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Tuesday, February 23, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन – भाग १७

भंवरी दूसरे ससुराल जा चुकी थी और अमरू की जेब फिर से भारी हो गयी थी. उसने गाडा चलाना फिर से छोड़ दिया था. फिर वही दिन भर जुआ खेलना शाम को दारू पीना और रात में मार पीट, हंगामा करना.......क्योंकि दस हज़ार रुपये उसकी जेब में आ चुके थे और उस ज़माने में दस हज़ार रुपये का क्या अर्थ था, आज की पीढ़ी के लिए ये समझना थोड़ा मुश्किल काम है. मेरी दादी जी जिन्हें पूरा मोहल्ला दादा के नाम से पुकारता था, अम्मल (अफीम) खाती थीं. हम लोग छोटे छोटे थे तो मुझे याद है, पिताजी दादी जी को चार तोला अम्मल (अफीम) दिलवाने के अलावा जो हाथ खर्च यानि पॉकेट मनी देते थे वो होती थी महज़ दो रुपया महीना. उन दो रुपयों में वो अपनी पसंद की खाने पीने की और दूसरी ज़रूरत की चीज़ें भी खरीद लेती थीं और कुछ पैसा हम दोनों भाइयों पर भी खर्च कर देती थीं.


ये वो वक्त था जब विज्ञान के मामले में भारत अभी अपने क़दम आगे नहीं बढ़ा पाया था क्योंकि अभी तो देश आज़ाद ही हुआ था और पंचवर्षीय योजनाओं का खाका बना कर प्रगति की सीढियों का निर्माण हो रहा था. नेहरु ने पंचशील का सिद्धांत दुनिया के सामने रखा. शान्ति और सह अस्तित्व के पांच मूलभूत सिद्धांत जिनपर चलकर पूरा विश्व बिना आपस में लड़े रह सकता है. पूरा एशिया दूसरे विश्वयुद्ध में तबाह हो चुका था और नेहरू की नेतागिरी को प्रकट रूप से स्वीकार करने को तैयार हो गया था हालांकि १९६२ में इस पूरे पंचशील की हवा निकल गयी जब चीन ने १९५४ की शान्ति संधि के बावजूद भारत पर आक्रमण कर दिया. नेहरू ने इससे भी आगे बढ़कर मिस्र के राष्ट्रपति नासिर और युगोस्लाविया के मार्शल टीटो के साथ मिलकर नॉनअलाइन्ड देशो का एक खेमा बनाया और पूरे विश्व की नेतागिरी करने की ठान ली. भारत को विश्व में शान्ति का दूत सिद्ध करने में लगे नेहरू युद्ध सामग्री बनाने वाले कारखानों में बहुत शान से मिक्सर ग्राइंडर बनवाने लगे और उनके निर्यात से भारत की खुशहाली का सपना देखने लगे. उनका मानना था कि भारत तो शांतिदूत का कार्य कर रहा है, पूरे विश्व को शान्ति का रास्ता दिखा रहा है, उस पर भला आक्रमण कौन करेगा? इधर चीन में माओत्से तुंग और चाऊ एन लाई की जोड़ी तेज़ी से हथियारों के ज़खीरे इकट्ठे कर रही थी ताकि भारत पर आक्रमण कर सके. पाकिस्तान भी १९४७ में पूरे कश्मीर पर अधिकार ना कर पाने पर तिलमिलाया हुआ बैठा था और मौक़ा ढूंढ रहा था। भारत पर हमला करने का. नेहरू पूरे विश्व की नेतागिरी के सपने देख रहे थे और इधर कई कांग्रेसी नेता देश पर उसी तरह परीक्षण कर रहे थे जैसे कि प्रयोगशाला में गिनीपिग पर किये जाते है.

दवाओं के नाम पर बहुत मूलभूत दवाएं भी उपलब्ध नहीं थीं. बाज़ार में या तो आर एम् पी डॉक्टर थे, या नीम हकीम या चूरन की पुडिया वाले वैद्य, या फिर मेटिरिया मेडिका बगल में दबाये मीठी गोलियाँ देने वाले होमियोपैथिक डॉक्टर. नतीजा ये कि हर चार में से एक इंसान अफीम खाता था. उस ज़माने में हर मर्ज़ की एक ही दवा थी अफीम. हालांकि जब तक मैं समझने लगा, अफीम पर सरकारी कंट्रोल हो गया था लेकिन तब भी हर मोहल्ले में अफीम और पोस्त की कम से कम एक दुकान होती थी. हर एक को अफीम की एक निश्चित मात्रा ही मिलती थी. जब अफीम की वो मात्रा पूरी नहीं पड़ती थी तो लोग पोस्त के डोडे उबालकर उसे छानकर पीते थे. अफीम के हर अभ्यस्त के होठों पर एक ही शिकायत रहती थी कि क्या करें आजकल अफीम अच्छा नहीं आता इसलिए डोडा पोस्त उबालकर पीना पड रहा है. पता नहीं वास्तव में अफीम की क्वालिटी खराब हो गयी थी या फिर जैसा कि हर नशे के साथ होता है, उनके शरीर को एक निश्चित स्तर तक नशा आने के लिये अफीम की मात्रा बढ़ती जा रही थी. मेरे खुद के परिवार में मेरी दादी जी, मेरे बड़े मामा, बड़ी मामी और छोटी मौसी बाकायदा नियम से अफीम लेते थे . इनमे से किसी को भी जम्हाइयां आने लगती तो हम बच्चों तक को पता चल जाता था कि इनका नशा उतर गया है, अब ये अफीम लेंगे. मुझे अफीम की वो कड़वी कड़वी गंध आज भी याद है. हालांकि मेरे पिताजी बच्चों को अफीम देने के कड़े विरोधी थे मगर मेरी दादी जी कई बार कोई दर्द होने पर या और भी न जाने क्या क्या होने पर उनकी नज़र बचाकर हमें अफीम दे दिया करती थीं इसलिए मुझे अफीम का वो कड़वा कड़वा स्वाद भी आज तक याद है. मुझे ये भी बहुत अच्छी तरह याद है कि अफीम स्वाद और गंध दोनों में कड़वा होता है लेकिन फिर भी उसमे एक अजीब सा आकर्षण होता है. जो भी एक बार उसे चख लेता है उसका मन उसे बार बार खाने को करता है. ये कहा जाता था कि एक बार जिस शरीर मे अफीम पहुँच जाता है, वो शरीर कभी न कभी उसकी मांग ज़रूर करता है. इसीलिये एक बार अफीम खाना शुरू करने के बाद इंसान उसे कभी नहीं छोड़ सकता. उन दिनों एक तरफ जहां कुछ लोग किसी तकलीफ की वजह से अफीम खाते थे वहीं कुछ लोग मज़े के लिये और अपने आपको अभिजात्य वर्ग का सिद्ध करने के लिए इसकी आदत पाल लेते थे क्योंकि अफीम गरीबों का शौक नहीं था. गरीबों के लिये भांग, देसी शराब जैसे नशे मौजूद थे जबकि अफीम राजा महाराजाओं और बड़े बड़े ठाकुरों के घरों और दरबारों मे चलती थी. इन दरबारों मे बाकायदा मेहमानों की कसुम्बे यानि अफीम के घोल से मनुहार की जाती थी. इसी अफीम के नशे के बल बूते पर बड़े बड़े शूरवीरों ने न जाने कितने युद्धों में अपने शरीर पर अनगिनत घाव झेलकर भी घुटने नहीं टेके. राजस्थान के इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जब अफीम के नशे में सैनिकों की गर्दन कट जाने के बावजूद बहुत देर तक उनके धड लड़ते रहते थे.
मेरे मामा और मामी सिर्फ मज़े के लिए या यों कहें कि नशे का आनंद लेने के लिए अफीम खाते थे लेकिन मेरी दादी जी ने अफीम खाना मजबूरी में शुरू किया था या ये कहें कि हमारे कुछ रिश्तेदारों ने अपने स्वार्थ के लिए उन्हें अफीम की आदत डाल दी थी.


मैंने ५ वें भाग में इस विषय में लिखा था कि बीसवीं सदी की शुरुआत में जब मेरे पिताजी पौने दो साल के थे, प्लेग की महामारी फैली थी. मेरे दादा जी क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे. मेरे पिताजी के अलावा उनके १० और औलादें थीं. प्लेग की बीमारी ने जो मेरे घर में पाँव पसारे तो मेरे दादा जी और उनकी दस औलादों को अपने दामन मे समेटकर ही उस घर से विदा हुई . मेरी दादी जी बताती थीं कि चार दिन में हमारे घर से ११ अर्थियां निकली और घर में महज़ दो लोग बच गए,  अपना सुहाग और १० औलादे खोने वाली मेरी दादी जी और पौने दो साल की उम्र के दुधमुंहे मेरे पिताजी. इतना सब खोने के बाद ऐसा कौन सा पत्थरदिल इंसान हो सकता है जो अपने दिमाग का संतुलन न खो दे. दादी जी ने भी अपना संतुलन खो दिया और ऐसे में मेरे दादा जी के रिश्तेदारों ने उन्हें सुबह शाम दोपहर खूब अफीम खिलाया. इसी अफीम के नशे में उनके सारे गहनों और रुपयों पर आसानी से कब्ज़ा कर लिया और ज़मीन जायदाद के कागज़ात पर अंगूठे लगवा लिये...... दादी जी के भाई जवाहर मल जी जो गंगानगर मे  पोस्टेड थे, उनके पास आये तब तक सब कुछ लुट चुका था. दादा जी के रिश्तेदारों ने उस घर के कागज़ात पर भी दादी जी का अंगूठा लगवा लिया था जिस घर मे वो दुल्हन बनकर न जाने कितने अरमानों के साथ आई थीं. दादी जी के भाई ने कहा“छोड़ जमना छोड़ सबकुछ, अब तेरा यहाँ कुछ नहीं है.ये एक बच्चा बचा है तेरे पास, इसका जीवन बचाना है तो निकल चल मेरे साथ गंगानगर इस घर मे तो प्लेग के कीटाणु फैले हुए हैं, यहाँ रहेगी तो इस बच्चे से भी हाथ धो बैठेगी.”
और मेरी दादी जी अपनी गोद की मे पौने दो साल का एक बच्चा और अपनी अफीम की डिबिया उठा कर उस घर से चल पड़ीं. इस तरह मेरे पिताजी इतनी छोटी सी उम्र मे अपने मामा के घर आ गए जिनके एक बेटा और एक बेटी थी. मामी जी की मृत्यु कुछ ही समय पहले हो चुकी थी. अब दादी जी को तीन बच्चों को पालना था. एक अपनी औलाद थी और दो भाई की औलादें.


मेरे पिताजी, ताऊ जी यानि “बा” और मोहिनी बुआ के साथ साथ पलने लगे. दादी जी भरसक तीनों बच्चों को अपने ही बच्चों की तरह पाल रही थीं. हालांकि उन्हें कई बार लगता कि वो अपने भाई पर बोझ बनी हुई हैं मगर उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि वो क्या करें? पढ़ी लिखी बिलकुल थीं नहीं, उस ज़माने मे औरतों मे पढाई का चलन था ही कहाँ? इसके अलावा तीन तीन छोटे बच्चों को संभालने के बाद इतना समय भी नहीं बचता था कि बड़ी पापड कुछ बना कर पैसा कमा सकें. खाना पीना तो खैर अपनी जगह था लेकिन सबसे ज़्यादा उन्हें चुभती थी अफीम की अपनी आदत. वो बताया करती थीं कि उन्होंने बहुत कोशिश की कि किसी तरह अफीम की आदत छूट जाए लेकिन वो हर बार अफीम छोड़ने मे असफल रहीं. उनके भाई हर बार कहते थे “जमना तू चिंता मत कर, अरे जहां से रोटी के लिये पैसा आयेगा, वहीं से तेरे अफीम के लिये भी आ जाएगा.” कुछ साल इसी तरह बीते कि एक दिन उन्होंने सुना कि पब्लिक पार्क में एक सिनेमा हाल बना है  “गंगा थियेटर”. गंगा थियेटर में पांच क्लास हैं, फर्स्ट, सेकंड, थर्ड, बालकनी, बॉक्स और लेडीज़.

उन्हें लगा कि वो पढ़ी लिखी नहीं हैं तो क्या हुआ गिनती तो अच्छी तरह आती है क्योंकि अपने अच्छे दिनों में पति के घर में रोज रात को घर लौटकर कलदारों(चांदी के एक एक रुपये के सिक्कों) और नोटों का थैला तो वो उन्हें ही सुपुर्द करते थे और वो उन्हें गिनकर अपने पति को बताती थीं कि आज इतने रुपये थे थैले में. वो टिकट भी गिन सकती हैं, लोगों को भी गिन सकती है तो क्यों न सिनेमा हॉल में जाकर नौकरी का कुछ जुगाड किया जाए. उन्होंने सुना कि सिनेमा हॉल में लेडीज़ क्लास के लिये लेडी गेटकीपर की ज़रूरत है. शाम को जब भाई घर आये तो उन्होंने भाई को मन की बात कही. हालांकि उन्हें समझाने में बहुत मुश्किल हुई दादी जी को लेकिन उन्होंने भाई को ये कहकर समझा लिया कि बच्चे भी बड़े हो गए हैं, स्कूल चले जाते हैं अगर वो सिनेमा हॉल में काम करें तो कोई नुक्सान नहीं होगा.

अगले दिन वो गंगा थियेटर जाकर वहाँ के मालिक से मिलीं और कहा कि वो लेडीज़ क्लास में गेटकीपर का काम करना चाहती हैं. हॉल के मालिक की एक बहुत बड़ी समस्या हल हुई क्योंकि उसने लेडीज़ क्लास तो बना ली थी लेकिन जब तक वहाँ कोई लेडी ही गेटकीपर न हो, औरतें वहाँ बैठने को तैयार नहीं थी और उस युग में कोई औरत सिनेमा हॉल में नौकरी करने का सोच भी नहीं सकती थी. लेकिन उस युग में मेरी दादी जी ने कमर कसी और सिनेमा हॉल में गेटकीपर की नौकरी की. तीन शो होते थे. दिन में जाने में कोई दिक्कत नहीं थी मगर रात में लौटने में बहुत देर हो जाती थी. इस समस्या का हल ढूँढ रही थीं कि ऐसे में काम आया वो कुत्ता जो कुछ साल पहले में अपने बचपन में न जाने कहाँ से डरा सहमा सा आकर घर की पिरोल में दुबक गया था. दादी जी ने देखा तो बच्चों के दूध में से कुछ बूँदें दूध की निकालकर उसमे पानी मिलाया और उसमे रोटी भिगोकर उसके आगे डाल दी. बच्चों ने उसे नाम दिया “लेटिया”. मुझे कभी समझ नहीं आया कि ये किस भाषा का शब्द था और इसका क्या अर्थ था? मैंने कई बार दादी जी से भी पूछा और पिताजी से भी लेकिन उन्हें भी याद नहीं था कि उसका नाम लेटिया कैसे पड़ा. दादी जी की नौकरी लगी तब तक लेटिया घर की बची खुची रोटियां खाकर हृष्ट पुष्ट हो चुका था. दादी जी की नौकरी के पहले ही दिन से लेटिया ने अपनी ड्यूटी संभाल ली. जब दादी जी कामपर जाने के लिये निकलीं तो उनके साथ रवाना हो गया और सिनेमा हॉल के बाहर तब तक बैठा रहा जब तक कि दादी जी अपना काम खत्म करके हॉल से बाहर न आ गईं. हालांकि नौकरी का  पहला दिन था इसलिए पिताजी और ताऊजी दोनों मिलकर रात में दादी जी को लेने गंगा थियेटर पहुँच गए थे लेकिन वो ये देखकर हैरान रह गए कि लेटिया वहाँ पहले से मौजूद था. उस दिन तो चारों लोग मिलकर घर लौटे मगर उसके बाद लेटिया ने अपनी ड्यूटी इतनी जिम्मेदारी से सम्हाल ली कि किसी और को दादी जी को लेने या छोड़ने नहीं जाना पड़ा. गंगा थियेटर की ये नौकरी दादी जी ने बहुत बरसों तक की, यहाँ तक कि जब मेरे पिताजी बड़े हो गए, पुलिस की नौकरी में आ गए और दादी जी से कहा कि अब उन्हें नौकरी करने की ज़रूरत नहीं है तब भी उन्होंने वो नौकरी नहीं छोड़ी. दादी जी बताया करती थीं कि बहुत बरसों बाद उन्होंने वो नौकरी छोड़ी. १९६५ में उनका स्वर्गवास हुआ और अंतिम समय तक दिन में तीन टाइम अफीम का एक टुकड़ा वो खाया करती थीं. उनकी मृत्यु के साथ ही मुझे लगा अफीम से मेरा सम्बन्ध खत्म हो गया लेकिन बड़ी अजीब है ये दुनिया भी. यहाँ ऐसे ऐसे इत्तेफाक होते हैं जिनकी हम कभी उम्मीद नहीं करते.


जिस साल दादी जी का स्वर्गवास हुआ उसी साल मेरे भाई साहब का मेडिकल कॉलेज में दाखिला हो गया और १९६९ में उन्होंने एम् बी बी एस किया और सत्तर में इंटर्नशिप के बाद उनकी पहली पोस्टिंग हुई जोधपुर जिले के गाँव पीलवा के हस्पताल में. बड़ी मुश्किल से नक़्शे में ढूंढकर भाई साहब पीलवा पहुंचे. वहाँ हस्पताल तो काफी समय से बनी हुई थी लेकिन शायद बरसों से कोई डॉक्टर वहाँ आकर नहीं रहा था. छोटा सा गाँव, जहां बिजली या तो ठाकुर साहब के रावळे (किले) में थी या फिर हस्पताल में. कोई भी नौजवान डॉक्टर जो किसी बड़े शहर के मेडिकल कॉलेज में पांच साल पढाई करता था, तो सपने तो किसी बड़ी सी हस्पताल और बड़े से शहर के ही देखता था. पहली ही पोस्टिंग अगर ऐसी छोटी सी जगह हो जाय तो बेचारा वहाँ से भागेगा नहीं तो क्या करेगा? ऐसे में जब कि कोई डॉक्टर वहाँ टिक नहीं रहा था मेरे सीधे सादे भाई साहब वहाँ पहुंचे तो उनका बहुत स्वागत हुआ. ठाकुर साहब ने अपने रावळे का एक हिस्सा उन्हें रहने के लिये दे दिया. एक लड़का सरूपिया खाना बनाने और दूसरे छोटे मोटे कामों के लिये रख लिया गया और भाई साहब बीमारों की सेवा में जुट गए.


दीवाली की छुट्टियाँ हुईं तो मैं एक हफ्ते उनके पास रहने के लिये चल पड़ा. बीकानेर से बस से फलौदी, फलौदी से ट्रेन से लोहावट और फिर लोहावट से बस से पीलवा. इस तरह तीन टुकड़ों में मेरा पीलवा तक का सफर पूरा हुआ. वहाँ पहुंचकर देखा तो पीलवा गाँव की जो कल्पना की थी वैसा कुछ भी नहीं था वहाँ. बचपन का कुछ समय गाँव चूनावढ़ में गुज़ारा था लेकिन चूनावढ़ था गंगानगर जिले का हरा भरा गाँव और पीलवा जोधपुर जिले का बिलकुल सूखा और वीरान गाँव. मुझे लगा भाई साहब यहाँ कैसे वक्त बिताते होंगे? मैंने उनसे पूछा तो वो मुस्कुरा कर् बोले “पिताजी इसी साल रिटायर हो रहे हैं, मुझे नौकरी तो करनी ही पड़ेगी ना ? हालांकि मैं भी एम् एस करना चाहता था और एम् एस करने पर निश्चित तौर पर किसी बड़ी जगह ही पोस्टिंग मिलती लेकिन अभी तो इस बारे में सोचना भी संभव नहीं है. मेरी पढाई के लायक तो स्कॉलरशिप शायद मुझे मिल जाती लेकिन पिताजी की पेंशन से घर का खर्च और तेरी पढाई का खर्च तो नहीं चल सकता ना ? इसलिए मैंने मन बना लिया है यहाँ रहने का और अब मुझे अच्छा भी लगने लगा है यहाँ, फिर ठाकुर साहब बहुत अच्छे और इस क्षेत्र के जाने माने आदमी हैं.” मुझे लगा उन्हें इस उजाड गाँव में आकर रहना पड रहा है इसके लिये कहीं न कहीं मैं भी ज़िम्मेदार हूँ. उन्होंने देखा कि मैं थोड़ा गंभीर हो गया हूँ तो मुस्कुरा कर बोले “तू चिंता मतकर, अभी एम् एस नहीं करूँगा तो क्या फर्क पड़ता है? तू पढाई पूरी करके नौकरी में लग जाएगा उसके बाद मैं एम् एस कर लूंगा.”


मैंने पूछा “ऐसा हो सकता है?”
वो बोले “ हाँ हाँ क्यों नहीं ?”
और यही हुआ भी मेरे आकाशवाणी में आने के तीन साल बाद उन्होंने अजमेर से एम् एस किया.
शाम को हम दोनों को रावळे में खाने का न्यौता था. मैं भाई साहब के साथ अंदर पहुंचा. एक सजे धजे कमरे में ठाकुर साहब सोफे पर बैठे थे. हमें देखते खड़े हो गए. सफ़ेद लिबास में दरमियाने कद के ठाकुर साहब बहुत सौम्य लग रहे थे. उन्होंने भाई साहब से हाथ मिलाया. मैंने पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया तो बहुत खुश हुए और कई आशीर्वाद दे डाले.


उस दिन तो खाना खाकर हम लोग लौट आये. दो दिन बाद ही दीवाली थी. भाई साहब ने बताया कि दीवाली के दिन ठाकुर साहब के रावळे में दरबार लगता है जिसमे आस पास के बहुत से छोटे बड़े ठाकुर और रिश्तेदार संबंधी आते हैं. उस दिन हमें भी दरबार में हाजिरी देनी होगी.


दो दिन गुजर गए. दीवाली वाले दिन हम दोनों तैयार होकर ठाकुर साहब के दरबार में पहुंचे. सामने सबसे ऊंचे सजे धजे सिंहासन पर ठाकुर साहब बिराजमान थे और दोनों तरफ ओहदों के हिसाब से आस पास के ठिकानेदार बैठे हुए थे. हमने जाते ही झुककर मुजरा किया और तभी मेरे नाक में वही जानी पहचानी कड़वी सी गंध आई. मैंने मन ही मन कहा “अरे..... ये तो अफीम की गंध है.” देखा दो लोग खड़े हुए हैं एक के हाथ में सोने का करवा है जिसमे कसूम्बा(अफीम का घोल) है दूसरे आदमी के हाथ में पानी का करवा और तौलिया है. किसी भी मेहमान के आकर अभिवादन करते ही ठाकुर साहब हाथ उठाकर कसूम्बे वाले को इशारा करते और वो बहुत नम्रता से आगे बढ़कर अपनी हथेली में एक गड्ढा सा बना कर् उसमे कसुम्बा भरता और मेहमान को पिलाता और फिर अपना हाथ धोकर तौलिए से पोंछता. हम लोग की तरफ मुस्कुराते हुए ठाकुर साहब ने देखा और कहा “डॉक्टर साहब कसुम्बो अरोगो(पियो).”
भाई साहब ने हाथ जोड़ते हुए कहा “ माफी हुकुम... हम लोगों को माफी बख्शो.”
ठाकुर साहब ठहाका लगाकर हंस पड़े. हम लोगों को बख्श दिया गया. हम थोड़ी देर तक वहाँ बैठे रहे और अफीम की उस कड़वी गंध का आनंद लेते रहे जो हमारी रग रग में बसी हुई थी. दादी जी, मामा जी, मामी जी, मौसी जी हर एक में से हमें वही गंध तो आती थी, फिर भला वो हमारी रग रग में बसी हुई क्यों न होती ?
वक्त गुज़रता गया.......... वक्त क्या पूरी ज़िंदगी ही गुजर गयी.


१६ अगस्त २०१२ को भाई साहब को मुम्बई लाया गया और टाटा कैंसर हस्पताल में डॉक्टर मंजू सेंगर को दिखाया गया. जैसा कि मैं १२ वें एपिसोड में लिख चुका हूँ कि देखते ही डॉक्टर सेंगर ने कह दिया “मल्टिपल मायलोमा” यानि कैंसर. भाई साहब ने कहा कि उनके पूरे शरीर में असहनीय दर्द होता है. डॉक्टर सेंगर ने दवा की पर्ची लिखकर दी. हम लोग दवा लेकर घर आये. घर पहुँचते ही भाई साहब मुझसे बोले “ ज़रा दिखाना कौन कौन सी दवाएं लिखी हैं?” मैंने लाई हुई दवाएं उनके हाथ में पकड़ा दी. एक दवा पर उन्होंने नाम पढ़ा “ट्रेमेडौल” और उनके चेहरे पर एक दर्दभरी मुस्कराहट आ गयी. मैं कुछ समझा नहीं. मैंने कहा “क्या हुआ डाक साहब ?”
वो बोले “जानते हो महेंदर ये क्या दवा है?”
मैंने कहा “ नहीं, कोई खास बात ?”


वो बोले “ ये वही दवा है जो हमारी दादी जी लेती थीं, मामा जी, मामी जी, मौसी जी सब लेते थे- अफीम, जब हमारे इतने पूर्वज लेते थे तो भला मैं इस से कैसे बचता? तुझे याद है ना, बचपन में सुना करते थे कि जिस शरीर में एक बार अफीम पहुँच जाता है वो शरीर कभी न कभी अफीम की मांग ज़रूर करता है. बचपन में इस शरीर में अफीम पहुँच चुका है तो ये शरीर अफीम की मांग तो करेगा ही. मुझे पता है, अब ये अफीम ही थोड़ा बहुत सहारा देगी इस दर्द में ”
और उनकी बात बिलकुल सच साबित हुई. जिस दिन बीमारी का डायग्नोसिस हुआ उस दिन से लेकर आखिर तक उन्हें दर्द से अगर किसी चीज़ ने थोड़ी बहुत राहत दी तो बस उसी अफीम ने......... अफीम की जिस गंध को मैं १९७० में ठाकुर साहब के रावळे में पीछे छोड़ आया था भाई साहब के इलाज के दौरान वो गंध फिर मेरे जीवन का हिस्सा बन गयी थी. भाई साहब के चले जाने के बाद अब भी रात में कई बार मेरी नींद टूट जाती है और न जाने कहाँ से अफीम की वो कड़वी मगर आकर्षक गंध आकर मेरे नथुनों में भर जाती है और मैं मानो फिर से एक बार दादी जी, मामा जी, मामी जी, मौसी जी के बीच पहुँच जाता हूँ. 

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3 comments:

Unknown said...

Aap jab bhi papa ka zikr karte hain mere aansu nahi ruk paste...aapki likha padhte woqt lagta hai jaise main in patron ke beech khadi hun...sun rahi hun...par chhoo nahi sakti..

Unknown said...

Aap jab bhi papa ka zikr karte hain mere aansu nahi ruk paste...aapki likha padhte woqt lagta hai jaise main in patron ke beech khadi hun...sun rahi hun...par chhoo nahi sakti..

wehavakaosinthegarden said...

Hi great readinng your blog

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