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Friday, July 8, 2016

ताने-बाने लोकेंद्र शर्मा की जिंदगी के- ग्‍यारहवीं कड़ी।


तकनीकी समस्‍याओं के चलते 'तााने-बाने' की कड़ी समय पर नहीं आ सके। हमें खेद है। आज पेश है दसवीं कड़ी।



नेशनल स्टेडियम से लौटन के बाद कई दिनों तक बाल दिवस की यादों से मन प्रफुल्लित रहा. चाचा नेहरू को इतने नज़दीक से देखा, अपने-आप में मेरे लिए यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी. इतने बड़े आदमी, देश के राजा और कितने सरल, कितना प्यार करते हैं बच्चों को और हैं भी कितने सुंदर. गोरे-चिट्टे, ऐसे कि देखते ही श्रद्धा उमड़े. किताब में चाचा नेहरू पर जो पाठ है, वो ग़लत थोड़े ही है. पाठ में एक जगह लिखा था कि अगर चाचा नेहरू को किसी बात पर ग़ुस्सा आ रहा हो और उनके सामने कोई बच्चा लाकर खड़ा कर दिया जाए, तो उनका ग़ुस्सा काफ़ूर हो जाता है.


दो-तीन दिन तक दिमाग़ ऐसी ही बातों में रचा-बसा रहा. फिर एक दिन अचानक ख़याल आया कि अगर चाचा नेहरू  भारत के सब बच्चों के चाचा हैं, तो अपने भतीजों की मदद भी तो कर सकते हैं. मुझे अपने स्कूल की याद आई. कैसा खंडहर जैसा है. चाचा नेहरू क्या हमारे स्कूल के लिए एक नई इमारत नहीं बनवा सकते? लेकिन उन्हें स्कूल की दशा का कहां पता होगा. कोई बताएगा, तभी तो वो जान पाएंगे. मन ही मन मैंने तय किया कि चाचा नेहरू को यह जानकारी मैं दूंगा. मैं उन्हें बताऊंगा कि हमारे स्कूल की कितनी ख़स्ता हालत है और प्रार्थना करुंगा कि वे हमारे लिए एक नया स्कूल बनवा दें. मन में बात आई तो एक अजब सा उत्साह जागा. उसी रात मैंने चाचा नेहरू के नाम हिंदी में एक चिट्ठी लिखी. अंतर्देशीय पत्र पर लिखी गई इस चिट्ठी में अपना और अपने स्कूल का नाम साफ़-साफ़ अंग्रेजी के केपिटल अक्षरों में लिखा. अपनी तरफ़ से चुन-चुन कर दर्द और पीड़ा भरे शब्दों का प्रयोग किया और चाचा नेहरू से प्रार्थना की, कि मोरी गेट स्कूल के ग़रीब बच्चों के भविष्य का ख़याल करके हमारे लिए एक नया स्कूल बनवा दें.


अंतर्देशीय पत्र पर हमने चाचा नेहरू का पता लिखा, ‘पंडित जवाहरलाल नेहरू, भारत के प्रधानमंत्री, नई दिल्ली.’ अगले दिन स्कूल जाते हुए रास्ते में, अपनी चिट्ठी को लेटरबॉक्स के हवाले कर दिया. मन बहुत हल्का और प्रसन्न था. स्कूल को नई इमारत मिलेगी, इसमें मुझे कोई शक नहीं था. अपने-आप पर थोड़ा गर्व भी था कि नई इमारत मेरे कारण बनेगी.


मामाजी का घर छूटने के बाद रेडियो सुनना कम हो गया था. घर में तो रेडियो था ही नहीं. मकान मालिक चाचाजी (श्रीकृष्ण गुप्त) के घर में, ऊपर एक रेडियो रखा था, जिसमें कभी-कभी गाने सुनाई देते थे. चाचीजी का नाम था लक्ष्मी. चाचाजी उन्हें दिनभर ‘लशमी...लशमी’ कहकर पुकारा करते. उनके छोटे-छोटे बच्चे भी उनकी नकल करते और अपनी मां को इसी तरह पुकारने के चक्कर में तुतला कर बोलते, “लम्मी...लम्मी”. चाचीजी दर्मियाने क़द और गदराये बदन की सांवली औरत थीं. उनका गोल चेहरा बहुत सलोना था. बात भी ख़ूब प्यार से करतीं. मेरा उनके घर में उठना-बैठना होने लगा. मेरे कहने पर वो रविवार को रेडियो में बच्चों का कार्यक्रम लगा देतीं और मैं रेडियो से कान लगाए सुनता. रेडियो के बगल वाले आले में चाचाजी की कई सारी किताबें कतार में रखीं थीं. इनमें अधिकतर हिंदी के उपन्यास और कहानी संग्रह थे. कुछ रूसी और अंग्रेजी उपन्यासों के हिंदी अनुवाद भी थे. कभी-कभा मैं उनमें से कोई किताब उठाकर पढ़ने के लिए ले जाता. रेडियो पर बच्चों के प्रोग्राम में जो दीदी और भैया थे, उनकी बातें सुनकर मुझे फिर लगने लगा, जैसे वो मुझ ही से मुख़ातिब होकर बात करते हैं. उनसे मिलने की इच्छा फिर बलवती होने लगी.


हिमाचल रेस्टोरेंट में जो आदमी दूध सप्लाई करता था, उससे बाउजी ने एक लीटर दूध, घर के लिए भी लेना शुरू किया. चूंकि वो रेस्टोरेंट के लिए ढेरों दूध सप्लाई करता था, इसलिए बाउजी से एक लीटर के वो बहुत कम दाम लेता था. मेरी यह ड्यूटी थी कि स्कूल के बाद मैं चांदनी चौक जाता और ढक्कनदार बाल्टीनुमा बर्तन में दूध लेकर वापस घर लौटता. चांदनी चौक जाता तो सरोज बहन, मंजू बहन और अरुण से भी मिलना हो जाता. अरुण से मैं कई बार रेडियो स्टेशन जाने की अपनी इच्छा जता चुका था. अरुण भी दीदी और भैया से मिलने का बहुत इच्छुक था. एक दिन मामाजी से मैंने इस बात का ज़िक्र किया. तब अरुण वहीं खड़ा था, उसने तुरंत मेरी बात का समर्थन किया और कहा, “हां भाई, हमें भी जाना है रेडियो स्टेशन. हम और दादा दोनों चले जाएंगे. आप बस परमिशन दे दो.” एक पल तो मामाजी चुप रहे, फिर मुस्कुरा कर बोले, “ठीक है चले जाना.” आख़िर मामाजी अपने इकलौते लाडले बेटे की इच्छा कैसे न पूरी करते. अरुण एकदम उत्साह में आ गया, “थैंक यू भाई, थैंक यू भाई” कहकर उसने अपने पिता जी का शुक्रिया अदा किया. यहां एक बात बता दूं कि मामाजी को उनके सब बच्चे ‘भाई’ कहकर संबोधित करते थे. ये संबोधन कब और कैसे शुरू हुआ, इसका इतिहास मुझे नहीं मालूम, लेकिन किसी संबोधन के बारे में कोई राय रखने का मुझे भी क्या अधिकार था. मैं तो ख़ुद अपनी मां को ‘भाभी’ कहता था. अरुण ने मुझसे कहा, “आप भी फूफाजी से पूछ लीजिए.” फूफाजी मतलब बाउजी. अरुण और बेबी बाउजी को फूफाजी कहते थे और उनकी देखा-देखी रेस्टोरेंट के सारे कर्मचारी और बैरे भी उन्हें फूफाजी कहने लगे थे. रेस्टोरेंट में ‘फूफाजी’ संबोधन इतना अधिक सुनाई देने का परिणाम ये हुआ कि आने वाले रोजमर्रा के कुछ ग्राहक भी बाउजी को फूफाजी कहने लगे और यूं हिमाचल रेस्टोरेंट में बाउजी ‘जगत फूफाजी’ हो गए.


सन् 1956 के नवंबर महीने की 22 तारीख़ थी, जब मैं और अरुण रेडियो स्टेशन जाने के लिए घर से निकले. मामाजी ने कई सारी हिदायतें दी थीं. अरुण को कम मुझे ज़्यादा. क्योंकि मैं बड़ा था. चांदनी चौक में लालकिले की तरफ़ जाने पर एक तिराहा आता है, जिसका नाम है फव्वारा. यहां सचमुच में तब पानी का एक फव्वारा था. यहीं मशहूर शीशगंज गुरुद्वारा भी है, जिसके ठीक बगल में है चांदनी चौक का पुलिस स्टेशन. इस तिराहे पर तब दूसरी मशहूर जगह हुआ करती थी, मैजेस्टिक सिनेमाघर. इसी के सामने से फ़ोर-सीटर चलते थे, जो लोगों को दो आने प्रति सवारी की रेट से रीगल सिनेमा तक ले जाते थे. फ़ोर-सीटर यानी एक बड़ी मोटर साइकिल को जुगाड़ से बनाया गया चार सवारियों को ढोने वाला रिक्शा. अधिकतर ये फ़ोर-सीटर चलाने वाले सरदारजी होते थे. ऐसे ही एक फ़ोर-सीटर में बैठकर हम कनॉट प्लेस के रीगल सिनेमा तक पहुंचे. यहां से पार्लियामेंट स्ट्रीट शुरू होती थी, जो सीधी संसद भवन तक जाती थी. रीगल से संसद भवन के लिए सड़क पर तांगे चलते थे और वो भी दो आना प्रति सवारी लेते थे. तांगे में बैठकर हम रेडियो स्टेशन की तरफ़ चले. नवंबर का तीसरा सप्ताह था. सूरज जल्दी छुप चुका था और अंधेरा धीरे-धीरे गहरा रहा था. पार्लियामेंट स्ट्रीट के दोनों तरफ़ घने पेड़ों की क़तारें थीं. सड़क पर इतना सन्नाटा था कि तांगा खींचते हुए घोड़े की टापें दूर तक सुनी जा सकती थीं. कुछ ही देर बाद रेडियो स्टेशन की लाल-पीली भव्य इमारत पेड़ों के पीछे से झांकती दिखाई दी और हम तांगे से ठीक इसके सामने उतर गए. सड़कों पर लैम्प पोस्ट जल चुके थे. रेडियो स्टेशन के गेट पर लगे हंडे भी रोशनी दे रहे थे और ऐसे में हमने गेट की तरफ़ क़दम बढ़ाए. अंदर जाने से पहले ही एक बंदूकधारी गार्ड ने हमें रोका, “कहां जाना है?” मुझे लगा रेडियो स्टेशन का गार्ड है, इसलिए इसे प्रभावित करने के लिए अंग्रेजी में बात करनी चाहिए. ढेर सारा आत्मविश्वास समेटकर शाम के झुटपुटे में मैंने गार्ड से कहा, “गुड मॉर्निंग”. सुनकर गार्ड मुस्कुराया. फिर पूछा, “क्या काम है?” अरुण बेचारा चुपचाप सहमा सा मेरे साथ खड़ा था. बातचीत का मोर्चा मैंने संभाला हुआ था. कहा, “हमें दीदी और भैया से मिलना है.” गार्ड की कुछ समझ में नहीं आया, पूछा, “दीदी-भैया कौन?” मुझे गार्ड पर लगभग तरस सा आ गया. इतने मशहूर दीदी-भैया को ये नहीं जानता, कितना नादान है. उसे बताया,
“वो जो बच्चों के प्रोग्राम में आते हैं ना, वही दीदी और भैया”. गार्ड ने हमें समझाया, “लेकिन अब तो ऑफिस बंद हो चुका है, सबलोग घर चले गए हैं”. फिर बरामदे की तरफ़ इशारा करके हमें एक कमरे के दरवाज़े पर लटकते ताले को दिखाया, “वो देखो, ताला लगा हुआ है उनके कमरे में.” मुझे लगा, गार्ड हमें बच्चा समझकर टाल रहा है, ऑफिस कैसे बंद हो सकता है. रेडियो खोलकर देखो, रात को देर तक चलता रहता है, लेकिन हमारे सारे तर्क बेकार गए. गार्ड ने हमारी एक नहीं सुनी और कहा, “कभी दिन के बख़त आना. तब मिलेंगे सारे लोग. अभी अंदर नहीं जा सकते.”

मैं और अरुण दोनों बहुत बुरी तरह निराश हुए. मरी चाल से हमने वापस रीगल सिनेमा की तरफ़ चलना शुरू किया. आकाशवाणी दिल्ली की इमारत के प्रथम-दर्शन का दिन 22 नवंबर 1956, मेरे स्मृति-इतिहास में आज भी ज्यों का त्यों दर्ज है.


                                    ***



स्कूल में मेरा और दर्शन का दोस्ताना ख़ासा गहरा हो गया था. उसका ख़याल था कि मेरी हिंदी बहुत अच्छी है और मेरा विचार था कि वो गणित में बहुत अच्छा है. जब भी ज़रूरत पड़ती हम इन विषयों में एक-दूसरे की सहायता करते. कक्षा के दूसरे लड़के भी अब मेरे साथ व्यवहार में सहज हो चुके थे. शोर और शरारतों में अब मैं भी उनके जैसा हो गया था.


ऐसा ही एक शोर भरा दिन था. मास्टरजी आए नहीं थे और क्लास में एक-दूसरे पर काग़ज़ के हवाई जहाज फेंके जा रहे थे. तभी चपरासी ने आकर ऐलान किया, “लोकेन्दर शरमा कौन है? हेडमाटसाब बुला रए हैं”. क्लास तो चपरासी के प्रवेश करते ही ख़ामोश हो गई थी. अपना नाम सुनकर मैं भी घबरा गया. क्या कारण हो सकता है? क्यों बुलवाया है मुझे? धड़कते हुए दिल के साथ मैं चपरासी के साथ खरबंदा साहब के ऑफ़िस की तरफ़ चला.


चिक उठाकर अंदर प्रवेश करते ही हेडमास्टर साहब के सामने बैठे दो पुलिस वर्दीधारी दिखाई दिए. मेरी घबराहट और बढ़ गई. जाकर नमस्ते किया और तभी मेरी नज़र सामने टेबल पर खुले पड़े, अंतर्देशी पत्र पर पड़ी. ये वही पत्र था, जिसे कुछ दिन पहले मैंने चाचा नेहरू के नाम पोस्ट किया था. हेडमास्टर साहब ने पूछा, “ये चिट्ठी तुमने लिखी थी?” मैंने ‘हां’ तो किया, लेकिन सामने पुलिस वालों को बैठा देखकर घबराहट इतनी बढ़ी कि लगा रो पड़ूंगा. हेडमास्टर साहब ने कहा, “क्यों लिखी थी?” अब तक मेरी आंखें भर आईं थीं. पुलिस को देखकर बहुत डर लग रहा था. मैंने चुपचाप सिर झुका लिया. हेडमास्टर साहब ने फिर कहा, “देखो, स्कूल की बिल्डिंग के बारे में सोचना तुम्हारा काम नहीं है. तुम्हारा काम पढ़ना है, पढ़ाई में ध्यान दो”. फिर सामने बैठे पुलिस इंस्पेक्टर से मुख़ातिब होकर बोले, “ये है जी बच्चा, आठवीं जमात का है”. इसके आगे उन्होंने अंग्रेजी में कुछ कहा. पुलिस वालों ने ऊपर से नीचे तक मुझे देखा, फिर एक ने कहा, “ठीक है हम चलते हैं”. कहकर पुलिस वाले खड़े हो गए. खड़े होते-होते मेज़ पर पड़े इनलैंड-लेटर को भी एक इंस्पेक्टर ने हाथ में समेट लिया. पुलिस वाले चिक उठाकर कमरे से बाहर चले गए. मैं वहीं खड़ा कांपता रहा.


हेडमास्टर साहब ने हौले से मुझसे कहा, “इधर आ बेटा”. उनकी आवाज़ की नरमी ने जैसे मुझे ढाढस बंधाया. मैंने सिर उठाकर देखा, वो इशारे से मुझे अपने पास बुला रहे थे. मैं पास पहुंचा, तो उन्होंने मुझे बाजू से पकड़कर अपने और नज़दीक किया, फिर भरे गले से कहा, “इसमें रोने की क्या बात है बच्चे”. कहते-कहते शायद उनकी भी आंखें छलक आई थीं. फिर जाने उन्हें क्या सूझा, मुझे दोनों हाथों से पकड़कर अपने सीने से लगा लिया. अब मैं पूरी तरह फूटकर रो पड़ा. खरबंदा साहब मेरी पीठ पर हौसले की थपकी दे रहे थे और मुझे पता था कि उनकी आंखें भी झरने लगीं थीं.


साठ बरस पुरानी इस घटना को, जब आज सन् 2016 में, मैं फिर अपनी क़लम से कुरेद रहा हूं, तो भारत की वर्तमान राजनैतिक चित्र का ध्यान आए बिना नहीं रहता. आज मेरा जीवन समय के उस दौर से गुज़र रहा है, जब देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेन्द्र मोदी आसीन हैं. दो साल पहले 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से बोलते हुए नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि वे देश के प्रधानमंत्री नहीं, प्रधानसेवक हैं. असली मूल्यांकन तो वैसे समय और इतिहास ही करेगा, लेकिन ऐसी मान्यता बन गई है कि नरेन्द्र मोदी के रूप में भारत ने पहली बार एक सच्चा प्रधानमंत्री पाया है. मोदीजी शुरू से ही हर महीने के तीसरे रविवार को आकाशवाणी के द्वारा जनता से अपने मन की बात करते हैं. बात सचमुच उनके ‘मन’ की होती है, राजनीति से उसका कुछ लेना-देना नहीं होता. लेकिन मोदीजी केवल अपने मन की बात ही नहीं करते, लोगों के मन की भी सुनते हैं. देश के हर कोने से, उन्हें हज़ारों की तादाद में लोग पत्र लिखते हैं. मोदीजी उनमें से कुछ पत्रों को चुनकर उन का ज़िक्र भी करते हैं और अपने मन की बात करते हुए, उनका जवाब भी देते हैं. ऐसे ही एक प्रसारण में मैंने मोदीजी को एक छोटे बच्चे के पत्र का हवाला देते हुए सुना. उन्होंने बच्चे के सुझाव पर उसे धन्यवाद ही नहीं दिया, बच्चे की बताई हुई समस्या पर ग़ौर करने का वादा भी किया. उस दिन मोदीजी के मन की बात सुनते-सुनते, मुझे साठ बरस पुरानी उस घटना की याद हो आई, जब चाचा नेहरू को लिखी गई मेरी चिट्ठी के उत्तर में पुलिस मुझे ढूंढ़ती हुई स्कूल तक पहुंच गई थी.
 

चौदह बरस की उम्र में लिखी गई मेरी मासूम चिट्ठी में नेहरु-सरकार को जाने कौन सा ख़तरा दिखाई दिया था कि पुलिस को उसकी जांच करनी पड़ गई. केवल हेडमास्टर खरबंदा साहब ने मेरे सोच और साहस को पहचाना था. मेरी भोली-ईमानदार कोशिश का मान किया था. मेरे बाल-मन की पीड़ा को महसूस किया और मेरे आंसुओं के साथ अपनी व्यथा को भी जोड़ा. उनका मुझे गले लगाना और खुद भी रो पड़ना, मैं कभी नहीं भूलूंगा.  


                                    ***



चाचाजी (श्रीकृष्ण गुप्त) के घर में रखे रेडियो के ज़रिये बच्चों के प्रोग्राम वाले दीदी और भैया का बुलावा मुझे अक्सर ललचाता. एक दिन मैंने तय कर लिया कि अब और अधिक इंतज़ार नहीं करुंगा. किसी रविवार को बच्चों का प्रोग्राम शुरू होने से पहले ही रेडियो-स्टेशन पहुंच जाऊंगा. चाचाजी के पास एक साइकिल थी. कभी-कभी किसी काम के लिए मैं उनसे साइकिल मांग कर भी ले जाता था. हिम्मत करके मैंने चाचाजी से एक दिन सुबह-सुबह साइकिल मांग ली. वो रविवार का दिन था. चाचाजी को कहीं जाना नहीं था. इसलिए उन्होंने इजाज़त भी दे दी. साइकिल क्या हाथ में आई, जैसे मुझे पंख मिल गए. साइकिल दौड़ाता हुआ मैं सीधे रेडियो स्टेशन पहुंचा. इस बार गेट पर मुझे किसी ने नहीं रोका. मुझे पता था, सुबह नौ बजे बच्चों का कार्यक्रम शुरू होता है. बरामदे में बहुत सारे बच्चे जमा थे. मैं भी जाकर उनमें शामिल हो गया. थोड़ी देर बाद सब बच्चों को घेरकर स्टूडियो में ले जाया गया.


जीवन में पहली बार आकाशवाणी के स्टूडियो में प्रवेश किया. अन्दर पहुँचते ही सबसे पहले ठंडी हवा ने बदन को छुआ. दूसरे मुझे एक विशेष प्रकार की ख़ुशबू महसूस हुई. स्टूडियो की यह ख़ुशबू मैंने बाद में भी कई बार, बल्कि हर बार महसूस की, लेकिन इसका स्रोत कभी समझ में नहीं पाया. स्टूडियो में एक लंबे कॉरिडोर को पार करने के बाद, हमें ले जाकर एक बड़े से कमरे में, क़ालीन पर बैठा दिया गया. कमरे के दरवाज़े पर ‘सात’ नंबर लिखा हुआ देखा था. बाद में पता चला, ये स्टूडियो नंबर सात है. बच्चे अंग्रेजी के ’सी’ अक्षर के आकार का घेरा डालकर बैठे थे. एक तरफ़ दीदी थी. उनके सामने माइक्रोफ़ोन रखा था. मैंने स्टूडियो में चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, सामने एक खिड़की थी, जो पूरी तरह शीशे से ढंपी हुई थी. शीशे के उस पार कुछ लोग खड़े हुए दिखाई दिए. खिड़की के ऊपर एक हरी रोशनी जल रही थी. दीदी ने बताया कि जब हरी रोशनी बंद हो जाएगी और लाल रोशनी जलेगी, तब पहले दीदी बोलेंगी और उसके बाद सब बच्चे बोलेंगे ‘जयहिंद’. मैं समझ गया कि खिड़की के माथे पर लाल रोशनी जलते ही प्रोग्राम शुरू हो जाएगा. मैं पहले से जगह बनाकर घेरे में सबसे आगे माइक्रोफ़ोन के पास, दीदी के ठीक सामने बैठ गया था. दीदी का असली नाम क्या था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन वो बच्चों के साथ बहुत घुल-मिल कर बतिया रहीं थीं. सबके साथ बहुत लाड़ से पेश आ रही थीं. चूंकि मैं सामने बैठा था, दीदी ने मुझसे कहा, “जब प्रोग्राम शुरू हो जाय, तब तुम पूछना, आज भैया क्यों नहीं आए?” मुझे रेडियो में बोलने का मौका मिल रहा है, इस बात से एकाएक मैंने गर्वित महसूस किया. तभी दीदी ने ‘शीशीई’ करते हुए अपने होठों पर उंगली रखकर सबको चुप रहने का संकेत किया. समय हो चुका था. सब खिड़की के माथे पर लगी हरी रोशनी की तरफ़ देख रहे थे. अचानक रोशनी हरी से लाल हुई और दीदी ने कहा, “बच्चो, जयहिंद”. बच्चों ने भी ख़ूब ज़ोर से ‘जयहिंद’ का नारा लगाया. कुछ देर तक दीदी ने बच्चों के स्वागत में कुछ कहा, फिर आज के प्रोग्राम में क्या-क्या सुनाया जाएगा, ये बताया और फिर मुझे हाथ से इशारा करके बोलने के लिए कहा. जो बोलना था, उसकी मन ही मन मैंने कई बार रिहर्सल कर ली थी. मैं बोला, “दीदी, आज भैया क्यों नहीं आए”. दीदी हंसी, लेकिन आगे कुछ कहतीं, इसके पहले ही पीछे से आवाज़ आई, “आया क्यों नहीं, मैं यहां बैठा हूं सबसे पीछे”. आवाज़ सुनी तो लगा कि जैसे किसी देवता की आवाज़ है. मैंने मुड़कर देखा. बच्चों की भीड़ में सबसे पीछे बैठे भैया पर नज़र पड़ी तो मुंह खुला का खुला रह गया. हाय राम, इत्ता सुंदर आदमी! गोरे-चिट्टे घुंघराले बाल वाले भैया, आवाज़ से ही नहीं, शकल से भी देवता जैसे लगे. कुछ देर दीदी और भैया की नोंक-झोंक हुई और उसके बाद भैया आकर माइक्रोफ़ोन के पास मेरे बगल में बैठ गए. जिन भैया और दीदी से मिलने का एक लंबे समय से सपना देख रहा था, आज वो पूरा हो गया. दोनों सामने एकदम मेरे पास बैठे थे.


कई दिनों, शायद कई बरसों बाद, जब मैं एनॉउन्सर की हैसियत से विविध भारती में काम करने लगा था, तब मैंने जाना कि दीदी का नाम था, श्रीमती कौशल्या माथुर और भैया के रूप में जिस देव पुरुष को मैंने देखा, उनका नाम था, पंडित विनोद शर्मा.


                                      ***


आज़ादी के बाद, विकासशील देशों की तुलना में, जिस गति से भारत का विकास हो रहा था, उसे देखते हुए कहा जाता था कि यदि भारत पूरा ज़ोर लगाकर दौड़े, तो भी दुनिया में अपनी जगह केवल खड़ा ही रह पाएगा. विज्ञान और तकनीक के सहारे विकसित देशों के विकास की गति रॉकेट जैसी थी, जबकि भारत बैलगाड़ी की चाल से बढ़ रहा था. 1945 में जब दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हुआ, जर्मनी और जापान, तब बुरी तरह बर्बाद हो चुके थे. जर्मनी के दो टुकड़े कर दिए गए थे. पूरे जर्मनी में घर, कारख़ाने, सड़कें, परिवार और दिल सब टूटे हुए थे. नौजवान युद्ध में मारे जा चुके थे और देश में अधिकतर औरतें, बच्चे और बूढ़े ही बचे थे. इसके ठीक दो बरस बाद, 1947 में  भारत आज़ाद हुआ. भारत के भी दो टुकड़े बेशक हुए. बंटवारे और आबादी के तबादले ने लाखों लोगों की बलि भी ली, लेकिन जर्मनी और जापान जितना घायल हुए थे, उसके मुक़ाबले भारत के ज़ख्म बहुत छोटे थे. साथ ही अंग्रेजों के बनाए हुए बड़े-बड़े पुल, शानदार इमारतें, टेलीफ़ोन और रेलव लाइनें’ भारत में अपनी जगह सब सलामत थे. फिर भी विकास की दौड़ में जर्मनी और जापान ने कुछ ही बरसों में भारत को बहुत पीछे छोड़ दिया. एक बार अपने जर्मन मित्र मार्टिन से मैंने इसका कारण पूछा था. पूछा था कि भारत के पिछड़ जाने का क्या कारण हो सकता है. क्या हमें शुरूआती लीडरशिप ग़लत मिली या भारत के लोग हैं ही नाक़ाबिल. मार्टिन ने मुस्कुरा कर कहा था, “शायद आधी-आधी दोनों बातें सच हैं”. मैं नहीं जानता कि मार्टिन मज़ाक कर रहा था या उसकी बात में कोई गंभीरता थी, लेकिन सच तो यही है कि भारत उस गति से विकास नहीं कर पाया, जिस गति से करना चाहिए था. 1957 में लड़खड़ाती चाल से ही सही, दुनिया से गति मिलाने के इरादे से, भारत ने फ़ैसला किया कि यहां भी मुद्रा-प्रणाली को सरल और सहजग्राह्य बनाया जाए, उसे दाशमिक प्रणाली में परिवर्तित कर दिया जाए. अर्थात रुपए-आने-पैसे की जगह, रुपए और पैसे का प्रयोग शुरू हो. इस प्रणाली की शुरूआत के लिए सन् 1957 की पहली अप्रैल को चुना गया.


पहली अप्रेल से एक रुपये में चौसठ की जगह, सौ ‘नए-पैसे’ होंगे. लेकिन फिर एक रुपये में ‘आने’ कितने होंगे ? मेरे किशोर-मन को यह हिसाब कुछ समझ में नहीं आ रहा था. बाउजी ने बस यही बताया था कि अब एक रुपये में सौ नए-पैसे होंगे, लेकिन यह कोई नहीं बता रहा था कि पुराने-पैसे कितने होंगे. दाशमिक-प्रणाली अगर एक-दस-सौ-हज़ार... इस तरह चलती है और एक रुपये में सौ नए- पैसे होंगे, तो एक आना दस नए-पैसे का होना चाहिए था और एक रूपया दस नये-आने का.


पहली अप्रेल को हिमाचल रेस्टोरेंट के काउंटर पर मैंने नये सिक्कों का ढेर देखा. एक नया-पैसा, ताम्बे का चमकता हुआ नन्हा-मुन्ना सा गोल-मटोल सिक्का था (बाद में यह चोकौर और अल्युमिनियम का हो गया था). फिर दो और तीन पैसे के भी सिक्के थे, अल्युमिनियम के. पांच-पैसे का सिक्का भी  अल्युमिनियम का था, चौकोर अधन्ने जैसा. दस-पैसे का सिक्का, इकन्नी जैसा, लेकिन साइज़ में थोडा बड़ा था और पीतल का था. बाद में ये सिक्का भी पीतल की जगह अल्युमिनियम का हो गया था. बीस पैसे का सिक्का षट्कोण वाला था. फिर पचीस और पचास पैसे के सिक्के थे, चवन्नी और अठन्नी जैसे. एक रुपये का सिक्का, कल्दार से थोडा छोटा था और पांच रूपये का थोडा बड़ा.
             



सिक्के तो देख लिए, लेकिन इनका हिसाब समझने में कई दिन लगे, मुझे ही नहीं, और भी कई लोगों को. एक लम्बे समय तक, पुराने रेट की वजह से ‘इकन्नी’ की चीज़ छः नए-पैसों में और ‘दुअन्नी’ की बारह नए-पैसों में खरीदी जाती रही. धीरे-धीरे चीज़ों के दाम नए-पैसों के हिसाब से तय होने लगे और फिर धीरे धीरे ‘नया-पैसा’ पुराना होता गया, फिर लोगों ने उसे ‘नया’ कहना भी बंद कर दिया.

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4 comments:

Gyani Baba said...

बहुत सुंदर, तारीफ के लिए शब्द कम पड़ रहे है

pradeep gawande said...

बहुत सुंदर रोचक

Unknown said...

Waah waah

Unknown said...

Waah waah

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