एक जानवर शायद इंसान के भीतर बहुत गहराई में छुपा रहता है. कभी वो किसी रूप में बाहर आता है कभी किसी रूप में लेकिन हिंसा के बिना वो जानवर संतुष्ट नहीं हो पाता. शायद इसी लिए विश्व में हर थोड़े थोड़े समय बाद कहीं न कहीं युद्ध के बादल मंडराने लगते हैं और युद्ध को रोकने की लाख कोशिशों के बावजूद कहीं न कही युद्ध शुरू हो ही जाता है और न जाने कितने लोग उस युद्ध की आग में स्वाहा हो जाते हैं. मेरे शहर बीकानेर की आज की अधिकाँश पीढ़ी इस बात से अनजान ही होगी कि यद्यपि बीकानेर के शासकों ने हमेशा केंद्र के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाए रखे हैं चाहे केंद्र में मुग़ल शासक रहे या अंग्रेज़, समय समय पर बीकानेर के योद्धाओं ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जाकर विभिन्न युद्धों में भाग लिया और अपनी वीरता के जौहर दिखाए.
आज जिस इराक में आग लगी हुई है बीकानेर का कौन युवक सोचेगा कि विश्वयुद्धों के दौरान बीकानेर के गंगा रिसाले, सादुल इन्फेंट्री और विजय बेट्री के योद्धाओं ने अंग्रेजों की और से वहाँ युद्ध किया है और बीकानेर के ऊँट वहाँ के ऊंटों पर भारी पड़े और बीकानेर के योद्धा वहाँ के योद्धाओं पर. सन १९८० में बीकानेर के लालगढ़ पैलेस में बैठे हुए तत्कालीन महाराजा करणी सिंह जी ने अपने जीवन की एक घटना मुझे सुनाई थी. इससे पहले कि मैं वो घटना सुनाऊँ, मैं अपने जीवन की १९७८ की एक घटना सुनाना चाहूँगा. मैं आकाशवाणी बीकानेर पर ट्रांसमीशन एक्जिक्यूटिव के पद पर कार्यरत था. गंगाशहर के एक संस्थान में एक समारोह था जिसमे मुख्य अतिथि थे बीकानेर के महाराजा, भूतपूर्व सांसद और ओलंपियन डॉक्टर करणी सिंह जी. मुझे कवरेज की ड्यूटी मिली थी. मैं अपने साथ इंजीनियर और टेक्नीशियन को लेकर वहाँ पहुंचा तो देखा कि कोई नहीं आया था. हॉल खाली पड़ा हुआ था. मैं स्टेज पर खडा हो गया और माइक वगैरह लगवाने लगा. तभी देखा कि महाराजा साहब की गाड़ी आकर हॉल के बाहर खडी हुई. मैंने इधर उधर देखा, हॉल में आयोजनकर्ता भी मौजूद नहीं थे. मैंने एक पल को सोचा और स्टेज से उतर कर महाराजा साहब की अगवानी करने दरवाज़े पर पहुँच गया. महाराजा साहब अपनी कैडलक कार से उतरे. मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया और उन्हें लेकर स्टेज की तरफ चला मानो मैं ही कार्यक्रम का आयोजक हूँ. महाराजा साहब मेरे साथ आकर स्टेज पर बैठ गए. मेरी आँखें इधर उधर आयोजकों को ढूंढ रही थी कि महाराजा साहब ने कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहा “बैठिये........ “मैं उनके पास बैठ गया. बात उन्होंने शुरू की.
आज जिस इराक में आग लगी हुई है बीकानेर का कौन युवक सोचेगा कि विश्वयुद्धों के दौरान बीकानेर के गंगा रिसाले, सादुल इन्फेंट्री और विजय बेट्री के योद्धाओं ने अंग्रेजों की और से वहाँ युद्ध किया है और बीकानेर के ऊँट वहाँ के ऊंटों पर भारी पड़े और बीकानेर के योद्धा वहाँ के योद्धाओं पर. सन १९८० में बीकानेर के लालगढ़ पैलेस में बैठे हुए तत्कालीन महाराजा करणी सिंह जी ने अपने जीवन की एक घटना मुझे सुनाई थी. इससे पहले कि मैं वो घटना सुनाऊँ, मैं अपने जीवन की १९७८ की एक घटना सुनाना चाहूँगा. मैं आकाशवाणी बीकानेर पर ट्रांसमीशन एक्जिक्यूटिव के पद पर कार्यरत था. गंगाशहर के एक संस्थान में एक समारोह था जिसमे मुख्य अतिथि थे बीकानेर के महाराजा, भूतपूर्व सांसद और ओलंपियन डॉक्टर करणी सिंह जी. मुझे कवरेज की ड्यूटी मिली थी. मैं अपने साथ इंजीनियर और टेक्नीशियन को लेकर वहाँ पहुंचा तो देखा कि कोई नहीं आया था. हॉल खाली पड़ा हुआ था. मैं स्टेज पर खडा हो गया और माइक वगैरह लगवाने लगा. तभी देखा कि महाराजा साहब की गाड़ी आकर हॉल के बाहर खडी हुई. मैंने इधर उधर देखा, हॉल में आयोजनकर्ता भी मौजूद नहीं थे. मैंने एक पल को सोचा और स्टेज से उतर कर महाराजा साहब की अगवानी करने दरवाज़े पर पहुँच गया. महाराजा साहब अपनी कैडलक कार से उतरे. मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया और उन्हें लेकर स्टेज की तरफ चला मानो मैं ही कार्यक्रम का आयोजक हूँ. महाराजा साहब मेरे साथ आकर स्टेज पर बैठ गए. मेरी आँखें इधर उधर आयोजकों को ढूंढ रही थी कि महाराजा साहब ने कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहा “बैठिये........ “मैं उनके पास बैठ गया. बात उन्होंने शुरू की.
“आप का परिचय? आप आयोजक हैं शायद.......”
“जी नहीं हुकुम, मेरा नाम महेंद्र मोदी है और मैं आकाशवाणी में काम करता हूँ, आपकी रिकॉर्डिंग के लिए हाज़िर हुआ हूँ.”
“तो फिर.......? ये लोग कहाँ हैं? आयोजन करने वाले ?”
“जी ये तो पता नहीं मुझे, आप पधारे तो मुझे लगा मुझे आपके स्वागत की ड्यूटी भी करनी चाहिये.”
ये सुनकर वो ठहाका मार कर हंस पड़े. मुझे भी उनकी हंसी में उनका साथ देना पड़ा, मगर मैंने खुद अपनी हंसी को सुना, मुझे वो थोड़ी खिसियानी सी लगी.
फिर वो पूछने लगे “ आप रहने वाले कहाँ के हैं?”
“ बीकानेर का ही हूँ हुकुम”
“अच्छा अच्छा.........पढाई लिखाई?”
मैंने कहा “डूंगर कॉलेज से अर्थशास्त्र में एम् ए और पत्रकारिता में पी जी किया है.”
इतना सुनते ही वो राजस्थानी में बात करने लगे. मेरे पिताजी के बारे में पूछा, फिर मेरे ताऊजी यानि “बा” के बारे में बात होने लगी. ताऊ जी को वो अच्छी तरह जानते थे क्योंकि जब उन्होंने पी एच डी की तब ताऊ जी और उनके एक वरिष्ठ सहयोगी नरोत्तम दास जी स्वामी ने उन्हें काफी सहयोग दिया था. मैंने उन्हें अपने बड़े मौसा जी श्री गंगाधर जी के बारे में बताया जो बीकानेर राज्य में एस डी एम थे. पूरा परिचय जानकर वो बहुत खुश हुए और बोले “अरे आप तो घर रा ही टाबर(बच्चे) हो. दीना नाथ जी (मेरे ताऊजी ) रे परिवार सूं राजघराने रा अच्छा सम्बन्ध रया है अर गंगाधर जी म्हारै राज्य रा बहुत योग्य अफसर हा. ”
कुछ क्षण चुप रहकर बोले “आप री शादी हुगी”
मैंने कहा “जी हुकुम”
“बच्चा?”
“जी एक लडको है अर एक लड़की”
“अच्छा, ससुराल किसी जगह है”
मुझे पता था कि मेरे जवाब पर वो चौंकेंगे इसलिए मैं मुस्कुराया और बोला “आपरै ससुराल रै पड़ोस में.”
वो एकदम से चौंके “मतलब.........? डूंगरपुर रै आसपास है?”
“जी नहीं........ डूंगरपुर में ही है.”
“अच्छा?”
“जी..... म्हारै ससुर जी रो नाम कुरी चंद जी जैन है. आपरा ससुर जी महारावल साहब अर म्हारा ससुर जी धरम भाई है.”
इतना सुनते ही वो कुर्सी से उठ खड़े हुए और गले मिलते हुए बोले “ओहो तो आप भाई साहब रा जंवाई हो? ” मेरे ससुर जी स्वतन्त्रता सेनानी और कॉंग्रेसी नेता थे एवं पूरे इलाके में भाई साहब के नाम से विख्यात थे.
कुछ सेकंड रूककर फिर वो बोले
“ महेंदर जी आपां तो साढू भाई हां. अबै वादो करो, मिलता रैसो.”
मैंने मिलते रहने का वादा किया. हमने आस पास देखा. आयोजक आकर हमारे भरत मिलाप के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. कार्यक्रम शुरू हुआ और मैं रिकॉर्डिंग की अपनी ड्यूटी में लग गया.
इसके बाद अक्सर मैं उनसे मिलने लालगढ़ पैलेस जाने लगा. अगर कई दिन तक नहीं जा पाता तो पैलेस से फोन आ जाता कि महाराजा साहब याद फरमा रहे हैं, तब तो जाना ही पड़ता. जब भी जाता देर तक गपशप होती. वो कभी ओलम्पिक के अपने अनुभव सुनाते कभी अपने देश विदेश के दौरों के बारे में बताते. एक दिन अपने दादा जी महाराजा गंगा सिंह जी के बारे में बात करते हुए बताया था “सन १९४० में गंगा रिसाला अंग्रेजों की तरफ से युद्ध में भाग लेने मध्य पूर्व गया था और १९४२ में वापस लौटा. इसी दौरान महाराजा गंगा सिंह जी उसका निरीक्षण करने गए तो मैं भी उनके साथ गया था. हमारी रिसाले के जवानों से अदन में मुलाक़ात हुई. हर तरफ रिसाले की तारीफ़ हो रही थी.”
एक मुलाक़ात के दौरान महाराजा करणी सिंह जी ने अपनी लिखी पुस्तक “बीकानेर के राजघराने का केन्द्रीय सत्ता से सम्बन्ध” मुझे भेंट की, जो आज तक मेरे पास सुरक्षित है. कुछ ही समय बाद मेरा बीकानेर से तबादला हो गया. लेकिन समय समय पर मेरी उनसे मुलाकातें होती रहीं जो बहुत ही खुशगवार थीं. उनका व्यक्तित्त्व बहुत प्रभावशाली था और वो इतने नम्र स्वभाव के थे कि हमेशा मुस्कुराते रहते थे और अपने से बहुत छोटों को भी “जी” और “आप” के साथ ही संबोधित करते थे.
१९४७ से पहले बीकानेर के लोगों का जब भी युद्ध से वास्ता पड़ा वो गैरों के लिए ही पड़ा परन्तु भाग्य का खेल देखिये कि प्रकृति सदैव इस क्षेत्र के लिए अत्यंत निष्ठुर बनी रही. विधाता ने बीकानेर क्षेत्र को कोई नदी नहीं दी, इतना खराब मौसम. साल में छ महीने सर्दी और छ महीने गर्मी. पूरे साल भर में बरसात का औसत मात्र १२ इंच. सर्दी ऐसी कि जैसे बीकानेर डिवीज़न के एक कस्बे चूरू के तार सीधे श्रीनगर से जुड़े हुए हों और गर्मी ऐसी कि तौबा तौबा पारा ५० डिग्री के पार पहुँच जाए. हर सात साल में छह साल अकाल. हमारी इतनी परीक्षाएं ही काफी नहीं थी शायद ऊपर वाले की नज़र में कि १९४७ में जब विभाजन होने लगा तब भी गाज इसी इलाके पर पडी. हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को विभाजित करने वाली रेखा को भी इधर से ही निकालना था. अब बीकानेर डिवीज़न एक सीमावर्ती क्षेत्र बन गया. इसका अर्थ तो यही हुआ कि जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच कोई युद्ध की कार्यवाही होगी इस क्षेत्र का इंसान ही सबसे ज़्यादा उसे भुगतेगा.
बीकानेर सम्भाग का श्री गंगानगर जिला भी घनघोर रेगिस्तान था मगर महाराजा गंगा सिंह जी की दूरदर्शिता के फलस्वरूप सतलज नदी से निकली गंग नहर ने पूरे जिले को सरसब्ज़ कर दिया. हालांकि इस नहर के निर्माण के बीच कई बाधाएं आईं लेकिन महाराजा गंगा सिंह जी के सम्बन्ध अंग्रेजों से हमेशा से अच्छे बने हुए थे इसलिए ये बाधाएं गंग नहर के निर्माण का रास्ता नहीं रोक पाईं. सबसे बड़ी बाधा थी एक अंतर्राष्ट्रीय नियम कि अगर कोई नदी किसी राज्य के किसी भी हिस्से को छूकर भी न निकले तो उस राज्य को उस नदी का पानी नहीं मिल सकता. सतलज तत्कालीन बीकानेर राज्य के किसी भी भू भाग को छूकर नहीं निकलती थी, इस बात को लेकर इस नहर के निर्माण का काफी विरोध हुआ लेकिन महाराजा गंगा सिंह जी अड़े रहे और आखिर अंग्रेज़ सरकार को उनकी बात माननी पडी और सन १९२७ में गंग नहर का पानी गंगानगर पहुँच गया. कहते हैं प्राचीन समय में कभी राजस्थान के पूरे रेगिस्तानी इलाके में समंदर था जो भौगोलिक परिवर्तनों के कारण कुछ हज़ार वर्ष पहले वहाँ से हट गया और वहाँ थार का रेगिस्तान बन गया.१९२७ से १९४७ के बीच के बीस सालों में, हज़ारों सालों से प्यासी पडी धरती की प्यास भी नहीं बुझी थी कि विभाजन के रूप में एक और मुसीबत आ खडी हुई. पंजाब का भी विभाजन होना था और इस बात की संभावना बन रही थी कि फिरोजपुर पश्चिमी पंजाब में चला जाएगा. फिरोजपुर हैडवर्क्स से ही गंग नहर निकलती थी. अगर फिरोजपुर हैडवर्क्स पर पाकिस्तान का कब्ज़ा हो जाता है तो वो गंग नहर को पानी क्यों देगा. महाराजा डॉक्टर करणी सिंह जी अपनी पुस्तक “बीकानेर के राज घराने का केन्द्रीय सत्ता से सम्बन्ध” में एक स्थान पर लिखते हैं “इस प्रकार जब निजी सूत्रों से यह बात मालूम हो गयी कि मुस्लिम लीग फिरोजपुर हैडवर्क्स से पानी दिए जाने पर नियंत्रण का दावा कर सकती है, तो बीकानेर के प्रधानमंत्री ने सरदार पटेल को एक पत्र लिखकर इस स्थिति से अवगत करवाया और उन्हें बताया कि राष्ट्र के विभाजन के बाद फिरोजपुर निश्चित रूप से भारतीय क्षेत्र में ही रहना चाहिए. सतलज घाटी नहरों से बीकानेर इलाके की एक हज़ार वर्ग मील से अधिक भूमि सींची जाती है. यदि मुस्लिम लीग के दावे को स्वीकार किया गया तो रियासत के हितों को बहुत हानि पहुंचेगी.”
ब्रिटिश सरकार मुस्लिम लीग के दावे को खारिज कर दिया. इस तरह गंग नहर बंद होने से बच गयी, गंगानगर बच गया और बीकानेर भी एक मायने में बच गया क्योंकि गंगानगर में जितना कृषि उत्पादन होता था, पूरा बीकानेर संभाग उसी पर आधारित था. गंगानगर से मेरा काफी गहरा सम्बन्ध रहा क्योंकि जैसा कि मैं शुरू के भागों में लिख चुका हूँ, इसी जिले के एक छोटे से गाँव चूनावढ़ में मेरे बचपन के कई साल गुज़रे, पदमपुर में मेरे ताऊजी कई बरस तक स्कूल के हैडमास्टर रहे और इसी जिले के एक तहसील हैडक्वार्टर रायसिंहनगर में मैं कई बार थोड़े थोड़े समय के लिए रहा. सबसे पहले तो जब उसवक्त मेरे मौसा जी वहाँ तहसीलदार थे, फिर कॉलेज टाइम में जब वहाँ का एक लड़का अशोक बंसल मेरा बहुत अच्छा दोस्त बन गया था और फिर मेरे पिताजी के एक बहुत गहरे दोस्त बहादुर राम चाचा जी की बेटी किरण की शादी वहाँ के कॉलेज के प्रोफेसर और प्रख्यात साहित्यकार डॉक्टर मंगत बादल जी से हो गयी जिनके साथ आगे चलकर मेरे सम्बन्ध इस क़दर प्रगाढ़ हो गए कि हर अच्छे और बुरे वक्त में वो हमेशा मुझे सगे भाई की तरह मेरे साथ खड़े दिखाई देने लगे.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के कई बरस बाद तक हर विभाग के अधिकाँश बड़े बड़े और महत्त्वपूर्ण पदों पर अँगरेज़ अफसर ही काबिज थे. तहसीलदार, एस डी एम, कलक्टर...... इन पदों पर कोई भारतीय बिरले ही पहुंचता था. मेरे बड़े मौसा जी गंगाधर जी चाहे तहसीलदार रहे, चाहे एस डी एम, उनका शुमार बहुत अच्छे और् योग्य अफसरों में होता था. रात दिन उनका उठाना बैठना अंग्रेजों के साथ ही रहता था इसलिए उनके जीने का अंदाज़ भी उसी तरह का था. मेरी बड़ी मौसी जी लिखने के नाम पर तो बड़ी मुश्किल से दस्तखत की जगह अपना नाम आशा देवी लिख सकती थीं लेकिन उनसे बात करके कोई समझ नहीं सकता था कि वो अनपढ़ हैं क्योंकि जब बोलने लगती थीं तो फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलती थीं. अँगरेज़ मेमों के साथ गेम्स खेलना, शराब पीना, सिगरेट पीना और आये दिन पार्टियों में जाना मौसा जी के साथ साथ, मेरी मौसी जी की दिनचर्या के भी आवश्यक अंग थे. बहुत बड़ा सा घर था उनका, बहुत शानदार. अव्वल तो मौसा जी-मौसी जी की शाम किसी क्लब में गुज़रती थी लेकिन जब कभी घर में होते तो एक ऊंचे बरामदे में बैठकर दोनों सिगरेट के कश लिया करते थे और साथ में शराब के घूँट. उनके घर में एक बड़ी सी तिजोरी थी जिसमें बेशुमार दौलत सोने के रूप में जमा थी. इतना सोना मैंने अपने जीवन में और कहीं नहीं देखा. बेचारी चांदी को उस तिजोरी में कोई जगह नहीं मिलती थी. चांदी के सिक्के तो बोरियों में भरे हुए कोनों में पड़े बिसूरते रहते थे.
आये दिन सेठों के यहाँ से डालियाँ(सोने और चांदी से भरे हुए थाल, भेंटस्वरूप) आया करती थीं और नौकर चाकरों की एक फ़ौज उन डालियों को मौसी जी के सामने रखती थी. मौसी जी सोना उठाकर तिजोरी में रख देती थीं और चांदी के सिक्के नौकर लोग बोरियों में डालकर रख देते थे. ये वो समय था जब एक रुपये का सिक्का चांदी का ही होता था. यानि एक तोला चांदी का असली मोल एक रुपये से भी कम होता था.
लेकिन इतने धनवान मौसा जी-मौसी जी के कोई संतान नहीं थी. मौसा के एक छोटे भाई थे कानजी. बड़े भाई इतने पढ़े लिखे, राज्य के बड़े अफसर और छोटे भाई साफ़ अंगूठा छाप. अपने एक और भाई से घड़ीसाज़ का थोड़ा बहुत काम सीख लिया और मौसाजी ने एक दुकान खुलवा कर दे दी. जब मन होता, तभी दुकान पर बैठते और कोई घड़ी ठीक करवाने आ जाता तो वो एक ही सलाह देते. “भाई जी.... इस घड़ी को सामने जा रहे ट्रक के पहिये के नीचे रख दो. बेकार हो गयी है ये घड़ी”
बस एक काम वो बहुत मन लगा कर करते थे. बीकानेर के किले में बहुत सी घड़ियाँ लगी हुई थीं. उस ज़माने में आज की तरह इलेक्ट्रौनिक घड़ियाँ तो थीं नहीं, जो भी घड़ियाँ या घड़ियाल लगे हुए थे सबमे चाबी भरनी पड़ती थी. इस काम के लिए उन्हें सप्ताह में दो बार किले में जाना होता था. उस दिन वो खूब अच्छी तरह नहा धोकर सफ़ेद झक कपडे पहनकर कान में इत्र का फाहा लगाकर बैठ जाते थे. किले से एक बग्घी आती थी, वो बग्घी पर सवार होकर बड़ी शान से किले में जाते थे और वहाँ की घड़ियों में चाबी भरकर वापस बग्घी से घर लौटते थे.
मेरी छोटी मौसी की एक ही औलाद थी, लिछम बाई. मौसा जी और मौसी जी ने सोचा कि अगर लिछम बाई की शादी कान जी से करवा दी जाय तो उनके जो औलादें पैदा होंगी उनमे दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व हो जाएगा.
बस यही सोचकर कानजी और लिछमबाई की शादी करवा दी गयी. मैं जब थोड़ा बड़ा हुआ तो अपने ननिहाल के परिवार को देखकर थोड़ा ताज्जुब होता था कि पहले शादी ब्याह किस प्रकार तय होते थे? मेरे नाना जी ने क्या सोचा होगा जब अपनी तीन बेटियों की शादियाँ तय की होंगी? मेरे बड़े मौसा बिलकुल अंग्रेजों की लाइफ स्टाइल जीने वाले और बेशुमार ज़मीन जायदाद के मालिक राज्य के नामी अफसर. दूसरे नंबर पर मेरे छोटे मौसा जी चुन्नी लाल जी बिलकुल अंगूठा छाप और अपने कंधे पर एक छोटी सी पेटी रखकर बनियों की बस्ती में घूम घूमकर चूरन बेचने वाले और तीसरे नंबर पर मेरे पिताजी, पुलिस में नौकरी करने वाले लोअर मिडिल क्लास के इंसान. क्या कभी मेरे नाना जी के ज़मीर ने उन्हें नहीं कचोटा होगा कि तीनो लड़कियों के आर्थिक स्तर में कितना अंतर रहेगा? और क्या कभी उनकी बेटियों ने उनसे सवाल नहीं किया होगा कि क्या सोचकर आपने हमें अलग अलग आर्थिक स्तर के घर में ब्याह दिया? मैंने एक बार बचपन में अपनी माँ से ये सवाल किया था. उनका जवाब था, शादी ब्याह तो ऊपर से तय होकर ही आते हैं. जिसका जैसा भाग्य वैसा ही घर तो मिलेगा, इसमें किसी को भी क्या दोष देना?
लिछम बाई की शादी अपने भाई की दौलत पर शहंशाह की ज़िंदगी जीने वाले कानजी से करवा दी गयी. उनके तीन औलादें हुईं, मोहिनी, मोहन और शंकर. मोहिनी मुझसे दो साल बड़ी थी मोहन मुझसे एक साल छोटा और शंकर मुझसे चार साल छोटा. लिछम बाई ने अपनी ड्यूटी निभा दी थी, इस घर को तीन औलादें देकर. कान जी की इज्ज़त भी घर में बढ़ गयी थी. नौकर चाकर बच्चों का पालन पोषण किया करते थे. चूनावढ के बाद दूसरा ग्रामोफोन मैंने मोहन-शंकर के पास ही देखा. तीन पहियों की साइकिल, बच्चों की पैडल वाली कार और ऐसे ही न जाने कितनी तरह के खिलौने जो हम जैसों को नसीब नहीं थे, हमने मौसी जी के घर में ही देखे.
एक दिन जब मौसा जी की रायसिंहनगर में पोस्टिंग थी और हम लोग गर्मी की छुट्टियों में उनके यहाँ गए हुए थे. बहुत बड़ा सा बँगला था जिसकी चारदीवारी के बाहर एक बड़ा सा नाला था. मैंने देखा, मोहन घर के अंदर से एक थाली में एक एक रुपये के चांदी के सिक्के लाता और फिर एक एक करके उस नाले में डालने लगता. जब सारे सिक्के खतम होते तो वो फिर अंदर से थाली भरकर ले आता. मैंने मोहन को कहा, “मोहन तुम रुपये क्यों फ़ेंक रहे हो नाले में?”
उसका जवाब था “मेरी मर्जी. मेरे हैं रुपये.”
मुझे लगा इस तरह रुपये फेंकना कोई अच्छी बात नहीं है, मुझे मौसी जी को बताना चाहिए. मैं भागा हुआ अंदर गया और मौसी जी को बताया कि मोहन रुपये नाले में फ़ेंक रहा है. मौसी जी मेरे साथ बाहर आईं और बाहर का नज़ारा देखा. मोहन बड़े इत्मीनान से एक एक सिक्का नाले में डाल रहा था और साथ में गिनता जा रहा था चालीस...... इकतालीस. मौसी जी ने झट से उसका हाथ पकड़ा और डांटा........ “कईं करै है ?”
बस इतना सुनना था और मोहन ने रुपयों से भरी पूरी थाली को नाले में फेंका और जोर से चिल्लाते हुए अंदर की ओर भागा “ओ बाबो सा....... माँ सा मारै ओ......... ओ बाबो सा ओ.” मोहन की चिल्लाहट सुनकर मौसा जी कमरे से बाहर आये......और बोले “क्या हो गया मेरे बच्चे को ?”
मौसी जी ने कहा “झूठ बोल रियो है मैं नईं मारयो ईने...... पण देखो नी .......कलदार नाळै में फ़ेंक रियो है.”
मौसा जी ने मोहन को गोद में उठा लिया और पुचकारते हुए बोले “ क्यों बेटा रुपये नाले में क्यों फ़ेंक रहे थे?”
पुचकारने से मोहन का रोना और भी बढ़ गया था. वो रोते रोते बोला “ मैं तो गिनती सीख रियो हो.”
मौसाजी ठहाका लगाकर हंस पड़े और हँसते हँसते मौसी जी से बोले “आप भी कमाल करती हैं........ अरे गिनती सीख रहा था हमारा बच्चा.......और खेल में लगा बच्चा अगर सौ पचास रुपये वैसे भी फ़ेंक दे तो क्या फरक पड़ता है?चुप हो जा बेटा चुप हो जा........... लाओ भाई थाली भरकर रुपये लाकर दो हमारे बेटे को कोई.......”
और पास ही खड़े नौकर ने भागकर हुकुम का पालन किया. रुपयों की पहले से बड़ी एक थाली लाकर मोहन बाबू को दी गयी और वो फिर वहीं बैठकर विजयी मुस्कान के साथ मेरी तरफ और मौसी जी की तरफ देखते हुए, नाले में रुपये डालने लगा .....एक.......दो........तीन... .....
मैं सन्न सा एक कोने में खडा हुआ ये सारा नाटक देख रहा था. एक कलदार का क्या मोल होता है, ये उस वक्त तो मैं नहीं जानता था लेकिन मुझे बड़ा होने के बाद अक्सर ये घटना याद आती थी और मैं सोचता था, क्यों नहीं मौसा जी ने उस वक्त मोहन को ऐसा करने से रोका. अगर वो लाड प्यार को थोड़ी देर के लिए भुलाकर मोहन को ऐसा करने से रोक देते तो शायद होनी को भी मोहन पर थोड़ी दया आ जाती और वो इस तरह उससे गिन गिनकर बदले न लेती.
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