आकाशवाणी, बीकानेर राजनीति
का अखाड़ा बना हुआ था. ए ओ का ट्रान्सफर हो चुका था. किसी स्टेशन पर ए ओ के न होने
पर एडमिन और अकाउंट्स सेक्शन का इंचार्ज डी डी ओ होता है जिसे हैड ऑफ द ऑफिस नामित
करता है. डी डी ओ या तो किसी प्रोग्राम ऑफिसर को बनाया जाता है या फिर असिस्टेंट
इंजीनियर या उससे ऊपर के किसी इंजीनियरिंग अधिकारी को जिन्हें आम तौर पर एडमिनिस्ट्रेशन
का कोई ज्ञान नहीं होता. ऐसे में डी डी ओ मात्र रबर की स्टाम्प बनकर रह जाता है.
उसके पास जो भी फ़ाइल अकाउंटेंट के पास से आती है, बस उसे उस पर दस्तखत करने होते
हैं. इंजीनियरिंग सेक्शन के लोग तो फिर भी क्योंकि गणित के लोग होते हैं, संख्याओं
से नहीं घबराते और अकाउंट्स का काम थोड़ा बहोत सीख भी लेते हैं लेकिन ज़्यादातर
प्रोग्राम के लोग संख्याओं से बहोत घबराते हैं और बस फ़ाइल आते ही उस पर आँख मूंदकर
दस्तखत करके उसे आगे खिसका देते हैं. ऐसे में अगर अकाउंट्स के लोग ज़रा ज़्यादा तेज़ यानी
शरारती हों तो अकाउंटेंट को बहोत चौकन्ना हो जाना पड़ता है क्योंकि अगर अकाउंट्स
सेक्शन के किसी चालू कर्मचारी ने जानबूझकर कोई गड़बड़ कर दी और अकाउंटेंट ने ध्यान
नहीं दिया तो उसके बाद जो उसके ऊपर बैठा हुआ है, वो तो रबर स्टाम्प ही है. उसने दस्तखत
कर दिए तो वो गलती जो अकाउंट्स सेक्शन के एक कर्मचारी ने शरारतन सबको लपेटने के
लिए की थी, वो गलती आगे तक चलती ही जायेगी.
शशिकांत पांडे बहोत होशियार
अकाउंटेंट माना जाता था. वैसे देखा जाए तो वो समझदार और जानकार अकाउंटेंट ही नहीं,
ए ओ, इन्स्पेक्टर ऑफ एकाउंट्स, डी डी ए,
डायरेक्टर हर पोस्ट पर एक बहोत होशियार अफसर माना जाता रहा, यहाँ तक कि अब रिटायर
होने के बरसों बाद भी उस इंसान को नौकरी से जुड़े कानून क़ायदे जुबानी रटे पड़े हैं
और आकाशवाणी और दीगर डिपार्टमेंट्स के लोग आज भी उससे पेचीदा मामलों में सलाह मशविरा करके ही आगे क़दम बढाते हैं,
लेकिन अभी मैं बात कर रहा था उस वक़्त की जब वो आकाशवाणी में अकाउंटेंट था. ए ओ के
ट्रान्सफर के बाद भी उसके चमचे अक्सर ऐसी कारस्तानियाँ करने की कोशिश करते थे,
जिससे ऊपर के लोग फँस सकें. ऐसे में एक अकाउंटेंट के तौर पर शशिकांत पांडे बहोत
चौकन्ना रहता था. अगर अकाउंटेंट चौकन्ना ना रहे तो ये लोग क्या क्या कर जाते हैं,
इसकी एक मिसाल मैं आपको सुनाता हूँ. सन 1999 में जब मैं विविध भारती में आया ही
था, उस वक़्त कोई ए ओ नहीं था और प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव भी तादाद में काफी कम थे.
मेरे उस वक़्त के डायरेक्टर खुद प्रोग्राम, एडमिन और एकाउंट्स हर मामले में बस जीरो
से कुछ ही ज़्यादा थे, सोचते थे कि असिस्टेंट डायरेक्टर के पास तो काम ही क्या होता
है ?काम प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव करते हैं और ज़िम्मेदारी सारी डायरेक्टर की होती
है. असिस्टेंट डायरेक्टर की पोस्ट तो सरकार ने फालतू बना रखी है, बस दिन भर इधर
उधर घूमने के लिए. कुछ ऐसा ही सोचकर
उन्होंने डी डी ओ की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी. नीचे के लोग भी जो मुझे अभी तक ठीक
से जानने नहीं लगे थे, रिलैक्स हो गए कि चलो डी डी ओ का काम किसी प्रोग्राम वाले
के पास आ गया है तो वो कम से कम हमारे काम में टांग तो नहीं अड़ायेगा. प्रोग्राम
वाले को ना तो कानून कायदों की समझ होती है और ना हिसाब किताब की. जो भी फ़ाइल
जायेगी, वो बिना किसी सवाल जवाब के साइन होकर ही लौटेगी. उन्हें नहीं पता था कि
मैं इंजीनियर तो नहीं हूँ लेकिन संख्याओं से मेरी गहरी दोस्ती रही है क्योंकि मैं
इंजीनियरिंग कॉलेज छोड़कर आया हुआ हूँ और साथ ही एल एल बी की भी थोड़ी ही सही कुछ
पढाई तो की हुई ही है.
एक दिन एक फ़ाइल मेरे पास
आई. जिसमें डायरेक्टरेट का एक आर्डर लगा हुआ था कि अमुक अमुक रिटायर्ड एनाउंसर्स
की बेसिक तनख्वाह में शुरू से कुछ पचास-साठ रुपये जोड़कर उसका एरियर उन्हें दिया
जाना है. इसके बाद पूरी कैलकुलेशन की हुई थी, एक महीने में 60 रुपये की बढ़ोतरी तो
एक साल में 60x12=720 और 58 साल में 58x 720=41760. ये तो बेसिक तनख्वाह में हुई
बढ़ोतरी है . अब इसके ऊपर जब जब जितना जितना डी ए था, उसे कैलकुलेट करके जोड़ा गया
थाऔर हरेक को कुछ दो-ढाई लाख एरियर दिए जाने का प्रस्ताव था. फ़ाइल को देखकर मैंने
अकाउंटेंट समेत उन सब लोगों को अपने कमरे
में बुला भेजा, जिन्होंने ये कैलकुलेशन्स की थीं और जिनके हाथों से ये फ़ाइल निकली
थी. मैंने अकाउंटेंट को पूछा, “आपने ये सारे कैलकुलेशन्स जांच लिए हैं ?”
“यस सर, भला कैलकुलेशन
जांचे बिना आपके पास कैसे भिजवाती ? यही तो मेरा काम है सर.”
मैंने अपनी गर्दन उस एल डी
सी की तरफ घुमाई और पूछा, “आपने किये हैं ये कैलकुलेशन ?”
एल डी सी कोइ नया रिक्रूट
हुआ लड़का था. वो घबराया हुआ कांपती सी आवाज़ में बोला, “जी स....र........ हाँ, मैंने
ही किये हैं.”
“एक ही बार किये या फिर से
उनकी जांच की ?”
“जी सर....... तीन तीन बार
जांच की है सर.”
अब मैंने यू डी सी की तरफ
देखा. वो झट से बोला, “सर.... आप तो बिंदास साइन कर दीजिये. मैंने अच्छी तरह देख
लिया है सारा हिसाब किताब.”
मैंने कहा, “ अच्छा ? आपने
ठीक से देख लिया है ना ?”
उसने मुंह बनाते हुए कहा,
“ सर १५ बरस हो गए हैं यही सब करते करते. अब इसमें ठीक से देखने की क्या बात है?
ऐसी छोटी मोटी कैलकुलेशन्स तो मैं जुबानी कर सकता हूँ.”
मैंने अकाउंटेंट से पूछा,
“मैडम कर दूं ना साइन ?”
वो ज़रा इतराती हुई और
तंजिया मुस्कराहट फेंकते हुए बोली, “ नहीं सर..... अगर आपको विश्वास न हो तो आप जांच
कर देख लीजिये.”
वो जुबां से तो कह रही थीं
, “जांच लीजिये अगर आपको विशवास न हो तो” लेकिन उनके दिल से निकलने वाली आवाज़ भी
मुझे साफ़ सुनाई दे रही थी, “ अरे क्यों खाली पीली में रुआब मार रहे हो? आपको भला
क्या समझ आयेंगी ये कैलकुलेशन्स ? चुपचाप साइन कर दो ना, क्यों पका रहे हो हमें?”
मैं भी ज़रा सा मुस्कुराया
और बोला, “मैडम मुझे एक बात समझ नहीं आयी. “
“क्या सर.......? क्या बात
नहीं समझ आयी ? हम लोग इसी लिए तो बैठे हैं कि अफसर लोगों को कोई बात समझ न आये तो
उन्हें समझा सकें.”
“ओह सो नाइस ऑफ यू. सही
कहा आपने. आप लोग तो बहोत ज्ञानी होते हैं जी, जो हम अफ़सरों को समझ नहीं आता वो आप
लोग ही तो समझाते हैं .”
उसे लगाकि शायद वो कुछ
ज़्यादा बोल गयी. वो कुछ हकलाते हुए बोलने लगी, “जी मेरा मतलब..........”
मैंने हाथ ऊपर उठाते हुए उसे आगे बोलने से रोका और कहा,
“ये जो 58 से आपने गुणा की है ये बात मेरे समझ नहीं आयी. आपने 58 से गुणा क्यों की
है ?”
उस अकाउंटेंट ने इस तरह
ठहाका लगाया, मानो मैंने कोई बहोत बड़ी बेवकूफी की बात कर दी हो. फिर बोली, “ अरे
सर रिटायरमेंट की उम्र 60 साल तो अभी कुछ ही साल पहले हुई है. उससे पहले तो
अट्ठावन साल ही थी ना रिटायरमेंट की उम्र. सर ये एनाउंसर 58 साल की ही उम्र में
रिटायर हो गए थे.”
और उसने एक विजयी मुस्कान
अपने साथ आये एल डी सी यू डी सी की तरफ फेंकी कि देखा, कैसा बेवकूफ साबित किया है
इस अफसर को?
मैंने कहा, “ओह ये बात है
?”
“जी सर.”
“ये कैलकुलेशन तो सही है,
आपकी ये बात भी सही है कि उस ज़माने में रिटायरमेंट की उम्र 58 साल हुआ करती थी
लेकिन एक बात बताइये . आपने इन्हें पूरे 58 साल का एरियर दिया है तो क्या ये साहब
पैदा होते ही एनाउंसर लग गए थे ? ज़रा रिकॉर्ड चेक कर लीजिये , कहीं ऐसा तो नहीं है
कि ये पैदा हुए उससे दो चार महीने पहले ही आकाशवाणी ने इन्हें रिक्रूट कर लिया हो.”
अब एकदम उन मैडम का चेहरा
सफ़ेद हो गया. उन्होंने यू डी सी की तरफ देखा, यू डी सी ने एल डी सी की तरफ. मैंने
थोड़ा सा आवाज़ को ऊंचा करते हुए कहा, “क्या है ये सब ? क्या आप लोग समझते हैं कि आप
जो कुछ लिख कर लायेंगे, उस पर आपका अफसर साइन कर देगा ? क्या आप सारे अफसरों को
बेवकूफ समझते हैं ? अभी अगर मैं भी इस पर साइन कर देता, आप इन लोगों को इतना इतना
रुपया दे देते तो क्या होता ?कर्मचारी की जेब में एक बार गया हुआ रुपया वापस
निकलवाना क्या इतना आसान होता है? बल्कि अगर मैं कहूं कि आप लोग इन अनाउंसर लोगों
से मिले हुए हैं और कमीशन लेकर इन्हें ज़्यादा पैसा दिलवाना चाहते हैं तो........?”
सबकी गर्दनें नीचे झुक
गईं. मैंने कहा, “जाइए इसे ठीक करके लाइए. हरेक के रिकॉर्ड से देखिये कि किसने किस
सन से किस सन तक नौकरी की, उन बरसों में आये पे कमीशन्स के बाद इन्हें कहाँ कहाँ
फिक्स किया जाएगा और कब कब किस रेट से डी ए दिया जाएगा. जो डी ए दिया गया उसे उसमे
से घटाकर बाकी ड्यूज़ का हिसाब लगाकर लाइए. ये सारी कैलकुलेशन करके लाइए फ़ाइल पर,
मैं चैक करूंगा, उसके बाद साइन करूंगा.” सब लोग अपना सा मुंह लेकर उठे और जाने
लगे. जब वो मेरे कमरे के दरवाज़े तक पहुंचे तो मैंने उन्हें रोकते हुए कहा, “ सुनिए
मैडम..... आप लोगों को कैलकुलेशन्स में कोई दिक्क़त हो तो मेरे पास आकर मुझसे पूछ
लीजिएगा. गणित मेरा फेवरेट सब्जेक्ट रहा है और मैं इंजीनियरिंग कॉलेज छोड़ा हुआ
इंसान हूँ.”
सब लोग जी सर, जी सर बोलकर चले गए. खैर ये तो बहोत बाद की
बात है. मैं तो बात कर रहा था सन 79-80 की जब मेरा सादुल स्कूल का दोस्त शशिकांत
पांडे अकाउंटेंट बनकर बीकानेर आ गया था. पूरे दफ्तर में हर लेवल पर साजिशों के जाल
बुने जा रहे थे और जाल बुनने वाले कुछ अकाउंट्स के कुछ एडमिन के लोग और कुछ एक आध अनाउंसर
थे, मगर थे सब के सब मेरे ही शहर बीकानेर के और ज़्यादातर साजिशें भी उनके ही खिलाफ
बुनी जा रही थीं जो किसी भी रूप में मेरा साथ दे रहे थे. कमर भाई खुलकर मेरे साथ
थे, शशिकांत पांडे मेरे साथ था, इंजीनियर श्री चंद्रेश गोयल, श्री एस एन छाबला और
श्री जे सी गुप्ता मेरे साथ थे, बाकी लोगों में ज़्यादातर अपने आप को गैर जानिबदार
यानी न्यूट्रल साबित करने की कोशिश करते थे और कुछ खुलकर मेरे खिलाफ खड़े हुए थे.
मुझे कई बार लगता कि मैं और मेरी पत्नी हर ओर से दुश्मनों से घिरे हुए खड़े थे. इसी
बीच ग़ज़ल, गीत भजन की एक कॉन्सर्ट हुई . डायरेक्टर वैष्णव साहब को खूब सिखाने पढ़ाने
की कोशिश की गयी कि फलां अनाउंसर सबसे सीनियर और सबसे काबिल हैं. उनका नाम तो पूरे
राजस्थान में दूर दूर तक मशहूर है. कॉन्सर्ट में अनाउंसमेंट्स की ज़िम्मेदारी तो
उन्हें ही सौंपी जानी चाहिए. वैष्णव साहब ने सबकी बातें सुनींऔर कहा, मैं सोचूंगा
और फैसला करूंगा कि अनाउंसमेंट किससे करवाए जाएँ. बातों ही बातों में वो लोग इशारतन
उन्हें धमकी देने से भी नहीं चूके कि अगर इन अनाउंसर साहब से अनाउंसमेंट नहीं
करवाए गए तो वैष्णव साहब के खिलाफ अखबारों में काफी कुछ छप सकता है. वैष्णव साहब मंद
मंद मुस्कुराते हुए बोले, “आप लोग मेरे खिलाफ कुछ छपने वपने की बिलकुल फिक्र ना
करें. मेरी सेहत पर इन सब बातों का कोई असर नहीं पड़ता है.” लटके हुए मुंह लेकर वो
लोग डायरेक्टर साहब के कमरे से बाहर आ गए. उन्हें अंदाजा हो गया कि उनकी फ़रियाद
नहीं सुनी गयी है. और यही हुआ भी. जब कॉन्सर्ट का ऑफिस ऑर्डर निकला तो उसमे
कॉन्सर्ट के अनाउंसमेंट्स की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गयी थी. पूरे ऑफिस में जैसे हर
तरफ साँपों की फुफकारें सुनाई देने लगीं. लग रहा था कि ये लोग मुझे कच्चा चबा
जायेंगे. मेरे खैरख्वाह लोगों ने मुझे सावधान किया कि मैं रात की ड्यूटी के बाद
स्कूटर से घर जाना बंद कर दूं. एक टेक्नीशियन हुआ करते थे श्री राम लाल. उन्होंने
मुझे साफ़ कहा, “महेंदर जी, रात को आप हम लोगों के साथ कार में ही घर लौटा करो.”
मैंने पूछा, “क्यों राम
लाल जी ?
“देखो साब ज़्यादा तो मुझे
पता नहीं है लेकिन उड़ती उड़ती एक बात कानों में पड़ी है इसलिए सावचेत कर रहा हूँ.”
“क्या पड़ी है कानों में
आपके ?”
“यही कि किसी दिन आप पर
रात को हमला कर दिया जाए. भाई की सौगन, उस दिन से मुझे बहोत चिन्ता हो गयी है.”
मैंने उन्हें ढाढस देते
हुए कहा, “ आप कहोगे तो मैं आपकी बात नहीं टालूंगा, लेकिन एक बात बताइये आप. क्या
बिना मृत्यु योग हुए कोई किसी की जान ले सकता है क्या?”
“नहीं.......”
“और जिसकी मृत्यु का योग
हो उसे कोई टाल सकता है क्या?”
“नहीं, ये भी नहीं हो सकता.”
“जब ये भी नहीं हो सकता वो
भी नहीं हो सकता, तो फिर डरना किस बात का है? अगर मेरी मौत विधाता ने इस तरह ही
लिख दी है तो इस तरह ही सही. मौत तो मौत ही है न, चाहे किसी भी तरह आये, उसका
नतीजा तो आख़िरकार इस दुनिया से कूच करना ही है.”
“ठीक है भाई साब जैसा आप
ठीक समझो..... लेकिन मैं पूछता हूँ क्या बिगड़ जाएगा अगर कुछ दिन आप रात में हम
लोगों के साथ स्टाफ-कार से घर चले चलें. सर्दी का मौसम है. रात साढ़े ग्यारह तक सड़कें
बिलकुल वीरान हो जाती हैं......कोई अगर सड़क पर चिल्लाए भी तो किसी को सुनाई नहीं
देता क्योंकि तब तक सब लोग दरवाज़े बंद करके रजाइयां ओढ़कर सो जाते हैं.”
“हाँ आप सही कह रहे हैं
राम लाल जी, लेकिन इस तरह किसी से डरकर कब तक जिया जा सकता है?”
“ नहीं, मान लिया कि आप
बहादर हैं किसी से नहीं डरते लेकिन मेरी बात मानने में हर्जा क्या है?”
“लोग कहेंगे, डर गया मैं....
हर तरफ इस तरह की बातें होंगी, वो सुनकर आपको अच्छा लगेगा?”
“ठीक है, तो आप अपनी बात
पर अड़े रहो. अब मेरी आख़िरी बात सुन लो. हमारे घर तो आस पास ही हैं. रात की ड्यूटी
में मैं भी आपके साथ स्कूटर पर ही चलूँगा.”
दरअसल राम लाल जी का घर हमारे घर के पास ही था.
वो नौकरी के साथ साथ लोगों को ब्याज पर पैसे देने का काम भी किया करते थे. वो खुद
तो टेक्नीशियन थे. मामूली तनख्वाहें हुआ करती थीं उन दिनों हम सबकी. इतना रुपया
कहाँ से लाते कि ब्याज़ पर दे सकें. वो अक्सर( बाई )मेरी बड़ी बहन से कम ब्याज़ पर
रुपया उधार लेकर जाया करते थे और कुछ ज़्यादा
ब्याज़ पर आगे रुपया उधार दे दिया करते थे. इस वजह से उनका मेरे घर काफी आना जाना था और वो अपने आप को
मेरा खैरख्वाह मानते थे. अपने काफी मोटे शरीर को सर्दी के मौसम में मेरे स्कूटर पर
लादकर ले जाना उनके लिए कितना तकलीफदेह हो सकता था, मैं समझ रहा था. आखिरकार मुझे
हार माननी पड़ी और सर्दी के मौसम में मैं स्कूटर की बजाय स्टाफ कार से घर जाने लगा.
हालांकि बीकानेर की कड़ाकेदार तेज़ ठण्ड में
स्कूटर की बजाय कार से घर लौटना बहोत आरामदेह था, लेकिन इसमें कुछ तकलीफें भी थीं.
सबसे पहली तकलीफ तो ये कि मुझे दिन में चार बजे तो स्कूटर से आना होता था, फिर रात
में स्कूटर ऑफिस में ही छोड़कर कार से लौटता और अगले दिन मेरी या मेरी पत्नी की
सुबह दस बजे की ड्यूटी होती तो ऑफिस जाना एक मसला बन जाता. घर में पिताजी का
स्कूटर भी रहता था. अब अगर दस बजे मैं उनका स्कूटर ले जाता तो दिन में दोनों
स्कूटर वहीं इकट्ठे हो जाते. उन्हें घर कब लेकर आता ? दूसरा ये कि रात में स्टाफ
के लोगों को उनके घर छोड़ते छोड़ते अक्सर रात के बारह बज जाते. तीसरी सबसे बड़ी
दिक्क़त ये थी कि एक स्कूटर अक्सर ऑफिस में खड़ा रहता था तो जिन लोगों का मुझपर कोई
बस नहीं चल रहा था वो आते जाते जब भी मौक़ा मिलता स्कूटर के पहिये में कील चुभोकर
उसे पंक्चर कर अपने दिल की भड़ास निकाल लेते थे. कुछ दिन तो मैं चुपचाप स्कूटर के
पंक्चर निकलवाता रहा लेकिन जब उसके ट्यूब छलनी हो गए तो मैंने राम लाल जी को कहा,
“भई सा अब बहोत हो गया. मेरे स्कूटर के दोनों पहियों और स्टेपनी के ट्यूब छलनी
छलनी हो गए हैं. अब मैं इसे ऑफिस में लावारिस नहीं छोड़ सकता. मैं टायर ट्यूब सब
बदलवा रहा हूँ, सर्दी भी कुछ कम हो गयी है,अब मैं
स्कूटर से ही आऊँगा जाऊंगा, जो होगा सो देखा जाएगा.”
राम लाल जी बेचारे क्या
बोलते ?उन्होंने एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा, “ठीक है महेंदर भाई साब जो आपको ठीक
लगे करो.”
और मैंने फिर से अपने
स्कूटर से ही आना जाना शुरू कर दिया. इसी बीच कमर भाई ने एक मुशायरा और एक कवि सम्मेलन
की रूपरेखा तैयार की. मैं भी उनके साथ लग गया पूरे देश से अच्छे अच्छे कवियों और
शोरा हज़रात के नाम ढूँढने में. उन दिनों पूरे शहर में दो ही हॉल हुआ करते थे. एक
टाउन हॉल और दूसरा एस पी मेडिकल कॉलेज का हॉल. टाउन हॉल हमारे प्रोग्राम के लिए
बहोत छोटा था क्योंकि बहोत भीड़ उमड़ा करती थी रेडियो के स्टेज प्रोग्राम्स में. हम
अपनी सारी कॉन्सर्ट्स मेडिकल कॉलेज के हॉल में ही किया करते थे. कवि सम्मेलन और
मुशायरा भी वहीं किये गए. हालांकि ये दोनों ही प्रोग्राम ऐसे थे जिन्हें कंडक्ट
करने की ज़िम्मेदारी रवायती तौर पर उनमे हिस्सा लेने वालों को ही निभानी थी, लेकिन
कमर भाई ने भी मुझे स्टेज पर किसी न किसी रूप में लाकर मेरे दुश्मनों के सीने पर
मूंग दलने की क़सम खा ली थी. उन्होंने
वैष्णव साहब से कहा, “सर, पहले महेन स्टेज पर आकर हॉल में मौजूद लोगो का स्वागत
करेगा. आपको बुलाएगा, आप दो मिनट बोलेंगे. उसके बाद महेन उस कवि या शायर को माइक
सौंप देगा जिसे उस प्रोग्राम को कंडक्ट करना है.”
वैष्णव साहब ने कहा,
“बिलकुल ठीक है.”
बिलकुल इसी तरह किया गया.
दोनों ही प्रोग्राम बहोत कामयाब रहे. अगले दिन से मैंने और कमर भाई ने लगकर इनकी
एडिटिंग की. एडिटेड प्रोग्राम में फिर से जहां जहाँ ज़रूरत पड़ी क़मर भाई ने मेरी
आवाज़ को ही इस्तेमाल किया. ये कुछ लोगों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने की तरह था.
मुझे भी लगने लगा कि अब मेरे खिलाफ कुछ न कुछ होकर
रहेगा. मुझे खतरे की बू आने लगी थी कि तभी दिल्ली से आये एक ऑर्डर ने मुझे, मेरी
पत्नी और क़मर भाई को परेशान कर दिया. अब तक जिन वैष्णव साहब की समझ और निडरता के
बल पर हम अपने दुश्मनों को हर क़दम पर मात दे रहे थे, उन वैष्णव साहब का तबादला हो
गया था और उनकी जगह जो डायरेक्टर आने वाले थे उनका नाम सुनकर मैंने मेरी पत्नी ने
और खरे साहब ने अपना सर पीट लिया क्योंकि इन डायरेक्टर साहब को पूरे स्टाफ में से
हम तीन लोग ही जानते थे.
कुछ ही दिनों के बाद नए डायरेक्टर साहब ने आकर ज्वाइन
कर लिया. वैष्णव साहब को हमने बीकानेर से बहोत भारी मन से विदा किया. उस दिन के
बाद वैष्णव साहब के कभी भी दर्शन नहीं हुए लेकिन इत्तेफाक देखिये, उनकी एक बेटी
हिना ने कुछ बरस बाद अनाउंसर की पोस्ट पर आकाशवाणी, अहमदाबाद में ज्वाइन किया और
जिन दिनों मैं विविध भारती में आया, मेरी एक पुरानी सहयोगी दीपशिखा दुर्गापाल की
पोस्टिंग अहमदाबाद हो गयी. हिना और दीपशिखा की जब आपस में मुलाक़ात हुई तो बात चलते
चलते हम लोगों का कहीं ज़िक्र आ गया. दीपशिखा ने हिना को बताया कि उनके हमारे परिवार
से बहुत अच्छे ताल्लुकात हैं और हिना ने दीपशिखा को बताया कि उन लोगों के भी हमारे
साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं. बस फिर क्या था ? दीपशिखा ने मेरे नंबर हिना को दिए
और एक सुबह मेरे फोन की घंटी बजी. नंबर देख कर पहचान नहीं पाया कि किसका फोन है.
मैंने हेलो कहा तो उधर से जो हेलो आया वो बहुत पहचाना हुआ सा लगा. मैंने असमंजस से
भरे स्वर में कहा, “जी, कौन साहब बोल रहे हैं?” उधर से हल्की सी हंसी के साथ आवाज़
उभरी, “मोदी जी, मैं पी एम वैष्णव.”
और मैं जैसे अपनी कुर्सी
पर से उछल पड़ा. मैंने अपनी आवाज़ पर काबू पाते हुए कहा, “सर आप ? कहाँ से बोल रहे
हैं ? कैसे हैं ? आपको मेरा नंबर कहाँ से मिला ?”
वैष्णव साहब हँसते हुए
बोले, “सब कुछ बताता हूँ एक एक करके.”
“जी सर.”
“मैं अहमदाबाद में रहता
हूँ, बिलकुल ठीक हूँ. पिछले काफी वक़्त से आपका पत्रावली प्रोग्राम सुनता रहा हूँ
तो ये तो मुझे पता चल गया था कि आप विविध भारती मुम्बई पहोंच गए हैं. मेरी बेटी
हिना आकाशवाणी, अहमदाबाद में अनाउंसर है. मैंने उससे कहा कि वो पता लगाए आपके
नम्बर्स का. कल उसने आकर बताया कि उसके साथ की एक ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव दीपशिखा
दुर्गापाल आपको अच्छी तरह जानती हैं और उनके पास आपका नंबर भी है. वो आज आपका नंबर
दीपशिखा से लेकर आयी है. ये तो है मेरी कहानी और अब आप बताइये कैसे हैं ? शीला जी
कैसी हैं? बच्चे कैसे हैं?”
मैंने उन्हें अपने 1980 से
लेकर 1999 तक की ज़िदगी की कहानी मुख़्तसर तौर पर सुना दी. वो बहोत खुश हुए. तब से उनसे
मेरे ताल्लुकात बने हुए हैं. इस बीच एक बार फोन खराब होने की वजह से मैंने उनके
नंबर खो दिए थे लेकिन फिर दीपशिखा की मदद ली,जोकि इन दिनों एन एच के जापान में
हिन्दी प्रसारण विशेषज्ञ हैं. मुझे वैष्णव साहब के नंबर फिर से हासिल हो गए. अभी पिछले
हफ्ते ही उनसे बात हुई. वो भी बहोत खुश हुए और मुझे भी उनसे बात करके बहोत अच्छा
लगा. ये जानकर और भी अच्छा लगा कि 84 साल की उम्र में भी वो एक बहोत ही अहम् और
संजीदा काम में जुटे हुए हैं. वो इन दिनों पोंडिचेरी के महर्षि अरविन्द आश्रम की ‘
माँ’( द मदर) के 17 वोल्यूम्स के संग्रह
का गुजराती में अनुवाद कर रहे हैं. इन 17 में से 9 में माँ के फ्रेंच में दिए गए
प्रवचन संग्रहीत हैं और शेष आठ में प्रार्थनाएं, लेख, पत्र आदि विभिन्न प्रकार की
सामग्री है.
आइये अब फिर चलते हैं 1980
के उस साल में जब वैष्णव साहब बीकानेर से तबादला होकर चले गए और उनकी जगह एक
बंगाली बाबू डायरेक्टर बन कर आये. स्टाफ में हम तीन लोग थे, जो उन्हें अच्छी तरह
जानते थे. हम दोनों और प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव श्री एस बी खरे . खरे साहब जब
ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव थे तब ये बंगाली बाबू प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव थे. जैसे ही
उनके बीकानेर ट्रान्सफर की खबर हम लोगों ने सुनी, खरे साहब मुझसे बोले, “लेव भैया,
अब तो लुटिया डूब के ही रहेगी इस स्टेशन की. जानत रहे कि नाहीं बंगाली बाबू का?”
मैं क्या जवाब देता? बस
इतना ही कहा, “ जानते हैं खरे साहब, अच्छी तरह से जानते हैं. तीन चार महीने काम
किया है उनके साथ जोधपुर में और किसी इंसान को समझने के लिए इतना वक़्त काफी होता
है, मेरे ख़याल से.”
वो सर पे हाथ मारते हुए
बोले, “लो कर लो बात...... भैये तुम तीन ठो महीने काम किये हो इनके साथ. अरे बबुआ
हम तो तीन साल झेले हैं इन साहिब को.”
क्या किया जा सकता था ? मन
कर रहा था कि यहाँ से कहीं और निकल पड़ें ट्रान्सफर करवा कर लेकिन बेटा अभी बहोत
छोटा था. बीकानेर में बाई उसे हमारी गैर हाजिरी में संभाल लेती थीं. कहीं और जाने
का मतलब होता, उसे हमें ही संभालना होता. इस बीच बिटिया मनीषा भी इस धरती पर
अवतरित हो चुकी थीं, जिसे मेरे भाई साहब और भाभी जी ने अपने पास अजमेर में रख लिया
था, जहां भाई साहब एम एस कर रहे थे. इधर अगर
वहाँ से ट्रान्सफर लेते तो पिताजी को भी बीकानेर में अकेले छोड़ना पड़ता. आखिरकार
हमने तय किया, ठीक है एक अफसर ऐसा आ गया है तो बाकी लोगों की तरह उसे भी झेलेंगे,
लेकिन अभी ट्रान्सफर लेने के हालात नहीं हैं.
दरअसल ये बंगाली बाबू
हिन्दी बहोत कम जानते थे और किसी बात को चार छः बार समझाए बिना उन्हें कुछ भी समझ
नहीं आता था. किस्मत अच्छी थी और जैसे सिनेमा के टिकट की लाइन में जो भी खड़ा होगा
उसे बिना कोई काबलियत दिखाए भी जब उसका नंबर आयेगा, टिकट मिल ही जाएगा, वैसे ही उन
साहब को भी लाइन में लगे लगे कुछ सरकारी नियमों की बदौलत अपने से आगे खड़े लोगों से
भी पहले प्रमोशन मिलते गए और वो डायरेक्टर की कुर्सी पर आकर बिराजमान हो गए. हम
लोग जब 1976 में जोधपुर में थे तब ये
असिस्टेंट डायरेक्टर की पोस्ट पर कहीं से
ट्रान्सफर होकर आये थे. वो ज़माना श्रीमती इंदिरा गांधी का ज़माना था. देश में इमरजेंसी
लगी हुई थी. हर दफ्तर में जैसे अफ़सरों की, अहलकारों की डर के मारे जान निकल रही थी.
शायद आज़ादी के बाद पहली बार ऐसा हो रहा था कि लोग. दस बजे के दफ्तर के टाइम में
पौने दस बजे दफ्तर पहुँचने लगे थे.
हर तरफ एक अजीब तरह का खौफ
पसरा हुआ था. हर इंसान एक दूसरे को इमरजेंसी का नाम लेकर डराने की कोशिश करता था.
हज़ारों लोगों को इमरजेंसी के नाम पर जेलों में डाल दिया गया था और हज़ारों लोग रातोंरात
गिरफ्तारी से बचने के लिए न जाने कहाँ जाकर छुप गए थे. इन अंडर ग्राउंड होने वाले
लोगों में मेरे मामाजी भी शामिल थे क्योंकि वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काफी सक्रिय
कार्यकर्ता थे. इधर मेरा भांजा सुभाष और एक भतीजा महेश हालांकि स्कूल में पढ़ रहे
थे मगर फिर भी श्रीमती गांधी की इमरजेंसी ने उनके नौजवान खून को बेतहाशा गरम कर
दिया था और वो कूद पड़े थे, आर एस एस के उस आन्दोलन में जो एमरजेंसी के खिलाफ पूरे
देश में शुरू हो चुका था. सुभाष और महेश खुफिया तौर पर एक अखबार निकालते थे और
अपनी टीम के साथ सुबह तीन बजे उठकर लोगों के घरों में डालकर आते थे. दोनों ही पढाई
में बहोत होशियार थे लेकिन अपने लक्ष्य के लिए शहीद होने का जज्बा लिए पढाई लिखाई
सब छोड़ छाड़कर श्रीमती गांधी के खिलाफ इस आन्दोलन में कूद पड़े थे. हालांकि इसका
नतीजा ये हुआ कि सुभाष जो हायर सैकेंडरी में था और जिसे अगले साल इंजीनियरिंग में
एडमिशन लेना था, महज़ 60 % मार्क्स ला पाया और उसका एडमिशन इंजीनियरिंग में नहीं हो
पाया लेकिन उस वक़्त इन नौजवानों को एक ही टारगेट नज़र आ रहा था, श्रीमती गांधी के
खौफनाक निजाम को चुनौती देना.
ऐसे वक़्त में बंगाली बाबू
भी डरे सहमे आकर आकाशवाणी, जोधपुर के असिस्टेंट डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठ गए थे
क्योंकि उस वक़्त यही कानून बन गया था कि जहां ट्रान्सफर हो जाए, नौकरी बचानी है तो
चुपचाप वहीं चले जाओ वरना नौकरी के लाले पड़ सकते हैं. बेचारे बंगाली बाबू को
राजस्थानी छोड़कर हिन्दी भी नहीं आती थी, लेकिन नौकरी करनी थी, इसलिए राजस्थान में
चले आये थे. एक रोज़ दिन में स्टूडियो बिल्डिंग में ही किसी दुसरे अफसर के कमरे में
बैठे थे . स्पीकर पर आकाशवाणी जोधपुर से प्रसारित हो रहे प्रोग्राम्स चल रहे थे.
कालूराम प्रजापति एक बहोत मशहूर नाम था उस ज़माने में राजस्थानी लोकसंगीत का. उनके
लोकगीतों का टेप शुरू हुआ. एक गीत बज गया. दूसरा गीत जैसे ही शुरू हुआ और बंगाली
बाबू उस कमरे से ही चीखते हुए निकले......” बौन्द कोरो बाबा बौन्द कोरो ये गाना.........”
सब लोग हक्के बक्के रह गए
कि क्या हो गया है इनको ? लोगों ने पूछा, “साब क्या हुआ है आखिर ?”
वो फिर चिल्लाए, “होमने
बोला ना के बौन्द कोरो ये गाना........ तुम लोक हमारा नौकरी ले लेगा.”
किसी को कुछ भी समझ नहीं आ
रहा था कि हुआ क्या है लेकिन सबसे बडा अफसर हुकुम दे रहा है तो मानना तो पडेगा ही.
अनाउंसर ने गीत को फेड आउट किया और फिलर चलाकर अगला गीत क्यू करके उसे प्रसारित
करना शुरू किया. अब बंगाली बाबू को थोड़ा चैन आया. लोगों ने पूछा, “सर आखिर हुआ क्या
था? आपने इस गीत को फेड आउट क्यों करवाया?”
उखड़ती साँसों के बीच उन्होंने कहा, “ओरे बाबा, इस गीत
में तो वो गा रहा था –‘इंदिरा इंदिरा’. हमारी नौकरी ले लेगा रे आप लोग इंदिरा
इंदिरा गाना बजा कर.”
अब सब लोगों को समझ आया.
कालूराम प्रजापति का एक बहुत मशहूर गीत था, “ऊंदरा ऊंदरी की हुई लड़ाई..........”
राजस्थानी में ऊंदरा मतलब चूहा और ऊंदरी मतलब चुहिया. यानी बहुत ही मसखरेपन से
भरपूर गीत था जिसका अर्थ था, चूहे और चुहिया में झगड़ा हो गया. सबने उन्हें उसका
मतलब समझाया कि सर इसका मतलब ये है. उनकी समझ में फिर भी लोगों की बात नहीं आयी.
वो कहने लगे, “नोहीं नोहीं हमको तो इंदिरा इंदिरा ही सुनाई आ रहा था.”
ड्यूटीरूम में ये बातचीत
चल ही रही थी कि वहाँ के फोन की घंटी बजी. ड्यूटी पर तैनात अफसर ने फोन उठाया.
दूसरी तरफ कालूराम प्रजापति थे. पूछ रहे थे कि मेरा दूसरा गीत आप लोगों ने कैसे
काट लिया? अब ड्यूटी ऑफिसर बेचारा क्या जवाब देता ? वो जी.... जी ....करता रह गया
और कालू राम जी ने नाराज़ होकर फोन काट दिया. अगले ही दिन कालूराम प्रजापति दफ्तर आये
और नारायण सिंह जी और देवड़ा जी के पास जा पहुंचे जो उनके वाकिफ थे. देवड़ा जी किसानों के प्रोग्राम के प्रोड्यूसर थे और
नारायण सिंह जी कम्पीयर. कालू राम प्रजापति बहोत नाराज़ थे और डायरेक्टरेट के नाम
एक लंबा चौड़ा शिकायती ख़त लिखकर लाये थे जिसमे ये लिखा था कि बिना किसी माकूल वजह
के मेरा गीत काट दिया गया. देवड़ा साब कालू राम प्रजापति को बंगाली बाबू के कमरे
में लाये और उन्हें बताया कि ये इस बात की शिकायत डायरेक्टरेट से कर रहे हैं कि
इनका गीत बिना किसी वजह के काट दिया गया. अब तो बंगाली बाबू थर-थर थर-थर कांपने
लगे. उन्होंने कालूराम प्रजापति से माफी माँगी. देवड़ा जी और नारायण सिंह जी ने
कालूराम जी को समझाया बुझाया तब जाकर उनका गुस्सा शांत हुआ, वो उस शिकायती ख़त को
फाड़कर फेंकने को तैयार हुए और बंगाली बाबू की मुसीबत ख़त्म हुई. उस दिन पूरे स्टाफ
में उनकी इज्ज़त दो कौड़ी की हो गयी. उसके बाद जब तक वो जोधपुर में रहे....... स्टाफ के लोगों ने उन्हें कभी इज्ज़त
नहीं दी. वही बंगाली बाबू अब डायरेक्टर होकर आकाशवाणी बीकानेर का बंटाधार करने
तशरीफ़ ला रहे थे. हम लोग समझ गए कि आकाशवाणी बीकानेर और हमारे बुरे दिन शुरू होने
ही वाले हैं.
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