आकाशवाणी, बीकानेर में लगभग तीन बरस हो गए थे. इन तीन बरसों में बहुत कुछ सीखने को
मिला था. श्री महेंद्र भट्ट, श्री डी एस रेड्डी, श्री दयाल पंवार ने सुर की समझ दी,
रहमान खां जी ने बेतालों को पकड़ने के गुर बताये, श्री मुंशी खां और श्री जस करण गोस्वामी ने मींड की बारीकियां
समझाई तो क़मर भाई ने रेडियो रिपोर्ट बनाना, न्यूज़ रील तैयार करना, कवि गोष्ठियों,
शेरी नशिस्तों, स्टेज पर होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों की एडिटिंग जैसे स्पोकन
वर्ड के बहोत ही अहम कामों को मुझे पूरा जी लगा कर सिखाया, जो कि रेडियो में बहोत
ही कम होता है. अक्सर जो लोग काम जानते हैं, उनकी कोशिश रह
ती है कि उनके कलीग उन
कामों के लिए उनके डिपेंडेंट बने रहें, खुद ना सीख सकें. उन्होंने एक कलीग की बजाय
एक दोस्त की तरह सब कुछ सिखाया या सीखने में मदद की. हालांकि कुछ मामलों में हमारे
बीच मतभेद भी हो जाया करते थे, लेकिन वो मतभेद, मतभेद ही रहते थे, कभी मनभेद नहीं
बने और मतभेद चाहे कितने भी बड़े क्यों न हों उन्हें बैठकर सुलझाया जा सकता है. मुझसे
उम्र में 7-8 साल बड़े हैं कमर भाई और मैंने हमेशा उन्हें बड़े भाई की इज्ज़त दी तो
उन्होंने भी कभी छोटे भाई सा प्यार देने में कोई कंजूसी नहीं की. हाँ कभी कभी इसी
बड़प्पन में कुछ उपदेश देने का शौक़ उभर आता था तो उन उपदेशों को तो सुनना ही होता
था. वो अक्सर कहा करते थे, “देखो महेन, आकाशवाणी में जितने लोग तुम्हारे साथ काम
करते हैं वो सब तुम्हारे कलीग हैं, उनमे दोस्त तलाश करने की कोशिश कभी मत करना. जब
जब भी तुम आकाशवाणी के कलीग्स में दोस्त तलाश करने की कोशिश करोगे, मान कर चलो कि 100
में से 90 बार तुम्हें ठोकर ही खाने को मिलेगी. वो ग़लत नहीं कहते थे. यही हुआ भी.
37 साल की अपनी नौकरी में रेडियो से बाहर के तो अनगिनत लोग दोस्त बने और उन्होंने
अपनी दोस्ती निभाई भी मगर रेडियो में इतने बरसों में बीस नाम भी ऐसे नहीं होंगे,
जिन्हें मैं दोस्त का दर्जा दे सकूं. तो इस तरह बीकानेर में रेडियो की नौकरी चल
रही थी, मैं काम भी सीख रहा था, मगर अफ़सोस इस बात का होता था कि जितना ही मैं काम
सीखता जा रहा था और जितना ही अपने अफ़सरों का विश्वास जीतता जा रहा था, मेरे
दुश्मनों की तादाद उतनी ही बढ़ती जा रही थी.
मेरे डायरेक्टर श्री पी एम वैष्णव हम दोनों के काम से पूरे
मुतमईन थे. जब जब हम पर लोकल लोगों के गुट के अलग अलग रूप में हमले होते थे,
वैष्णव साहब हमारा उत्साह बढाते थे और कहते थे, “ अपना काम ईमानदारी से करते जाइए,
जो लोग बकवास करते हैं उन्हें बकवास करने दीजिये. ऑफिशियली आप लोगों का तब तक कोई
बाल भी बांका नहीं कर सकता जब तक कि मैं यहाँ हूँ.”
वो ये सब इतने आत्मविश्वास के साथ कहते थे कि
हमें बहुत ताज्जुब होता था कि जिस्मानी तौर पर इतने नाज़ुक से इंसान में भी इतना
आत्म विश्वास हो सकता है. वैष्णव साहब मूल रूप से गुजरात के रहने वाले थे. कई बार
मुझे अपने कमरे में सिर्फ हम लोगों के हाल चाल जानने के लिए भी बुला लिया करते थे.
ऐसे में कई बार वो ये भी भूल जाते थे कि वो राजस्थान में बैठे हैं और मैं गुजराती
नहीं हूँ. कई बार मुझे बुलाकर कमरे में बिठाते और भावातिरेक में गुजराती में कई कई मिनट तक बोलते चले जाते थे.
मैं उनके मुंह के सामने देखता रहता. भाव तो बिना भाषा के भी संप्रेषित हो ही जाते
हैं, हालांकि मैं गुजराती नहीं था लेकिन गुजराती भाषा राजस्थानी से इतनी अलग भी
नहीं है कि मुझे उनकी बात ज़रा भी पल्ले ना पड़े. फिर जैसे ही उन्हें ध्यान आता कि
वो गुजराती में बहोत कुछ कह गए हैं तो सॉरी बोलते और हिन्दी में उस बात का तर्जुमा
करने लगते जो उन्होंने कही थी. मैं उन्हें कहता, “सर मैं आपकी बात समझ गया हूँ.”
और सच में मैं उनकी बात समझने लगा था.
बेटा वैभव बडा हो रहा था. अब उसे स्कूल में भर्ती
करवाना था. विचार किया जाने लगा कि किस स्कूल में दाखिल करवाया जाए. उस वक़्त का
सबसे अच्छा स्कूल विद्या निकेतन बहुत दूर गंगा शहर में था. उनकी बस लेने और छोड़ने
आती थी लेकिन मेरे पिताजी इस बात के लिए तैयार नहीं हुए कि उनके इतने नन्हें से
पोते को इतनी दूर पढने के लिए भेजा जाय. इसी बीच मेरी छोटी मौसी जी की बेटी लिछम
बाई के दोनों बेटे मोहन और शंकर यानी मेरे भांजे हमारे घर आये. मुझे नहीं पता कि
मोहन शंकर के शुरुआती जीवन की कहानी जो मैंने 18 वें एपिसोड लिखी थी, आपने पढी है
या नहीं, उन लोगों के लिए, जिन्होंने उसे किसी वजह से नहीं पढ़ा, मुख़्तसर तौर पर
मैं उसे दोहरा देता हूँ. मेरे बड़े मौसा जी एस डी एम थे. मौसा जी मौसी जी अंग्रेजों
के बीच उठने बैठे वाले, क्लब कल्चर के शौकीन. अनाप शनाप दौलत थी उनके पास.
किलोग्राम्स में सोना, खूब ज़मीन जायदाद. लेकिन उनके कोई औलाद नहीं थी. मेरी मौसी
जी ने अपने अंगूठा छाप देवर कान जी की शादी अपनी भांजी यानी मेरी छोटी मौसी जी की
बेटी लिछम बाई से करवा दी. उनके तीन औलादें पैदा हुईं.मोहिनी, मोहन और शंकर. बस कान जी और लिछम बाई ने उस घर
को दो वारिस देकर अपनी ड्यूटी पूरी कर दी थी. अब उनकी परवरिश मेरी मौसी जी की देख
रेख में नौकर चाकर किया करते थे. खूब धन दौलत थी, इसलिए उन बच्चों की हर ख्वाहिश
पूरी की जाती थी, उस ज़माने में पैडल से चलने वाली कारें और चमचमाती तीन पहियों की
साइकिलें मैंने सबसे पहले उनके पास ही देखी थीं. अपने पिताजी के चूनावढ़ वाले दफ्तर
के बाद अगर चूड़ी बाजा यानी ग्रामोफोन मैंने किसी घर में देखा था तो वो मेरी बड़ी
मौसी जी का घर ही था. यानी मोहन शंकर को हर वो चीज़ मयस्सर थी जिसकी वो ख्वाहिश
करते थे. एक बार रायसिंहनगर में मोहन बाबू थाली में चांदी के कलदार लेकर एक एक कर
नाले में फेंक रहे थे. जब मौसी जी ने उन्हें टोका तो पूरी थाली नाले में फेंक कर जोर
से चिल्लाते हुए दौड़ पड़े थे, “ओ बाबो सा मा सा मारै ओ...........”(ओ बाबो सा, माँ
सा ममार रही हैं ओ )
और मेरे मौसा जी दौड़ते हुए आये, मौसी जी से बोले, “क्या बात
हो गयी भई, हमारे बेटे को क्यों रुला रहे हैं आप ?”
मौसी जी ने जवाब दिया, “कूड़ बोल रियो है. म्हैं नईं मार्यो
इने पण देखो नी चांदी रा कलदार नाळै में बगावै है.”(झूठ बोल रहा है ये मैंने नहीं
मरा इसे लेकिन देखिये, चादी के कलदार फेंक रहा है ये नाले में )
मौसा जी ने बड़े नर्म लहजे में मोहन से पूछा, “क्यों बेटा,
आप नाले में रुपये क्यों फेंक रहे थे ?”
मोहन का जवाब था, “नईं बा सा म्हैं तो गिणती सीख रियो हौ.”(नहीं
बा सा मैं तो गिनती सीख रहा था.)
अब हमारे मौसा जी ठहाका लगा कर हंस पड़े और मौसी जी से बोले,
“भाई आप भी कमाल करती हैं. बच्चा गिनती सीख रहा है और वैसे खेल खेल में अगर सौ
पचास रुपये फेंक भी दे तो क्या फर्क पड़ता है. लाओ भाई लाओ कोई थाली में और रुपये
लाकर दो हमारे बेटे को.”
दो नौकर दौड़ते हुए गए और फिर से एक थाली में कलदार भर कर ले
आये और मोहन फिर से उन चांदी के रुपयों को नाले में फेंकते हुए गिनने लगा, एक....दो.......
तीन..........
वही मोहन शंकर हमारे घर आये थे. उन्होंने मेरा स्वर्गीय
मौसा जी के नाम से एक स्कूल खोला था, श्री गंगाधर मेमोरियल सेंट्रल एकेडमी. वो लोग
चाह रहे थे कि वैभव का दाखिला हम उनके स्कूल में करवा दें. हमारे पास भी मना करने की
कोई माकूल वजह तो थी नहीं. उन दोनों भाइयों ने हर तरह से वैभव की पढाई और सुरक्षा
की गारंटी ली तो मेरे पिताजी भी वैभव को उनके स्कूल में भेजने को तैयार हो गए.
वैभव श्री गंगाधर मेमोरियल सेंट्रल एकेडमी में जाने लगा.
मोहन और शंकर भी
कमोबेश मेरी ही उम्र के थे. रायसिंहनगर में मोहन को कलदार नाले में फेंकते हुए
ताज्जुब से देखने वाले एक बेहद मामूली इंसान को, यानी मुझे जब ज़िदगी ने इतने रंग
दिखा दिए थे तो भला वक़्त क्या उस मोहन को माफ़ कर सकता था जो अपने बाबो सा के धन के
घमंड में नियति से ज़रा भी भयभीत नहीं हुआ. जब मौसी जी ने उसे ज़रा सा डांटा, तो
पहले से दुगुने रुपये लेकर फेंकने लगा और मौसी जी और नियति दोनों का मुंह चिढाने
लगा. नियति भी मुस्कुरा पड़ी थी उस रोज़........ और उसने तय कर लिया था कि उसके इस
बर्ताव का वो गिन गिनकर बदला लेगी.
जब मोहन शंकर की
बात चल ही पड़ी है तो आइये आज मैं आपको अपने उन दो प्यारे भानजों की कहानी सुनाता
हूँ. वैसे तो मोहन शंकर से बड़ी उनकी बहन मोहिनी थी, लेकिन उस ज़माने में लड़कियों से
सिवाय इसके कोई उम्मीद नहीं की जाती थी कि जहां भी उसकी शादी माँ बाप कर दें उस घर
में जाकर वो अपने पति और घर को संभाल ले और अपने माँ बाप की गोद में दो तीन नाती
नातिनें लाकर उन्हें नाना नानी बनने का सुख दे दे. मोहिनी की उम्र भी जब १५ साल की
हुई तो मौसा जी और मौसी जी ने मेघ राज जी के बेटे मोहन लाल जी नाम के एक लड़के को मोहिनी के लिए पसंद कर लिया
और मोहिनी की शादी बड़ी धूमधाम से हो गयी. मुझे अच्छी तरह याद है कि पूरी जाति में उस
शादी कीखूब चर्चा हुई. दहेज में उन्होंने जी भर कर सोना चांदी, बर्तन कपड़े और घर
की ज़रुरत का हर सामान दिया . हालांकि दूल्हा बीकानेर का ही था इसलिए बरात के कहीं
बाहर से आने का कोई सवाल ही नहीं था, लेकिन लोकल होते हुए भी लगातार कई दिन तक लम्बी
चौड़ी बरात आकर रोज़ शाम को दावतें उडाती रही और रोजाना खाने के मेन्यू में अनगिनत
मिठाइयां और पकवान बनाए जाते रहे, खाए जाते रहे, खिलाये जाते रहे. यहाँ तक कि शादी
के बाद वो मिठाइयां हमने भी कई दिन तक खाईं.
मौसा जी और मौसी जी के पास
धन दौलत की कमी ना तो तब रही जब मौसा जी
एस डी एम की कुर्सी पर थे और न धन दौलत की कमी तब रही जब वो रिटायर हो गए.
हाँ, फर्क बस इतना पडा था कि एक तो नौकरों की वो फ़ौज नौकरी के साथ ही रुखसत हो गयी
थी, जो तनख्वाह तो सरकारी खाते से पाती थी लेकिन दिन रात पूरे कुनबे की खिदमत में
लगी रहती थी. उनकी जगह एक दो नौकर रख लिए गए थे और लिछम बाई के जिम्मे घर के काफी
काम आने लगे थे. इसके अलावा अब मौसा जी मौसी जी का क्लब जाना करीब करीब छूट गया था
क्योंकि देश आज़ाद हुए काफी बरस हो गए थे और तमाम अँगरेज़ देश से विदा हो चुके थे. अब
ज़्यादातर शाम में मौसा जी और मौसी जी अपने
महल जैसे घर के बरामदे में ऊंची ऊंची कुर्सियों पर बैठकर सिगरेट के कश के साथ
व्हिस्की की चुस्कियां लेते थे और ड्राई फ्रूट चबाते रहते थे. मोहन शंकर के अलग
अलग कमरे थे. मौसा जी मौसी जी यही सोचते थे कि दोनों भाई अपने अपने कमरे में बैठे
पढाई कर रहे होंगे.
शंकर पढाई में बहोत होशियार था. हर साल अपनी क्लास में
अव्वल आता था जबकि मोहन का दिल पढाई में ज़्यादा नहीं लगता था. हालांकि तिजोरी में
ढेरों सोना रखा था लेकिन राजस्थानी की एक कहावत है, “खान्वतां खान्वतां तो कूवा ई खुट
जावै”. यानी अगर धन को सिर्फ खर्च ही खर्च किया जाता रहे तो कुआं भरकर धन हो तब भी
वो कभी न कभी तो ख़त्म होगा ही. ख़ास तौर पर जब कमाई बिलकुल बंद हो जाए और खर्च पहले
के जैसे ही बने रहें. खर्च वैसे ही चल रहे थे. बच्चों की पढाई पर जी भरकर खर्च हो
रहा था. घर में गाय भी रखी हुई थी मौसी जी ने, जिसका दूध पूरे परिवार के काम आता
था. कान जी के अपने खर्चे थे जो उनके किले में हफ्ते में एक बार जाकर वहाँ की
घड़ियों में चाबी भरने की कमाई से तो पूरे होने वाले नहीं थे. लिछम बाई को भी दिन भर घर में काम करते वक़्त किरचा सुपारी
की ज़रुरत पड़ती थी और मौसा जी मौसी जी के ड्रिंक्स और सिगरेट के अपने खर्च थे. कुल
मिलाकर ये कहा जा सकता है कि कमाई तो बंद हो चुकी थी, बस हर तरफ खर्च ही खर्च थे.
कहाँ तो हर त्यौहार को सेठों के घर से बड़ी बड़ी डालियाँ आती थीं और कहाँ अब बराए
नाम कुछ रुपये पेंशन के तौर पर आते थे. फिर भी अभी लक्ष्मी ने उनके घर में अपना
आसन जमा रखा था.
मौसा जी और मौसी जी की ज़िंदगी इसी तरह चैन से कट रही थी कि
इसी बीच उनके एक पड़ोसी व्यास जी का एक बेटा बीकानेर आया जो इथियोपिया में रहता था.
उन दिनों कैसेट रिकॉर्डर बस ईजाद हुए ही थे.
हमारे देश में तो कैसेट रिकॉर्डर
बनने नहीं लगे थे, हाँ कोई बाहर से आता और उसके पास पैसा होता तो ये खिलौना ज़रूर
लेकर आता. व्यास जी और मौसा जी की बहुत गहरी दोस्ती थी. इस नाते व्यास जी की सारी
औलादें मौसा जी को शंकर मोहन की तरह बाबो सा ही पुकारती थीं. व्यास जी का बेटा जब
कैसेट रिकॉर्डर लेकर आया तो मौसा जी के पास आकर उन्हें रिकॉर्डर दिखाया और बोला, “
बाबो सा आप भी इस पर कुछ रिकॉर्ड करो. “
उन्होंने हंसकर कहा, “क्या है ये ?”
“बाबो सा ये रिकॉर्डर है. आप जो भी बोलेंगे इसमें रिकॉर्ड हो
जाएगा. फिर उसे चूड़ी की तरह बजाकर सुन सकेंगे.”
मौसा जी हंसकर बोले, “अरे बेटा, मेरी आवाज़ को तो ये मशीन
अपने में भर लेगी कोई बात नहीं लेकिन कहीं मेरी आवाज़ के साथ साथ मेरी सांस को भी
इसने अपने में भर लिया तो ?”
वो भी हँसते हुए बोला, “ अरे नहीं बाबो सा, लीजिये देखिये,
मैं इसमें अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करके दिखाता हूँ पहले, फिर आप करना.”
ऐसा कहकर उस लड़के ने राम चरितमानस की दो तीन चौपाइयां गाईं.
कैसेट को रिवाइंड करके उसे बजाया तो चौपाइयां कमरे में गूंजने लगीं. अब वो लड़का
बोला, “क्यों बाबो सा, अब तो आप भी रिकॉर्ड करेंगे ना कुछ ?”
“ क्या रिकॉर्ड करना चाहते हो तुम मेरी आवाज़ में ?”
“आप तो गीता के श्लोक बहोत शानदार बोलते हैं, वही बोलिए. वो
रिकॉर्ड करके मैं अपने साथ इथियोपिया लेकर जाऊंगा. म्लेच्छों का देश है बाबो सा,
कम से कम रोज़ आपकी आवाज़ में गीता के कुछ श्लोक मेरे कानों में पड़ेंगे तो मेरा पूरा
दिन अच्छा गुज़रेगा.”
“ठीक है बेटा, लो शुरू करो तुम रिकॉर्डिंग. अब कोई भी बोलना
मत बीच में, जब तक कि मेरी रिकॉर्डिंग पूरी ना हो जाए.”
वो अपने ड्राइंग रूम के
तख़्त पर बैठे हुए थे. एक गाव तकिये पर रिकॉर्डर रखा गया और दूसरे का सहारा लेकर वो
बैठ गए. मौसी जी और व्यास जी का बेटा पास में बैठे हुए थे. उन्होंने दोनों आँखें
बंद करके गीता का सस्वर पाठ शुरू किया. करीब बीस मिनट तक वो पाठ चलता रहा. एक अध्याय
ख़त्म हुआ तो मौसी जी और उस लड़के ने सोचा, अब अगला अध्याय शुरू करेंगे. लेकिन ये
क्या....... ? मौसा जी एक दम चुप...... सबने कुछ लम्हे इंतज़ार किया, लेकिन मौसा जी
आँखें बंद किये वैसे ही चुप. मौसी जी को लगा कि शायद नींद आ गयी श्लोक बोलते
बोलते. उन्होंने हाथ से रिकॉर्डर रोकने का इशारा किया तो लड़के ने रिकॉर्डर रोक
दिया. मौसी जी बोलीं, “कांईं हुयो सा...... चुप कियां हूयग्या ? नीन आयगी कांईं ?”(क्या
हुआ साब चुप कैसे हो गए? नींद आ गई क्या? )
लेकिन मौसा जी ने कोई जवाब
नहीं दिया. अब मौसी जी ने हाथ लगाया तो उनकी गर्दन एक तरफ लुढ़क गयी. फ़ौरन पड़ोस के
एक डॉक्टर ने आकर नब्ज़ के हाथ लगाया और कहा, “माँ सा... बाबो सा तो स्वर्ग सिधार
गए.”
सब हक्के बक्के रह गए.
मौसी जी चिल्लाने लगीं कि उस मशीन में ही कुछ ऐसा था कि उसने मौसा जी की जान ले
ली. वो रोते रोते कहती जा रही थीं कि मौसा जी ने कहा भी था, कहीं ऐसा ना हो कि
मेरी आवाज़ के साथ साथ मेरी सांस भी ले ले ये मशीन. मशीन का तो बेचारी का क्या
कुसूर था. इतनी ही उम्र लिखवा कर लाये थे मौसा जी. अगर इस तरह टेप रिकॉर्डर में
रिकॉर्ड करने से जान जाने लगती तो हम रेडियो वालों का क्या होता ? लेकिन मेरी मौसी
जी के दिमाग़ में ये वहम बुरी तरह से घर कर गया कि उस रिकॉर्डर की वजह से ही मौसा
जी की जान गयी. ये वहम जब तक वो ज़िंदा रहीं उनके दिमाग़ से नहीं निकला. जब मेरी
रेडियो में नौकरी लगी तब वो ज़िंदा थीं. मुझे उन्होंने ये नौकरी करने से बहोत रोका.
मैंने उन्हें बहोत समझाया कि रिकॉर्डर में ऐसा कुछ नहीं होता जिससे जान को ख़तरा हो,
मगर उन्हें मेरी बात बिलकुल नहीं जंची. उनका बस चलता तो वो मुझे रेडियो में कभी
नौकरी नहीं करने देतीं.
मौसा जी जा चुके थे. मौसी
जी अपने कमरे में अकेली बैठीं या तो भागवत पढ़ती रहतीं या फिर सिगरेट फूंकती रहतीं.
शंकर पढाई में आगे बढ़ता जा रहा था और मोहन फेल हो हो कर पिछडता जा रहा था. मौसी जी
जान गयी थीं कि पढाई लिखाई मोहन के बस की बात नहीं. उन्होंने सोचा, अब पढ़ नहीं
सकता तो नहीं सकता क्या किया जाए. कोई बिज़नेस करवा दिया जाएगा. क्यों न इसकी शादी
करवा दी जाए तो कम से कम पोता खिलाने का सुख तो मिल जाए. उन्होंने बिरादरी में
लडकियां देखनी शुरू कीं. गोकुल जी नाम के एक क्लर्क थे डूंगर कॉलेज में. उनकी लड़की
मौसी जी को पसंद आई. मोहन तो किसी तरह गिरते पड़ते हायर सैकेंडरी कर पाया था मगर ये
लड़की ग्रेजुएट थी. गोकुल जी ने कहा कि उन्हें कोई एतराज़ नहीं है हायर सैकेंडरी पास
मोहन के साथ अपनी ग्रेजुएट लड़की की शादी कर देने में. मोहन की शादी हो गयी.
नियति तो तय करके बैठी थी
कि मोहन ने जिस तरह उसका मुंह चिढाया है, वो उसकी
ज़िंदगी को इतनी आसान तो नहीं रहने देगी. कुछ ही दिन बाद मोहन और मोहन की
पत्नी के बीच मनमुटाव होने लगा. इधर उस लड़की की लिछम बाई से भी नहीं बनी. मौसी जी
तीनों को समझाने की भरपूर कोशिश करती रहीं लेकिन कोई भी उनकी बात सुनने को तैयार नहीं था. झगड़ा दिनोदिन
बढ़ता गया और एक दिन वो लड़की घर छोड़कर अपने माँ बाप के घर लौट गयी. मौसी जी ने बहोत
कोशिशें कीं लेकिन उस लड़की ने कभी वापस इस घर का रुख नहीं किया. इधर घर की बहू घर
छोड़कर गयी उधर ससुर जी यानी कानजी भी दुनिया छोड़कर चल दिए. वो चाहे कुछ भी कमाते
नहीं थे, मौसी जी की तिजोरी पर एक बोझ ही थे, लेकिन घर में एक बुजर्ग मर्द की
हैसियत तो थी उनकी.
मोहन ने कई बार कोशिश की कि कोई बिजनेस ऐसा जमा ले कि कम से
कम दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ हो सके. उसकी हर कोशिश के साथ मौसी जी की तिजोरी में
से कुछ सोना कम हो जाता था. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. तिजोरी में सोना कम
होता जा रहा था. महल जैसा घर बिना वक़्त वक़्त पर मरम्मत के टूटकर बिखरने लगा था.
पास ही बने कुछ कमरे जो मौसा जी के ज़माने में अच्छे पैसों में किराए पर उठते थे,
अब खंडहर होने लगे थे इसलिए कोई अच्छा किराया देने वाला भला उन्हें किराए पर क्यों लेता. अब तो
कोई गरीब इंसान ही उन्हें किराए पर लेता
था जो नाम भर का ही किराया दे पाता था. यानी हर तरफ से लक्ष्मी इस परिवार को छोड़कर
जाने को उतावली हो रही थी.
इधर शंकर ने बहोत अच्छे नम्बरों के साथ फीजिक्स में एम एस
सी तो कर ली थी मगर इस पढाई के दौरान पहले शराब और फिर काम्पोज़, मैन्ड्रेक्स जैसी
ड्रग्स की लत पाल ली. वो बहोत ज़हीन और काबिल
इंसान था, मगर उसकी काबलियत को सही रास्ता नहीं मिला. वो ट्यूशन भी पढाता
था लेकिन उसका सारा पैसा नशे की भेंट चढ़ जाता था.
इसी दौरान दोनों भाइयों ने तय किया कि मिलकर कोई ऐसा काम
शुरू किया जाए जिसमे शंकर की पढाई लिखाई काम आ जाए और मोहन मैनेजमेंट का काम संभाल
ले. बहोत सोचने के बाद दोनों ने तय किया कि बाबो सा के नाम पर एक स्कूल खोला जाए.
एक बहोत बड़ी बिल्डिंग किराये पर ली गयी. कई टेम्पो और बसें खरीदी गईं और काफी दिन
चले इंटरव्यूज़ की बिना पर स्टाफ का सलैक्शन किया गया. कई बाबू, कई टीचर्स, कई
चपरासी,कई ड्राइवर, कई आयाएं और भी न जाने कौन कौन स्टाफ में आ गए.. शंकर ने
प्रिंसिपल की कुर्सी संभाली और मोहन ने डायरेक्टर की . इस स्कूल को शुरू करने के
लिए फिर मौसी जी की तिजोरी के सोने का एक बडा हिस्सा कुर्बान हो गया. अब बस
लक्ष्मी के अवशेष ही बचे थे इस घर में.
इसी स्कूल में हमारे बेटे वैभव को दाखिला देने का प्रस्ताव
लेकर दोनों भाई मोहन और शंकर हमारे घर आये थे. इस तरह वो श्री गंगाधर मेमोरियल
सेंट्रल एकेडमी हमारे बेटे का पहला स्कूल बना. शुरू शुरू में जिस तरह से मोहन और
शंकर ने पब्लिसिटी पर पैसा खर्च किया, काफी माँ बाप ने अपने बच्चों के दाखिले इस
स्कूल में करवा दिए लेकिन जैसे जैसे वक़्त गुज़रता गया, शंकर बाबू की कुछ दबी हुई
इच्छाएं बहोत बेताबी के साथ सर उठाने लगीं. एक जगह बन ही गयी थी, जिसमे स्कूल तो
दिन में ही चलता था. नौकर चाकर हर तरह की सहूलियत के साथ साथ फ़ीस के रूप में अच्छे
खासे रुपये भी हाथ में आने लगे थे दोनों भाइयों के. अब जिन कमरों में दिन में
विद्या दान होता था , सरस्वती की आराधना होती थी, उन्हीं कमरों में शाम में शराब
की महफ़िलें जमने लगीं. जहां गुड़ के गोदाम बन जाते हैं, मधुमक्खियाँ भी पहोंच ही
जाती हैं. कुछ फिल्म वालों ने जब देखा कि मोहन शंकर के पास हर तरह की सहूलियत मौजूद है, वो वहाँ आकर इकट्ठे
होने लगे और फिल्म बनाने के लिए दोनों भाइयों को उकसाने लगे. अगर ईमानदारी से देखा
जाए तो शंकर में एक कलाकार मौजूद था. वो लिखता भी अच्छा खासा था, लेकिन उन फिल्म
वालों को तो बस शंकर मोहन और उनके पास मौजूद सहूलियतों को इस्तेमाल करना था. आये
दिन मीटिंग के नाम पर जमने वाली महफ़िलों में अनाप शनाप पैसा खर्च होने लगा था.
फिल्म की उन मीटिंग्स में कई बार मैं भी शरीक हुआ लेकिन जब मैंने देखा कि यहाँ काम
कम हो रहा था और बातें ज़्यादा, तो मैंने उनकी मीटिंग्स से किनारा कर लिया. दोनों
भाई शायद ये भूल गए थे कि मौसी जी की ज़िंदगी की आख़िरी बची हुई पूंजी का बहोत बडा
हिस्सा इस स्कूल में लगा था. बच्चों की फ़ीस आती थी तो स्टाफ की तनख्वाहें भी इसी
फ़ीस में से दी जानी थी. फिर आये दिन कभी किसी बस की मरम्मत करवानी होती थी तो कभी
किसी टेम्पो के टायर ट्यूब बदलवाने होते थे. हर तरफ पैसे की मांग. कहाँ से आये
पैसा ? पैसा तो फ़िल्मी मीटिंगों में धुंआ धुंआ होकर उड़ता चला जा रहा था. जो लोग इन
दोनों भाइयों को घेरे हुए अपनी जेबें भर रहे थे, इन्हें समझा रहे थे कि कोई भी काम
नया शुरू करते हैं तो कुछ वक़्त तो उसमे रुपये डालते ही जाना होता है. जब वो काम जम
जाता है तब फिर वही बिज़नेस पैसा कमाकर देने लगता है. दोनों भाई इस मामले में अनाड़ी.
हर महीने दोनों भाई जा
पहुँचते मौसी जी के पास पैसों की मांग लेकर और मौसी जी बेचारी क्या करतीं ? जो कुछ
बचा खुचा सोना था, थोड़ा थोड़ा करके वो सारा दोनों भाइयों के सुपुर्द कर दिया. एक दिन मैं भी
उनके पास बैठा हुआ था. शंकर ने आकर कहा, “माँ सा, कुछ रुपये चाहिए, बस खराब हो गयी
है. बीस हज़ार का खर्चा है उसमें.”
मौसी जी ने दुखी होते हुए कहा, “ बेटा ये स्कूल कमाई के लिए
खोली है या खर्च करने के लिए ? कितना पैसा लगा चुके हो तुम लोग कभी हिसाब लगाया है
तुम लोगों ने ?”
“माँ सा नया काम है जमने में थोड़ा वक़्त भी लगेगा और कुछ
पैसा भी. एक बार जमने के बाद ही तो स्कूल पैसा देने लगेगी.”
मौसी जी ने अपने गले से एक
बहोत मोटी सी सोने की चेन निकाल कर शंकर के हाथ में रख दी और लम्बी सांस छोड़ते हुए
बोलीं, “ लो बेटा....... ये मेरे पास सोने की आख़िरी चीज़ बची है....... अब तिजोरी
खाली है बिलकुल. जमाओ अपना स्कूल इससे और तब भी ना जमे तो फिर बेटा बंद कर दो
स्कूल, अब न मेरे पास पैसा है, न कोई सोना.” मैंने देखा..... उनकी आँखों में एक
सूनापन उतर आया था. वो सोने की ज़ंजीर जो उन्होंने शंकर के हाथ में दी थी, उसका
अक्स आज भी मेरी आँखों में वैसे का वैसा मौजूद है. बहोत मोटी और लम्बी सी उस ज़न्जीर
में कम से कम चार सौ ग्राम सोना था.
बस..... वो सोना ख़त्म हुआ,
लक्ष्मी ने घर को अलविदा कहा, उसके बाद मौसी जी भी ज़्यादा दिन ज़िंदा नहीं रहीं.
उन्हें कैंसर रोग ने आ घेरा और उन्होंने इलाज करवाने से साफ़ इनकार कर दिया. कुछ ही महीनों के बाद वो इस असार संसार को छोड़कर चल
दीं और साथ ही मोहन शंकर के स्कूल ने भी दम तोड़ दिया.
कानजी का एक छोटा सा मकान
हुआ करता था गढ़ के सामने. शंकर ने अपना बोरिया बिस्तर उठाया और उस घर में आ गया.
लिछम बाई कभी मोहन के साथ मौसा जी वाले घर में रहतीं तो कभी शंकर के पास आ जातीं.
मेरे छोटे मामा जी के एक साले की बेटी के तीन औलादें थीं लेकिन उसे उसके पति ने
छोड़ दिया था. मामाजी ने सोचा कि अगर अपने साले की लड़की की शादी मोहन के साथ करवा दी
जाए तो दोनों का घर बस जाएगा. चार लोगों की मौजूदगी में दोनों की शादी हो गयी.
अकेले मोहन को अपना गुज़ारा चलाने में बड़ी दिक्कतें आ रही थीं, ऊपर से एक अदद बीवी
और उसकी तीन औलादों को कैसे पाले , उसकी समझ नहीं आ रहा था. उसके पड़ोस में ही एक
परिवार रहता था जिनका एक पेट्रोल पम्प था. पैसे की कोई कमी नहीं थी. उस परिवार की बरसों
से मौसाजी के उस महलनुमा घर पर निगाह थी. वो लोग आये दिन मोहन को उधार के नाम पर
पैसे देने लगे और मोहन भी क्या करता ? लिछम बाई भी बीमार रहने लगी थीं. उनकी दवा
दारू, अपने परिवार के खर्चे आखिर कहाँ से लाता वो पैसे ?
शंकर जब से अकेला रहने लगा
था, तरह तरह की ड्रग्स को आजमाने लगा. इस बीच उसने कई नौकरियाँ कीं लेकिन वो कहीं
नहीं टिक पाया. मैं जिन दिनों इलाहाबाद में पोस्टेड था, एक बार बीकानेर आया तो
कोर्ट से लौटते हुए देखा कि शंकर खड़ा है. मैं उसके पास रुक गया. वो मुझे अपने कमरे
में लेकर गया. एकदम अस्तव्यस्त था पूरा कमरा. चारों तरफ गंदे कपड़े , किताबें
कॉपियां और इंजेक्शन की शीशियाँ बिखरी हुई पड़ी थीं. मैंने कहा, “शंकर, यार ये क्या
हाल बना रखा है तुमने ?”
नशे में डूबी हुई उसकी
आवाज़ आज भी मुझे याद है. वो बोला, “कुछ नहीं मामा जी, ये साली दारू और गोलियां
आजकल कुछ असर ही नहीं करते. आजकल मैं नशे के इंजेक्शन लगाता हूँ.”
“अरे शंकर क्या कर रहे हो
ये तुम ? क्यों अपने शरीर को खराब कर रहे हो तुम ? जानते हो, ये नशा तुम्हें अन्दर
से खोखला कर रहा है.”
“बस कुछ दिन और मामा जी,
सिर्फ कुछ दिन और......”
“फिर क्या होगा ? क्या कुछ
दिन बाद छोड़ दोगे ये नशा करना ?”
“छोडूंगा नहीं छोड़ना पडेगा
मुझे.”
“क्या मतलब ?”
वो एक ज़ोरदार ठहाका लगाते
हुए बोला, “मामा जी मैं शादी कर रहा हूँ. जब बीवी आ जायेगी तो ये उसकी ज़िम्मेदारी
होगी कि वो मुझे नशा छुडवाये.”
“किसके साथ कर रहे हो शादी
और कब कर रहे हो शादी ?”
“लगता है आपको नाना जी(मेरे
पिताजी) ने कुछ नहीं बताया. कोटा की लड़की है एक. मैं और नाना जी जाकर मिल आये हैं
उससे. मैंने अपने नशे वशे के बारे में कुछ नहीं छुपाया उससे. फिर भी वो मुझसे शादी
करने को तैयार है.”
“बहोत अच्छी बात है शंकर ,
अगर वो तुम्हारे साथ शादी करने को तैयार है तो ज़रूर शादी कर लो और भगवान् करे वो
तुम्हारा नशा भी छुडवा दे, लेकिन एक बात याद रखना....... नशा छोड़ने का फैसला भी
खुद नशा करनेवाले को ही लेना पड़ता है और उस फैसले पर अडिग भी खुद उसे ही रहना होता
है. कोई दूसरा उसे नशा छोड़ने में मदद तो कर सकता है लेकिन नशा छुडवा नहीं सकता.....खैर
तुम शादी करो... ज़रूर करो... आल द बैस्ट.”
मैं वहाँ से चला आया था.
फिर सुना उसकी शादी हो गयी. कोटा से ब्याह कर जिस लड़की को वो लाया था, उसने बहोत
कोशिश की उसका नशा छुडवाने की. शंकर जो भी कमाता था, नशे पर खर्च कर देता था, ऐसे
में घर का खर्च कैसे चले ? शंकर की बीवी ने एक स्कूल में नौकरी कर ली. दो-तीन साल
तक वो बेचारी इस कोशिश में लगी रही कि किसी तरह से शंकर नशा छोड़ दे. शंकर भी शायद
नशा छोड़ना चाह रहा था लेकिन नशा उसके जिस्म और जेहन में इस गहराई तक बैठ चुका था
कि छोड़ छोड़ कर वो वापस नशे के जाल में आ फंसता था. कोई औलाद हो नहीं पा रही थी,
वरना शंकर की बीवी का मानना था कि कोई बच्चा घर में आ जाए तो शायद शंकर की ये लत छूट
जाए. दोनों ने तय किया कि एक बच्चा गोद ले लिया जाए. एक छोटी सी बच्ची गोद ली गयी.
शंकर की बीवी स्कूल चली जाती थी, इसके बाद शंकर के सामने कोई चारा नहीं बचता था
सिवा इसके कि वो बच्ची को संभाले. उन दिनों नशे के लिए वो मॉर्फिन के इंजेक्शन
अपने कूल्हों पर लगाया करता था. रोज़ एक ही जगह पर इंजेक्शन लेने से वहाँ घाव होने
लगे थे. उसके सामने सवाल ये खड़ा होने लगा कि वो अपने नशे की देखभाल करे या बच्ची
की. कभी बच्ची का प्यार जीत जाता था तो कभी नशे की लत.
वक़्त इसी तरह गुज़र रहा था.
शंकर तमाम कोशिशों के बावजूद नशा करना नहीं छोड़ पा रहा था. उसके कूल्हों पर के घाव
दिनोदिन बिगड़ रहे थे. आखिर तंग आकर उसकी बीवी ने आख़िरी हथियार आजमाने की तैयारी कर
ली. उसने शंकर से कहा, “आपके कूल्हों के घाव गंभीर होते जा रहे हैं.अब भी आप नशा करना
नहीं छोड़ेंगे तो ज्यादा दिन ज़िंदा नहीं रह सकेंगे. मुझे विधवा बनकर इस घर में नहीं
रहना है. आप तय कर लीजिये, आपको नशे की ज़रुरत है या मेरी ? अगर अब भी आप नशा नहीं
छोड़ते तो मैं आपको तलाक़ दे दूंगी.”
शंकर बहोत रोया..... बहोत गिड़गिड़ाया
मगर उस लड़की ने भी एक फैसला ले लिया था. उसे लगा कि उसका ये हथियार काम करेगा.
शंकर उससे बहोत प्यार करने लगा था, इसलिए वो नशा छोड़ देगा मगर उसे तलाक़ नहीं लेने
देगा. एक दो दिन शायद शंकर ने बिना नशे के काटे, फिर छुपकर इंजेक्शन लगाने लगा.
आखिर उसकी बीवी उसे घसीटती हुई कोर्ट ले गयी और तलाक़ की अर्जी दाखिल कर दी. कोर्ट ने दोनों को छः महीने अलग अलग रहने की
हिदायत दी और गोद ली हुई बच्ची को माँ के सुपुर्द कर दिया. तीनों लोग कोर्ट से लौट
आये.
अब सवाल ये था कि शंकर की
बीवी के न कोई आगे था, ना कोई पीछे. आखिर छः महीने का वो वक़्त कहाँ रहकर काटे.
शंकर की बीवी ने उससे कहा, “छः महीने बाद कोर्ट में हम यही कहेंगे कि हम लोग अलग
रह रहे थे. अभी अगर आपको कोई एतराज़ न हो तो मैं आपके साथ ही रहूँगी.”
शंकर अपने जिस्म और जेहन
में भर गए नशे के उस ज़हर के हाथों मजबूर था,
वो कुछ नहीं बोला, बस बीवी से लिपट कर रो पडा.
दोनों ने कुछ दिन इसी तरह
गुज़ारे......... कोर्ट की नज़र में वो दोनों तलाक़ के मुहाने पर खड़े पति पत्नी थे
जिन्हें छः महीने बाद कोर्ट में जाकर बस इतना सा कहना था कि पिछले छः महीने से वो
लोग अलग रह रहे हैं और कोर्ट उन्हें एक दूसरे की क़ैद से आज़ाद कर देगा. वो दोनों ही
साफ़ साफ़ समझ नहीं पा रहे थे कि वो एक दूसरे से अलग होना चाहते भी हैं या नहीं ?
वो साथ रहना चाहते थे या
नहीं, न उन्हें पता था, ना किसी और को लेकिन नियति को पता था, साफ़ पता था कि क्या
होने वाला है ? रोज़ की तरह रात में बीवी ने शंकर के कूल्हों के घाव स्पिरिट से साफ़
किये, पट्टी बांधी, उसे खाना खिलाया, खुद ने खाया, सुबह चार बजे का अलार्म लगा कर
सो गयी ताकि सुबह उठकर पति और बच्ची के लिए खाना बना कर रख सके, अपना टिफिन साथ ले
सके और बच्ची को तैयार करके स्कूल भेज सके. बच्ची को स्कूल के लिए रवाना करने के
साथ ही वो भी पब्लिक पार्क के सामने से उस जीप में सवार हो जाया करती थी, जो उसे
पास के उस गाँव में छोडती थी, जहां के प्राइमरी स्कूल में उसकी पोस्टिंग थी.
सुबह उठी, जल्दी जल्दी
सारे काम निबटाये. खाना पति के सिरहाने के पास रख कर उसकी चादर ठीक करने लगी तो
शरीर कुछ गरम लगा. उसने कहा, “क्या बात है, बुखार हो गया है क्या आपको ?”
शंकर कराहते हुए बोला,
“हाँ, कूल्हों में बहोत दर्द हो रहा है, शायद घाव में इन्फेक्शन हो गया है. उसी की
वजह से बुखार चढ़ गया है.”
“मैं रुक जाऊं? आप कहो तो
छुट्टी लेलूं.........!!!”
“नहीं, जाओ तुम........”
“नहीं, मैं रुक जाती हूँ
आज.”
शंकर फीकी सी हंसी हंसकर
बोला, “अरे बावली..... कल रात मेरे घाव नहीं देखे तुमने ? मैं नशे के बिना रह नहीं
सकता और नशे के ये इंजेक्शन जब तक लूंगा, मेरी हालत इसी तरह रहेगी. जाओ तुम जाओ
अपने काम पर, तुम्हें मेरी क़सम. मैं बुखार की दवा ले लूंगा.”
वो बेचारी क़सम की मारी
निकल पड़ी घर से. बच्ची को स्कूल छोड़कर जा पहुँची पब्लिक पार्क के गेट पर. जीप में
बैठे सभी लोगों को देर हो रही थी. सभी उस पर चिल्ला पड़े. ख़ास तौर से वो ड्राइवर जो
रोज़ उसे लेकर जाया करता था, कहने लगा, “मैडम आप तो एक कार ले लीजिये. मान लिया कि
आपके पति बीमार हैं लेकिन इस तरह रोज़ सबको लेट करवाने से काम नहीं चलेगा. मैं तो
आज आपको छोड़कर ही जाने वाला था, ये तो सुमन बहन जी ने बहोत रिक्वेस्ट करके मुझे
रोक लिया.”
वो बिना कुछ बोले जीप पर
सवार हो गयी.
काश..... उस ड्राइवर ने उस
दिन उस बदनसीब लेडी पर इतनी दया नहीं की होती और वो बिना उसका इंतज़ार किये, उसे
छोड़कर निकल गया होता.
दो घंटे बाद ही वो बदनसीब
घर लौट आई.......एक बेजान जिस्म के रूप में. बीकानेर से निकलते ही जीप की एक ट्रक
से टक्कर हुई और सब की सब सवारियां और ड्राइवर मौके पर ही कुचले गए. वो बदनसीब
लड़की, जिससे मैं कभी मिल नहीं पाया था,शंकर, मेरे पिताजी और दीगर लोगों के मुंह से
टुकड़ों टुकड़ों में सुनी उसकी कहानी को मैंने आपके सामने रखा है, अक्सर मुझे याद
आती है. आप जानते है, जिस इंसान की आपने शक्ल नहीं देखी होती, उसे याद करना भी एक
अलग तरह की तकलीफ होती है क्योंकि कोई शक्ल आपकी आँखों के सामने नहीं आती और आपका
दिल तड़पता है उसकी शक्ल देखने को और जो इंसान अब है ही नहीं, उसकी शक्ल भला अब आप
कैसे देख सकते हैं ?
वो बदनसीब लड़की विधवा होकर
नहीं मरना चाहती थी, भगवान ने उसकी सुन ली, वो सधवा ही चली गयी, लेकिन यकीनन जब
उसके प्राण निकल रहे होंगे, वो अपने पति की सेहत के बारे में ही सोच रही होगी. कुछ
महीनों बाद जब मैं बीकानेर आया तो शंकर ने ये पूरी दासतां मुझे सुनाई और कहा, “
मामा जी, उस लड़की ने मुझे टूट कर चाहा, जो कुछ भी किया, अच्छा या बुरा, सब कुछ
मेरे लिए ही किया, लेकिन मैं उसके लिए कुछ नहीं कर पाया. ये देखिये...... मैंने एक
फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी है उसी को सेंटर में रखकर. देखिएगा, अगर कोई प्रोडूसर नज़र में आये तो बताइयेगा.
कुछ ही महीनो बाद खबर मिली
कि नशे की ओवरडोज़ की वजह से एक दिन शंकर भी उसी दुनिया में जा बसा जहां उसे इतना प्यार
करने वाली बीवी जा बसी थी.
मैं तब तक मुम्बई आकर
विविध भारती में बिजी हो चुका था. बहोत लम्बे अरसे तक बीकानेर नहीं जा पाया. जब एक
बार बीकानेर गया और भाई साहब भाभी जी से बातें कर रहा था, तो घंटी बजी. मैंने कहा,
“इस भरी दुपहरी में कौन आ गया ?”
भाभी जी ने मेरी बात पर
ध्यान न देते हुए कहा, “ महेंद्र जी, जूस पियेंगे ?”
मैं कुछ बोलता इससे पहले
ही वो उठीं और बाहर की तरफ चल पडीं. मैं भी उनके पीछे पीछे बाहर आया. देखा एक आदमी
जूस का ठेला लिए खड़ा है. गेट खोला तो उसने अन्दर आकर मेरे पैर छुए. मैं हक्का
बक्का रह गया क्योंकि गर्मी के कारण उस जूस वाले ने अपने पूरे चेहरे को गमछे से
ढँक रखा था. मैंने आशीर्वाद तो दे दिया, मगर अभी भी मैं पशोपेश में था कि इस ठेले
वाले ने मेरे पैर क्यों छुए? तभी उसने अपना गमछा हटाया. मुझे जैसे किसी ने चार सौ
चालीस वोल्ट का झटका लगा दिया था. ये जूस के ठेलेवाला और कोई नहीं वही मोहन था,
जिसे मैंने बचपन में नाले में बड़ी शान के साथ सैकड़ों चांदी के कलदार गिराते हुए
देखा था.
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