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Sunday, February 14, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- भाग १६




अमरू ने गाडा चलाना एक तरह से छोड़ ही दिया था.पांच हज़ार नकद बहुत बड़ी रकम थी उसके और उसके परिवार के लिए. अब दोनों वक्त घर में चूल्हा जलता था. हालांकि जैना रोज अमरू से काम पर जाने के लिए झगड़ा करती लेकिन अमरू पर कोई असर नहीं होता था. वो तो दिन भर जुआ खेलता और शाम को देसी दारू का एक पव्वा चढ़ाकर खूब हंगामा मचाता. कभी जैना की पिटाई होती तो कभी कालकी की, कभी मुनकी की बारी आ जाती तो कभी नूरकी की...... जिसकी भी बारी आती, मार तो उसे पड़ती ही थी लेकिन मुंनकी को जब मार पड़ने लगती तो बहुत ज़्यादा ही शोर शराबा मच जाता था क्योंकि वो चुपचाप मार नहीं खाती थी. वो तो जो चिल्ला चिल्लाकर अपने बाप को गंदी गंदी गालियाँ निकालती थी कि पूरा मोहल्ला इकठ्ठा हो जाता था. एक तरफ से हाथों के वार होते थे और दूसरी तरफ से गालियों के तीर चलते थे. बीच बीच में जैना के अपने पति को गालियाँ बकने की आवाज़ भी हवा में तैर जाती थी...... कुल मिलाकर लगभग रोज ये ड्रामा घंटे डेढ़ घंटे चलता था. उसके बाद जब अमरू वहाँ इकट्ठे हुए मोहल्ले के लोगों को गालियाँ देने लगता तो लोग समझ जाते कि बस खेल खत्म हो गया है, फूट लो यहाँ से. और लोग अपने अपने घर के लिए रवाना हो जाते. अमरू के पीछे वाला घर कालूजी का था जिनकी बीवी बरसों पहले उन्हें अकेला छोड़ कर अल्लाह मियाँ के घर चली गयी थी. कालू जी भी रोज एक पव्वा चढाते थे, बारी बारी से तीन बहुएँ थाली में दो रोटियां डालकर रोज पकड़ा देती थीं. वो पव्वा चढाने के बाद रोटी खाते और खूंटी पर टंगी ढोलक उतारकर उसे बजाकर लंबे लंबे आलाप लेकर संगीत सभा शुरू कर देते थे. हालांकि उनकी और मेरी मातृभाषा एक ही थी लेकिन मुझे कभी समझ नहीं आया कि वो क्या गाते थे. न जाने उनके गाने में कोई माधुर्य था या उनकी ढोलक की आवाज़ में, कि बस अमरू का मूड ठीक हो जाता था और वो ढोलक की थाप पर थिरक उठता था. लोगों को तो तमाशा देखने से मतलब था, इसीलिए मोहल्ले के लोग उस नाच और गाने को देखने सुनने फिर इकट्ठे हो जाया करते थे.


उस ज़माने में उन लोगों की पहुँच में न सिनेमा था और न रेडियो, तब ये नाच गाना ही उनके मनोरंजन के साधन थे. सारे मोहल्ले की नज़र में इन दिनों अमरू खूब पैसे वाली आसामी बन गया था लेकिन जैना का दिमाग अपनी जगह पर सही सलामत था. वो अब भी दोनों वक्त हमारे घर के बर्तन साफ़ करने आती थी और जब आती थी तो मेरी माँ के सामने अपने दिल का गुबार भी निकालती थी. “ देखो ना काकीजी, ऐ रिपिया कित्ता दिन चालसी ? पण ओ बालनजोगो काम पर जावै ई नईं.” साथ ही कभी कभी जैना खर्च के लिए मिले रुपयों में से कुछ रुपये बचा कर मेरी माँ के पास जमा करा देती थी. “ऐ थोड़ा सा रिपिया राखो काकी जी, अडी बगत में काम आसी ई सगळा रे” अमरू के पास रुपये तेज़ी से खतम हो रहे थे......इतने जीवों का पेट भरना, ऊपर से दारू और जुए की लत. जैना अमरू को खूब समझाती कि देख रुपये खतम हो रहे हैं, फिर तो गाडा रोज चलाना ही पडेगा. इससे अच्छा है अभी ही चलाना शुरू कर दे ताकि कुछ तो आमद रहे रुपये पैसे की. घर बैठे कोइ भाडा आ जाता था तो अमरू जाने भी लगा था गाडा लेकर लेकिन बहुत बुरा लगता था उसे मेहनत करना. पिछले कई महीनों से बड़े आराम से घर में पड़े पड़े रोटी भी मिल रही थी और दारू भी....... बहुत गुस्सा आता था उसे गाडा लेकर जाने में. गाडे को खींचने में जो पसीना बहाना पड़ता था, वो उसे झुंझलाहट से भर देता था. वो ये झुंझलाहट निकालता था जैना और बच्चों पर........फिर वही मार पीट और गालियाँ. जैना मेरी माँ से कहतीं “ काकी जी गाळियां सूं तो किसा गूमड़ा हुए पण ओ मरज्याणो जवान होती छोरियां पर हाथ उठावे जद म्हारो काळजो घणो बळै.”


मेरे पड़ोस में ज़िंदगी इसी तरह चल रही थी. लगभग ६ महीने गुजर गए थे भंवरी की शादी हुए कि एक दिन शोर मचा, भंवरी आई है भंवरी आई है.जैना भागी हुई आई और माँ से कुछ रुपये मांग कर ले गयी. उस बेचारी को क्या पता था कि अमरू ने क्या ठानी है, वो तो माँ से बोली “ काकी जी जंवाई आयो है सागै, बींरी खातर तो करनी पड़सी.” दामाद की खातिरदारी हुई.....दारू, गोश्त से लेकर पान बीडी तक सब कुछ पेश किये गए . अमरू भी दो दिन दामाद के साथ बहुत मीठा मीठा बोलता रहा और उसे खूब खिलाता पिलाता रहा. उसे ज़रा भी अंदाजा नहीं हुआ कि अमरू के दिमाग में क्या चल रहा है. चार दिन बाद दामाद बोला “ अब हम लोग चलते हैं. मैं अपना रेवड़ अपने काके के बेटे के सुपुर्द करके आया था. ज़्यादा दिन रुकेंगे तो वो परेशान हो जाएगा.” अमरू हाथ जोड़कर बोला “ कुछ दिन और रुकता तो आछो लागतो पण खैर, पधारो आप काम तो काम है पण एक अरज है, अगर बुरो नईं मानो तो.” दामाद बोला “ हुकुम करो आप, क्या कहना है ?” अमरू ने हाथ जोड़े हुए ही कहा “ आप तो पधारो पण म्हारी बेटी नै थोड़ा दिन अठै रैण दो.” उस बेचारे गाँव के सीधे सच्चे शफी को कहाँ पता था कि अमरू के दिल में क्या है? उसने कहा “हाँ हाँ जरूर रखो आप, जब भेजना हो समाचार करवा देना, मैं आकर ले जाऊंगा.” अमरू बोला “बहुत किरपा आप री जंवाई सा” और जंवाई सा लौट गए...... अमरू ने उस दिन जी भर कर पी और कालू जी की ढोलक की थाप पर जी भरकर नाचा.....चार पांच दिन गुजर गए तो भंवरी ने जैना से कहा “माँ अब कह्लावो भेज दो थारै जंवाई नै कि आ’र ले जावै म्हने.”


दरअसल चार पांच महीनों में रोज भरपेट खाने की आदत पड गयी थी भंवरी को. यहाँ तो वही कभी दो रोटी मिल जाती थी और कभी सिर्फ पानी पीकर ही सोना पड़ता था. ऊपर से वहाँ पति चाहे पचास बरस का था लेकिन बहुत प्यार करता था उसे और यहाँ हालांकि उसे ज़्यादा कोई कुछ बोलता नहीं था फिर भी कभी कभार अमरू के हाथ की एक आध पड ही जाती थी. जैना ने अमरू को कहा “जंवाई नै कहवा दो.” अमरू ने कहा “ हाँ कहवा दूंगा.” लेकिन उसने कुछ ठान ली थी....... हर बार जब जैना उससे कहती तो उसका यही जवाब होता.उसने न तो दामाद को कुछ कहलवाया और न ही दामाद के आये संदेशों का कोइ जवाब भिजवाया........ इसी तरह एक महीना गुजर गया. अमरू के घर रोज महाभारत छिड़ता.....पूरा मोहल्ला तमाशा देखने इकठ्ठा हो जाता. दरअसल ये शेख गरीब ज़रूर थे लेकिन ऐसा कभी किसी घर में नहीं हुआ था कि कोइ अपनी बेटी की शादी करे और फिर उसे घर बुलाकर अपने घर में ही बिठा ले. एक महीना गुजर गया तो दामाद शफी अपने कुछ सगे सम्बन्धियों के साथ अमरू के घर आया. खूब झगडा फसाद हुआ लेकिन अमरू ने साफ़ कह दिया कि वो भंवरी को शफी के साथ नहीं भेजेगा. बहुत बरस नहीं हुए थे बटवारे को.ये बहावलपुरी अनपढ़ थे, गाँवों में रहते थे और पशु पालन करते थे. एक एक बहावलपुरी के पास पांच पांच, दस दस हज़ार भेड़, दो दो चार चार हज़ार गाय भैंसे होती थीं जो उस वक्त भी उन्हें हज़ारो की आमदनी करवा देती थी लेकिन ये वो मुसलमान थे जो न जाने किन हालात में हिन्दुस्तान में रह गए थे और उनके दिमाग में कहीं एक ग्रंथि बैठ गयी थी कि उन्होंने गलती की है हिन्दुस्तान में रहकर.......हर बहावलपुरी के पास १२ बोर की दुनाली थी लेकिन वो उनसे सिर्फ तीतर या बटेरों का शिकार करता था, उस दुनाली का कहीं और उपयोग करने की सोच भी नहीं सकता था....... शफी भी उन्हीं बहावलपुरियों में से एक था. सीधा सादा इंसान. कई दिन कोशिश करता रहा कि भंवरी उसके साथ चली जाए लेकिन अमरू अड गया...... उसने भंवरी को नहीं भेजा तो नहीं ही भेजा. भंवरी भी सर फोड फोडकर रह गयी. उसे ककराला जाना नसीब नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ. उस बेचारी को भी कहाँ पता था कि उसके भाग्य में विधाता ने क्या लिख दिया है? कुछ और महीने इसी तरह गुजर गए..... कभी कानों में पड़ता कि भाग कर भंवरी अपने ससुराल चली गयी है, कभी ये सुनाई देता कि भंवरी किसी और के साथ भाग गयी है, कभी ये सुनने में आता कि भंवरी पाकिस्तान चली गयी है. लेकिन हर रोज सुबह उठते तो भंवरी अमरू के उस झोंपड़ीनुमा घर में नज़र आती कभी रोती तो कभी हंसती, कभी झगड़ा करते तो कभी अमरू के हाथ की मार खाते.


गर्मियों का मौसम था. छत पर सोया करते थे हम लोग कि एक दिन सुबह सुबह कुछ शोर सुनकर आँख खुली. आवाज़ आ रही थी “हेलो हेलो हेलो..........” मैं एक दम से चौंक कर उठा. ये तो पास ही किसी लाउडस्पीकर से आने वाली आवाज़ थी. उठकर देखा कि अमरू के घर पर लाउडस्पीकर लग रहे थे....... मेरे मन में उत्सुकता जागी कि ये रेडियो (लाउडस्पीकर) क्यों लग रहा है ? शायद कालकी की शादी है, लेकिन वो तो बहुत छोटी है, फिर मुझे लगा या तो जैना को बेटा हुआ है या फिर...... अरे हाँ ...... भंवरी की शादी को ७-८ महीने हो गए, लगता है उसके बेटा हुआ है. तभी सुना माँ पिताजी से कह रही थीं कि भंवरी की शादी हो रही है. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वास्तव में आखिर क्या हो रहा है..... भंवरी की शादी तो हो चुकी, अब फिर से उसकी शादी कैसे हो रही है? उसका तो पति भी ज़िंदा है तो फिर किसी और से शादी करने की उसे क्या ज़रूरत पड गयी? सवाल मेरे बालमन में उठते रहे लेकिन मैं भी किस से पूछता उनके जवाब? लाउडस्पीकर लग गया, बहुत बच्चों ने उस पर अपनी पसंद के गाने बजाये, बहुत बच्चों ने माइक खोलकर हेलो हेलो किया, मगर मैं अपने मालिये में बैठा अपने हैडफोन रेडियो पर न जाने क्या क्या सुनता रहा. दो तीन दिन बाद सफ़ेद कमीज़ तहमद पहने लोगों का जत्था अमरू के घर के सामने एक ट्रक में आकर रुका. मैंने देखा एक पूरी बरात आकर रुकी थी वहाँ. हाँ वास्तव में एक बारात ही आकर रुकी थी वहाँ. और एक बार फिर भंवरी का ब्याह एक और बहावलपुरी के साथ हो गया. सुना कि इस बहावलपुरी ने नकद १० हज़ार रुपये दिए हैं अमरू को.....इसका नाम है अल्ताफ.... उम्र वही ५० के आस पास ... खूब आव भगत हुई..... सारा खर्चा अल्ताफ ने उठाया..... पूरी बारात थी...... सैकड़ों की तादाद में लोग, ढेरों ट्रेक्टर, ढेरों ट्रक और न जाने कितने लोग ऊंटों और घोड़ों पर चढ़े हुए........भंवरी की विदाई हुई .... बहुत रोई भंवरी ...... न जाने वो इस घर से विदाई की रुलाई थी या अपने पहले पति शफी से जुदाई की रुलाई जिसने उसे बहुत प्यार दिया था......उस बेचारी को पता ही नहीं था शायद कि उसे आगे जाकर न जाने कितनी बार इसी तरह विदा होना पडेगा. मैंने अपने घर की छत से देखा, भंवरी रोये चले जा रही थी, अमरू बहुत खुश था और जैना एकदम खामोश. घर के बाकी सब लोग जी भर कर खाने में मस्त थे...... पिछले कुछ दिनों से घर में कभी कभार ही रूखी सूखी ही नसीब हो रही थी इन दो तीन दिनों में सबको पेट भर कर खाना मिल रहा था. अचानक अमरू के दिमाग में आया...... अरे .... क्यों वो गाडा चलाता है, क्यों मजदूरी करता है ? भंवरी अगर एक के साथ शादी करके उसे ५ हज़ार दे सकती है ,दूसरे के साथ शादी कर के १० हज़ार दे सकती है तो क्या ज़रूरत है कमाने की ? मोहल्ले की औरतें मिलकर गा रही थीं “ कोयलडी सिध चाली........ये गीत ही ऐसा है कि सुनते ही राजस्थान में हर एक की आँखे भर आती हैं, हम लोग भी रो पड़े और भंवरी एक बार फिर अपने बाप के घर से विदा हो गई..... और उधर अमरू के दिमाग में उस वक्त न जाने क्या क्या योजनाएं बनने लगीं थीं.



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