेत से कडकडाती हुई और हर मुंह रेत से भरा हुआ. ये आंधी लगातार कई कई दिनों तक चलती रहती थी. इसी रेत की आंधी के बीच सोना, इसी रेत के बीच उठना, इसी के बीच नहाना धोना और इसी के बीच खाना पीना....सुबह सोकर उठते तो देखते कि जिस करवट सोये थे उस करवट पर शरीर के साथ साथ रेत का एक छोटा सा टीला बन गया है और पूरा मुंह रेत से भरा हुआ है. आँखों को बहुत देर तक खोल नहीं पाते थे क्योंकि आँख की पलकें रेत से भरी हुई होती थीं. मगर ये रेत की काली पीली आंधी अपने साथ एक ऐसी सौगात लेकर आती थी जिसकी वजह से इतनी तकलीफों के बावजूद ये आंधी हमें बुरी नहीं लगती थी. ये सौगात थी .... गर्मी से राहत. जितने दिन ये आंधी चलती रहती थी ज़ाहिर है, हवा भी चलती रहती थी और हवा चलने का मतलब गर्मी से ज़बरदस्त राहत. मैं जल्दी से हरि को ड्राइंग रूम में ले गया जहां पंखा लगा हुआ था,एक खिड़की में खस की टट्टी लगी हुई थी और रेडियो पर धीमी धीमी आवाज़ में अल्लाह जिलाई बाई का गाया लोक गीत बज रहा था “थांने पंखियो झलाऊँ सारी रैन जी म्हारा मीठा मारू ..........” वो गाना तो नहीं पर फिलहाल अल्लाह जिलाई बाई को यहां सुनिए
बीकानेर में रेडियो स्टेशन सन १९६२ में खुल गया था.घर में रेडियो तभी आ गया था मगर रेडियो उन दिनों ड्राइंग रूम की शोभा हुआ करता था. सब लोग उसके चारों तरफ बैठकर ज़ाहिर है,घर के बड़ों की पसंद के प्रोग्राम सुना करते थे.रेडियो पर प्रोग्राम भी चलते रहते थे और गपशप भी. कभी ताऊजी या मामा जी आ जाते थी या पिताजी के मित्रों की मंडली जम जाती थी तो हम बच्चों को वहाँ से हटना पड़ता था. शायद बड़ों को लगता था कि चाहे हम बच्चे पास न बैठे हों गाने तो दूर तक भी सुनाई देते ही थे इसलिए उन्हें ऐसा कुछ भी नहीं लगता था कि रेडियो सुनने के हमारे अधिकार को वो हमसे छीन रहे हैं क्योंकि बाकी लोगों के लिए रेडियो फ़िल्मी गाने सुनने का साधन मात्र था. दो बातें थीं जो मुझे बहुत परेशान करती थीं. दरअसल मेरे पास एक बैंजो था जो भाई साहब के छठी कक्षा में अव्वल आने पर पिताजी ने उन्हें बतौर ईनाम दिलवाया था, उन्होंने तो दो चार दिन उसे बजाने की कोशिश कर के रख दिया था मगर मुझे वो बहुत आकर्षित करता था, एक दिन भाई साहब से डरते डरते पूछा “आप तो इसे बजाते नहीं हैं, क्या....... मैं........ इसे बजाने की कोशिश करूँ?” वो बोले “हाँ मुझसे तो नहीं बज रहा है ये, तुम कोशिश करके देख लो “. मैं रेडियो के पास बैठकर गानों के साथ साथ बैंजो पर सुर मिलाने की कोशिश करता था. जब लोग आस पास बैठे होते तो मेरी ये साधना नहीं हो सकती थी क्योंकि इस काम में एकाग्रता की ज़रूरत होती थी और भीड़ में मैं एकाग्रचित्त नहीं हो पता था. मेरी दूसरी परेशानी ये थी कि मुझे फ़िल्मी गाने सुनने में जितना आनंद आता था, उस से कहीं ज्यादा आनंद रेडियो नाटक सुनने में आता था, जब भी रेडियो पर नाटक सुनने का मौक़ा मिलता था मेरी कल्पना के सारे दरवाज़े खुल जाते थे और मैं दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता था......मगर दुर्भाग्य से घर में न जाने क्यों और किसी को भी रेडियो नाटक सुनने में कोई रुचि नहीं थी. इसलिए अगर कभी मैं रेडियो पर कोई नाटक लगा कर सुनने की कोशिश करता तो कोई न कोई स्टेशन बदल देता और मुझे नाटक की उस खूबसूरत दुनिया से बाहर आना पड़ता. ये दोनों ही समस्याएँ ऐसी थीं जिसका एक ही हल था कि मेरे पास अपना एक अलग रेडियो हो जिसपर मैं जब चाहूँ अकेला बैठकर नाटक सुन सकूं और जब चाहूँ, उस पर संगीत चलाकर उसके साथ बैंजो बजा सकूं. लेकिन........ जब बीस-तीस घरों में से किसी एक घर में रेडियो हो तो मुझ जैसे सातवीं आठवी कक्षा के छात्र के पास एक अलग रेडियो हो, ये शायद सपने में ही संभव था.
हरि घर के अंदर आया और आते ही बड़े उत्साह के साथ बोला “एक चीज़ लाया हूँ, तू देखेगा तो खुश हो जाएगा.” मैंने कहा “अरे भायला (दोस्त), इतनी गर्मी में आया है, पहले पानी तो पी ले, मेरे साथ दो निवाले रोटी के खा ले फिर देख लूँगा कि तू क्या लाया है.” दरअसल हरि डाक टिकिट इकट्ठे करता था इसलिए मैंने सोचा शायद कोई अच्छा डाक टिकिट लाया होगा दिखाने, जिसमें मुझे कोई खास रुचि नहीं थी. मगर उसने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया और बोला “दो तार के टुकड़े लेकर आ, फिर दिखाता हूँ तुझे कि मैं क्या लाया हूँ”. अब मुझे लगा कि शायद बात वो नहीं है जो मैं समझ रहा था. मैं उठा और दो तार के टुकड़े लेकर आ गया. अब हरि ने अपनी जेब से काले रंग का एक हैडफोन निकाला जो किसी फोन का एक हिस्सा लग रहा था, उसके पीछे की तरफ दो स्क्रू से निकले हुए थे. तार के दोनों टुकड़े उन स्क्रूज पर लपेटे गए. एक तार को एरियल के तौर पर ऊंचा टांग दिया गया और दूसरे तार के टुकड़े का एक सिरा हरि ने मेरे मुंह में डाल दिया. उस हैडफोन में कुछ कम्पन्न सी होने लगी तो हरि ने उसे मेरे कान से लगा दिया. उसमें बहुत ही साफ़ साफ़ आवाज़ में गाने आ रहे थे. हरि बोला “घर में बिजली न हो, तब भी आकाशवाणी, बीकानेर इसमें जब तक स्टेशन चालू रहे सुना जा सकता है. प्रभु रेडियो पर पांच रुपये में हैडफोन मिलता है और उसमें दो रुपये का एक क्रिस्टल लगवाना पड़ता है.”
उसी शाम अपनी गुल्लक को तोड़ा तो देखा उसमें आठ रुपये चार आने जमा थे. अपने उस बैंक को खाली करते हुए मुझे ज़रा भी अफ़सोस नहीं हुआ क्यों कि मुझे लगा, इसके बाद मेरी दुनिया बदल जाने वाली थी. मैंने प्रभु रेडियो से हैडफोन खरीद कर उसमें क्रिस्टल लगवाया और घर आकर अपने कमरे में उसे अच्छी तरह स्थापित कर दिया.... मेरा कमरा ऊपर की मंजिल पर था... एरियल के तार को खिडकी में से निकाल कर सबसे ऊपर लगी लाइट के छोटे से पोल से बाँध दिया. अब मेरे पास मेरा खुद का व्यक्तिगत रेडियो था. अब मैं जब चाहूँ, संगीत के साथ बैंजो बजा सकता था और अब मुझे रेडियो नाटक सुननेसे कोई नहीं रोक सकता था.
( क्रमश: )
29 comments:
यह आर्टिकल मेरे अंकल ने पढा तो बहुत खुश हुए। आंधियॉं तो अब भी बीकानेर में आती है परन्तु आजकल काली पीली आंधियॉं नहीं आती। हॉं, लाय (आग) अब भी वैसी ही बसरती है, जैसी कि उस समय। खस के टाटे बहुत समय बाद आज याद आऐ। बचपन में इनका बहुत लुफ्त लिया हुआ है।
विजय व्यास, बीकानेर (राजस्थान)
बहुत मजा आया मोदी जी की बचपन की यादों को पढ़ने का…हाँ मुझे भी खस के बने पर्दे याद आ रहे हैं जिस पर पानी डालने का काम हम बच्चों का ही होता था। राजस्थान का तो पता नहीं पर यू पी में गर्मियों में हम कमरे में करीब तीन तीन इंच पानी भर लिया करते थे कमरा ठंडा करने के लिए, पंखा तो होता था पानी भर लेने से ए सी का काम देता था।
उनके अगले संस्मरण का इंतजार है।
पूरी शृंखला एक बार साथ ही पढ़ूंगा…
शुरूवात अच्छी रही. लगता हैं यादो के साथ रेडियो के रूपों की भी जानकारी मिलेगी.
पहली कड़ी को पढ़ने के बाद अगली कड़ियों कि पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गई है।
आपने उस जमाने में आठ रुपए (!!!) रेडियो के लिए खर्च कर दिए तब घर में डाँट नहीं पड़ी कि घर में एक रेडियो के होते हुए नया खरीदने की क्या जरूरत?
नहीं नाहर जी, ड़ान्ट बिलकुल नहीं पड़ी,घर का जो माहौल था,जिस तरह की परवरिश हम लोगों की हुई, उसमें डान्ट फटकार बहुत rare सी बात हुआ करती थी,कई सारे निर्णय लेने का अधिकार पिताजी ने बहुत छुटपन में ही हमें दे दिया था. हालांकि कुछ निर्णय अपनी ज़िंदगी में मैंने बहुत गलत लिए जिनके बारे में आगे के episodes में बताऊँगा,मगर निर्णय लेने की आजादी देने के लिए में हमेशा अपने पिताजी का शुक्रगुजार रहूँगा.
मझा आ गया । पियुष महेता-सुरत ।
नहीं नाहर जी, ड़ान्ट बिलकुल नहीं पड़ी,घर का जो माहौल था,जिस तरह की परवरिश हम लोगों की हुई, उसमें डान्ट फटकार बहुत rare सी बात हुआ करती थी,कई सारे निर्णय लेने का अधिकार पिताजी ने बहुत छुटपन में ही हमें दे दिया था. हालांकि कुछ निर्णय अपनी ज़िंदगी में मैंने बहुत गलत लिए जिनके बारे में आगे के episodes में बताऊँगा,मगर निर्णय लेने की आजादी देने के लिए में हमेशा अपने पिताजी का शुक्रगुजार रहूँगा.
महेंद्र भाई आपका संस्मरण बेहद दीलचस्प लगा आगे पढने की उत्सुकता रहेगी
देशज शब्द , बीकानेर का परिवेश , रेडियो नाटक के प्रति आपका रुझान और
२ तारों के जुड़ने के बारे में पढकर खुशी हुई यूं ही लिखते रहें .
- लावण्या
बहन लावण्या जी, आपकी प्रतिक्रिया ने मेरे उत्साह को चौगुना कर दिया.बहुत कुछ घटा है इस जीवन में जो रडियो से सीधा जुडा है और उससे भी कहीं ज्यादा ऐसा कुछ है जिसकी पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं रेडियो, नाटक और संगीत मौजूद रहा है, बस आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपने उन सारे अनुभवों को निष्पक्ष रहकर, व्यवस्थित रूप से, बिना किसी का दिल दुखाये इस श्रृंखला में प्रस्तुत कर सकूं.हालांकि मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ उन रेडियो वालों का जिन्होंने जाने या अनजाने में मुझे शूलों के उपहार दिए क्योंकि हर काँटा हमें कोई न कोई सीख ही देकर जाता है .....और मैं उनके प्रति ज़रा भी कटु नहीं होना चाहता परन्तु आखिर इंसान हूँ, अगर मेरी किसी बात में कहीं कोई अनुचित कड़वाहट महसूस हो तो आप जैसे बड़ों को पूरा अधिकार है कान खींचने का, आपसे निवेदन है कि ज़रूर कान खीन्चियेगा, मैं सदैव आभारी रहूँगा.
भाई विजय व्यास जी, काली पीली आंधियां अब नहीं आतीं बीकानेर में और आयेंगी कहाँ से ? उन सुनहरे धोरों को तो हमने प्लास्टिक की थैलियों से पाट दिया है. पहले बीछवाल , दूसरी तरफ उदयरामसर पहुँचते पहुँचते रेत के धोरे सोने की तरह चमकते नज़र आने लगते थे, अब बीछवाल में लगी industries ने धोरों का नामोनिशान मिटा दिया है और उसकी जगह बीछवाल को बना दिया है पौलीथीन का कूड़ादान..... आपका और आपके अंकल का बहुत बहुत धन्यवाद .
अनीता जी, उत्तरप्रदेश में रहने का सौभाग्य मुझे भी मिला है....और खस के पर्दों की आख़िरी पीढ़ी के दर्शन भी किये हैं मैंने. आख़िरी पीढ़ी इसलिए क्योंकि १९८४ तक कूलर्स ने उन्हें लगभग विस्थापित कर दिया था.उत्तर प्रदेश के खस के पर्दों और बीकानेर के खस के टाटों (सही शब्द विजय जी ने लिखा है, मैंने उसका हिन्दीकरण कर दिया था)में फर्क ये था कि परदे अमूमन ३-४ इंच मोटे होते थे जबकि बीकानेर के ये टाटे ९-१० इंच मोटे हुआ करते थे.प्रशंसा के लिए आभार.
बहन लावण्या जी, नमस्कार. आपकी टिप्पणी के लिए आपका आभारी हूँ.यकीनन इसने मेरे उत्साह को चौगुना कर दिया है.इस छोटी सी ज़िंदगी में बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ है जो रेडियो से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुडा हुआ रहा है.रेडियो ने जो सुख दिए हैं उनकी कोई गिनती नहीं है मगर ये भी एक सच्चाई है कि समय समय पर कुछ रेडियो वालों ने गहरे ज़ख्म दिए हैं और बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी. आप सबसे आशीर्वाद चाहता हूँ कि अपने पूरे जीवन का निचोड़ लिखते वक्त ईश्वर मुझे निष्पक्ष और व्यवस्थित बने रहने की शक्ति दे ताकि मैं किसी के दिल को व्यर्थ ही दुखाने के अपराध से बच सकूं.
great sir..
Namsteji.yeh to bahot sundar aapne apne anubhavon ko apne shabon mein piroya hai, kehete hai guzara hua waqt kabhi loutkar nahi aata, haan magar unko smaran karke phir ek baar unko jeene ka prayaas zaroor kiya ja sakta hai, aapke es prayaas ko meri shubhkamanayen.
महेंद्र जी, रेडियो से जुड़े अनेक कही-अनकही किस्से कहानियों की महफ़िल रेडियोनामा में आपका स्वागत है.. आज रेडियो का एक सशक्त हस्ताक्षर हमारे साथ है.. जिसमे से वो कभी सेवानिवृत नही हो सकता.. अपने अनुभव हमेशा अपने श्रोताओं तक अपने पाठकों तक पहुंचाता रहेगा..
अनेक निजी कारणों से मैं रेडियोनामा के रेड कार्पेट पर आपके साथ आपके शुरूआती कदम से कदम नहीं मिला सका पर आज मैं आपके साथ हूँ.शुक्रगुज़ार हैं हम आपके जो आपने हमारी इस महफ़िल को इज्ज़त बख्शी.
आपने कहा कि इश्वर मुझे निष्पक्ष रहने की शक्ति दे... मैं वहीं से बात का आगाज़ करूँगा कि आप लिखें और बेबाक लिखेंगे.. हमें विश्वास है.सच है बात निकली तो दूर तलक जायेगी ही.
इस पोस्ट की बात करूं तो इस बात की सच्ची झलक मिल ही जा रही है. अपने शुरुआती दिनों की बातों, अपने बचपन की बातों से जिस कदर आपने आगाज़ किया है..सफर कैसा होने जा रहा है हमें कुछ कुछ आभास होने ही लगा है. अपनी बातों के साथ क्षेत्रीय शब्दों का प्रयोग,एक अलग ही रंग दे रहा है..जुड़ाव गहरा हो जा रहा है..अपने ब्लॉग पर के कुछ पोस्ट याद आ गए. हम रेडियो श्रोताओं को काफी कुछ सीखने को मिलने जा रहा है..कुछ नायाब चीजें भी!!!
अंत में एक बार फिर आपका धन्यवाद और आपका हार्दिक अभिनन्दन..
MR. MODI WAS SUBMISSION HIS FIRST EPISODE WITH GOOD ESSENCE. WE ALL ARE HOPING THAT HE WILL CONTINUE HIS PACE WITH HIS UNIQUE STYLE.
RANBAANKURON KI DHARATI SE UDI IS SUNDER ODHNI MEIN LIPAT KAR SABKO SUKOON MILAYA, AISI UMEED HI NAHI BALKI BHAROSA BHI HAI.
Best regards
Shiv Sharma - Ropar Punjab
भाई अजीत जी, जितनी गर्मजोशी, अपनत्व और नेह से आपने स्वागत किया उससे दिल भर आया और आँखें भी. आपने सही फरमाया है, सेवा निवृत्ति तो पद से होती है और मेरा सौभाग्य रहा कि मैं आप सबसे पद के ज़रिये नहीं, माइक्रोफोन के ज़रिये जुड़ा रहा. तो सरकार मुझे पद से तो निवृत्त कर सकती है लेकिन माइक्रोफोन और कैमरे के माध्यम से मैं समय समय पर आपके घर हाज़िर होता रहूँगा और ये जो तार हमारे बीच जुड़े हैं..... तब तक जुड़े रहेंगे जब तक कि ये साँसें चलती रहेंगी.
आपकी सुन्दर टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.उम्मीद करता हूँ कि इसी तरह आगे के posts को भी स्नेहपूर्वक पढते रहेंगे और मार्गदर्शन करते रहेंगे.
mahendra ji bahut rochak sansmaran hai...sahi hai badi badi khushiyan hai chhoti chhoti baton me.
guru ji namaste
धन्यवाद कविता जी, नमस्ते जोगा सिंह जी
sir i have never been to Bikaner but with your memories i felt that sand...a very live kind of writings....i wish i could hear it live on VB...
Sir kya baat hai, Rajasthani Dhoro ki mithash abhi bhi bacha ke rakhi hai aapne,apne ander, लाय,“अरे काली पीली आंधी आ रही है रे ......” ,भायला. kitne apne se lagte hai ye shabd. sab kuch aankho se samne se gujar gaya. so nice.
अंकिता और राजेश, धन्यवाद...... बहुत बहुत धन्यवाद.
Akhitrkaar radio ka number aa hi gaya, utsukta barkrar hai aage ka haal janne kee - pranam bhaiya - kamal
Astrologer Pandit ji perfectly plans to avoid the effects of black magic removal in Virginia and protect the people from their sufferings. Black magic is used to satisfy their intention to spoil their enemies' lives.
Black Magic Removal in Virginia
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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।