रेडियो की दुनिया में महेंद्र मोदी का नाम किसी के लिए अनजान नहीं है। हिंदी रेडियो नाटकों में उन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हमारे लंबे इसरार के बाद आखिरकार मोदी जी रेडियोनामा के लिए अपने संस्मरणों की श्रृंखला शुरू की थी। और आपने इसके ग्यारह भाग पढ़े भी थे। राजस्थान के बीकानेर से विविध-भारती मुंबई तक की इस लंबी यात्रा में रेडियो के अनगिनत दिलचस्प किस्से इस सीरीज़ में पिरोये गये थे। फिर हालात कुछ ऐसे बने की इस श्रृंखला को विराम देना पड़ गया। अब वे पुन: हाजिर हैं। तो हर शनिवार हम इस श्रृंखला की नयी कड़ी लेकर हाजिर होंगे। आज बारहवीं कड़ी।
लंबी सांस भरते हुए उन्होंने कहा था “ हाँ............ वो तो कैंसर नहीं था लेकिन मेरे पेट में आजकल बहुत जोर का दर्द उठता है......... मुझे लगता है ये इन्टेस्टाइन का कैंसर है “
मैं उनके मुंह से फिर कैंसर का नाम सुनकर काँप गया. एक तरफ मन कह रहा था कि उन्हें शायद फिर से वहम हो रहा है लेकिन दूसरी तरफ लग रहा था कि डॉक्टर वो भी इतना अनुभवी सर्जन, उन्हें वहम क्या होगा ? कहीं ना कहीं कुछ तो गडबड है.
वो फिर बोले “ महेंदर कुछ कर........ इस बार ये कैंसर ही है “
मेरा दिल बैठ रहा था लेकिन मैंने उन्हें ढाढस दिलाते हुए कहा “ आप चिंता मत कीजिये मैं कल आ रहा हूँ बीकानेर, फिर सोचते हैं कि क्या करना चाहिए.”
कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन - भाग १२
जुलाई २०१२ में इस श्रृंखला की ११ वीं कड़ी प्रकाशित हुई थी परन्तु उसके बाद परिस्थितिया ऐसी बनी कि मुझे ना केवल अपने लेखन को विराम देना पड़ा बल्कि होनी ने मेरी ज़िदगी के पांवों में बेडियाँ डालकर उसे बेतरह जकड दिया. मैं बहुत
छटपटाया मगर ना तो ज़िंदगी इतनी रहमदिल होती है और ना ही उसकी राहें इतनी हमवार कि इंसान बस हंसता मुस्कुराता उस पर चलता चला जाए.
छटपटाया मगर ना तो ज़िंदगी इतनी रहमदिल होती है और ना ही उसकी राहें इतनी हमवार कि इंसान बस हंसता मुस्कुराता उस पर चलता चला जाए.
मैंने पिछली कुछ कड़ियों में ज़िक्र किया था कि जब भी बचपन में मैं और मेरे बड़े भाई खेला करते थे तो अक्सर मैं बड़े भाई की भूमिका में रहता और वो छोटे भाई की भूमिका में. ना जाने ये खेल कब हम दोनों की ज़िंदगी में कुछ इस तरह शामिल हो गया कि पूरी तरह से आत्मनिर्भर होते हुए भी कुछ बातों में खेल ही की तरह भाई साहब मुझे बड़े भाई के आसन पर बिठा दिया करते थे.......... और मैं पहले तो मुंह बाए उनकी तरफ देखता रह जाता लेकिन फिर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में जुट जाता.२००८ में मैं विविध भारती की गोल्डन जुबली के कामों में पूरी तरह खोया हुआ था कि भाई साहब का फोन आया.
“महेंदर”
“जी”
“ यार मैंने तुमसे कहा था ना एक बार कि मेरे प्रोस्टेट में कुछ प्रॉब्लम है, मुझे वो प्रोस्टेट कैंसर लग रहा था”
“ हाँ डा साहब लेकिन हम लोगों ने सारी जांचें करवाई थीं और वो कैंसर नहीं था”
लंबी सांस भरते हुए उन्होंने कहा था “ हाँ............ वो तो कैंसर नहीं था लेकिन मेरे पेट में आजकल बहुत जोर का दर्द उठता है......... मुझे लगता है ये इन्टेस्टाइन का कैंसर है “
मैं उनके मुंह से फिर कैंसर का नाम सुनकर काँप गया. एक तरफ मन कह रहा था कि उन्हें शायद फिर से वहम हो रहा है लेकिन दूसरी तरफ लग रहा था कि डॉक्टर वो भी इतना अनुभवी सर्जन, उन्हें वहम क्या होगा ? कहीं ना कहीं कुछ तो गडबड है.
वो फिर बोले “ महेंदर कुछ कर........ इस बार ये कैंसर ही है “
मेरा दिल बैठ रहा था लेकिन मैंने उन्हें ढाढस दिलाते हुए कहा “ आप चिंता मत कीजिये मैं कल आ रहा हूँ बीकानेर, फिर सोचते हैं कि क्या करना चाहिए.”
विविध भारती के गोल्डन जुबली कार्यक्रमों को अपने साथियों, कांचन जी, जोशी जी, कमलेश जी,कल्पना जी, यूनुस खान को सुपुर्द किया और उसी शाम जयपुर की फ्लाईट पकड़ी और दूसरे ही दिन बीकानेर जा पहुंचा. भाभी जी, बाई, मिनी सबके सब परेशान थे. हालांकि मन ही मन मैं खुद भी बहुत डरा हुआ था लेकिन अपने डर को काबू करते हुए मैंने भाई साहब को कहा “ हम दिल्ली चलते हैं, मैंने नेट पर देखा है वहाँ के फोर्टिस हस्पताल में एक बहुत अच्छे डॉक्टर हैं पेट के रोगों के.” भाई साहब बोले “ मुझे पता नहीं, जैसा तुझे ठीक लगे कर.”
हम निकल पड़े दिल्ली के लिए. रास्ते में भी भाई साहब बहुत बुझे बुझे रहे. एकाध बार बात हुई तो मैंने उनसे पूछा, आपको ऐसा क्यों लग रहा है कि ये कैंसर है ? वो बोले “ तू आ गया है तो लगता है सब ठीक हो जायेगा लेकिन महेंदर पता नहीं क्यों, मुझे हमेशा लगता है कि कैंसर कहीं ना कहीं मेरे शरीर में पल रहा है.”
मैंने उन्हें फिर दिलासा दिया कि कई बार हमारे दिल में ऐसा वहम बैठ जाता है जिसका दरअसल कोई वजूद नहीं होता और नींद की गोली देकर सुला दिया. दूसरे दिन दिल्ली पहुंचकर हम लोग फोर्टिस पहुंचे. रजिस्ट्रेशन के बाद से लेकर डॉक्टर के कॉल करने तक का दो घंटे का वक्त हम दोनों के लिए बहुत तकलीफदेह था. मैं कोशिश कर रहा था कि भाई साहब को बातों में लगाकर उनके तनाव को कुछ कम करू लेकिन वो सिवाय हाँ हूँ के कुछ नहीं बोल रहे थे. और इससे मेरा तनाव बढ़ता जा रहा था. मेरे दिमाग में भाई साहब का एक ही वाक्य बार बार घूम रहा था “ महेंदर पता नहीं क्यों मुझे हमेशा लगता है कि कैंसर कहीं ना कहीं मेरे शरीर में पल रहा है.” मुझे याद आया, भाई साहब ने एक बार कहा था, आजकल डॉक्टर मानने लगे हैं कि कैंसर भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलने वाली बीमारी है और हमारे पिताजी की मृत्यु से चार दिन पहले पता चला कि उन्हें कैंसर था जबकि कैंसर की सेकेंड्रीज मुंह में नज़र आने लगी थी. डाक्टर्स ने कह दिया था कि प्राइमरी कैंसर कहाँ है अब पता लगाने से कोई मतलब नहीं निकलेगा बस तरह तरह के टेस्ट करके हम इन्हें तकलीफ ही देंगे........ इसलिए टेस्ट नहीं करवाए गए और उन्हें कहाँ का कैंसर था पता नहीं चल पाया. मुझे लगा भाई साहब को इसीलिये लग रहा है शायद कि उन्हें कैंसर है....... मैं इन्हीं विचारों में गुम था कि डॉक्टर के चपरासी ने नाम पुकारा “ डॉक्टर राजेन्द्र मोदी.......” हम दोनों डॉक्टर के चैम्बर की ओर चल पड़े.
डॉक्टर ने अच्छी तरह उनकी जांच की......... बहुत देर तक बातचीत की, कुछ टेस्ट करवाए. हम सांस रोके डॉक्टर के चेहरे को इस तरह देख रहे थे मानो सेशन्स कोर्ट में खड़े हों और हम दोनों का फैसला सुनाया जाना हो, सज़ा-ए-मौत या फिर बरी. तभी डॉक्टर ने मुंह खोला “ देखिये डॉक्टर साहब, वैसे तो टेस्ट्स की रिपोर्ट आ जाएँ तभी पक्का होगा लेकिन अपने २० साल के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि आपकी आँतों में वेर्बेटीकुलम बन गए हैं जिनमें खाना फँस जाता है तो आपके पेट में दर्द होता है........ आपको आँतों का कैंसर बिलकुल नहीं है. हम दोनों भाइयों ने एक दूसरे की तरफ देखा और एक साथ एक लंबी सांस भरी. हम लोग डॉक्टर को धन्यवाद देकर चैंबर से बाहर आ गए और शाम को टेस्ट्स की रिपोर्ट भी यही कह रही थी कि भाई साहब को कैंसर नहीं है. उसी वक्त फोन कर बीकानेर और मुम्बई में सबको बताया कि कोइ चिंता की बात नहीं है और हमने बीकानेर के लिए ट्रेन पकड़ ली. मैंने देखा भाई साहब के चेहरे पर के चिंता के बादल थोड़े हलके तो हुए थे लेकिन बिलकुल साफ़ नहीं हुए थे. ट्रेन में बैठे बैठे मैंने उनसे पूछा “ क्या बात है डाक साहब ( उनके मेडिकल कॉलेज में दाखिले के बाद से ही मैं उन्हें इसी संबोधन से बुलाने लग गया था ), आप डॉक्टर की बातों से आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं तो हम मुम्बई चलकर किसी और डॉक्टर से सेकिण्ड ओपीनियन ले लेते हैं.” वो लंबी सांस खींच कर बोले “ नहीं महेंदर ऐसी बात नहीं है, डॉक्टर ने जो कुछ कहा मुझे उस पर पूरा विश्वास है लेकिन फिर वही बात दोहराऊंगा....... मुझे लग रहा है कहीं ना कहीं मेरे शरीर में कैंसर पल रहा है.” मैंने कहा “ चलिए किसी ओंकोलोजिस्ट से सलाह कर लेते हैं........” बीकानेर लौटकर उनके साथी डॉक्टर्स से सलाह मशविरा किया गया, उनमे ओंकोलौजिस्ट भी शामिल थे. जो भी जांचें संभव थीं करने के बाद सबने एकमत से कहा कि उनके दिमाग में वहम बैठ गया है. कैंसर उनके जिस्म में कहीं भी नहीं है.
डॉक्टर ने अच्छी तरह उनकी जांच की......... बहुत देर तक बातचीत की, कुछ टेस्ट करवाए. हम सांस रोके डॉक्टर के चेहरे को इस तरह देख रहे थे मानो सेशन्स कोर्ट में खड़े हों और हम दोनों का फैसला सुनाया जाना हो, सज़ा-ए-मौत या फिर बरी. तभी डॉक्टर ने मुंह खोला “ देखिये डॉक्टर साहब, वैसे तो टेस्ट्स की रिपोर्ट आ जाएँ तभी पक्का होगा लेकिन अपने २० साल के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि आपकी आँतों में वेर्बेटीकुलम बन गए हैं जिनमें खाना फँस जाता है तो आपके पेट में दर्द होता है........ आपको आँतों का कैंसर बिलकुल नहीं है. हम दोनों भाइयों ने एक दूसरे की तरफ देखा और एक साथ एक लंबी सांस भरी. हम लोग डॉक्टर को धन्यवाद देकर चैंबर से बाहर आ गए और शाम को टेस्ट्स की रिपोर्ट भी यही कह रही थी कि भाई साहब को कैंसर नहीं है. उसी वक्त फोन कर बीकानेर और मुम्बई में सबको बताया कि कोइ चिंता की बात नहीं है और हमने बीकानेर के लिए ट्रेन पकड़ ली. मैंने देखा भाई साहब के चेहरे पर के चिंता के बादल थोड़े हलके तो हुए थे लेकिन बिलकुल साफ़ नहीं हुए थे. ट्रेन में बैठे बैठे मैंने उनसे पूछा “ क्या बात है डाक साहब ( उनके मेडिकल कॉलेज में दाखिले के बाद से ही मैं उन्हें इसी संबोधन से बुलाने लग गया था ), आप डॉक्टर की बातों से आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं तो हम मुम्बई चलकर किसी और डॉक्टर से सेकिण्ड ओपीनियन ले लेते हैं.” वो लंबी सांस खींच कर बोले “ नहीं महेंदर ऐसी बात नहीं है, डॉक्टर ने जो कुछ कहा मुझे उस पर पूरा विश्वास है लेकिन फिर वही बात दोहराऊंगा....... मुझे लग रहा है कहीं ना कहीं मेरे शरीर में कैंसर पल रहा है.” मैंने कहा “ चलिए किसी ओंकोलोजिस्ट से सलाह कर लेते हैं........” बीकानेर लौटकर उनके साथी डॉक्टर्स से सलाह मशविरा किया गया, उनमे ओंकोलौजिस्ट भी शामिल थे. जो भी जांचें संभव थीं करने के बाद सबने एकमत से कहा कि उनके दिमाग में वहम बैठ गया है. कैंसर उनके जिस्म में कहीं भी नहीं है.
मैं मुम्बई लौट आया, अपने काम में व्यस्त हो गया, भाई साहब भी बीमारों के इलाज में लग गए. वक्त गुज़रता गया इस बीच भाभी जी ज़्यादा बीमार हो गईं तो हम सबका ध्यान उनकी बीमारी पर केंद्रित हो गया. भाभी जी की दो बार स्पाइनल सर्जरी हुई, मेरी पोस्टिंग कुछ महीनों के लिए दिल्ली हुई, फिर मैं वापस मुम्बई आया और २०११ में किन हालात में रिटायर हुआ ये आगे जाकर लिखूंगा, अभी बस यही समझ लीजिए कि वक्त अपनी रफ़्तार से चलता हुआ अगस्त २०१२ तक आ पहुंचा. भाई साहब पूरे शरीर में और खास तौर पर सीने में और पीठ में दर्द की शिकायत करने लगे. उनके दोस्त डॉक्टर शिव गोपाल सोनी, डॉक्टर अनूप बोथरा, डॉक्टर मुकेश आर्य वगैरह सबने जांच की, सबकी राय थी कि मांस पेशियों का दर्द है कोई खास बात नहीं है. अब भाई साहब से मैं रोजाना शाम में फोन पर एक बार बात करने लगा था. मेरा बेटा वैभव इस वक्त तक कई जॉब्स बदलते बदलते स्टार प्लस के वाइस प्रेसिडेंट के पद पर आ गया था. उसने बताया कि थोड़ा रिलेक्स होने के लिए वो अपनी पत्नी तबस्सुम और बेटे टाइगर के साथ १५-२० दिन के लिए इंग्लेंड जा रहा है. हमने उसे विदा किया और ४-५ दिन बाद ही भाई साहब ने मुझे फोन पर बताया कि उनका दर्द बढ़ रहा है. उन्होंने कहा “ महेंदर कई दवाओं के बावजूद ये दर्द कंट्रोल नहीं हो रहा है और मेरा वज़न भी कम हो रहा है, मैंने यहाँ के डॉक्टर्स को कहा लेकिन कोइ मेरी बात मान नहीं रहा है, सब कह रहे हैं तुझे वहम की बीमारी है और मैं चुपचाप उनकी बात सुन रहा हूँ........लेकिन मैं तुझे सच कह रहा हूँ........... मुझे लग रहा है मुझे मल्टिपल मायलोमा( एक तरह का कैंसर जिसमे हड्डियां, खून और मज्जा तीनो प्रभावित होते हैं ) है...........” मैं उनकी बात सुनकर सन्न रह गया. इतने अनुभवी सर्जन की बात कोइ डॉक्टर इसलिए नहीं सुन रहा था कि इससे पहले दो बार उनकी बात गलत निकली थी और वो सभी डॉक्टर जो हालांकि पेशे से डॉक्टर थे मगर थे तो आखिर इंसान ही. वो भाई साहब के सहपाठी और दोस्त थे इसलिए मन से नहीं चाहते थे कि उन्हें ये रोग हो.......... इसीलिये शायद इसे झुठला रहे थे. मेरा मन बहुत घबराने लगा और मुझे लगा मैं अभी जोर से रो पडूंगा. मैंने तुरंत फोन काट दिया और तेज तेज सांस लेकर अपने आंसुओं को काबू में किया......... फिर से फोन मिलाया और कहा “ आप चिंता मत कीजिये मैं कल शाम तक बीकानेर पहुँच रहा हूँ. आजकल कैंसर का भी इलाज है. भगवान ना करे अगर आपकी आशंका सही भी है तो हम लोग पूरा इलाज करवाएंगे. ज़रूरत पडी तो देश के बाहर के डॉक्टर्स से मदद लेंगे......... आप घबराएं नहीं, मैं आ रहा हूँ.” मैंने उन्हें तो नहीं घबराने को कह दिया था लेकिन मेरा खुद का दिल बहुत जोर से घबरा रहा था............मैं फूट फूट कर रो पड़ा...........एक पूरी तरह से नास्तिक इंसान हारकर भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि मेरे भाई को बचा लो.
मैंने तुरंत वैभव को फोन कर उसे बताया कि मैं बीकानेर जा रहा हूँ, १५ अगस्त की शाम भाई साहब, भाभी जी को लेकर मुम्बई पहुंचूंगा और १६ अगस्त को सुबह उन्हें टाटा हॉस्पीटल में लेकर जाऊंगा. उसने कहा “ डैडी मैं भी पहुँच जाता हूँ.” मैंने उसे बहुत कहा कि अपनी १५ दिन की छुट्टियाँ काटकर आ जाओ लेकिन वो नहीं माना और उसने कहा कि वो १६ की सुबह मुम्बई पहुँच जाएगा.
मैं बीकानेर गया. १५ अगस्त को जब पूरा देश आज़ादी की वर्षगाँठ मना रहा था मैं और मेरी बेटी मिनी जो उन दिनों जयपुर में ही रह रही थी, दो व्हील चेयर्स पर भाई साहब और भाभी जी को लेकर जयपुर एयरपोर्ट पर हवाई जहाज़ की तरफ बढ़ रहे थे...........शाम में जब मुम्बई पहुंचे तब तक वैभव ने इंग्लेंड से अपनी एक दोस्त निमिषा को मुम्बई में सारी तैयारियों के लिए बोल दिया था. हम लोग अपने अंधेरी वाले घर उन्हें लेकर आ गए. इस बीच मेरी पत्नी ने डॉक्टर अमित सेनगुप्ता सलाह ली कि किस डॉक्टर को दिखाया जाना चाहिए. दूसरे दिन यानि १६ अगस्त की सुबह मैं, मेरी पत्नी, मिनी और निमिषा भाई साहब को लेकर टाटा पहुंचे. निमिषा ने रजिस्ट्रेशन वगैरह का काम पूरा किया ही था कि वैभव हॉस्पीटल के मेन गेट से अंदर घुसा. उसे सामने देखते ही मुझे लगा कि मेरे अंदर से कुछ उबल कर बाहर निकलने वाला है..... मैंने बहुत मुश्किल से उबल आये आंसुओं को रोका और वैभव की ओर देखा......आंसू तो मैंने रोक लिए थे मगर ना जाने क्या था उस वक्त मेरी आँखों में कि वैभव ने मेरे कंधे पर एक हाथ रखा और हलके से उसे थपथपा दिया ......... मेरा मन किया...... मैं उससे लिपटकर जोर जोर से रो पडूं ..... लेकिन नहीं ......... मैंने देखा, भाई साहब की नज़रें मुझपर ही टिकी थीं...... अगर मैं कमज़ोर पड़ गया तो उनका क्या हाल होगा?
इसी बीच डॉक्टर मंजू सेंगर कमरे में घुसीं. बाकी सब लोग कमरे से बाहर कर दिए गए, वहाँ अब बस भाई साहब, मैं, वैभव और डॉक्टर सेंगर थे. डॉक्टर ने भाई साहब से बात करनी शुरू की....... अपने हर प्रश्न के उत्तर पर उनका चेहरा गंभीर होता चला गया. उन्होंने भाई साहब की रीढ़ की हड्डी की जांच की और कुछ पल के लिए खामोश खड़ी हो गईं. लगा हम एक बार फिर सैशन कोर्ट के कटघरे में खड़े हैं और हमारी ज़िंदगी का फैसला होने वाला है. मुझे लगा, अभी वो कहेंगी “ आप लोग ख्वामख्वाह इतने परेशान हो रहे हैं, कुछ नहीं हुआ है इन्हें......... इन्हें सिर्फ वहम की बीमारी है.......”लेकिन नहीं......... उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा. वो तो कह रही थीं “ डॉक्टर साहब....... देखने से तो लग रहा है आपको मल्टिपल मायलोमा हुआ है............” उनका एक एक शब्द एक बड़े से पहाड़ की तरह हम तीनों पर जैसे टूट पड़ा. आज कोर्ट में जज की कुर्सी पर बैठी डॉक्टर ने हम पर ज़रा भी रहम नहीं किया था और सज़ा सुना दी थी “ सज़ा-ए-मौत”. कुछ पल के लिए कमरे में एक खौफ़नाक सन्नाटा पसर गया. जैसे हम सब के पास शब्द ही चुक गए. थोड़ी देर में भाई साहब ने अपने आपको सम्भाला एक फीकी सी मुस्कराहट चेहरे पर लाते हुए पूछा “ क्या लगता है डॉक्टर साहब, कितने दिन हैं मेरे पास ?” डॉक्टर सेंगर ने उनकी पीठ पर हाथ रखते हुए कहा “ अभी आपको कुछ नहीं होने वाला है आप ठीक से इलाज करवाइए बस और वैसे किसकी ज़िंदगी कब तक है कौन जानता है? मैं कितने दिन ज़िंदा रहूंगी कोइ बता सकता है क्या?”
कई जांचें हुई. हर जाँच के साथ उम्मीद जागती थी कि शायद कुछ निगेटिव आ जाय और डॉक्टर सेंगर बोले “ ये जांच निगेटिव है, इसका मतलब इन्हें कैंसर नहीं है.” मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हर जांच के साथ ये बात और पुख्ता होती चली गयी कि भाई साहब को कैंसर है. फिर शुरू हुआ कीमोथेरेपी का तकलीफदेह दौर. हर हफ्ते कीमोथेरेपी दी जाती थी. साथ ही अम्बानी हॉस्पीटल में रेडियो थेरेपी भी शुरू की गयी ताकि रीढ़ की हड्डी का क्षरण आगे ना हो. पूरा परिवार भाई साहब के कैंसर के इर्द गिर्द सिमट आया था. मानो इस घर में किसी को कोई और काम ही नहीं था. कैंसर की भयावहता भाई साहब के ही नहीं घर के हर सदस्य के चेहरे पर उतर आई थी. डॉक्टर सेंगर कहतीं “ आप लोग इतने परेशान क्यों हो रहे हैं ? अभी इनकी जान को कोई ख़तरा नहीं है.” लेकिन कैंसर ने हम सबको अपने जबड़ों में जकड लिया था.
मैं आप सबसे माफी चाहता हूँ......... भाई साहब की इस बीमारी के दौरान उनपर और हम सबपर क्या क्या गुज़री, ये कागज़ पर उतारने की हिम्मत अभी मुझमे नहीं है......अमेरिका में बस गए डॉक्टर आलोक पांडे, लास वेगास विश्व विद्यालय की कैंसर विशेषज्ञ डॉक्टर जुमाना, यू के के कैंसर विशेषज्ञ डॉक्टर अनिल भाटिया, हमारे दूर के रिश्तेदार प्रेम शंकर जी और तीन साल तक भाई साहब का इलाज करने वाली डॉक्टर मंजू जैसे लोगों ने किस प्रकार हमें सहारा दिया, वो सब भी मैं आपको बताऊंगा लेकिन फिर कभी......... अभी तो यही बता पाऊंगा कि बस उसी अगस्त २०१२ में मेरी इस श्रृंखला को विराम लग गया. भाई साहब कई बार कहते थे “ महेंदर, तू अपना रेडियोनामा आगे बढ़ा ना....... मेरा भी मन करता है उसे पढ़ने का.......” मैंने बहुत बार कोशिश भी की लेकिन नहीं शुरू कर पाया आगे लिखना. और फिर से लिखना कब शुरू किया है? अब जब मेरे भाई साहब इस दुनिया में नहीं रहे. यहाँ तक कि उनके अंतिम अवशेष भी कुछ दिन पहले हरिद्वार जाकर माँ गंगा को समर्पित कर आया हूँ.
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8 comments:
Dil bhar aya..agey padhne ki utkantha badh gayee..!!
परिवार में प्यार और अपनत्व होतो एक का दुःख एक का नहीं रहता ,बहुत पीड़ादायक होता है ऐसा समय ।
परिवार में प्यार और अपनत्व होतो एक का दुःख एक का नहीं रहता ,बहुत पीड़ादायक होता है ऐसा समय ।
वैसे किसकी ज़िंदगी कब तक है कौन जानता है? मैं कितने दिन ज़िंदा रहूंगी कोई बता सकता है क्या?”
इन्हें पढ़ते हुए अपने एक चाचा जी याद आ गये. उन्हें भी यही कैंसर था. पूरे परिवार में अकेले वही थे जो संगीतप्रेमी थे और जिनके पास रेडियो था.. बड़ा वाला. तब टीवी गाँव में नहीं पहुँची थी. छत पर एक कोने में उनका इकलौता कमरा था जो रेडियो के साथ कैसेट्स से पूरा भरा रहता था. पुराने गीतों का परिचय विविध भारती से पहले उन्होंने ही दिया था. हमें तब इतना भी नहीं पता था कि रेडियो से आवाज कैसे निकलती है... शायद भीतर बैठा कोई बोल रहा हो. बालमन था.. कल्पना करता रहता. सफाई बहुत पसन्द थी उन्हें.. हम लोग गन्ने चूसते हुए उनके कमरे में पहुँच जाते थे तो वे रेडियो की आवाज थोड़ी बढ़ा देते और कहते इधर पेड़ की छाँव में बैठकर गन्ने चूसो और गाना सुनो...
उन्हें गुजरे हुए तकरीबन चार साल हो गये. अन्तिम बार जब हम लोग उनसे मिले थे तब माता जी ने कुछ ऐसा ही कहा था - वैसे किसकी ज़िंदगी कब तक है कौन जानता है? मैं कितने दिन ज़िंदा रहूंगी कोई बता सकता है क्या?” वे मुस्कुराते हुए बोले थे - आप बहुत जीयेंगी भाभी... लेकिन मैं कितना ज़िन्दा रहूँगा, मुझे पता है.
मेरे सादर नमन एवं सच्चे मन से अर्पित श्रद्धांजलि आपके समस्त परिवार के लिए भेज रही हूँ।
ईश्वर दिवंगत आत्मा को अपने महत प्रकाश में समा लें यह विनम्र प्रार्थना है।
- लावण्या
हार्दिक आभार
अर्चना जी ने अक्षरश:सत्य कहा !
मेरी हार्दिक संवेदना एवम् श्रद्धांजलि !!
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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।