सबसे नए तीन पन्ने :

Monday, March 14, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन – भाग १९ महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर केंद्रित श्रृंखला


१९६२ में इधर बीकानेर में आकाशवाणी का एक छोटा सा स्टेशन शुरू हुआ और उधर भारत और चीन के बीच युद्ध शुरू हो गया. हिन्दी चीनी बाई बाई कहते कहते चीनी भारत की सीमा के भीतर घुस आये. हम लोग आकाशवाणी से समाचार सुनते थे तो हर बार एक ही भाषा होती थी और एक ही समाचार. भारतीय सेनाएं बहुत वीरता के साथ चीनी सेनाओं से लड़ रही हैं. आज बहुत बहादुरी के साथ लड़ते हुए फलां मोर्चे पर हमारी सेना को पीछे हटना पडा, आज फलां मोर्चे पर पीछे हटना पड़ा. इन समाचारों से यही लग रहा था की हम हार रहे हैं और क्यों न हारते ? हमारे जवानों के पास थ्री नौट थ्री के अलावा कोई हथियार ही नहीं था. उधर रेडियो बीजिंग ( जो उस वक्त रेडियो पीकिंग कहलाता था) रेडियो पर ट्यून करते तो कई कहानिया सुनने को मिलती. क्या आप कल्पना कर सकते हैं, कि जब उनके देश का पड़ोसी देश से युद्ध चल रहा था वो युद्ध का नाम भी नहीं लेते थे. वो तो सुनाते थे कि किस प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष माओत्से तुंग के भाषण को सुनकर एक किसान अपने खेत से दोगुनी फसल लेने में सफल हुआ और किस प्रकार माओत्से तुन्ग के दर्शन मात्र से एक नाई की ज़िंदगी बदल गयी. हम लोग ये किस्से सुन सुनकर सोचते थे कि ये माओत्से तुंग आखिर चीज़ क्या है ? हमारे बड़े उस वक्त चीनियों को गालियाँ देते थे और कहते थे “बकवास करते हैं ये लोग. चलो बी बी सी सुनते हैं.”

फिर बी बी सी लगाया जाता. वहाँ से पता लगता कि भारतीय सेनाएं सीमा पर भारी नुकसान उठा कर पीछे हट रही हैं और चीनी सेनाएं भारतीय सीमा के अंदर घुसती जा रही हैं. हर तरफ बस इन्ही बातों की चर्चा होती थी. बी बी सी के समाचारों के वक्त लोग रेडियो सुनने को तडपते थे और अक्सर हर मोहल्ले में यही होता था कि जिनके घर  में भी रेडियो है वो शाम को घर के बाहर दरियां बिछाकर एक मेज़ पर रेडियो रख देते  थे और समाचार लगा देते थे. आस पास के लोग दरियों पर बैठकर  कभी आकाशवाणी के, कभी रेडियो पीकिंग के तो कभी बी बी सी के समाचार सुनते थे. लेकिन आखिरकार निराश होकर ही उन्हें लौटना पड़ता क्योंकि बी बी सी यही बताता था कि भारतीय सेनाओं को अंततः पीछे हटना पड़ा. बचपन के दिन थे मगर फिर भी इतना तो हमें समझ आ ही जाता था कि लोग किसी भी समाचार से ज़्यादा बी बी सी के समाचारों पर भरोसा करते थे. बड़ी तेज़ी से हम हार रहे थे क्योंकि भारतीय सेनाओं के पास हथियार ही नहीं थे. नेहरु जी का मानना था कि हम तो विश्वगुरु हैं, पूरे विश्व को पंचशील के माध्यम से शान्ति का पाठ पढाने वाले. हमें हथियारों की क्या ज़रूरत है भला ? बहुत बरसों बाद जब जनरल करियप्पा की पुस्तक “द अनटोल्ड स्टोरी” पढ़ी तो उस वक्त के हालात का सही सही पता लगा कि नेहरु जी ने अपनी वैश्विक नेतागिरी को जमाने के लिए किस प्रकार देश के हितों की बलि चढ़ा दी. भारत वो युद्ध हार गया. दुनिया के कई देशों ने बीच बचाव किया तो चीन को युद्ध रोकना पड़ा मगर उस युद्ध की हार से, ये सच है कि पूरा देश स्तब्ध भी हो गया और एक अजीब सी कुंठा से ग्रस्त भी. हजारों वर्ग किलोमीटर भारतीय ज़मीन पर चीन ने कब्ज़ा कर लिया.

१९६४ में नेहरु जी का स्वर्गवास हो गया. मैंने उनकी अंतिम यात्रा की कमेंट्री रेडियो पर सुनी. पूरा देश फूट फूटकर रोया और हकीकत है कि मैं भी सबके साथ रोया. पूरा देश हक्का बक्का था क्योंकि कोई सोच भी नहीं सकता था कि देश बिना नेहरु जी के चल सकता है. गुलजारी लाल नंदा कामचलाऊ प्रधान मंत्री बने और फिर देश को मिला एक ऐसा प्रधानमंत्री जो देखने में छोटे कद का ज़रूर था मगर दरअसल उसके कद के बराबर आज तक कोई नहीं पहुँच सका. उनका नाम था लाल बहादुर शास्त्री. बहुत छोटे से कद के लाल बहादुर शास्त्री जी की आवाज़ भी बहुत साधारण सी थी लेकिन गज़ब का चरित्र था उस इंसान का. उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही कहा...... “चाहे हमें दिन में एक वक्त रोटी खा कर गुज़ारा करना पड़े, चाहे हमें खाने को इतना भी नसीब न हो, हमें अपनी सेनाओं के लिए हथियार जुटाने होंगे ताकि कोई हमारी सीमाओं पर बुरी नज़र न डाल सके.”

और उन्होंने रेडियो पर घोषणा की कि वो हर सोमवार को सिर्फ एक बार खाना खायेंगे........... और पूरा देश धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्रीयता सब भुलाकर उनके साथ हो लिया. सोमवार मतलब व्रत. यहाँ तक कि कई रेस्तराओं ने सोमवार को शाम में अपना किचन ही बाद रखना शुरू कर दिया. जिद था, ये पूरे देश का कि अगर हमारी सेनाओं को हथियार चाहिए तो हम भूखे रहेंगे. किस हद तक ये जिद थी जानते हैं?
मैं १९८७ से १९९१ तक कोटा में था. हमारे रेडियो पर महिलाओं का कार्यक्रम होता था जिसमे स्टाफ से बाहर की महिलायें भी हिस्सा लेती थीं. एक संभ्रांत महिला थीं विदिशा श्रीवास्तव. उनके पति उमेश जी कभी कभी उन्हें लेने रेडियो स्टेशन आ जाते थे तो मुलाक़ात भी हो जाती थी. धीरे धीरे ये सम्बन्ध पारिवारिक संबंधों में बदल गए. महीने में एक दो बार या तो उमेश जी और विदिशा जी बच्चों के साथ हमारे घर आ जाते थे और या फिर हम दोनों उनके घर चले जाते थे. उमेश जी के पिताजी काफी बुज़ुर्ग इंसान थे मगर जवानों के बीच बैठना उन्हें पसंद था. कभी कभी वो हम लोगों के साथ बैठकर खाना भी खाया करते थे. एक दिन विदिशा जी ने फोन पर बताया कि उनके ससुर जी गिर पड़े हैं और उनकी टांग का फ्रेक्चर हो गया है..... हम लोग भागे हुए उन्हें देखने गए. उमेश जी ने उनके बिस्तर के पास एक कुर्सी रख दी. मैं गया प्रणाम किया और उनके पास बैठ गया.

मैंने पूछा “कैसे हैं पापा जी”
वो बोले “ठीक हूँ मोदी साहेब, अब जो हड्डी टूट गयी वो तो क्या जुडेगी?”
मैंने कहा “अरे ऐसा क्यों कह रहे हैं?”
तो वो हंसकर बोले “मोदी साहेब ९९ साल का हो गया हूँ, अब टूटी हड्डी को जुड़ने का वक्त ही कहाँ मिलेगा? वैसे एक बात कहूँ?
“जी.......”
“मैं......बस एक साल और जीना चाहता हूँ.”
“अभी आप बहुत जियेंगे पापा जी......”
तभी उन्होंने आवाज़ दी “उमेश एक पैग बना देना ज़रा”
आवाज़ आई “जी पापा”
फिर उन्होंने कहा “सुनो एक सिगरेट भी सुलगा देना”

मैं हैरान , परेशान कि १०० साल जीने की जिजीविषा रखने वाला, ९९ साल का एक इंसान कह रहा है “एक पैग बना देना..... एक सिगरेट सुलगा देना.......”
तभी उमेश जी पैग बना कर ले आये. उन्हें हाथ में पकडाया. उन्होंने हाथ में रखा और मुझसे बात करते रहे. अचानक उन्हें पता नहीं क्या सूझा. उन्होंने पूछा “उमेश ....आज कौन सा वार है ? ”
उमेश जी ने जवाब दिया “जी पापा...........आज सोमवार है”
और मैंने देखा......एक ही क्षण में पापा जी के चेहरे पर न जाने कितने रंग आये और कितने रंग चले गए....... एक बार तो उनका चेहरा देखकर लगा कि वो अभी ग्लास को दीवार के साथ दे मारेंगे. मगर फिर जैसे उन्होंने अपने आप पर कंट्रोल किया और ग्लास उमेश जी की तरफ बढ़ा दिया..... “उमेश, पैग बना कर देने से पहले ही बता देना चाहिए था ना कि आज सोमवार है.”
“जी पापा सॉरी........ लेकिन मैंने सुबह से चार बार बताया था कि........”
“अच्छा जाने दो.......कोई बात नहीं.”
मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा था. उमेश जी ने ग्लास वापस लिया और टेबल पर रख दिया. पापा जी की आँखें गीली हो आई थीं. बहुत दुखी स्वर में वो बोले      “ मोदी साहब, पता नहीं कैसे मैं भूल गया कि आज सोमवार है, पूरे देश ने १९६५  में शास्त्री जी के साथ सोमवार को एक वक्त खाने की क़सम खाई थी, मैं भी तबसे हर सोमवार को व्रत करता हूँ. आप बताइये, व्रत के दिन क्या मैं शराब पियूँगा?”
और उस दिन जैसे उनकी जिजीविषा को ग्रहण लग गया. ९९ साल का कमज़ोर शरीर.......जो शायद १०० वर्ष पूरे करने की इच्छा के बल पर ही चल रहा था, साथ छोड़ने लगा.

१५ दिन बाद ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया.
इस तरह १९६५ में शास्त्री जी के साथ पूरा देश हो लिया था. जब भी वो रेडियो पर भाषण देते थे.... हर पानवाले, हर होटल, हर चायवाले के यहाँ उन्हें सुनने वालों की भीड़ लग जाती थी. उधर जब चीन के आकाओं ने देखा कि पूरा विश्व भारत के साथ हो गया है, उन्होंने पाकिस्तान के डिक्टेटर अयूब खान को भडकाना शुरू कर दिया. इधर पाकिस्तान के अंदरूनी हालात ठीक नहीं थे. अयूब खान के खिलाफ बगावत के स्वर उठने लगे थे. अयूब खान के सामने भारत के साथ युद्ध के अलावा और कोई रास्ता नहीं था.

अगस्त १९६५ की एक सुबह पांच बजे बीकानेर शहर पूरा अँधेरे में डूब गया और सायरन की आवाजें सुनाई देने लगी. हम बच्चों सहित पूरा शहर जाग गया. हम कुछ समझ सकें उस से पहले ही हवाई जहाज़ों की आवाजें गूंजने लगीं और जोर जोर से भडाम भडाम की आवाजें गूंजने लगीं. लगा बहुत बड़ी दीवाली मनाई जा रही है. थोड़ी देर में दूसरा सायरन बजा और बिजली लौट आई.
दूसरे दिन सुबह ही समाचारों में सुना कि पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया है. उधर जब रेडियो पाकिस्तान की ख़बरें सुनीं तो उन्होंने दावा किया “ हिन्दुस्तान ने पाकिस्तान पर हमला कर दिया है और जवाबी हवाई हमले में कई और शहरों के साथ बीकानेर शहर और नाल हवाई अड्डे को नेस्तनाबूद कर दिया गया है.”
पाकिस्तान ने बम गिराए ज़रूर थे लेकिन वो एक भी बम बीकानेर या नाल हवाई अड्डे पर नहीं गिरा पाए थे. नाल बीकानेर से लगभग १५ किलोमीटर दूर फौजी हवाई अड्डा है जिसने ६५ और ७१ के भारत-पाकिस्तान दोनों युद्धों में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. दो दिन बाद मेरे एक दोस्त श्याम जी ने बताया कि नाल के आस पास खूब बम के टुकड़े बिखरे हुए हैं, अगर डर न लगे तो चलो,कुछ टुकड़े उठाकर लाएं........ एडवेंचर करना तो उस उम्र में सबको पसंद होता है...... मैं श्याम जी, बिरजू, रघु और दो तीन और दोस्त अपनी अपनी साइकिलें लेकर चल पड़े नाल की ओर और तीन घंटे बाद जब हम लौट कर आये तो हम सब के पास पाकिस्तानी बमों के दो दो, तीन तीन भारी भारी टुकड़े थे. आते ही सबसे पहला काम जो किया वो यही था कि उन टुकड़ों को घर में लाकर छुपा दिया ताकि किसी को पता ना लगे.........ये बम के टुकड़े सन १९९५ में जब हमने शेखों के मोहल्ले वाला अपना घर बेचा, तब तक संभाल कर रखे थे लेकिन जब घर की चाबियाँ लतीफ़ खान जी को सौंपी तो वो 
पाकिस्तान के झूठ के सबूत वहीं छूट गए.

आज की पीढ़ी तो शायद इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकती कि पूरा शहर, पूरा इलाका ब्लैक आउट में डूबे रहने का क्या अर्थ होता है, हमने इस ब्लैक आउट को पूरी शिद्दत के साथ झेला. पढ़ाई लिखाई सब चल रही थी, दिन में हम सब लोग स्कूल भी जाते थे मगर लौटते ही बस रेडियो से चिपक कर बैठ जाते. हर रोज ख़बरें आतीं कि आज भारत की सेना ५० किलोमीटर पाकिस्तान के अंदर घुस गयी और आज ६० किलोमीटर अंदर. उसी समय मेरा एक नाम से परिचय हुआ. वो नाम था आकाशवाणी जयपुर के श्री गणपत लाल डांगी का....... डांगी जी, मीना चौधरी या रंजना चौधरी के साथ मिलकर हर शाम एक प्रोग्राम करते थे “लड़ै सूरमा आज जी”.उस प्रोग्राम में वो उस दिन की भारतीय सेनाओं की उपलब्धियों को चुनकर उन्हें एक संगीत नाटक के रूप में प्रस्तुत करते थे. पूरे राजस्थान में उस समय शायद ही कोई रेडियो बंद रहता होगा जबकि उनका ये कार्यक्रम प्रसारित होता था. राजस्थानी में तैयार ये कार्यक्रम रेडियो कार्यक्रम की एक अनूठी मिसाल था. हर रोज उस दिन की ख़बरों को इकट्ठा करना उसके बाद उसे सफलतापूर्वक संगीत नाटक का रूप देना, अपने आप में एक पूरी टीम का काम था, जिसे डांगी जी अकेले किया करते थे. अनजाने में ही मैं उस दौरान उनका परम भक्त बन गया और १९८१ में जब आकाशवाणी सूरतगढ़ में था और फ़ौजी भाइयों के लिए एक स्टेज प्रोग्राम हम लोगों ने आयोजित किया और उसमे डांगी जी को जयपुर से बुलाया तो मैं श्रद्धापूर्वक उनके पैर पकड़ कर बैठा गया.
वो भौंचक्के रह गए. बोले “क्या बात है बेटा ? पैर तो छोडो”

मैं कुछ भी बोल नहीं पा रहा था क्योंकि बचपन से जिनका मैं भक्त था उन्हें अपने सामने देख कर मेरा गला रुंध गया था. बहुत कोशिश करके मैंने अपने आप को सम्भाला और बोला..... आपके “लड़ै सूरमा आज जी” का मैं घोर प्रंशसक हूँ. मुझे बताइये कि आप इतना मुश्किल प्रोग्राम वो भी रोज, कैसे कर लेते थे?
वो मुस्कुराए और बोले “ पैर छोड़ बेटा और सुन”
मैंने कहा “जी”
“मेरी उम्र कितनी होगी अब ?”
“जी सत्तर साल तो होगी”
“तूने देखा मैं थोड़ा लंगड़ा कर चल पाताहूँ.”
“जी”

“देख बेटा....... मेरा एक सिद्धांत है, जब कोई भी काम करो तो उसमे पूरी तरह खो जाओ और अपने आप को, यहाँ तक कि पूरी दुनिया को भूल जाओ. अब देख मुझसे ठीक से चला भी नहीं जाता लेकिन शाम को तू प्रोग्राम में देखना मैं नाचूँगा”
मैं उनकी शक्ल देखता रह गया और शाम को जब प्रोग्राम हुआ तो डांगी जी २५ बरस के इंसान की तरह नाचे. सेना के जवानों ने उन्हें कंधे पर उठा लिया....... मुझे उस दिन प्रसारण का एक नया ही गुर उन्होंने दिया जिसका इस्तेमाल मैंने अपने रेडियो के जीवन में कई बार किया.
तो युद्ध के दिनों में शाम होते ही पूरे शहर में ब्लैक आउट हो जाता था. हर खिड़की के कांच पर कार्बन पेपर चिपका दिया गया था ताकि अंदर की रोशनी बाहर ना निकल सके. इसके बावजूद अगर कहीं किसी छेद से ज़रा भी रोशनी रिस कर बाहर आती तो लोग चिल्लाने लगते. और तो और अगर सडक पर कोई इंसान बीडी भी सुलगा लेता तो उसकी रोशनी इतनी तेज नज़र आती कि शोर मच जाता और लोग उस बीडी को बुझवा कर ही दम लेते .

मेरे घर के सामने चौड़ी सड़क थी और उसके उस पार एक मास्टरनी जी रहती थीं, मिसेज़ सक्सेना. इस समय तक ट्रांजिस्टर आ चुके थे. मास्टरनी जी के पास भी एक ट्रांजिस्टर था. रेडियो चलाना उन दिनों मुश्किल था क्योंकि ब्लैक आउट में रेडियो की रोशनी भी ऐसी नज़र आती थी जैसे १०० वाट का बल्ब हो, इसलिए हम सब लोग शाम होने के बाद मास्टरनी जी के घर के बाहर की चौकी पर इकट्ठे हो जाते थे और उनके ट्रांजिस्टर पर समाचार सुनते थे. मास्टरनी जी भी मौके का फायदा उठाती थीं. हम बच्चों को कहती थी, समाचार सुनो और साथ साथ मेरे पैर दबाओ. हम लोग बारी बारी से उनके पैर दबाते रहते थे और साथ साथ ख़बरें सुनते रहते थे.  
कभी भी सायरन बज उठता था और हमारे ऊपर से उड़ते सेबरजेट की आवाज़े कानों में गूँज उठती थीं. पूरे मोहल्ले में ज़ेड आकार की ट्रेंचेज़ खोद ली गई थीं.
जैसे ही सायरन बजता हम सब लोग उन ट्रेंचेज़ में कान बंद करके एक विशेष पोजीशन में लेट जाते थे. हवाई जहाज़ आते थे, कभी हमारे आस पास बम गिराकर लौट जाते थे और कभी सीधे वहाँ से आगे निकल जाया करते थे. जब भी आस पास बम गिरते तो पूरी धरती हिल जाती थी.

एक बार पिताजी के दोस्त बहादुर राम चाचा जी आये हुए थे. वैसे तो हम लोग शाम होने से पहले ही खाना खा कर ब्लैक आउट और बम धमाकों के लिए तैयार हो जाते थे लेकिन उस रोज खाना खाने में देर हो गई थी. खाना लगा ही था कि सायरन बज गया . हम सब घर के अंदर ही थे. बस सबने एक एक कोना पकड़ा और कोनों में खड़े हो गए. तभी भडाम भुडूम बम गिरने लगे. मैं कोने में खडा हुआ था. मेरा पायजामा अपने आप हिलने लगा. मुझे समझ नहीं आया कि ये क्या हो रहा है? मैं जोर से चिल्लाया “मेरा पायजामा हिल रहा है....... मेरा पायजामा हिल रहा है.......”
दूसरे कोने में चाचा जी खड़े हुए थे. वो भाग कर मेरे पास आये और बोले “क्या हुआ महेंदर?”
मैंने कहा “अभी मेरा पायजामा हिल रहा था.” वो हँसे और बोले “देख गीला तो नहीं हुआ ना?”
मैंने घबराकर पायजामे को हाथ लगाया..... जान में जान आयी जब देखा कि वो गीला हरगिज़ नहीं हुआ था.
तभी क्लीयरेंस का सायरन बज गया और हम सब कोनों से निकलकर खाना खाने आ गए. उस दिन बहुत देर तक सब लोग मेरे पायजामे के हिलने पर हँसते रहे.
अब्दुल हमीद जैसे वीर पाकिस्तान के पैटन टैंक्स के कब्रिस्तान बनाए जा रहे थे और अपनी जान कुर्बान करके आगे बढ़ने के लिए अपने जिस्मों के पुल सेना को सौगात में दिए जा रहे थे. १० सितम्बर १९६५ को खेमकरण में अब्दुल हमीद ने पाकिस्तान के कई टैंकों को नेस्तनाबूद करके दुश्मन के हौसले पस्त कर दिए. इधर पाकिस्तान हर जगह जाकर रो रहा था कि हिन्दुस्तान ने उस पर हमला किया है और वो पूरे पाकिस्तान पर कब्ज़ा कर लेगा. विश्व बिरादरी ने जब पाकिस्तान का रोना सुना तो वो उसकी मदद के लिए तैयार हो गयी . हमारी फौजें इछोगिल नहर तक पहुँच गयी थी जो कि लाहौर से कुछ ही फासले पर थी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विल्सन ने अमेरिका के साथ मिलकर भारत पर दबाव डाला कि युद्ध को बंद किया जाए. २२ दिन के इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के १९८० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था. शास्त्री जी युद्धविराम के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. यू एस एस आर( सोवियत संघ ) हालांकि मानता था कि ये युद्ध पाकिस्तान ने शुरू किया है लेकिन विश्व बिरादरी के सामने उसकी नहीं चली और उसने भी भारत पर युद्ध विराम के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया.

हिन्दुस्तान के छोटे छोटे विमान नेट अमेरिका से पाकिस्तान को मिले सेबर जेट विमानों को धूल चटा रहे थे, ज़मीन पर अब्दुल हमीद जैसे शहीद पाकिस्तान को नाकों चने चबवा रहे थे लेकिन इस सबके बावजूद शास्त्री जी को विश्व बिरादरी के दबाव में आकर युद्ध विराम स्वीकार करना पड़ा. ताशकंद में जनरल अयूब खान और शास्त्री जी के बीच शिखर वार्ता हुई और ११ जनवरी को सुबह सुबह हमने रेडियो पर सुना कि इस शिखर वार्ता में शास्त्री जी पाकिस्तान को जीते गए सारे इलाके वापस करने के लिए तैयार हो गए, लेकिन इन कागज़ात पर दस्तखत करने के तुरंत बाद ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वो अपनी उस जनता को मुंह दिखाने से पहले ही इस दुनिया से कूच कर गए जो उनके एक इशारे पर हर कुर्बानी देने को तैयार थी.
मुझे अच्छी तरह याद है.......मैं टायफाइड से पीड़ित बिस्तर पर पड़ा हुआ था. पूरा देश शास्त्री जी के लिए रो पड़ा था. अगर उस समय जीते गए इलाके वापस न किये जाते और जिस तरह कश्मीर में १९४८ की स्थिति को बनाए रखा गया है पंजाब, राजस्थान और शेष जीते गए इलाकों में भी १९६५ की स्थिति को स्वीकार कर लिया जाता तो शायद आज भारत पाकिस्तान के बीच कुछ और ही सम्बन्ध होते.



पिछली सभी कडियां पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए।

1 comment:

Shubhra Sharma said...

१९६५ में मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। शास्त्री जी के आह्वान पर हमने स्कूल के एक मैदान में क्यारियां बनाकर सब्ज़ियां बोई थीं। हम अपनी क्यारी की सब्ज़ी घर ले जा सकते थे लेकिन हॉस्टल को भेंट कर जाते थे। उन दिनों का जज़्बा ही कुछ और था। और हाँ, तबसे शुरू किया सोमवार का व्रत मैं आज तक करती हूँ।

Post a Comment

आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

अपनी राय दें