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Saturday, August 6, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग-३८ (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला)






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१९७५ का साल पूरे मुल्क में कई ऐसी तब्दीलियाँ लेकर आया, जिन्होंने एक मायने में इतिहास का रुख ही बदल दिया. बांग्ला देश के बनने के साथ ही मिसेज़ इंदिरा गाधी मुल्क में ही नहीं, पूरी दुनिया में एक कद्दावर लीडर के तौर पर उभर रही थीं. रायबरेली में उनसे चुनाव हार चुके समाजवादी लीडर राज नारायण ने मिसेज़ गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनाव जीतने के लिए, सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल और कई दीगर गलत तरीकों का सहारा लेने का इलज़ाम लगाते हुए, एक केस दायर कर दिया.  कभी कट्टर कॉंग्रेसी रह चुके, जय प्रकाश नारायण ने बिहार में १९७४ में मिसेज़ गांधी को उखाड़ फेंकने की गरज से, एक बहुत बड़े आंदोलन की शुरुआत कर दी. इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने मिसेज़ गांधी पर लगे बड़े बड़े करप्शन के इल्जामात को तो खारिज कर दिया, मगर बहुत छोटे, मसलन उनकी इलेक्शन मीटिंग्स के दौरान बिजली का इंतजाम बिजली महकमे के मुफ्त में करने जैसे इल्जामों को लेकर, उनके इलेक्शन  को गैरकानूनी करार दे दिया और अपने फैसले में ये हिदायत दे दी कि वो आने वाले छः साल तक कोई चुनाव न लड़ें. राज नारायण, मोरारजी देसाई जैसे बड़े बड़े नेताओं ने पूरे देश में मिसेज़ गांधी के खिलाफ एक ज़बरदस्त तूफ़ान खडा कर दिया.

जस्टिस सिन्हा ने कांग्रेस पार्टी को २० दिन का वक्त दिया, ताकि वो मिसेज़ गांधी की जगह किसी और को अपना लीडर चुन सके और उसे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा सकें, मगर कांग्रेस मिसेज़ गांधी की जगह किसी भी नाम पर एकराय नहीं हो पाई. २३ जून १९७५ को मिसेज़ गांधी ने अदालत से स्टे की अपील की, जिसे २४ जून १९७५ को जस्टिस अय्यर की अदालत ने कुछ शर्तों के साथ मंज़ूर कर लिया. २५ जून को जय प्रकाश नारायण ने मिसेज़ गांधी पर इस्तीफा देने के लिए दबाव डालने के लिए, एक ज़बरदस्त आंदोलन शुरू करने का ऐलान कर दिया. उस वक्त राष्ट्रपति थे, श्री फखरुद्दीन अली अहमद, जिन्हें संविधान की धारा ३५२ के तहत किसी भी बाहरी या अंदरूनी खतरे की हालत में इमरजेंसी लागू करने का अधिकार था. २६ जून की सुबह इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए, पूरे मुल्क में एमरजेंसी लागू कर दी गयी. उसी सुबह खुद मिसेज़ गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर मुल्क के अवाम को खिताब करते हुए इसका ऐलान किया . सारी जेलें बड़े बड़े लीडर्स से भर गईं. यहाँ तक कि स्टूडेंट लीडर्स को भी नहीं बख्शा गया.इन स्टूडेंट लीडर्स में आज के फाइनेंस मिनिस्टर अरुण जेटली और इंडिया टी वी के मालिक रजत शर्मा भी शामिल थे. कुछ लोग जिन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका, वो रातोंरात अंडर ग्राउंड हो गए. उन अंडर ग्राउंड होने वालों में मेरे छोटे मामा जी भी शामिल थे. पूरे १९ महीने तक वो अंडर ग्राउंड रहे.
एमरजेंसी लागू करना सही था या गलत, ये एक बहस का मुद्दा हो सकता है. ये भी एक बहस का मुद्दा हो सकता है कि मिसेज़ गांधी ने एमरजेंसी का इस्तेमाल अपनी कुर्सी को बचाने के लिए किया या दरअसल हालात ऐसे बन गए थे कि ऐसा करना पड़ा, लेकिन बिला शक ये कहा जा सकता है कि एमरजेंसी लागू होते ही कम अज़ कम एक बार तो मुल्क की पूरी तस्वीर बदल गयी. जिन दफ्तरों में १२ बजे से पहले कोई अफसर कोई अहलकार नज़र नहीं आता था, अब हर इंसान १० बजे दफ्तर पहुँचने की कोशिश करने लगा था. दफ्तरों में काम की स्पीड बढ़ गयी थी. कोई ज़रा सी भी गडबड करने की सोचता, तो उसे एमरजेंसी की वजह से १०० बार सोचना पड़ता था.
इसी दौरान सुना कि आकाशवाणी, बीकानेर में स्टाफ की तादाद बढ़ रही है और उसका दर्जा भी बढ़ रहा है. अब तक कुछ प्रोग्राम दिल्ली और जयपुर से रिले किये जाते थे, कुछ प्रोग्राम के जयपुर से आने वाले टेप्स बजाये जाते थे. यानी सिर्फ फ़िल्मी गानों के प्रोग्राम ही यहाँ से ओरिजिनेट होते थे. सुनने में आया कि अब कुछ प्रोग्राम यहीं तैयार किये जायेंगे. मेरे मोहल्ले के पड़ोस के मोहल्ले में श्री लक्ष्मी चंद शर्मा रहते थे, जो कि मेरे साथ ही ड्रामा के ऑडिशन में पास हुए थे और आकाशवाणी, बीकानेर में क्लर्क थे. ये सारी ख़बरें मुझे उनसे ही मिलती रहती थीं. एक दिन उन्होंने बताया कि जल्दी ही एक प्रोग्राम युववाणी, हफ्ते में दो दिन बीकानेर से शुरू होने वाला है. मैं एक दिन आकाशवाणी के दफ्तर जा पहुंचा. उस दफ्तर में काम करने वाले कई लोगों से तो मैं पहले से ही वाकिफ था.
आकाशवाणी जाकर देखा तो वहाँ कई नई नई शक्लें नज़र आईं. मुझे कहा गया कि युववाणी के लिए मुझे श्री महेंद्र भट्ट, प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव से मिलना चाहिए. मैं जा पहुंचा उनके कमरे में. सांवला सा चेहरा, उस पर पतली तराशी हुई मूंछें और  बड़ी बड़ी आँखें, मैंने नमस्कार किया तो एक भारी सी आवाज़ कमरे में गूज उठी  “नमस्कार, आइये......बैठिये.”
मैं सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया.
वो फिर बोले “क्या नाम है आपका?”
मैंने कहा “जी... महेंद्र..... महेंद्र मोदी.”
“बहुत खूब...... तो नाम एक ही है हम दोनों का......”
मैं बस मुस्कुरा दिया क्योंकि कमरे में घुसने से पहले कमरे के बाहर लगी हुई उनके नाम की तख्ती मैंने देख ली थी.
वो फिर बोले “मेरा नाम महेंद्र भट्ट है, मैं जयपुर का रहने वाला हूँ. वैसे वायलिन का कलाकार हूँ, अभी यू पी एस सी से प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव बनकर आया हूँ. आपके शहर में मेरी पहली पोस्टिंग हुई है.”
मैंने कहा “सर आपका हमारे शहर में बहुत बहुत स्वागत है.”
इस बार, वो हल्का सा मुस्कुराए.
फिर दस सैकंड चुप रहने के बाद बोले, “हाँ तो महेंद्र... बोलिए क्या चाहते हैं आप मुझसे?
मैंने कहा “जी सर.... सबसे पहली बात तो ये है कि मैंने कुछ साल पहले यहाँ से ड्रामा का ऑडिशन पास किया था, लेकिन अब तक मुझे किसी ड्रामा में हिस्सा लेने का मौक़ा नहीं मिला है. कई बार जब यहाँ के लोगों से पूछा तो यही जवाब मिला कि अभी ड्रामा शुरू नहीं हुआ है यहाँ से.....तो....... आप ड्रामा कब शुरू कर रहे हैं? दूसरी बात ये कि मैंने सुना है, आपने यहाँ से युववाणी शुरू किया है तो..... मुझे उसमे भी हिस्सा लेना है.”
वो बोले “हाँ हाँ ज़रूर. आप एक काम कीजिये. बुधवार को शाम साढ़े पांच बजे युववाणी में एक प्रोग्राम होगा, ‘नवतरंग’. उसे सुनिए. उसी तरह की एक स्क्रिप्ट लिखकर लाइए और मुझे दिखाइए. फिर आगे की कार्यवाही की जायेगी. जहां तक ड्रामा का सवाल है, यहाँ के लिए काफी स्टाफ मंज़ूर हो चुका है जिसमे कई प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव भी हैं, म्यूज़िक कम्पोज़र भी हैं और म्यूज़िक के और कई कलाकार भी. तो जब स्टाफ आ जाएगा तो ड्रामा भी शुरू होगा, फीचर भी शुरू होंगे और इनके अलावा और भी कई तरह के प्रोग्राम शुरू किये जायेंगे.”
मैंने कहा “जी बहुत अच्छा. तो.... मैं जल्दी ही स्क्रिप्ट लिखकर फिर हाज़िर होता हूँ.”
वो बोले “अच्छी बात है महेंद्र.”
मैं घर आ गया. बुधवार को मैंने नवतरंग सुना. मैं पेश करने वाले के नाम से समझ गया कि ये प्रोग्राम आकाशवाणी, बीकानेर के अनाउंसर श्री चंचल हर्ष के बेटे ने पेश किया था. आकाशवाणी, बीकानेर से इस प्रोग्राम की बस शुरुआत ही थी. ज़ाहिर है, अभी शहर के लोग नहीं जानते थे कि इस तरह का कोई प्रोग्राम है, जिसे वो भी पेश कर सकते हैं, तो स्टाफ के बच्चों को ही सबसे पहले मौक़ा मिलना था.
मैं दो रोज बाद ही स्क्रिप्ट लिखकर आकाशवाणी के दफ्तर जा पहुंचा. स्क्रिप्ट महेंद्र भट्ट जी को दिखाई. उन्होंने उसे बड़े गौर से पढ़ा और बोले, “शाबाश. बहुत अच्छी लिखी है स्क्रिप्ट तो..... लीजिए आपकी स्क्रिप्ट अप्रूव्ड हो गयी.”
मैंने कहा “जी बहुत बहुत शुक्रिया.... रिकॉडिंग के लिए कब आना है मुझे?”
वो हँसे “अरे भाई हमारे यहां अभी रिकॉर्डिंग का कोई माकूल इंतजाम नहीं है. आपको उसी रोज आकर लाइव ही पेश करना होगा ये प्रोग्राम. थोड़ी प्रैक्टिस करके तीन बजे तक यहाँ आ जाना.”
मैंने कहा “जी बहुत अच्छा.”
मैं वहाँ से लौट आया. पहला प्रोग्राम वो भी लाइव..... थोड़ी घबराहट हुई, लेकिन फिर मैंने याद किया अपने ऑडिशन वाले दिन को...... माइक के सामने बोलने में मुझे बहुत मज़ा आया था.... मैंने उन लम्हों को भरपूर जिया था. मैंने ये सोचकर अपने दिल को दिलासा दिया कि जब उस दिन माइक के सामने बोलना मुझे इतना अच्छा लगा था, तो अब घबराने की क्या ज़रूरत है भला?
वक्त तो अपनी रफ़्तार से गुजर ही जाता है. मैं तय दिन तीन बजने में पांच मिनट कम थे, तब आकाशवाणी के दफ्तर पहुँच गया. भट्ट साहब के कमरे में गया, तो वो किसी से फोन पर बात कर रहे थे. मैंने कमरे में घुसकर नमस्कार किया. उन्होंने बैठने का इशारा किया. मैं बैठ गया. वो फोन पर बोले “हाँ तुलसियानी जी आज के नवतरंग के लिए ये आ गए हैं. आपके पास भेज रहा हूँ, ज़रा प्रैक्टिस करवा देना यार और ज़रा संभाल लेना.”
उन्होंने फोन रखा और मुझे कहा “जाइए, आप कार जा रही है ट्रांसमीटर. उसमे बैठ जाइए. वहाँ ड्यूटी ऑफिसर तुलसियानी जी मिलेंगे. वो आपको प्रैक्टिस करवा देंगे. ऑल द बैस्ट.”
मैंने उन्हें शुक्रिया कहा और बाहर आकर कार में बैठ गया. कुछ और स्टाफ़ को लेकर वो एम्बेसेडर कार चल पडी.
पन्द्रह मिनट में हम लोग ट्रांसमीटर पहुँच गए.
दरअसल स्टाफ़ तो बढ़ने लगा था आकाशवाणी, बीकानेर पर लेकिन टेक्नीकल सहूलतें अब तक बढ़ी नहीं थीं. दफ्तर एक किराए के मकान में शहर में था. ट्रांसमीटर बिल्डिंग वहाँ से छः किलोमीटर दूर सागर रोड़ पर बनी हुई थी. एक हॉल था, जिसमे दस किलोवाट का एक बड़ा सा ट्रांसमीटर लगा हुआ था. उससे बिलकुल लगा हुआ एक स्टूडियो था. दोनों के बीच एक शीशा लगा हुआ था. उस शीशे के एक तरफ स्टूडियो में अनाउंसर बैठता था और दूसरी तरफ कंट्रोल रूम कम ट्रांसमीटर हॉल में इंजीनियर्स. ज़रूरत पड़ने पर वो लोग इशारों से बात कर लिया करते थे. एक इंटरकॉम जैसी बाबा आदम के ज़माने की कोई चीज़ भी मौजूद थी वहाँ, जो कभी कभी ही काम करती थी. अनाउंसर को तीन तरफ से घेरे हुए एक टेबल थी, जिसमे एक तरफ दो टेप डैक लगे हुए थे, जिनपर टेप बजाये जाते थे, एक तरफ दो बड़े बड़े टर्न टेबल थे, जिन्हें हम बोल चाल की ज़ुबान में रिकॉर्ड प्लेयर कहते हैं, और एक तरफ एक बड़ी सी मशीन लगी रहती थी, जिसे कंसोल कहा जाता था. उस कंसोल पर बहुत सारे स्विच, कीज़, बटन और गोल घुमाने वाले बड़े बटन लगे रहते थे, जिन्हें फेडर कहा जाता था. बस यही स्टूडियो था कुल मिलाकर, जिसमे दो माइक लगाने का इंतजाम था. इसके अलावा तीन चार कमरे और थे. एक में ड्यूटीरूम बना हुआ था और एक में लायब्रेरी.
कार से उतरकर मैं ड्यूटीरूम में पहुंचा. एक साहब एक टेबल के दूसरी तरफ बैठे थे. टेबल पर एक रेडियो रखा हुआ था और कुछ टेप्स और रिकॉर्ड्स रखे हुए थे. मैंने उन्हें नमस्कार किया. उन्होंने मुझसे बैठने को कहा. श्री यशपाल सिंह राठौर शाम के ट्रांसमिशन के अनाउंसर थे. उनके साथ मिलकर उन्होंने टेप्स वगैरह चैक किये, उन्हें स्टूडियो में भेजकर अपनी कुर्सी पर बैठे और बोले “चलिए, अब आपके प्रोग्राम की तैयारी कर लेते हैं.”
मैंने कहा “जी..... बताएं, मुझे क्या और कैसे करना है?”
“आप जिस अंदाज़ में प्रोग्राम पेश करना चाहते हैं, थोड़ा सा पढने की कोशिश कीजिये. फिर मैं आपको बताता हूँ कि इसे कैसे पढ़ना चाहिए.”
“जी बहुत अच्छा.”
और मैंने स्क्रिप्ट को पढ़ना शुरू किया. मैं एक पैराग्राफ पढकर रुक गया और उनके सामने देखने लगा कि ये मुझे कुछ बताएँगे. वो मुंह खोले मेरी तरफ देखते जा रहे थे. मेरे रुकते ही वो बोले “और पढ़िए.” मैं और एक पैरा पढ़ गया. फिर उनके चेहरे की तरफ देखा. उन्होंने आगे पढ़ने का इशारा किया...... मैं पढता चला गया. पूरी स्क्रिप्ट खत्म हो गयी.
अब वो बोले “आप सच सच बताइये..... क्या आप स्टाफ़ में नहीं हैं?”
अब चौंकने की बारी मेरी थी. मैंने कहा “जी......? क्या मतलब ? मैं समझा नहीं.”
इस पर वो बोले “कहाँ के रहने वाले हैं आप?”
“जी बीकानेर का ही हूँ.”
“आप जिस तरह से पढ़ रहे हैं, मुझे लग रहा है कि आप आलरेडी अनाउंसर हैं.”
मैंने कहा “जी नहीं मैं अनाउंसर तो नहीं हूँ लेकिन हाँ ड्रामा का अप्रूव्ड आर्टिस्ट ज़रूर हूँ.”
वो मुस्कुराकर बोले “आप तो एक मंजे हुए अनाउंसर की तरह बोल रहे हैं. मैं क्या तैयारी करवाऊं आपको? आप तो स्टूडियो में जाइए और इत्मीनान से प्रोग्राम पेश कीजिये.”
तभी राठौर जी स्टूडियो से बाहर आये और मुझे अंदर ले जाकर बिठा दिया. ऑडिशन के बाद एक बार फिर माइक्रोफोन मेरे सामने था. मैंने उस प्रोग्राम को भी खूब इन्जॉय किया. कब प्रोग्राम खत्म हुआ, मुझे पता ही नहीं चला. एक बार फिर मैंने महसूस किया कि माइक्रोफोन के सामने बोलकर जो सुख मुझे मिलता है, वैसा सुख मुझे और किसी भी काम में नहीं मिलता.
सभी ने प्रोग्राम की बहुत तारीफ़ की. मुझे १५ रुपये का एक चैक भी मिला. यूं तो अपनी क्लिनिक और ट्यूशंस से मैं अच्छी खासी कमाई करता था मगर माइक्रोफोन पर बोलने की ये मेरी पहली कमाई थी.
ये वो वक्त था, जब हर घर में और हर दुकान पर रेडियो पूरे दिन बजा करता था. उन दिनों दो तरह के रेडियो स्टेशन हुआ करते थे. मीडियम वेव के और शॉर्ट वेव के. राजस्थान के सभी रेडियो स्टेशन मीडियम वेव के ही थे. हम इसे यूं समझ सकते हैं. लम्बाई के हिसाब से हम तरंगों को तीन भागों में बाँट सकते हैं. लौंग  वेव, मीडियम वेव और शॉर्ट वेव. तरंग की लम्बाई जितनी ज़्यादा होती है वो उतनी ही भारी होती है और जितनी भारी होती है, आसमान में उतनी ही कम ऊंचाई तक जा सकती है. तरंग जितनी कम ऊंचाई तक जायेगी, उतनी ही कम दूरी तय करेगी. इसका मतलब ये हुआ कि लॉन्ग वेव बहुत कम दूरी तय करती हैं, मीडियम वेव उससे कुछ ज़्यादा दूरी तय करती हैं और शॉर्ट वेव की तरंगे सबसे ज़्यादा दूरी तय करती हैं. तरंग की लम्बाई के साथ साथ ट्रांसमीटर की पावर की भी बहुत अहमियत होती है. ट्रांसमीटर का पावर जितना ज़्यादा होगा, तरंगें उतनी ही ज़्यादा दूरी तक जायेंगी. इन तीन तरह के ट्रांसमीटर्स में से ऑल इंडिया रेडियो दो तरह के ट्रांसमीटर इस्तेमाल किया करता था, मीडियम और शॉर्ट वेव. दोनों में अपनी अपनी कुछ अच्छाइयां होती थीं और अपनी अपनी खामियां. दिन के वक्त सूरज की गर्मी से, ज़मीन से कुछ ऊंचाई पर एक ऐसी लेयर बनती है, जिसे मीडियम वेव की तरंगे पार नहीं कर सकतीं. नतीजतन वो बहुत कम दायरे में ही सुनी जा सकती हैं. वही तरंगे रात के समय काफी दूर तक पहुँच जाती हैं. इसी लिये दिन में मीडियम वेव पर अगर हम रेडियो की सुई घुमाएँ तो सिर्फ अपने शहर का स्टेशन ही लगेगा, जबकि रात में अगर मीडियम वेव पर सुई को घुमाना शुरू करें, तो हर थोड़ी दूर में कोई न कोई स्टेशन लग जाएगा और हमें काफी दूर दूर के स्टेशन भी सुनने को मिल जायेंगे. शॉर्ट वेव की तरंगे चूंकि बहुत छोटी होती हैं , बहुत ऊंचाई तक जाती हैं और इसलिए बहुत दूर दूर तक सुनी जा सकती हैं, लेकिन कोई भी रेडियो तरंग जितनी ऊपर जायेगी, उतना ही शोर उसमें शामिल हो जाएगा. इसी लिए जब हम शॉर्ट वेव पर रेडियो की सुई घुमाते हैं, तो तरह तरह का शोर सुनाई देता है और उसके बीच बीच में कोई स्टेशन. वैसे एफ़ एम के आने के बाद ये सब अब पुराने ज़माने की बातें हो गयी हैं, लेकिन मैं जिस ज़माने की बात कर रहा हूँ उस वक्त तो मीडियम और शॉर्ट वेव पर ही रेडियो सुना जा सकता था. ज़ाहिर है बीकानेर का रेडियो स्टेशन भी मीडियम वेव पर ही चलता था और चूंकि पूरे चौबीसों घंटे नहीं चलता था, जब भी चलता था, चाहे उस पर कुछ भी प्रोग्राम आ रहा हो हर घर , हर दुकान पर बस वो चलता रहता था. इसी वजह से मेरा प्रोग्राम भी बहुत लोगों ने सुना और उसकी तारीफ़ भी की.
ऑडिशन ने जिस तरह मुझमे एक एतमाद पैदा किया था कि मैं भी कुछ ऐसा कर सकता हूँ, जो बाकी सब लोग नहीं कर सकते, इस प्रोग्राम ने उस एतमाद को थोड़ा और बढ़ा दिया.
इस प्रोग्राम को हुए कुछ ही रोज गुज़रे होंगे कि एक रोज लक्ष्मी चंद जी ने घर आकर बताया कि मुझे भट्ट साहब ने याद किया है. जब भी टाइम मिले, मैं जाकर उनसे मिल लूं. मैं अगले ही रोज आकाशवाणी के दफ्तर पहुँच गया. भट्ट साहब से मिला, तो उन्होंने बहुत अपनाइयत से कहा “महेंद्र..... मैंने एक संगीत रूपक प्लान किया है. जानते हो ना कि संगीत रूपक क्या होता है?”
मैं ठहरा रेडियो का हर प्रोग्राम सुनने वाला. मैंने कहा “जी हाँ बिलकुल जानता हूँ.”
“ये संगीत रूपक जन्माष्टमी पर है. मैं सोचता हूँ कि इसमें नैरेशन तुम करो. बोलो....करोगे?” आज वो मुझे आप की जगह तुम कहकर बुला रहे थे, जिसमे मुझे एक अजीब से ख़ुलूस की महक आ रही थी.
अंधा क्या चाहे, दो आँखें. मैंने फ़ौरन से पेश्तर कहा “जी हाँ ज़रूर करूँगा, आप कहेंगे तो क्यों नहीं करूँगा?”
“वैसे एक बात पहले ही बता दूं. हमारे यहाँ स्टाफ में चार अनाउंसर हैं. इसके बावजूद मैं नैरेशन के लिए तुम्हारी आवाज़ को इस्तेमाल करूँगा, तो वो सब के सब मुझसे तो खैर नाराज़ होंगे ही, लेकिन तुमसे भी नाराज़ हो जायेंगे. तुम्हें कोई  दिक्कत तो नहीं है उसमें? तुम डर तो नहीं जाओगे उन लोगों की नाराजगी से?”
“नहीं सर...... आप बेफिक्र रहें, उनकी नाराजगी का मेरी सेहत पर कोई असर नहीं होगा. आप तो जितना काम मुझसे करवा सकते हैं करवाइए.”
उन्होंने दराज़ में से एक स्क्रिप्ट निकाली और मेरे सामने रख दी. अच्छी खासी तहरीर थी. बीच बीच में कई गाने थे. मैंने पूछा “ये गाने रिकॉर्ड हो गए क्या सर?” उन्होंने जवाब दिया “नहीं, अब रिकॉर्ड होंगे. तुम क्यों पूछ रहे हो? क्या गाना भी चाहते हो?”
मैंने हंसकर कहा “नहीं सर, गाना वाना मुझे नहीं आता और टूटा फूटा आता भी था, तो वो छोड़ दिया मैंने. मैं तो इस पूरे प्रोग्राम की रिकॉर्डिंग के दौरान आपके साथ रहना चाहता हूँ.”
वो बोले “हाँ हाँ क्यों नहीं. वैसे भी जानते हो हमारे पास अलग से कोई स्टूडियो तो है नहीं. वही ट्रांसमिशन स्टूडियो है, जिसमे बैठकर तुमने प्रोग्राम पेश किया था. वो स्टूडियो भी पूरे दिन हम अपने पास नहीं रख सकते क्योंकि वहीँ से ट्रांसमिशन होना है. हम लोग कुछ दिन तक पूरे दिन वहीं रहेंगे और जब जब स्टूडियो खाली होगा रिकॉर्डिंग करेंगे.”
अब तक मदन मोहन के असिस्टेंट रहे श्री डी एस रेड्डी म्यूजिक कम्पोज़र की पोस्ट पर ज्वाइन कर चुके थे. उनके साथ ही पंडित शिव राम के असिस्टेंट रहे ढोलक प्लेयर श्री दयाल पंवार, सितारिस्ट श्री मुंशी खान तानपूरा प्लेयर श्री इकरामुद्दीन, सारंगी प्लेयर श्री रजब अली, तबला प्लेयर श्री रहमान खां            और तानपूरा प्लेयर श्री नज़र मोहम्मद भी ज्वाइन कर चुके थे. महेंद्र भट्ट जी खुद बहुत अच्छे वायलिन प्लेयर थे. बाहर से क्लेरिओनेट के लिए श्री खुर्शीद को शामिल किया गया और गाने के लिए श्री बदरूद्दीन, श्री उमेश मेंदीरत्ता, श्री लक्ष्मी नारायण सोनी, श्री अनवर, सुश्री सरिता गोस्वामी और श्रीमती मधु भट्ट को बुक किया गया. इनके अलावा एक सितार प्लेयर श्री जसकरण गोस्वामी को भी बाहर से बुक किया गया, जिनके बारे में सब लोग चर्चा कर रहे थे कि उनका यू पी एस सी से प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव की पोस्ट के लिए सलेक्शन हो चुका है. कागज़ी कार्यवाहियां चल रही हैं और जल्दी ही वो महारानी स्कूल की अपनी नौकरी छोड़कर आकाशवाणी ज्वाइन कर लेंगे.
रिहर्सल के लिए एक दिन तय किया गया और आकाशवाणी बीकानेर के इतिहास में पहली बार, एक साथ इतने आर्टिस्ट्स, आकाशवाणी के दफ्तर में इकट्ठे हुए. कई गाडियां बुक की गयी थीं. मेरे जैसे कुछ लोग अपने अपने स्कूटर या मोटर साइकिल पर थे. पूरा क़ाफ़िला ट्रांसमीटर बिल्डिंग पहुंचा. भट्ट साहब ने सबको बताया कि इस स्टूडियो में हालांकि इस तरह की रिकॉर्डिंग के लिए माकूल इंतजामात नहीं हैं, फिर भी हम कोशिश कर रहे हैं कि कुछ नया किया जा सके. श्री एस एन छाबला और श्री एम् पी श्रीवास्तव आकाशवाणी के दो बहुत ही काबिल इंजीनियर थे. उन्होंने किसी तरह जुगाड करके स्टूडियो में चार माइक्रोफोन लगाए. सबसे बड़ी दिक्क़त ये आ रही थी कि ढोलक, तबला, क्लेरेओनेट जैसे साज़ों की आवाज़ तो बहुत बुलंद होती है, जबकि सितार, वायलिन की आवाज़ बहुत धीमी. सही बात तो ये है कि ऐसे साज़ों को अलग से एक-एक माइक चाहिए, मगर ये तो मुमकिन ही नहीं था. कुल जमा चार माइक थे. अगर उनमे से दो माइक दो सितारों को और एक वायलिन को दे दिया जाय, तो बाकी लोग क्या करेंगे. आखिरकार एक माइक पर सारे सिंगर्स को रखा गया और बाकी तीन माइक्रोफोन को इस तरह रखा गया कि सितार उनके बिलकुल सामने रहें और बुलंद आवाज़ वाले साज़ अपनी आवाज़ की बुलंदी के हिसाब से माइक से दूर रहें. यानी साजों के प्लेसमेंट से उन्हें बैलेंस किया गया.
कई कोशिशों के बाद साज़ों का सही प्लेसमैंट हो पाया. तभी पता लगा कि ट्रांसमिशन का समय हो रहा है. स्टूडियो खाली करना पडेगा. सब लोग अपने अपने बैठने की जगह की मार्किंग करके बाहर आ गए.
अगले दिन फिर हम सब लोग रिहर्सल के लिए पहुंचे. मेरी रिहर्सल तो अभी नहीं होनी थी, फिर भी क्योंकि मैं देखना चाहता था कि इस तरह की रिकॉर्डिंग कैसे की जाती है, इसलिए सब के साथ ही स्टूडियो पहुँच गया. तीन चार मेल सिंगर थे और तीन चार फीमेल. यानी कलाकारों को अपने गाने पर भी ध्यान देना था, साथ ही इस बात का ख़याल भी रखना था कि कब उन्हें दूसरे आर्टिस्ट्स के लिए माइक छोड़कर पीछे हट जाना है और कब आगे बढ़कर खुद माइक्रोफोन पर आ जाना है. दूसरे लफ़्ज़ों में हम ये भी कह सकते हैं कि उन्हें गाना भी गाना था और रिले रेस का खेल भी खेलना था. इन हालात में फीचर प्रोड्यूस करने का न तो ऊपर से कोई हुकुम था और ना ही लिस्नर्स की तरफ से कोई दबाव, लेकिन कुछ नया कर गुजरने का एक जूनून था भट्ट साहब में और सारे कलाकार जैसे भी हो सके, भट्ट साहब के इस जज्बे में उनके साथ थे. करीब ४० बरस मैं रेडियो से जुड़ा हुआ रहा. न जाने कितने प्रोग्राम ऑफिसर्स के साथ काम किया, मगर ऐसा जुनून बिरले लोगों में ही देखने को मिला. सलाम है उनके जुनून को, सलाम है उनके जज़्बे को.
हम लोग कई दिन तक लगातार रिकॉर्डिंग के लिए जाते रहे. आख़िरी दिन मैंने सोचा कि इतने आर्टिस्ट्स इकट्ठे होने का मौक़ा कब कब आता है, क्यों ना कुछ खाने पीने का सामान लेजाकर इसे एक पिकनिक की शकल दी जाए, मैं कुछ मिठाई और कचोरियाँ पैक करवाकर ले गया. रिकॉर्डिंग के बीच में भूख तो सबको ही लग गयी थी. तब मैंने वो मिठाई और कचोरियाँ निकाली. सब लोगों के चेहरे खिल गए. सबने मज़े लेकर मिठाई और कचोरियाँ खाईं मगर सितार प्लेयर जसकरण जी ने उन कचोरियों को कुछ ज़्यादा ही लुत्फ़ लेकर खाया और मुझसे कहा “भायला कचोरियाँ बोहत शानदार है. अै हमेसां याद रै’सी.”(दोस्त, कचोरियाँ बहुत शानदार हैं, ये ज़िंदगी भर याद रहेंगी.) और सच कहा था उन्होंने. वो उन कचोरियों को कभी नहीं भूले. जसकरण जी ने बाद में प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव की पोस्ट पर ज्वाइन किया. बीकानेर में हम लोग साथ पोस्टेड रहे. जोधपुर में उनसे कई बार मुलाक़ात हुई. वो ए एस डी हो गए उसके बाद भी कई बार मिलना हुआ. रिटायर होने के बाद उनसे उदयपुर में मुलाक़ात हुई जब उनके साहबजादे की पोस्टिंग मीरा गर्ल्स कॉलेज में हुई. मैं ये सब इसलिए बता रहा हूँ कि १९७५ से लेकर १९९७ तक उनसे कितनी ही मुलाकातें हुईं और जितनी भी बार मैं उनसे मिला, एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि वो ये कहना भूले हों “भायला तूं बीं फीचर री रिकॉर्डिंग में लायो जिकी कचोरियाँ बहुत शानदार ही. बियांरो स्वाद हाल म्हारे मुंह में है.”(दोस्त उस फीचर के दौरान तुम जो कचोरियाँ लाये थे, वो बहोत शानदार थीं.उनका स्वाद अभी तक मेरे मुंह में है.). अब तो न जसकरण जी रहे, न महेंद्र भट्ट जी, न मुंशी खां जी, न दयाल पंवार जी, न खुर्शीद जी, न रेड्डी जी और न ही मेरा यार बदरू रहा, एक अरसा गुज़र गया इन सबको ये दुनिया छोड़े हुए, मगर अब भी उस रिकॉर्डिंग की अलग अलग तस्वीरें मेरे जेहन में ज्यों की त्यों महफूज़ हैं.
एमरजेंसी स्टूडियो की उन महदूद सहूलियतों में आखिरकार किसी तरह उस म्यूज़िकल फीचर के गाने रिकॉर्ड हुए.
इसके बाद बारी आई मेरे नैरेशंस की. भट्ट साहब ने खुद सामने बैठकर मुझे रिकॉर्ड किया और रिकॉर्डिंग पूरी होने पर मेरी पीठ ठोकी. आस पास कहीं कुछ जल रहा है, इसका अहसास रिहर्सल के पहले ही दिन से मुझे होने लगा था. भट्ट साहब ने सही कहा था कि चार चार अनाउन्सर्स के स्टाफ में होने के बावजूद नैरेशंस मुझसे करवाने से स्टाफ के कई लोग उनसे नाराज़ हो जायेंगे और मेरे दुश्मन बन जायेंगे. शायद कैक्टस का ये पहला काँटा था, जिसकी चुभन मैंने महसूस की थी.

    

Wednesday, August 3, 2016

बारिश के बहाने, पत्ता पत्ता बूटा बूटा - सोलहवीं कड़ी

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बरसात में सारी धरती बाग़बानी में लग जाती है तब मेरे जैसे शौकिया बागबानों को फ़ुरसत ही फ़ुरसत रहती है। पौधों को पानी देने वाला सारा समय बच जाता है। बारिश की फुहारों से नहाई-धोई पत्तियाँ मुझे भी पुलक-सिहरन से भर देती हैं। बारिश ज़रा देर को थमती है तो मैं बाहर निकल कर अपने पेड़-पौधों को देख आती हूँ। ज़मीन में लोट चुके पौधों को बाँस की खपच्चियों का और इधर-उधर फैल रही बेलों को रस्सी के झूले का सहारा दे आती हूँ। किसी गमले में ढेरों पानी जमा हो रहा हो तो उसे अंदर उठा लाती हूँ। लेकिन उसके बाद क्या करूँ? कैसे काटूँ बोझिल और उदासी भरी शामें, सबकी सब शामें -



ऐसी ही एक भीगी शाम को चुन-चुन कर कुछ नए पुराने नग़मे सुन रही थी कि तभी मेरे हाथ लगा यह अनमोल उपहार - यूनुस ख़ान के स्वर में - प्रकृति के अनुपम चितेरे सुमित्रानंदन पन्त जी की कविता "पर्वत प्रदेश में पावस" 


 

जैसे भूखे व्यक्ति को थोड़ा-सा खाने को मिल जाये तो उसकी भूख और तेज़ हो जाती है, कुछ वैसा ही मेरे साथ भी हुआ। मैं एक के बाद एक कविता पुस्तकें निकालती गयी और पढ़ती गयी। जैसे ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि नरेश मेहता की कविता - "वर्षा भीगा शहर"
साँझ का झुटपुट 
खड़े चुपचाप भीगे गाछ -
राख रंग के दही जैसा मेघ का परिवार 
-अब बरसकर हो गया चुपचाप -
हरी दूबों भरा उस मैदान का विस्तार, 
क्लर्क लड़की के रिबन सी 
क्षीण काया सड़क 
भीगी, मौन -
चढ़ गयी है सामने की टेकरी पर 
देखने सतपुड़ा वन का निर्जनी सूर्यास्त !! 

भीगती शाम का एक और चित्र  मिला पंडित नरेन्द्र शर्मा की पुस्तक में -
वह बरसाती शाम रँगीली, खेतों की सोंधी धरती 
ऊँची-ऊँची घास लहरती, बंजर में गायें चरती। 
बूँदा-बाँदी से दुखियाती खड़े रोंगटे नीला रंग 
पूँछ उठा भर रहीं चौकड़ी सुते छरहरे चंचल अंग। 
एक हुए होंगे जल-जंगल, पर मैं उनसे कितनी दूर 
डोल रहे होंगे पट-बिजना जलता जैसे चूर कपूर। 
मोड़ भरे पीले फूलों से खिल बकावली मेंड़ों पर 
बैठी होगी, जामुन, अंबिया लदीं रौस के पेड़ों पर। 
कौंध रही बिजली रह-रहकर चुँधिया जाती हैं आँखें 
मन मारे मन-पंछी बैठा है समेट भीगी पाँखें। 

मुझे याद आया 1960 का वो ज़माना, जब मेरे नानाजी गोरखपुर में पोस्टेड थे। बँगले के आगे एक बड़ा सा लॉन था और उसके एक सिरे पर जामुन का पेड़ था। उस पेड़ पर बरसात के दिनों में ख़ूब जामुन लगते। जानने वाले कहते थे यह जामुन नहीं "फरेंदा" है। इसके जामुन बहुत मीठे और रसीले होते हैं। शायद इसीलिये बंगले बनते समय वह पेड़ कटने से बच गया था।
मैं उस समय कोई पाँच-छह साल की थी। बेहद नटखट और निडर। घर के अंदर कोई पेड़ हो और मैं उस पर चढ़ूँ नहीं? बंगले के पीछे, जहाँ गायें बँधती थीं, एक इमली का पेड़ था। कच्ची-पक्की इमली पेड़ से टूटकर टिन के शेड पर गिरतीं तो आवाज़ होती - टप्प टप्प। और बस मैं व्याकुल होकर दौड़ पड़ती। लेकिन गायों की देख-भाल करने वाला फुरसत चाचा बहुत भारी चुगलखोर था। मुझे इमली के आस-पास भी फटकते देखता तो फ़ौरन नानी से शिकायत कर देता। और मेरा इमली खाने का सपना - सपना ही रह जाता।
एक दिन मौक़ा मिल गया। वो कहीं गया हुआ था। इमली टपकी और मैं लपकी। मैदान साफ था। मैंने पहले गाय की नाँद पर पैर जमाये और फिर शेड के कोने से लटक गयी। इसके बाद शेड पर कैसे चढ़ूँ, यह हिसाब बैठा ही रही थी कि फुरसत महाराज लौट आये। उन्होंने जो मुझे अधर में लटकते देखा तो बुरी तरह चिल्लाने लगे। देखते-देखते माली-ड्राइवर-चौकीदार-चपरासियों की पूरी फ़ौज जमा हो गयी। घबड़ाहट में मेरे हाथ शेड से फिसले और मैं धड़ाम से गिरी ज़मीन पर। चोट ज़्यादा नहीं लगी, थोड़े से घुटने भर छिले। लेकिन मैंने डाँट के डर से बहुत घायल होने का सफल अभिनय कर डाला। नतीजा यह हुआ कि डाँट तो ज़्यादा नहीं पड़ी लेकिन अगले ही दिन मज़दूरों की गैंग बुलवा कर अहाते के सभी पेड़ों की छँटाई करवा दी गयी। पेड़ इतनी दूर तक बे-शाख़ कर दिये गये कि - "मैं बालक बँहियन को छोटो" किसी बिधि उन पर चढ़ न सकूँ।
तब मैंने एक दूसरा खेल ईजाद किया। ड्राइवर बंसराज को मामा बनाया और उनसे माँग की कि वे साहब को क्लब ले जाने से पहले मुझे और मेरे साथियों को कार की छत पर बैठाकर लॉन का चक्कर लगवायें। बंसराज को लगा इस खेल में कोई ख़तरा नहीं है और इसमें शामिल होने पर उन्हें डाँट नहीं पड़ेगी, सो वे इस "इनोसेंट पासटाइम" के लिए राज़ी हो गये। हमारे पास उन दिनों मर्करी फोर्ड गाड़ी थी, हाथी जैसी विशालकाय। हर शाम जब नानाजी दफ्तर से लौटकर चाय पीते, उतनी देर मैं और मेरे साथी - अनु और अनिल गाड़ी की छत पर बैठकर लॉन की सैर करते। बंसराज गाडी इतनी धीमी चलाते कि हमें हाथी की सवारी जैसा आनंद आता।
एक दिन की बात है, अनिल नहीं आया था, सिर्फ मैं और अनु शाही सैर पर निकले थे। गाड़ी ख़रामा-ख़रामा चलती हुई जामुन के नीचे से निकली। मैं कैरियर के बीच पैर फँसाकर खड़ी हो गयी। कोशिश में थी कि उचककर जामुन तोडूँगी। तभी देखा एक टहनी पर पत्तों का तिकोना दोना सा कुछ लटक रहा है। मैंने अनु को भी दिखाया। वो भी खड़ा हो गया। जैसे ही गाड़ी उसके नीचे से निकली, हमने लपक कर उसे तोड़ लिया।
तोड़ते ही जैसे हमारे हाथ-पैरों में आग-सी लग गयी क्योंकि वह पत्तों का दोना नहीं, लाल चींटों का छत्ता था। हमने उसे तोड़ा तो हज़ारों चींटे निकल कर हमारी बाँहों और टाँगों से चिमट गये। उससे भी दुखद बात यह रही कि हम दोनों दर्द से चिल्लाते रहे और बंसराज मामा समझते रहे कि आज बच्चों को बहुत मज़ा आ रहा है। लॉन में निराई-गुड़ाई कर रहे माली को लगा कि कुछ गड़बड़ है। उसने गाड़ी रुकवायी और हमें उतारा। तब तक हमारे अंदर इतने चींटों के डंक घुस चुके थे कि हम दोनों कई दिनों तक बुख़ार में पड़े रहे। लेकिन इस घटना से न तो मेरे खिलंदड़ेपन पर कोई असर पड़ा और न सीधे पेड़ से तोड़कर फल खाने का मेरा शौक़ कम हुआ।
दिल्ली में ऐसे मौके बहुत कम मिलते हैं कि आप डाल से तोड़कर अमरूद या शरीफ़ा या शहतूत खा सकें। लेकिन यहाँ भी मैंने पेड़ से अभी-अभी तोड़े जामुन खाये हैं। शायद किसी कड़ी में मैंने आपको बताया था कि जब नयी दिल्ली बसायी जा रही थी तभी यह भी तय किया गया था कि किस सड़क पर कौन से पेड़ लगाये जायेंगे। इसी योजना का नतीजा है कि तुग़लक़ रोड पर दोनों ओर बड़े-बड़े जामुन के पेड़ हैं। जामुन फलने के मौसम में इन पेड़ों की नीलामी की जाती है। ठेका लेने वालों का पूरा परिवार इन पेड़ों के नीचे आकर बस जाता है। जैसे-जैसे फल पकते जाते हैं परिवार का कोई सदस्य पेड़ पर चढ़कर डाल हिलाता है और बाक़ी लोग नीले प्लास्टिक की चादर फैलाये फलों को लोकते रहते हैं। सुबह की ड्यूटी पर आकाशवाणी जाते हुए मैंने गाड़ी किनारे रोक, ठीक उस नीली चादर से उठाकर जामुन खाये हैं। भले ही ये जामुन गोरखपुर के फरेंदा जितने मीठे न रहे हों लेकिन उनके साथ लाल चींटों के डंक भी शामिल नहीं थे। 

Tuesday, August 2, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग-३७ (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला )





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१९७४ के जून जुलाई तक एम ए का रिज़ल्ट आ गया था. मैं ५४% मार्क्स के साथ पास हो गया था. अब दौर शुरू हुआ बेकारी का. ये दौर मेरे लिए बहुत बुरा नहीं था, क्योंकि मेरी क्लिनिक मेरे साथ थी, मेरी ट्यूशंस मेरे साथ थी जिनसे मुझे अच्छी खासी कमाई हो रही थी. बल्कि मेरे लिए ये एक ऐसा ब्रेक था, जिसमे मैं इत्मीनान से स्टेज कर सकता था और साथ ही अपने मुस्तकबिल को लेकर तसल्ली से सोच सकता था कि मुझे इस ज़िंदगी में क्या करना है. माँ, पिताजी और भाई साहब की तरफ से भी जल्दी बारोजगार होने का कोई दबाव मुझ पर नहीं था, इसलिए वक्त अच्छा गुजर रहा था. बीच बीच में कुछ  बड़े कॉम्पिटीशन भी दिए, लेकिन बात कुछ बनी नहीं. इसी दौरान मेरा सलेक्शन बिजली बोर्ड में यू डी सी की पोस्ट के लिए हुआ. मैंने एच सी सक्सेना साहब जैसे लोगों के साथ रहकर ड्रामा सीखने को अपना मकसद बनाकर, जयपुर जाने का फैसला किया, जयपुर गया भी, मगर वहाँ के एस ई के खराब बर्ताव की वजह से, फ़ाइल उनके चेहरे पर फ़ेंक कर आ गया. ये वाक़या मैं तफसील से ३३वें एपिसोड में लिख चुका हूँ. इसके बाद श्री गंगानगर में दिए एक इम्तहान की बदौलत, बैंक ऑफ इंडिया में बतौर एक क्लर्क के मेरा सलेक्शन हुआ. आस पास के हर इंसान ने राय दी कि मुझे ज्वाइन कर लेना चाहिए. बैंक की नौकरी मिलती कहाँ है? मैं जब इंटरव्यू देने श्री गंगानगर गया तो रामभंवरी बाई और आसकरण बहनोई जी के घर रुका. बहनोई जी खुद बैंक से रिटायर हुए थे. उनकी भी राय यही थी कि मुझे बैंक ज्वाइन कर लेना चाहिए. मगर मैंने सोचा, क्लर्की चाहे बैंक की हो या बिजली बोर्ड की, क्लर्की तो क्लर्की ही होती है, फिर जब साइंस छोड़कर आर्ट्स में आया था, तो गुरुदेव दलीप सिंह जी ने जो लफ्ज़ कहे थे वो, रह रहकर दिमाग में गर्दिश किया करते थे. उन्होंने कहा था, “मतलब मौज करनी है तुम्हें.... पढाई लिखाई नहीं करनी. ठीक है, जैसा तुम ठीक समझो...... वैसे महेंद्र,एक बात सुन लो, जंग में पीठ दिखाकर जाने वाले लोग मुझे बिलकुल पसंद नहीं हैं. खैर, जाओ आर्ट्स में जाओ........ वहाँ जाकर कुछ नाम करोगे तो अच्छा लगेगा, वरना अगर किसी बैंक में क्लर्की ही करनी है, तो बी ए करने की भी क्या ज़रूरत है? दसवीं पास को भी मिल जाती है क्लर्की तो.” साथ ही मुझे अपने वो लफ्ज़ भी याद आते थे, जो मैंने उनके पाँव छूकर कहे थे “ गुरुदेव, आपसे वादा करता हूँ कि कुछ भी करूँगा, लेकिन बैंक में क्लर्की नहीं करूँगा. आपका आशीर्वाद रहा तो कुछ अलग करूँगा और एक दिन मैं आऊँगा ज़रूर आपके पास, आपको प्रणाम करने.” मैंने बैंक ऑफ इंडिया की उस नौकरी को भी ज्वाइन नहीं किया और कुछ दिन और आज़ाद रहकर कहीं और किस्मत आजमाने का फैसला किया. हाँ इस बीच मैंने तय किया कि क्यों न एक-आध डिग्री और ले ली जाए. साइंस मैथ्स पढ़ चुका था, साइंस बायो पढ़ चुका था और आर्ट्स भी पढ़ चुका था. मैंने सोचा कॉमर्स छूट रही है, क्यों न एम कॉम कर लिया जाए. किताबें इकठ्ठा की गईं और कॉमर्स को समझने की कोशिश करने लगा.
मेरी एम कॉम की पढाई भी ठीकठाक चल रही थी, क्लिनिक भी चल रही थी, ट्यूशंस भी चल रही थीं, नाटक भी चल रहे थे थोड़ा बहुत खेलने भी चला जाता था. मेरे साथ साथ भाभी जी का एम ए भी हो चुका था और भाई साहब को बीकानेर और नौरंगदेसर के बीच दौड भाग कुछ भारी पड़ने लगी थी, भाई साहब भाभी जी को लेकर पूरी तरह नौरंगदेसर शिफ्ट हो गए. जहां घर में पांच फर्द थे, अब घर में सिर्फ हम तीन लोग बच गए. मैं, पिताजी और माँ. जिस आँगन में नई नई ब्याहता भाभी जी की पायल की रुनझुन हर वक्त गूंजा करती थी, वो आँगन अब सूना हो गया था. इस सूनेपन ने मुझपर और पिताजी पर तो ज़्यादा असर नहीं डाला, मगर मेरी माँ जैसे टूट गईं. भाई साहब से उन्हें बहुत लगाव था. अब उनका इस तरह शिफ्ट होना उन्हें अंदर कहीं बहुत खल गया था. उन्होंने भाई साहब के शिफ्ट होने का फैसला सुना और वो एकदम खामोश हो गईं. कोई आता जाता, उनसे बात करने की कोशिश करता, तब भी उनकी खामोशी नहीं टूटती थी. अब उनकी तबियत कुछ ज़्यादा ही खराब रहने लगी. हालांकि नौरंगदेसर बीकानेर से महज़ २५ किलोमीटर दूर था और भाई साहब, भाभी जी अक्सर माँ से मिलने बीकानेर आ जाया करते थे, लेकिन फिर भी माँ दिनोदिन कमज़ोर होने लगीं.
मैंने अब तक के अपने एपिसोड्स में अपने पिताजी, अपने ताऊजी, अपने भाई साहब, सबके बारे में काफी लिखा है लेकिन अपनी माँ के बारे में कुछ ज़्यादा नहीं लिख पाया हूँ. इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं है कि ऐसा कुछ था ही नहीं, जो कि मैं लिखता........!!!
दरअसल मेरी माँ पढ़ी लिखी तो कुछ खास नहीं थीं, क्योंकि उस ज़माने में लड़कियों को पढाने का रिवाज ही नहीं था. जैसा कि मैंने पहले लिखा है कि मेरी बड़ी और छोटी मौसी, दोनों न के बराबर पढ़ी हुई थीं, लेकिन मेरी माँ उनके मुकाबले पढ़ी-लिखी कहलाती थीं, क्योंकि हिन्दी की किताबें वो बड़े आराम से पढ़ लेती थीं और उन्हें शौक़ भी था, अच्छा साहित्य पढ़ने का. उसूलों की बहुत पक्की और बहुत ही किफायतशारी से घर चलाने वाली एक कुशल गृहिणी. मुझे अच्छी तरह याद है, मैं काफी छोटा था. पिताजी घर खर्च के लिए उन्हें सौ रुपये दिया करते थे और वो महीने के आखिर में उन सौ रुपयों में से भी दस-पन्द्रह रुपये बचा लिया करती थीं. कई बार बड़ी बड़ी मुसीबतें आईं, कई बार पिताजी ऊटपटांग जगह ट्रान्सफर हो जाने की वजह से बिना तनख्वाह की लंबी लंबी छुट्टी पर घर बैठे रहे, तब माँ के बचाए इन रुपयों से ही घर का खर्च चला.
न जाने क्यों उस ज़माने में हर माँ अपनी बेटियों को ये सिखाना नहीं भूलती थीं कि पूरे परिवार को अच्छा खिलाओ-पिलाओ. जो बच जाए, वो रूखा सूखा खुद खाओ. उनकी परवरिश भी उनकी माँ ने कुछ इसी अंदाज़ से की थी. चाहे हम लोगों को घर लौटने में कितनी भी देर हो जाती थी, हम सब खा लेते, उसके बाद ही वो खाना खाया करती थीं और उनका खाना भी बहुत साधारण सा हुआ करता था. कोई भी अच्छी चीज़ घर में आती थी, तो वो खुद कभी नहीं खाती थीं, उनकी कोशिश रहती कि हर अच्छी चीज़ पिताजी को और हमें खिलाई जाए. नतीजा ये हुआ कि शुरू से ही उनका जिस्म कमज़ोर रहा. मेरे और भाई साहब के बड़े होने के बाद हम जिद कर करके उन्हें अच्छी खुराक देने की कोशिश करते, लेकिन तब तक उनका हाज़मा इतना कमज़ोर हो गया था कि वो उन चीज़ों को हज़म नहीं कर पाती थीं. कुछ साल से उनके जिस्म पर ज़रा सी भी चोट लग जाती या कोई छोटा सा झटका भी लग जाता, तो वहाँ खून का एक चकत्ता सा बन जाता था. डॉक्टर लोग बताते थे, उनकी नसें इतनी कमज़ोर हो गयी हैं कि ज़रा सा झटका लगने पर भी नसें फट जाती हैं और चमड़ी के नीचे खून जमा हो जाता है.
एक और बात उस ज़माने की बेटियों को सिखाई जाती थी. मैंने अपनी माँ, अपनी ताई जी, अपनी छोटी मौसी जी सबमें ये बात देखी. अपने आपको अपने शौहर के मिज़ाज के मुताबिक कुछ इस तरह ढाल लो कि आपका अलग से कोई वजूद ही न रहे, आपकी अलग से कोई शख्सियत ही ना रहे. मेरी माँ भी एक मज़बूत शख्सियत की औरत थीं. मुझे याद है कि १९५६-५७ में जब हम लोग चूनावढ़ में रहते थे, पिताजी को कई बार सरकारी दौरे पर जाना पड़ता था और घर में हज़ारों रुपयों की सरकारी रकम रखी हुई होती थी, तो माँ बिलकुल बिना डरे एक पिस्तौल लेकर रात रात भर जागकर हमारी और उस रकम की हिफाज़त करती थीं, लेकिन उन्होंने अपनी शख्सियत को पिताजी की शख्सियत के मुताबिक इस तरह बना लिया कि वो खुद अपना वजूद ही भूल गयीं. उनके लिए पिताजी का हर हर्फ़ ही हर्फ़े आखिर था.
१९७४ के ३१ दिसंबर की रात बारह बजे पूरी दुनिया ने रंग बिरंगी आतिशबाज़ी के साथ १९७५ का खैरमकदम किया......हमने सोचा, ये नया साल शायद हमारे लिए भी खुशियों की कोई सौगात लेकर आया होगा, लेकिन अफ़सोस...... १९७५ का ये साल हमारे परिवार के लिए अपने दामन में छुपाकर लाया था, एक ऐसा ज़बर्दस्त शॉक जिससे हम लोग कभी नहीं उबर पाए.
फरवरी का आख़िरी हफ्ता चल रहा था. मैं माँ के पास ही बैठा पढाई कर रहा था,  क्योंकि अगले ही महीने यानि मार्च में मेरे एम कॉम के इम्तहान होने वाले थे कि माँ मुझसे बोली “ महेंदर, दो मिनट के लिए तुम्हारी पढ़ाई खराब कर रही हूँ...”
मैंने कहा “ कोई बात नहीं आप बोलो ना क्या बात है?”
“ज़रा पंचांग देखकर बताओगे कि आज तिथि कौन सी है?”
मैंने कहा “ये तो अखबार से ही पता चल जाएगा. लेकिन आप क्यों पूछ रही हैं?”
वो बोलीं “अष्टमी को मेरी सासू जी यानि तुम्हारी दादी जी की बरसी है. मैं चाहती हूँ कि इस बार उस दिन किसी गरीब औरत को हम लोग खूब अच्छा खाना खिलाएं और साथ में कपडे भी दान करें.”
मैंने कहा “आप ऐसा चाहती हैं तो ज़रूर ऐसा ही होगा, आप बिलकुल फ़िक्र न करें, लेकिन अभी तो काफी दिन है अष्टमी में. आप कहेंगी तो कल परसों मैं कुछ अच्छी साडियां लाकर आपको दिखा दूंगा, आपको जो साड़ी पसंद आये वही आप अपने हाथ से उस गरीब औरत को दे देना.”
वो बोलीं “ठीक है.”
अगले दिन भाई साहब और भाभी जी नौरंगदेसर से आये हुए थे. माँ ने भाई साहब को आवाज़ दी “राजा ओ राजा”
भाई साहब बाहर से भागे हुए आये. माँ ने बताया कि अचानक उनके सर में बहुत जोर से दर्द उठा है. भाई साहब ने उन्हें सरदर्द की दवा तो दे दी, लेकिन उनके ज़ेहन में उनकी नसें फटने की बात को लेकर हमेशा एक डर सा बना रहता था, इसलिए उन्होंने कमरे का दरवाजा पूरा खोलकर कहा “उधर सामने देखिये तो...... क्या सब ठीक दिखाई दे रहा है?”
उन्होंने धीरे से अपना सर उठाया और बोलीं “हाँ दिखाई तो..... ठीक ..... ही दे रहा है...... लेकिन सुनो राजा..... मुझे सब कुछ ....... थोड़ा लाल लाल सा दिखाई दे रहा है.”
मुझे भाई साहब के चेहरे पर घबराहट साफ़ नज़र आई. मैं भी इतने साल से प्रैक्टिस कर रहा था. मुझे भी समझ आ गया कि वो क्या सोच रहे हैं? उन्होंने माँ को कहा “आप आँखें बंद करके सोने की कोशिश करो.”
मुझे बोले “तुम यहीं इनके पास बैठो, मैं डॉक्टर सक्सेना के पास जाकर आ रहा हूँ.” और वो बाहर की तरफ भागे.
मैं माँ के पास बैठकर उनका सर दबाने लगा. दस ही मिनट में भाई साहब और डॉक्टर एच सी सक्सेना दौड़े हुए आये. डॉक्टर सक्सेना ने माँ की कुछ और जांच की और भाई साहब से कहा “राजेन्द्र इन्हें जल्दी से हॉस्पिटल में एडमिट करवाओ.”
फ़ौरन एम्बुलेंस बुलाकर उन्हें हॉस्पिटल ले जाया गया और वहाँ एडमिट कर लिया गया. हमारे पीछे पीछे ही डॉक्टर एच सी सक्सेना भी हॉस्पिटल आ गए थे और थोड़ी ही देर में डॉक्टर सक्सेना, डॉक्टर मिश्रा, डॉक्टर के कुमार डॉक्टर के डी गुप्ता, जितने भी बड़े बड़े सीनियर फिजीशियन थे, सभी इकट्ठे हो गए और उनके इलाज के बारे में सलाह मशविरा करने लगे.
जैसा कि भाई साहब को डर था, माँ के दिमाग की कोई नस फट गयी थी. मेडिकल साइंस उस ज़माने में आज के मुकाबले बहुत पिछड़ी हुई थी. दिमाग की सर्जरी करने की बात छोटे मोटे हॉस्पिटल में सोची भी नहीं जा सकती थी और बीकानेर के सभी डॉक्टर्स की राय थी कि दिल्ली या जयपुर तक का सफर करने की ताक़त माँ के जिस्म में नहीं थी. सिर्फ एक ही इलाज था. एक दवा को हाथ या पैर की नस के ज़रिये दिमाग तक पहुंचाया जाए. वो दवा दिमाग में जम चुके खून को धीरे धीरे वहाँ से हटा सकती थी. बीकानेर के बाज़ार या हॉस्पिटल में वो दवा भी नहीं मिल रही थी, लेकिन सारे बड़े बड़े डॉक्टर माँ का इलाज कर रहे थे इसलिए मेडिकल स्टोर वालों ने बाहर से वो दवा मंगाकर हॉस्पिटल को फराहम करवाई. उनके सर में हर वक्त बहुत शदीद दर्द रह रहा था, इस क़दर कि उन्हें नींद के इंजेक्शन देकर सुलाये रखना पड रहा था. बीच बीच में वो नींद से जागती थीं. शदीद सरदर्द के बावजूद अपने चारों तरफ नज़र दौडाती थीं. मैं, पिताजी और बाई..... हम लोग तो उनके पास से हटते ही नहीं थे. भाई साहब कभी डॉक्टरों के चक्कर लगाते, कभी उनके पास आकर बैठते. भाभी जी घर पर रहकर सारे इन्तेज़ामात देख रही थीं कि कब किसके लिए खाना घर पर बनना है, किसके लिए खाना हॉस्पिटल जाना है और माँ के लिए क्या क्या हॉस्पिटल जाना है.........बीच बीच में जब भी मौक़ा मिलता वो माँ को देखने हॉस्पिटल की ओर दौड भी लगातीं. जब भी माँ की नींद टूटती, वो हमें दिलासा देतीं, इशारे से बतातीं “मैं ठीक हूँ, फ़िक्र मत करो आप लोग.” लेकिन जब भी उनकी नींद टूटती वो एक ही सवाल करतीं “अष्टमी कब है?”
एक दिन मैं और पिताजी उनके पास बैठे हुए थे. बाई नहाने धोने गयी हुई थीं. उनकी नींद टूटी. पिताजी ने पूछा “जी कैसा है?”
उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा “ ठीक ही है. अष्टमी कब है?”
पिताजी ने कहा “तुम अपनी तबियत की फ़िक्र करो, अष्टमी वष्टमी को भूल जाओ.”
वो हलके से मुस्कुराईं. शायद हॉस्पीटल में एडमिट होने के बाद पहली बार मुस्कुराई होंगी. फिर बोलीं “नहीं जी, मैं अष्टमी को नहीं भूल सकती. अगर मुझे नींद आयी हुई रहे उस दिन, तो आप लोग याद रखना. आपकी माँ सा की बरसी है उस दिन. किसी गरीब औरत को अच्छा खाना खिलाना और अच्छे कपडे दान देना.”
पिताजी ने उनसे छुपाकर अपनी आँखें पोंछी और बोले “क्यों चिंता करती हो तुम? जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा. महेंदर ने एक बहुत अच्छी साड़ी लाकर घर पर रख दी है. चाहो तो कल तुम्हें यहाँ लाकर दिखा दें.”
उन्होंने गर्दन को ज़रा सा हिलाते हुए कहा “ नहीं, मुझे क्या देखना है?.....ले आया है महेंदर तो अच्छी ही होगी ”
उनके सर का दर्द फिर तेज होने लगा था. नर्स ने आकर उन्हें फिर से नींद का इंजेक्शन लगाया और कहा “माता जी, सोने की कोशिश करो अब आप.”
उन्होंने बच्चे की तरह नर्स की बात मानते हुए आँखें मूँद ली.
दिन जाने कैसे गुज़र रहे थे. बाई रात में उनके पास रहती थीं और भाई साहब खुद डॉक्टर थे, इसलिए ड्यूटी डॉक्टर के पास सोने की सहूलियत उन्हें मिल जाती थी. मैं बाहर बरामदे में लेटता था. पिताजी को हम लोग रात में घर भेज दिया करते थे.
एक बात का ज़िक्र मैंने शुरू के एपिसोड्स में किया था कि पिताजी माँ दुर्गा के ज़बर्दस्त भक्त थे. दोनों वक्त घंटों पूजा किया करते थे. साल में दो बार जो नवरात्रि आती है, वो उन दोनों नवरात्रियों में पूरे नौ दिन व्रत किया करते थे.
इन दिनों जब माँ हॉस्पिटल में थीं, हम हालांकि पिताजी को इसलिए घर छोड़कर आते थे कि उनकी भी काफी उम्र हो गयी है, उन्हें आराम करना चाहिए, लेकिन वो घर पहुंचकर नहा धोकर रात रात भर देवी की पूजा किया करते थे और सुबह जब हम उन्हें हॉस्पिटल लेकर आते थे, तो उनके चेहरे पर एक अजीब सा सुकून और इत्मीनान रहता था. वो कहते थे “तुम लोग फ़िक्र मत करो, तुम्हारी माँ जल्दी ही ठीक हो जायेगी. मुझे कल रात को ही दुर्गा का दृष्टांत हुआ है. उन्होंने कहा कि फ़िक्र करने की कोई बात नहीं है. वो ठीक हो जायेगीं.”
उनकी बातों से दिल को थोड़ा सुकून सा मिलता था, लेकिन जब किसी टेस्ट की रिपोर्ट आती तो पता लगता, माँ की हालत और बिगड रही है. मैं और भाई साहब सबसे ज़्यादा परेशान होते क्योंकि पिताजी को अपनी दुर्गा माँ पर पूरा भरोसा था और बाई को दुर्गा माँ पर भी भरोसा था और पिताजी की बातों पर भी.
इसी बीच डॉक्टर्स ने बताया कि माँ के खून में प्लेटलेट्स तेज़ी से कम हो रही हैं. उन्हें खून चढ़ाना होगा. मैंने, भाई साहब ने और मेरे छोटे मामाजी ने एक एक यूनिट खून दिया. जैसे ही वो खून उनके जिस्म में पहुंचा, हमें लगा कि एकदम से उनकी हालत बेहतर होने लगी है. उनका सरदर्द भी कम हो गया और वो बहुत देर तक बिना नींद के इंजेक्शन के रहकर अच्छी तरह बातें भी करने लगीं. हमें लगा कि अब वो बीमारी से उबर रही हैं लेकिन दो तीन दिन के बाद उनकी हालत फिर गिरने लगी.   
बीकानेर में उन दिनों सिवाय सरकारी हस्पताल के कोई और हस्पताल भी नहीं था, जहां हम किसी बेहतर डॉक्टर के पास जा सकें. शहर के तमाम बड़े डॉक्टर सरकारी हस्पताल में ही थे और वो सभी मिलकर माँ का इलाज कर ही रहे थे. उनकी हालत एक दिन थोड़ी बेहतर होती तो दूसरे दिन बिगड जाती. हम लोगों ने कह्सूस किया था कि खून चढाने के बाद एक बार उनकी हालत सुधरी थी और आस पास खून देने लायक बहुत लोग थे, इसलिए डॉक्टर्स से बात की गयी कि क्यों न उन्हें दो तीन यूनिट खून चढ़ा दिया जाए. लेकिन डॉक्टर्स ने बताया कि  दिमाग में जो खून जम गया था, उसकी वजह से दिमाग में सूजन आने लगी है, अब खून चढ़ाना मुमकिन नहीं है. उनकी हालत धीरे धीरे गिरने लगी. अब उनकी नींद बहुत कम टूटने लगी थी. नींद टूटती थी तब भी वो उतने होश में नहीं रहती थीं, जितनी कि पहले रहती थीं फिर भी हर बार नींद टूटने पर एक सवाल करना वो कभी नहीं भूलती थीं “अष्टमी कब है?”
हम लोग रोज सोचते थे कि ये कुछ और बात करें, लेकिन वो सिवाय इस सवाल के कोई बात ही नहीं करती थीं.
एक दिन मैंने बताया “चार दिन में है अष्टमी..... और कपडे लाकर रखे हुए हैं.”
फिर अगले दिन वही सवाल.........
फिर अगले दिन और टूटे टूटे स्वर में वही सवाल......
अगले दिन दोपहर बाद उनकी नींद टूटी. मैं उनके पलंग पर ही बैठा हुआ था. भाई साहब, बाई पास में खड़े हुए थे और पिताजी कुर्सी पर बैठे हुए थे. उन्होंने चारों तरफ एक निगाह डाली और पिताजी की तरफ देखते हुए होठों ही होठों में बोलीं.... अष्टमी...... और आँखें ऊपर की ओर घुमाई, मानो पूछ रही हों... “कब है?”
पिताजी ने जवाब दिया “कल है अष्टमी.”
उन्होंने होठों ही होठों में जैसे कहा “तब ठीक है.”
उस शाम वो काफी देर जागती रहीं. डॉक्टर्स आये. डॉक्टर सक्सेना का हमारे घर में काफी आना जाना था, उस शाम आये तो बोले “कैसी हैं माता जी?”
माँ ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए अपनी अंगुली आसमान की तरफ कर दी. मानो कह रही हैं, ईश्वर सब ठीक करेगा. डॉक्टर सक्सेना बोले “आज तो काफी ठीक लग रही हैं आप.”
माँ ने धीरे धीरे डॉक्टर सक्सेना को हाथ जोड़ दिए. डॉक्टर सक्सेना ने माँ के जोड़े हुए हाथों को अपने हाथ में लेकर कहा “ये क्या कर रही हैं माताजी, मैं तो राजेन्द्र की तरह आपका बेटा हूँ.”
माँ की बहुत धीमी सी आवाज़ सुनाई दी “डॉक्टर तो भगवान का रूप होते हैं ना?”
डॉक्टर लोग जांच करके चले गए.
थोड़ी देर में उन्हें बाई ने मुसम्मी का रस दिया और नर्स ने आकर इंजेक्शन दिए और वो सो गईं. उस रात वो बहुत गहरी नींद सोईं. मैं बाहर बरामदे में सो रहा था. भाई साहब ड्यूटी रूम में और बाई हमेशा की तरह उनके पास कुर्सी लगाकर बैठी थीं.
सुबह हुई. हर आम दिन जैसी ही सुबह थी वो. माँ अभी तक सो रही थीं. बाई और भाई साहब नहाने धोने घर चले गए थे. सुभाष पिताजी को लेकर आया, थोड़ी देर वहाँ रुका और चला गया. अब कमरे में हम तीन लोग थे. मैं माँ और पिताजी...... बिलकुल उसी तरह जैसे भाई साहब, भाभी जी के नौरंगदेसर शिफ्ट होने के बाद घर में हम तीन लोग बच गए थे. बस फर्क यही था कि घर में माँ बिस्तर पर लेटे लेटे भी सबको बताती रहती थीं कि किसको क्या कैसे करना है और यहाँ वो बिलकुल बेहोश लेटी हुई थीं. पिताजी अपनी दुर्गा माँ को याद कर रहे थे और मैं मुसलसल माँ के चेहरे पर आने वाले तास्सुरात को निहारे चला जा रहा था. तभी वो थोड़ा सा हिलीं. उनके चेहरे पर एक दर्द सा उभरा. मुझे लगा, उन्हें कुछ तकलीफ हो रही है. सामने ही दो नर्सें नज़र आईं. मैंने आवाज़ दी..... “सिस्टर ...........” सिस्टर भागी हुई आई. तभी देखा, माँ की आँखें खुली हुई हैं. उन्होंने पिताजी की ओर गर्दन घुमाने की कोशिश की लेकिन शायद उनके जिस्म में इतनी ताकत नहीं बची थी, उन्होंने वापस आँखें बंद कर लीं. पिताजी आखें बंद किये हुए थे. मैंने उन्हें आवाज़ लगाई तो वो हडबडाकर पलंग के पास आ गए. तभी फिर माँ की आँखें खुलीं..... उन्होंने पिताजी की तरफ देखा...फिर जैसे उन्हें किसी बात की जल्दी हो, पिताजी पर से हटकर फ़ौरन उनकी निगाहें मेरी तरफ आ गईं ..... उनका हाथ उठा, उन्होंने मेरे सर पर अपना हाथ रखा....... मैंने उनके हाथ पर  को अपने हाथ से पकड़ लिया. कोई दस सेकंड तक उनका हाथ मेरे सर पर और मेरा हाथ उनके हाथ पर रहा.... अचानक जैसे उनका हाथ ढीला पड गया और आँखें बंद हो गईं. मैं और पिताजी दोनों घबरा गए. नर्स ने नब्ज़ देखी और कहा “ हंस उड़ गया साहब.”
अब पता लगा कि वो उस अष्टमी के बारे में क्यों बार बार पूछ रही थीं. उन्हें भी अष्टमी को ही जाना था.
मैं इन सब बातों में बहुत यकीन नहीं रखता, लेकिन आप सोचिये कि १९६५ में जिस अष्टमी को मेरी दादी जी इस दुनिया से गईं, उसके ठीक दस साल बाद यानि १९७५ में उसी अष्टमी को मेरी माँ गईं. यही नहीं, ये ५ का डिजिट हमारे परिवार के लिए अकाल है, ये मुझे मेरे भाई साहब ने उस वक्त कहा था, जब २०१५ शुरू हुआ था. मैं २९ जनवरी २०१५ को इलाहाबाद में अपनी एक पुरानी दोस्त देविका की बेटी प्रिया की शादी में जाकर मुम्बई लौटा था कि भाई साहब का फोन आया, तबियत खराब है. प्रोस्टेट की कुछ दिक्कत लग रही है.मैंने उनसे कहा “मैं कल सुबह की फ्लाइट से जयपुर पहुँच रहा हूँ, आप भी संजीव जी के साथ जयपुर आ जाइए.” मैं अगले ही दिन सुबह जयपुर पहुँच गया. थोड़ी देर बाद वो भी संजीव जी के साथ ट्रेन से आ गए. उनके पहुँचते ही उन्हें अपेक्स हॉस्पिटल में भर्ती करवाया. अपेक्स हॉस्पिटल के मालिक डॉक्टर एस बी झंवर मेरे और भाई साहब दोनों के दोस्त हैं. चार पांच दिन तक सारे टेस्ट्स हुए. उसके बाद उनके बेटे डॉक्टर शैलेश ने बताया कि कोई खास बात नहीं है. सारे चेक अप हो गए हैं, आप इन्हें ले जा सकते हैं, तो मैंने भाई साहब से पूछा, आप इतना परेशान क्यों हो गए तो वो बोले “देख महेंदर......हो सकता है कि अभी मैं ठीक हूँ लेकिन ज़रा इतिहास की तरफ निगाह डाल. १९६५ में हमारी दादीजी गईं, १९७५ में माँ गईं, १९९५ में पिताजी गए. अब आ गया है २०१५, यानि तू मान या ना मान....... अब मेरी बारी है और वो बिलकुल सही निकले.
माँ के जाने के बाद पूरा परिवार मानो बिखर गया. हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि माँ के बिना जिया कैसे जाएगा? पिताजी बिलकुल बदल गए थे. जो पिताजी रात और दिन माँ दुर्गा की पूजा किया करते थे, उन्होंने पूजा पाठ सबको तिलांजलि दे दी. अब उनकी ज़िंदगी में न कोई पूजा थी और न कोई व्रत-उपवास. तब से लेकर अपनी अंतिम सांस तक उन्होंने कभी भगवान का नाम भी नहीं लिया. उनके इस अमल का मेरे ज़ेहन पर ये असर हुआ कि उनके साथ ही मैं भी नास्तिकता की ओर बढ़ने लगा. मैंने भी पूजा पाठ छोड़ दिए. मैंने भी व्रत उपवास बंद कर दिए. यहाँ तक कि मैंने किसी मंदिर की ओर मुंह करना भी बंद कर दिया.
हालांकि मेरे जिगरी दोस्त डॉक्टर मंगत बादल अक्सर कहते हैं “भाई साहब आप चाहे अपने आप को कितना भी नास्तिक कहें, दरअसल आप नास्तिक नहीं हैं. मेरा मानना तो ये है कि आप भगवान से रूठे हुए हैं.” हो सकता है उनकी बात सही हो, लेकिन मैं अपने आप को नास्तिक ही मानता हूँ और शायद अंतिम सांस तक किसी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं कर पाऊंगा.

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