एम ए में आने के बाद मेरे दो ग्रुप बन गए थे. एक तरफ हिम्मत
सिंह, दिनेश मिश्र, नरेन्द्र भार्गव, राजेन्द्र पांडे, शिमला और मन्जीत कौर चड्ढा
थे और दूसरे ग्रुप में मेरे पुराने हरि ओम ग्रुप के कुछ लोग थे. हालांकि हरि ओम
ग्रुप के लोग कुछ बिखर गए थे, लेकिन फिर भी
अशोक बंसल, महावीर शर्मा, हरि कृष्ण मुंजाल और मोहन प्रकाश शर्मा के साथ बने
ताल्लुक़ात दिनोदिन और पुख्ता ही होते जा रहे थे. अक्सर मैं महावीर और मोहन के घर
जाया करता था. मोहन की मम्मी जी के हाथ की बनी उत्तर प्रदेश स्टाइल की खिचड़ी मुझे
बहुत पसंद थी. जब भी उनके घर वो खिचड़ी बनती थी, मम्मी जी मोहन के हाथ मुझे बुलावा
भेज देती थीं. अशोक बंसल, सादुल कॉलोनी में तरशेम तायल नाम के एक लड़के के साथ एक
कमरा किराए पर लेकर रहता था और उसके घर के बिलकुल पास ही हरि कृष्ण मुंजाल और उनके
बड़े भाई साहब एक कमरा किराये पर लेकर रहते थे.
अशोक और मुंजाल को छोड़कर बाकी हम सबके घर बीकानेर में ही
थे. इसलिए बाकी सबके घर के लोगों से मिलना जुलना होता रहता था, लेकिन इन दो लोगों के घर के लोगों से हम लोग अनजान थे.
मुंजाल का घर हांसी, हरियाणा में था, जो बीकानेर से दूर पड़ता था, मगर अशोक का गाँव रायसिंह नगर तो बीकानेर के पास ही था और
अशोक का हमेशा उलाहना रहता था कि हम लोग उसके घर नहीं जाते. इसलिए हम तीन दोस्तों
ने तय किया कि तीन चार दिन के लिए रायसिंहनगर घूमकर आया जाए. मैं, महावीर और
मुंजाल, हम तीन लोग तैयार हो गए. कुछ दिन की छुट्टियाँ थी, इसलिए कॉलेज की कोई
फिक्र नहीं थी, मेरा कोई नाटक भी नहीं चल रहा था. बस दो चीजें थीं जिन्हें मैनेज
करना था. मेरी ट्यूशन और मेरी क्लिनिक. सो दोनों से तीन चार दिन की छुट्टी मारी और
हम लोग अशोक के साथ ही जा पहुंचे रायसिंहनगर. अशोक के पिताजी, माता जी, पुरुषोत्तम
भाई साहब, भाभी जी, उनके दो बच्चे लवली और टीटू, बहनें काँता दीदी और सुदर्शन, सभी
लोग हमारे जाने से बहुत खुश हुए और सबने हमारी बहुत आव-भगत की. अशोक के पिताजी
स्वर्गीय बृज लाल जी बंसल, उस इलाके के जाने माने शख्स थे. उनका एक सिनेमा हॉल था.
इसके अलावा आढत की दुकानें थीं और एक कपडे की दुकान थी. अशोक के एक भाई मेडिकल कॉलेज
में मेरे भाई साहब के साथ पढते थे और अब डॉक्टर बनकर हरियाणा के गोहाना गाँव में
उनकी पोस्टिंग हो चुकी थी.
अशोक की माताजी और भाभीजी ने बहुत प्यार से हमें सुबह से जो
खिलाना पिलाना शुरू किया, तो खाने पीने का ये सिलसिला रात तक चलता रहा. रात को
गाँव की खुली हवा में घर के सामने खाटें बिछा दी गईं. उस ज़माने में गाँवों में
सोने का यही सबसे अच्छा इंतजाम होता था. मर्द लोग घर के बाहर खाटें बिछाकर सोते थे
और औरतें घर के अंदर आँगन में. मेहमान आते तो उनके सोने का भी यही इंतजाम रहता था
क्योंकि उन दिनों न तो ए सी हुआ करते थे और न ही कूलर. वैसे भी गाँवों में मई जून
की रातें भी इतनी गरम नहीं हुआ करती थीं, जितनी अब होती हैं. हम सब देर रात तक
गपशप करते रहे. सुबह सूरज उगने के साथ ही सब लोग उठ गए. अब बारी आई टॉयलेट जाने
की. अशोक ने बताया कि लेडीज़ के लिए घर की छत पर एक सर्विस टॉयलेट बना हुआ है, जिसे
मेहतरानी साफ़ करती है, उसे इस्तेमाल किया जा सकता है. फ्लश टॉयलेट तब तक गाँवों
में नहीं पहुंचे थे. दूसरा तरीका ये है कि लोटा या बोतल लेकर हम लोग रेत के टीलों
में, खुली हवा में जाएँ. मुंजाल तो बोले “अरे पानी की बोतल का क्या करेंगे? पानी का
क्या है, वहीं कहीं मिल जाएगा, वरना रेत के टीले तो हैं ही. दरअसल वो जनाब भी गाँव
के ही रहने वाले थे, उनके गाँव में भी यही सब हाल था,इसलिए उनके लिए इसमें कुछ भी
नया नहीं था, लेकिन मेरे और महावीर के लिए ये एक बड़ा मसला था, क्योंकि हमारे घरों
में इससे बहुत पहले फ्लश टॉयलेट आ चुके थे और हमारी आदत पड चुकी थी, फ्लश टॉयलेट
की. इसी मसले ने मुझे तब भी बहुत परेशान किया था, जब मैं खेतों में रहा था. इस
वाकये के कोई पांच-छः साल बाद, जब मैं और मेरी पत्नी मुंजाल साहब की शादी में गए
थे, तब तो मुझमें और भी बुरी हुई थी. बारात देर रात हांसी से रवाना होकर सुबह सुबह
लड़कीवालों के घर पहुँची थी. वहाँ लेडीज़ के लिए तो घर में इंतजाम था, मगर मर्दों के
लिए कोई टॉयलेट नहीं बना हुआ था. दूल्हे राजा मुझसे बोले “चलिए महेंद्र साब, खेतों
में चल के आते हैं.”
मैंने कहा “खेतों में जाना पडेगा?”
“भई गाँवों में तो ऐसा ही होता है, आइये.”
इतना कहकर वो रवाना होने लगे तो मैंने कहा “अरे लेकिन लोटे
या बोतल में पानी तो ले चलें?”
वो हंसकर बोले “अरे वहाँ पानी की क्या कमी है? आप फिक्र न
करें, वहाँ सब इंतजाम है.”
मैंने समझा कि बारातियों के लिए कुछ खास इंतजामात किये गए
होंगे.
दस मिनट पैदल चलने के बाद दूल्हे मियाँ बोले “यही हैं
खेत... बैठ जाइए कहीं भी.”
मैं भौंचक्का रह गया. वो खेत तो ज़रूर थे, लेकिन फसल कट चुकी
थी और खेत के नाम पर वहाँ बस सपाट मैदान भर था.
मैंने कहा “मुंजाल साब ये क्या है ? ऐसे खुले
में...............? और वो पानी का इंतजाम कहाँ है?”
वो हंसकर बोले “अरे महेंद्र साब, गाँवों में तो ऐसा ही होता
है. ये जो झाडियाँ दिखाई दे रही हैं, इन्हीं में से किसी की ओट में हो लीजिए.” और
एक गड्ढे की तरफ इशारा करके बोले “वहाँ........वो पानी रहा.”
बड़ी मुश्किल से मैं एक छोटी मोटी झाडी ढूंढ पाया था और उससे
भी ज़्यादा मुश्किल से उस पानी के गड्ढे तक पहुँच पाया था.
खैर साहब, ये बात तो बहुत बाद की है, अभी तो मैं बात कर रहा
था, रायसिंहनगर की. पहले रोज हम लोगों को खिलाया भी ठूंस ठूंसकर गया था, सो कोई और
रास्ता नहीं था, हम चारों पानी की बोतलें लेकर रेत के टीलों की तरफ भागे.
खुशकिस्मती से रेत के वो टीले घर से बहुत दूर नहीं थे.
हलके होकर जब घर की तरफ आने लगे तो तय किया कि आज इतना
खायेंगे ही नहीं कि इस तरह की एमरजेंसी की नौबत आये. घर आये तो नाश्ता तैयार था.
ब्रश करके नाश्ता किया और फिर वही दिन भर खाने पीने का सिलसिला. तीन चार दिन हमने
बस वहाँ खाया, खाया और खाया. इसके अलावा कोई काम ही नहीं था. घूमने लायक आस पास
कोई जगह थी नहीं. ले दे कर दो फर्लांग दूर बाज़ार चले जाते थे, अशोक की सारी
दुकानों का चक्कर लगा कर लौटकर घर आते तो
फिर खाने पीने की कुछ चीज़ें हमारा इंतज़ार कर रही होतीं.
इस तरह तीन चार दिन तक खूब खा पीकर हम बीकानेर लौट आये.
इन्हीं दिनों बीकानेर में अशोक की मौसी जी का परिवार आकर बस
गया था. एक छोटे से किराए के घर में रहने वाला, एक बड़ा सा परिवार. बहुत ही साधारण
रहन सहन के उस परिवार की एक खासियत थी. सबसे बड़े बेटे प्रेम जी इंजीनियर थे और
उनके बाद लाइन से तीन बहनें और दो भाई बीकानेर मेडिकल कॉलेज के स्टूडेंट. सारे भाई
बहन बहुत ही साधारण कद काठी के थे, लेकिन सब के सब पढ़ने में गज़ब के होशियार. अशोक
के साथ अक्सर मैं उनके घर जाया करता था. मौसी जी, मौसाजी के साथ साथ प्रेम भाई
साहब और राज दीदी मेरा बहुत लाड रखते थे. प्रेम भाई साहब और राज दीदी भी अक्सर
हमारे घर आया करते थे. इन दोनों के साथ मेरी पटरी खूब जमती थी. इस तरह अशोक के ज़रिये
इस परिवार से सम्बन्ध बने और बहुत थोड़े दिनों में ही ये सम्बन्ध काफी मज़बूत हो गए.
मेरी पढाई के साथ साथ नाटक भी खूब अच्छी रफ़्तार से चल रहे
थे. एक एक कर मैंने बादल सरकार, विजय तेंदुलकर, मोहन राकेश जैसे नामी लेखकों के कई
नाटक, पारीक जी, चौहान जी, प्रदीप जी जैसे कलाकारों के साथ मिलकर किये.
सूरज सिंह जी जब भी कोई नाटक करते थे, तो मुझे अपने नाटक
में ज़रूर शामिल किया करते थे और मैं भी उन्हें कभी इनकार नहीं करता था, क्योंकि
प्रोफेशनल स्टेज पर सबसे पहले ड्रामा करना मैंने उनके साथ ही शुरू किया था.
एक दिन सूरज सिंह जी का बुलावा आया, तो मैं उनसे मिलने
पहुंचा. उन्होंने कहा “ महेंदर, भायला एक ड्रामा मेडिकल कॉलेज के हॉल में करना है
और तुम्हे उसमे एक रोल करना है.”
मैंने कहा “जी अच्छा. रिहर्सल कबसे करेंगे और कहाँ करेंगे?”
वो बोले “रिहर्सल अगले हफ्ते से शुरू कर देंगे. एक महीना
करेंगे. के ई एम रोड पर एक छोटा सा हॉल है वहाँ करेंगे.”
“जी अच्छा”
“लेकिन महेंदर एक बात सुनो.....”
“जी भाई साहब, बताएं”
“यार ये जो स्टेज पर काम करने वाली बीकानेर की लडकियां हैं,
मैं मेन रोल उनमें से किसी से नहीं करवाना चाहता.”
“तो किससे करवाएंगे?”
“कोई नया चेहरा लाना चाहता हूँ.”
“जी”
“तुम कॉलेज में पढते हो, क्या तुम्हारे साथ पढ़ने वाली
लड़कियों में से कोई ऐसी लड़की नहीं है, जो अपने ड्रामा में काम कर ले?”
मैंने कहा “भाई साहब मैं बात करके देखता हूँ कि कोई लड़की
तैयार होती है या नहीं.”
“ठीक है, तुम दो चार दिन में बात करके मुझे बताओ.”
“जी भाई साहब.”
मैं उनके पास से उठ कर आ गया और सोचने लगा कि किससे बात की
जाय? किसी भी लड़की से बात करने से तो कोई मतलब नहीं था. जिससे भी बात करूं, उसे
कलाकार भी होना ही चाहिए. अचानक मुझे एक नाम ध्यान आया, विभा गुप्ता. हाँ......
विभा से बात की जा सकती है.
मैं कॉलेज गया, तो इत्तेफाक से विभा से मुलाक़ात भी हो गयी.
मैंने विभा को बताया कि इस तरह से हम लोग एक ड्रामा कर रहे हैं, क्या तुम रोल कर
पाओगी? उसने कहा कि वो अपने पापा से बात करके ही कुछ जवाब दे सकती है.
अगले दिन जब फिर कॉलेज में मैं विभा से मिला तो उसने मुझे
कहा कि उसके पापा ने मुझे घर बुलाया है. विभा के पापा बीकानेर के रामपुरिया कॉलेज
के प्रिंसिपल थे और बहुत खुले दिमाग के और खुले खयालात के इंसान थे. मैं इससे पहले
भी कई बार उनसे मिल चुका था इसलिए उनसे जाकर मिलने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी. मैं
उसी दिन शाम को विभा के घर गया और अंकल से मिला. उन्होंने कहा “देखो महेंद्र, विभा
अगर ड्रामा करना चाहे तो मुझे कोई एतराज़ नहीं हैं लेकिन सबसे पहली बात तो ये है कि
जिनके साथ काम करना है, वो लोग अच्छे होने चाहिए.”
“जी अंकल..... इस मामले में आप बेफिक्र रहिये.”
“दूसरी बात, रिहर्सल किस वक्त करेंगे आप लोग?”
“जी रिहर्सल तो शाम को ही हो पायेगी, क्योंकि सभी
आर्टिस्ट्स दिन में कहीं न कहीं मसरूफ रहते हैं.”
“हाँ..... तो यहाँ सवाल ये उठता है कि शाम होने से पहले तो
विभा अकेली रिहर्सल की जगह पहुँच जायेगी, लेकिन रिहर्सल खत्म होने तक तो काफी देर
हो जायेगी.”
“जी अंकल”
“साइकिल से उसका अकेले वापस आना मुझे थोड़ा ठीक नहीं लगता.”
“जी अंकल”
“तो ये जिम्मेदारी तुम्हारी होगी कि रिहर्सल के बाद रोजाना
उसे घर तक तुम पहुंचाकर जाओगे. वो अपनी साइकिल पर रहेगी, तुम अपनी साइकिल या
मोटरसाइकिल से इसके साथ साथ आओगे और घर तक छोड़कर जाओगे.”
“जी अंकल, इसमें तो ज़रा भी दिक्कत नहीं है मुझे. आप यकीन
रखें, मैं ही इसे घर पहुंचाकर जाऊंगा.”
“ठीक है फिर. करो आप लोग रिहर्सल. आप लोगों का ड्रामा देखने
मैं भी आऊँगा. मुझे पास दोगे या नहीं?” ये कहकर वो ठहाका लगाकर हंस पड़े.
मैंने जवाब दिया “ कैसी बात कर रहे हैं अंकल ? आप तो सबसे
आगे बैठकर हमारा ड्रामा देखेंगे. आप हमारा ड्रामा देखें, इससे ज़्यादा खुशी की बात
हमारे लिए और क्या होगी?”
मैंने उस वक्त ये कह तो दिया था कि सबसे आगे आपको बिठाऊँगा,
लेकिन मुझे उस वक्त कहाँ पता था कि ये कहकर मैंने अपने लिए एक परेशानी खडी कर ली
है?
दो तीन दिन बाद हमने रिहर्सल शुरू कर दी. मैं रोजाना
रिहर्सल के बाद विभा की साइकिल के साथ साथ कभी साइकिल से और कभी मोटर साइकिल से
विभा के घर तक जाता था. जब वो घर में दाखिल हो जाती थी, उसके बाद मैं वापस आया
करता था. कभी कभी अंकल बाहर ही मिल जाते तो कहते, “भई महेंद्र, तुम्हें ये कहा है
कि तुम घर तक छोड़कर जाओगे, इसका मतलब ये तो नहीं है कि तुम घर में नहीं आ सकते.
चलो अंदर चलो.... दस मिनट गपशप करके जाना.” तब फिर मुझे घर में भी जाना ही होता.
इस ड्रामा में विभा मेरी भाभी का रोल कर रही थी. एक सीन था,
जिसमे उसे गश आ जाता है, वो गिरने लगती है और मुझे अपनी बाहों का सहारा देकर उसे सम्भालना होता है. जैसा कि मैंने पहले भी एक जगह
कहा है कि वो ज़माना ऐसा था कि रिहर्सल के दौरान मर्द और औरतें एक दूसरे को छुआ
नहीं करते थे. जब ऐसा कोई सीन आता, तो डायरेक्टर कह देता था, इसे ग्रांड रिहर्सल
के दिन देख लेंगे. लिहाजा मैं और विभा भी जब इस सीन को करने लगते तो न तो वो गिरती
थी और न ही मैं उसे अपने बाहों का सहारा देकर संभालता था. हर रोज सूरज सिंह जी कह
देते थे, बस विभा यहाँ तुमको गिरना है और महेंदर तुम इसे गिरने मत देना पकड़ लेना.
हम दोनों हाँ हाँ कह देते थे.
रिहर्सल इसी तरह चलती रही. सबको सारे डायलॉग भी याद हो गए,
सारे मूवमेंट्स भी. साउंड इफेक्ट्स, म्यूजिक, लाइटिंग, हर चीज़ अपनी अपनी जगह पर
ठीक हो चुकी थी और ड्रामा करने का दिन नज़दीक आ गया था. ग्रांड रिहर्सल का दिन भी आ
गया. उस दिन भी कुछ ऐसा हुआ कि गिरने और संभालने वाले सीन की रिहर्सल हम लोग नहीं
कर पाए.
आखिरकार शो का दिन भी आना था, आ ही गया. मेडिकल कॉलेज का
बड़ा सा ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था. नाटक शुरू हुआ. बीच बीच में हॉल में तालियों
की गडगडाहट गूँज रही थी. ड्रामा बहुत अच्छा चल रहा था कि वो सीन आया, जिसमे विभा
को गश खाकर गिरना था और मुझे उसे बांहों का सहारा देकर संभालना था. एक बार भी इसकी
रिहर्सल तो हुई नहीं थी, वो गिरने लगी...... मैंने अचकचाकर उसे जैसे तैसे पकड़ा और एकदम से मेरी
नज़र सबसे आगे की लाइन में बैठे हुए विभा
के पापा पर पड गयी, मैं उनकी बेटी को बाहों में थाम रहा था, मुझे लगा कि वो मुझे
गुस्से से घूर रहे हैं, बस मैं घबरा गया और मेरी हाथों की पकड़ एक लम्हे के शायद २०
वें हिस्से के लिए ढीली पड गई, पकड़ ढीली होते ही विभा गिरने लगी तो मुझे होश आया
कि मैं स्टेज पर हूँ.....ड्रामा कर रहा हूँ. मैंने फ़ौरन उसे फिर से कसकर पकड़ा. ये
सब कुछ बस कुछ ही लम्हों में हो गया था और किसी को इसका पता भी नहीं चला, लेकिन
विभा को तो महसूस हो ही गया था. ड्रामा खत्म होने के बाद विभा ने मुझसे पूछा
“महेंद्र..... क्या हो गया था तुम्हें ? तुम तो छोड़ने लगे थे मुझे..... मैं गिर
पड़ती तो?”
मैंने कहा “सॉरी विभा, जैसे ही मैंने तुम्हें पकड़ा, मेरी
नज़र सबसे आगे बैठे अंकल पर पड गयी और मैं घबरा गया.”
“हाँ और उन्हें सबसे आगे भी तुमने ही बिठाया था.”
बाद में अंकल को जब सारा क़िस्सा सुनाया तो वो खूब हँसे.
कुछ ही वक्त बाद कॉलेज में कल्चरल वीक मनाया जाने वाला था.
कल्चरल सैक्रेटरी ने मुझे कहा कि इस मौके पर म्यूज़िक के मुख्तलिफ़ प्रोग्राम्स के
साथ साथ ड्रामा भी होना चाहिए. मैं, प्रमोद खन्ना, सरोज शर्मा और विभा गुप्ता ने
एक ड्रामा तैयार करने का बीडा उठाया और डायरेक्शन करने के लिए मैंने सूरज सिंह जी
को कहा तो वो फ़ौरन तैयार हो गए. हमने सूरज सिंह जी का ही लिखा एक ड्रामा लिया और
उसकी रिहर्सल में लग गए.
तय दिन ड्रामा का शो हुआ जिसे बहुत पसंद किया गया. इस
ड्रामा के दौरान प्रमोद खन्ना से जो दोस्ती हुई, वो आज तक उसी तरह बनी हुई है.
बहुत मुसीबत की घड़ियों में मेरा साथ देने वाला प्रमोद खन्ना, आज बीकानेर का माना
हुआ एडवोकेट है. आज भी कभी ऐसा नहीं होता कि मैं बीकानेर जाऊं और प्रमोद से मिलकर
ना आऊँ. इसी कल्चरल वीक के दौरान मेरी दोस्ती वागीश कुमार सिंह से हुई. स्टेज करने
के साथ साथ, वागीश रेडियो के लिए ड्रामा लिखा करता था. हम दोनों ने आगे जाकर
रेडियो में नौकरी के लिए फॉर्म भरे और दोनों ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में एडमिशन
के लिए फॉर्म मंगवाए. मैं रेडियो में आ गया और वागीश नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में
चला गया लेकिन हमारी ये दोस्ती पारिवारिक दोस्ती बन गयी, जो आज भी अपनी जगह पर
कायम है. वागीश के साथ मैंने अपनी ज़िंदगी के कई बहुत अच्छे और बुरे लम्हों को साझा
किया है, जो आगे आने वाले एपिसोड्स में जगह जगह पर आयेंगे.
कॉलेज से निकलने के कुछ वक्त बाद एक ऐसा इत्तेफाक हुआ कि
विभा मेरी भाभी बन गयी. उसकी शादी अशोक बंसल के मौसी जी के बेटे श्री प्रेम बंसल
से हो गयी जिन्हें हम लोग प्रेम भाई साहब कहा करते थे. जब तक हम लोगों की पोस्टिंग
बीकानेर में रही, हम लोग कई बार विभा और प्रेम भाई साहब के घर चले जाते थे, कई बार
वो लोग हमारे घर आ जाया करते थे. ये ताल्लुकात इसी तरह चलते रहे. १९८१ में हम
लोगों का तबादला बीकानेर से हो गया. वो लोग भी अपनी गृहस्थी में बिज़ी हो गए. बस
अशोक के ज़रिये उन लोगों की ख़बरें कभी-कभार मिल जाया करती थीं. विभा रामपुरिया
कॉलेज में लेक्चरर हो गयी थी, प्रेम भाई साहब की बहन राज तो पहले ही डॉक्टर बन
चुकी थीं बाकी चारों भाई बहन भी डॉक्टर बनकर बीकानेर छोड़ चुके थे. एक अरसे तक इन
लोगों से कोई मुलाक़ात नहीं हुई. १९९५ में जब मेरे पिताजी बहुत बीमार थे, तो प्रेम
भाई साहब उनका हाल पूछने मेरे घर आये थे. ये मेरी उनसे आखिरी मुलाक़ात थी.
वक्त भी किस क़दर ज़ालिम चीज़ है अच्छे भले ताल्लुकात पर वक्त
की धूल इस तरह से जम जाती है कि इन्सान उन ताल्लुक़ात की गर्माहट को खो बैठता है.
दिल बहुत दुखता है, जब ऐसे किसी शख्स से कुछ बरस बाद मुलाक़ात होती है और वो कुछ
बरस हमारे दरमियान कई सदियों के से फासले पैदा कर देते हैं.
कुछ साल पहले मैं बीकानेर गया हुआ था. जैसा कि मैंने बताया,
मैं जब भी बीकानेर जाता हूँ, एक बार प्रमोद से मिलने ज़रूर जाता हूँ, उस बार भी मैं
उससे मिलने गया. प्रमोद बोला, बाहर लॉन में बैठते हैं. हम दोनों कुर्सियां लॉन में
लेकर बैठ गए, तभी मेन गेट खुला. मैंने देखा कोई लेडी अंदर घुसी है. प्रमोद मुझसे
बोला “महेंदर..... देख कौन आया है?” मुझे शक्ल दिखाई नहीं दी क्योंकि वहाँ रोशनी
कुछ कम थी. वो लेडी हौले हौले कदमों से चलते हुए हम लोगों के पास पहुँची. मैंने
देखा “अरे.....विभा?” विभा के मुंह से भी निकला “अरे.... महेंद्र?”
विभा ने बताया कि चार दिन बाद उसके बेटे की शादी है और वो
प्रमोद को शादी का कार्ड देने आई है. उसने मुझसे भी बहुत रस्मी अंदाज़ में कहा कि
अगर मैं बीकानेर मे हूँ तो मुझे भी शादी मे शरीक होना है, लेकिन मेरा तो उससे अगले
ही दिन का मुम्बई का रिज़र्वेशन था, इसलिए शादी में शरीक होने का तो सवाल ही नहीं
उठता था. थोड़ी देर की इधर उधर की बातचीत के बाद वो वहाँ से चली गयी.
अभी तीन-साढ़े तीन साल पहले न जाने क्यों मुझे प्रेम भाई
साहब की बहन डॉक्टर राज की, जिन्हें मैं राज दीदी कहा करता था, बेतरह याद आ रही
थी. उनसे मुलाक़ात हुए करीब ३५ बरस गुजर चुके थे और मुझे सिर्फ ये पता था कि ये सभी
डॉक्टर भाई बहन बीकानेर छोड़ने के बाद पंजाब और हरियाणा में बस गए थे. इन्टरनेट का
ज़माना है, मैं इन्टरनेट की मदद से उन लोगों को ढूँढने की कोशिश कर रहा था. बहुत
दिन गुजर गए, किसी का कोई सुराग नहीं मिल रहा था. एक रोज मैंने देखा, सिरसा में एक
नर्सिंग होम का नाम है “बीकानेर नर्सिंग होम”. मुझे लगा, ये डॉक्टर ज़रूर कभी न कभी
बीकानेर रहा होना चाहिए, तभी इसने अपने नर्सिंग होम का नाम बीकानेर नर्सिंग होम
रखा है. मैंने उसके फोन नंबर खोजे तो एक लैंडलाइन नंबर मिला. दो तीन दिन तक मैं उस
नंबर से राब्ता कायम करने की कोशिश करता रहा, लेकिन शायद फोन खराब था, इसलिए किसी
से बात नहीं हुई. तीन चार दिन बाद आखिरकार किन्हीं मोहतरमा ने फोन उठाया. मैंने
उनसे पूछा कि इस नर्सिंग होम के मालिक कौन हैं? उन्होंने जवाब दिया डॉक्टर बंसल.
मुझे लगा, शायद मैं ठीक जगह पर पहुँच गया हूँ, मगर उन मोहतरमा के पास ज़्यादा वक्त
नहीं था. उन्होंने जल्दी से बोला “पेशेंट का नाम बोलो और कब का अपोइंटमेंट चाहिए
जल्दी बोलो.” मैंने उन्हें बताया कि मैं मुम्बई से बोल रहा हूँ और मुझे सिर्फ
डॉक्टर साहब का पूरा नाम बता दीजिए. वो बोली “डॉक्टर एस के बंसल और उनकी वाइफ़ इस
नर्सिंग होम के मालिक हैं.” इतना कहकर उसने फोन काट दिया. प्रेम भाई साहब के छोटे
भाई का नाम सतीश था. मुझे लगा, हो न हो, ये उन्हीं का नर्सिंग होम है. मैंने अगले
दिन फिर फोन लगाया तो उन मोहतरमा ने मुझे किसी तरह डॉक्टर एस के बंसल की बीवी का
नंबर दे दिया. मैंने उन्हें फोन लगाया तो कन्फर्म हुआ कि ये डॉक्टर एस के बंसल,
प्रेम भाई साहब के छोटे भाई सतीश ही हैं लेकिन उनकी पत्नी ने ये कहकर फोन काट दिया
“अभी डॉक्टर सतीश से बात नहीं हो सकती, आपको उनसे बात करनी है तो रात में इसी नंबर
पर करें.”
मुझे लगा, जिनकी मुझे इतनी याद आ रही है, उन राज दीदी तक
पहुँचने का रास्ता अब मुझे मिल गया है. अब मैं रात को तसल्ली से सतीश से उनका नंबर
ले लूंगा और कल उनसे बात कर लूंगा.
मैंने रात का इंतज़ार किया. रात करीब १० बजे मैंने उस नंबर
पर फोन लगाया. उधर से आवाज़ आई “हेलो”
आवाज़ जानी पहचानी थी. हाँ ये सतीश की आवाज़ थी. मैंने कहा
“सतीश....?”
“जी हाँ बोल रहा हूँ. आप कौन?”
“मैं मुम्बई से महेंद्र मोदी बोल रहा हूँ, आपको याद
होगा.......”
मेरी बात बीच में ही काटकर सतीश बोला “ऑल इंडिया रेडियो
वाले भाई साहब बोल रहे हैं क्या?”
“हाँ हाँ सही पहचाना. अरे यार मुझे बहुत दिन से राज दीदी की
बहुत याद आ रही है. वो कहाँ रहती हैं? उनका मोबाइल नंबर दो ना.... मैं उनसे बात
करना चाहता हूँ”
पांच सात सैकंड तक उधर से कोई आवाज़ नहीं आई. मुझे लगा फोन
कट गया है. मैंने कहा “हलो सतीश मेरी आवाज़ आ रही है ना?”
सतीश की डूबती डूबती सी आवाज़ मेरे कानों में पडी “भाई साहब
कहाँ से दूं मैं आपको उनका नंबर? जानते हैं आज ही उनका स्वर्गवास हुआ है और मैं
अभी अभी उनका दाह-संस्कार करके लौटा हूँ.”
मैं एकदम हक्का बक्का रह गया.......ये कैसे हो सकता है? अगर
उन्हें यों मुझसे मिले बिना चले जाना था, तो इतने बरस जैसी भूली बिसरी रहीं, वैसे
ही रह जातीं ना ? क्यों इन्ही दिनों में इतनी शिद्दत से मुझे याद आईं? कुछ ही दिन
बाद खबर मिली कि प्रेम भाई साहब भी हार्ट अटैक से चल बसे.
मगर क्या किया जा सकता है? इसी का नाम शायद ज़िंदगी है.
क्यों आता है इंसान इस दुनिया में? आता है, कितनी परेशानियां उठाकर बचपन से जवानी
का सफर तय करता है? फिर पूरी जवानी दाल रोटी कमाने और बच्चों की परवरिश में निकल
जाती है? और बुढापा जब उसकी ज़िंदगी में दस्तक देना शुरू करता है, तब तक तो कई
बीमारियाँ उसे चारों तरफ से जकड चुकी होती है. उसके बाद तो सिवा दुखों के,
परेशानियों के उसके दामन में कुछ नहीं बचता. यानि पैदा होने के दिन से जो जद्दोजहद
शुरू होती है, उससे उसे निजात उसी लम्हे मिलती है, जब उसे ऊपर से बुलावा आता है और
वो अपने आस पास के सौ पचास लोगों को उदास, दुखी करके, अपने आख़िरी सफर पर कूच कर
जाता है? फिर किसलिए आता है वो इस दुनिया में? लेकिन उसका आना या ना आना, उसके खुद
के बस की बात नहीं है. वो इस दुनिया में आता है, उससे पहले उससे कोई नहीं पूछता कि
तुम इस दुनिया में आना चाहते हो या नहीं? उसे इस दुनिया में लाने के फैसला तो किसी
और के हाथ होता है?
आज सोच बदलने लगी है लोगों की. मेरी एक विविध भारती की
लिसनर और फेसबुक दोस्त से कुछ रोज पहले
बात हुई तो मैंने पूछा “आपके कितने बच्चे हैं ?” उन्होंने हंस कर जवाब दिया “जी
हमने बच्चे पैदा नहीं किये हैं और हमने तय किया है कि हम बच्चे पैदा नहीं करेंगे.”
मैंने पूछा “वजह....?”
“आप बताइये सर, इस दुनिया में दुखों के अलावा और क्या है?
अगर किसी भी आम आदमी के जीवन में अच्छे और बुरे वक्त का हिसाब लगाया जाए, तो अच्छे
पर बुरे वक्त का पलडा ही भारी पडेगा. फिर क्यों दो तीन जीवों को दुःख भोगने के लिए
इस दुनिया में लाया जाए?”
ये एक बहस का मौजूं हो सकता है कि ये सोच सही है या नहीं,
मगर इससे इनकार तो नहीं ही किया जा सकता कि ये भी सोचने का एक ज़ाविया तो है ही.
सारांश यहाँ
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