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Wednesday, May 11, 2016

ताने-बाने लोकेंद्र शर्मा की जिंदगी के- चौथी कड़ी।

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हम सात भाई और एक बहन हैं. बहन जीजी (मुन्नी) सबसे बड़ी हैं, उनका नाम है – शशिप्रभा. शायद बाउजी ने यह नाम अपनी बहन के नाम, चंद्रप्रभा से मिलता-जुलता रहे इस ख़ातिर रखा होगा. जीजी के बाद हम सात भाई हैं. भाइयों की कतार में सबसे आगे मैं खड़ा हूं. मेरे बाद छोटा भाई अशोक. अशोक का नाम पहले ‘हृदयनाथ’ रखा गया था. शायद मेरे पहले नाम ‘लोकनाथ’ से तुक मिलाने की ख़ातिर. लेकिन जब मेरा नाम बदल गया तब, जाने किस के सुझाव से हृदयनाथ भी ‘अशोक’ हो गया. उसके बाद था चैतन्य. यहां तक नाम रखने की ज़िम्मेदारी बाउजी ने निभाई. चैतन्य नाम शायद चैतन्यमहाप्रभु से प्रभावित होकर रखा गया होगा, लेकिन बाद में वो बिगड़कर ‘चेतन’ और फिर पुकारने के लिए ‘चेतू’ हो गया. शायद यहीं से मुझे सूझा होगा कि आगे आने वाले बच्चों के नाम मैं रखूंगा.


मैंने फ़ार्मूला बनाया कि एक तो नाम तीन अक्षरों का होना चाहिए. क्योंकि दो अक्षरों का नाम बहुत छोटा और चार अक्षरों का बहुत बड़ा जान पड़ता है. जानें क्यों तीन अक्षरों में मुझे, त्रिमूर्ति, त्रिदेव, त्रिकाल, त्रिनेत्र और त्रिवेणी जैसे प्रतीकों की पवित्रता और अध्यात्म दिखाई देता है.




दूसरा नियम ये कि किसी नाम में संयुक्ताक्षर नहीं होने चाहिए, ताकि नाम को बिगाड़ कर बोले जाने की संभावना ही पैदा ना हो सके.  वैसे नाम को बिगाड़ कर बोलने वालों के ख़िलाफ़ कोई क़ानून नहीं है. पुकारने वाले तो मेरे छोटे भाई के सीधे-सादे नाम ‘अशोक’ को भी ‘शोक’ या ‘शोकी’ कर देते हैं. फिर भी मेरा विचार है कि यदि नाम संयुक्ताक्षरों वाला नहीं होगा, तो उसके बिगड़ने की संभावनाए कम हो जायेंगी. जैसे मेरे पांच, छ: और सात नंबर के भाई रजत, मनोज और सलिल के नामों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका. संयुक्ताक्षर वाले नामों के साथ आमतौर पर उर्दूदां लोग बहुत अन्याय करते हैं. उनकी ज़बान उर्दू के शीन-क़ाफ़ में ऐसी रची-बसी होती है कि संस्कृतधर्मी नामों को उच्चारित करते समय, उन्हें अपनी ज़बान पर ज़लज़ला सा आया महसूस होता है. अच्छा-ख़ासा नाम था कृष्णचंद्र, लेकिन उर्दू के लेखक थे, सो सदा के लिए क्रिशनचंदर हो गए. यही हाल राजिंदर सिंह बेदी के नाम का हुआ. मेरा ख़याल है शुद्ध तो ‘राजेंद्र’ रहा होगा. एक बार मैंने अपने मित्र, प्रसिद्ध गायक भूपेंदर से पूछा था, “आप के नाम का सही उच्चारण क्या है?” तो उन्होंने ठेठ पंजाबी डिज़ाइन का फ़लसफ़ाई जवाब दिया. कहा, “यार कुछ भी कहले. क्या फ़रक पड़ना है. बन्दा तो मैं वोई रहूँगा.”

  
बहरहाल मेरे विचार में तीसरा नियम ये है कि नाम का अंतिम अक्षर ऐसा होना चाहिए, जो सरनेम के साथ नहीं टकराए. उदाहरण के लिए यदि किसी का सरनेम ‘वर्मा’ है और उसका नाम ‘सौरव’ है, तो नाम का अंतिम और सरनेम का पहला अक्षर ‘व’ अपनी ध्वन्यात्मक-समानता के कारण एक-दूसरे से टकराएंगे, बोल कर देख लीजिये. इसी तरह ‘गर्ग’ सरनेम के साथ अनुराग, पराग या चिराग बोल कर देखिये और ‘शर्मा’ के साथ संतोष, सुभाष या आकाश बोलिए. थोड़ी उलझन होती है. स्पोकन लैंग्वेज के नियमों में यह नियम ‘फोनेटिक-प्रोब्लम’ कहा जाता है. रेडियो, टीवी या फिल्मों की भाषा पर भी यही नियम लागू होता है. क्योंकि इन माध्यमों में अपनी बात को, लोगों तक बोलकर पहुंचाया जाता है. कहने की ज़रुरत नहीं कि बोलने में यदि ध्वनियां टकराएं, तो कान ग़फ़लत में पड़ सकता है. यह दूसरी बात है कि प्रसारण से जुड़े आज के कई महारथी या तो इस नियम के बारे में जानते नहीं या सचेत नहीं रहते. लेकिन मैं यहाँ ‘नाम’ की बात कर रहा था, इसलिए विषयांतर के लिए माफ़ी मांगते हुए, सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि किसी बच्चे का नाम रखने से पहले उसके सरनेम को भी ध्यान में रखना जरूरी है.


इन्हीं नियमों को आधार बनाकर, मैंने अपने तीन छोटे भाइयों के नाम रजत, मनोज और सलिल रखे. अपने बेटे और बेटी का नाम गौरव और गरिमा रखा. अपने छोटे भाई के बेटे और बेटी का नाम सौरभ और सुरभि रखा. अपने दो नातियों का नाम विहान और निवान रखा. जिन नियमों की मैंने बात की और जो तर्क दिए, जरूरी नहीं कि सब उनसे सहमत हों. यदि कोई असहमत है, तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि विरोध करूं. लेकिन इतना तो कह ही सकता हूँ कि मुझसे अपने नियम पर टिके रहने का अधिकार कोई न छीने.
इति ‘नाम-व्याकरण’.

बुआजी, बाउजी की इकलौती बहन थी. और बाउजी, बुआजी के इकौलते भार्ई. अपने जीवन में इकलौते बहन-भाई मैंने कई देखे हैं. लेकिन अपने पूरे जीवन की यादों और अनुभवों को निचोड़ कर, आज बिना किसी संकोच के मैं कह सकता हूं कि एक दूसरे पर जान छिड़कने वाले ऐसे बहन-भाई मैंने और कहीं भी, कभी नहीं देखे.

यह बात मैं पहले भी कह चुका हूं कि जब मैंने होश संभाला, तब अपने आप को भीलवाड़ा में पाया. शायद एक या डेढ़ बरस का ही था मैं, जब बाउजी दिल्ली छोड़कर भीलवाड़ा आ गए थे. होश संभालने के बाद बुआजी को मैंने हमेशा अपने ही घर में पाया. अपने ससुराल बेगूं को छोड़कर उनके भीलवाड़ा आने और यहीं रह जाने की एक अलग कहानी है.

जैसे हर ब्याहता रहती है, बुआजी भी अपने पति पंडित चंद्रशेखर जी (हमारे फूफाजी) के साथ अपने ससुराल बेगूं में रहती थीं. उनकी कांता नाम की एक बेटी भी थी. फूफाजी और उनके दो छोटे भाई पंडित ललिताशंकर जी और बद्रीशंकर जी, बेगूं के संपन्न व्यक्तियों में गिने जाते थे. गाँव के आसपास शहर कहलाने लायक कस्बा भीलवाड़ा ही था. इसलिए एक बार जब फूफाजी बीमार पड़े, तो इलाज के लिए उन्हें यहीं लाया गया. चारों ओर गाँव ही गाँव थे. बीच में था भीलवाड़ा जिसे भोले गाँव वालों ने शहर का रुतबा दिया हुआ था, लेकिन उन दिनों इस ‘शहर’ में किसी भी बड़ी बीमारी के इलाज की सुविधाएं प्रचुर नहीं थी. बाउजी ने फूफाजी की पूरी तीमारदारी की, लेकिन सही निदान और इलाज के अभाव में रोग बढ़ता गया. बाद में पता चला कि उन्हें पीलिया हो गया है और अब वो इलाज की सीमाओं से दूर जा चुका है. फिर एक दिन देखते-देखते बाउजी के हाथों में ही फूफाजी ने दम तोड़ दिया. बुआजी विधवा हो गईं.


इस वज्राघात ने बाउजी को बुरी तरह झकझोर दिया. उन दिनों भदादों की बगीची के पीछे बाउजी अपना मकान बनवा रहे थे. नीवें भरी जा चुकी थीं और दो-दो फुट ऊंची दीवार भी चिन दी गई थीं. चिनाई जितनी हुई थी, वहीँ रुक गई और जीवन में फिर कभी आगे नहीं बढ़ी. मकान दो फुट ऊंची दीवार तक ही रहा.


फूफाजी के अंतिम संस्कार के बाद बुआजी अपने देवर पंडित ललिताशंकर जी के साथ बेगूं लौट गईं और भरी-पूरी संपन्नता के बावजूद समाज की लिजलिजी मान्यताओं के कारण, कम उम्र में ही वैधव्य का कठिन जीवन बिताने के लिए बाध्य कर दी गईं. जिन दिनों की यह बात है तब विधवा को कैसा नारकीय जीवन जीना पड़ता था, इस पर शायद आज कोई विश्वास भी नहीं करेगा. फटे-पुराने कपड़े, आधा पेट खाना, जमीन पर सोना, दिन भर नंगे पांव, घर और खेत का काम करना. जीवन जैसे निरंतर अभिशाप और दूर-दूर तक मुक्ति की कोई संभावना नहीं. दो-तीन बरस बाद पंडित ललिताशंकर जी ने अपने दिवंगत बड़े भाई की बेटी कांता का, बेगूं के ही एक युवक दिवाकर शर्मा के साथ विवाह करवा दिया. बुआजी को एक बेटी का सहारा था, सो वो भी जाता रहा.



उन दिनों के सामाजिक नियमों के अनुसार कन्या के विवाह में, उसके मामा को मायरा लेकर आना अनिवार्य होता था. मायरा अर्थात लगभग आधा दहेज. बाउजी अपनी ये जिम्मेदारी निभाने के लिए मायरा लेकर बेगूं पहुंचे. विधवा का जीवन कैसा होता है यह बात बाउजी जानते थे, लेकिन बेगूं पहुंचकर जब उन्होंने अपनी आंखों से अपनी बहन की दुर्दशा देखी, तो उनका पूरा व्यक्तित्व कांप उठा. अपनी इकलौती बहन के ऐसे शापित जीवन को सहन करना बाउजी के लिए किसी पाप से कम नहीं था. कांता की विदाई के बाद बाउजी ने पंडित ललिताशंकर जी को दो टूक शब्दों में अपना निर्णय सुना दिया कि वे किसी भी कीमत पर अपनी बहन को यहां नहीं छोड़ेंगे, अपने साथ लेकर जाएंगे. ललिताशंकर जी को चिन्ता हुई कि अगर उनकी भाभी चली गई, तो बड़े भाई की उस जायदाद का क्या होगा, जिसपर कानूनन बड़े भाई की विधवा का हक था और जिस पर फ़िलहाल वे ख़ुद कब्ज़ा जमाए बैठे थे. बाउजी उनकी चिंता को समझ गए और साफ़-साफ़ बता दिया कि ललिताशंकर जी अगर चाहें, तो सारी जायदाद बाक़ायदा उनके नाम लिख दी जाएगी, लेकिन बाउजी अपनी बहन को किसी भी सूरत में यहां नहीं छोड़ेंगे.


और यही हुआ. ललिताशंकर जी ने जायदाद कब्ज़ा ली और बुआजी को मुक्त कर दिया. बाउजी को अपनी बहन के अलावा और कुछ चाहिए भी नहीं था. वे बहन को अपने साथ भीलवाड़ा ले आए और फिर बुआजी जीवन भर जीवन भर हमारे साथ ही रहीं.


                              ***


हमारे घर में एक नौकर था, जिसका नाम था- धन्ना. गांव से रोज़ी-रोटी की तलाश में इस शहरनुमा कस्बे में आया था. गांव का ग़रीब आदमी जानकर बाउजी ने उसे अपने घर में काम पर रख लिया. उन दिनों मैं और मुन्नी ‘नवयुग विद्या मंदिर’ नाम के स्कूल में पढ़ने जाते थे. धन्ना की ख़ास ड्यूटी ये थी कि वो हमारे लिए गरमागरम खाने का टिफ़िन लेकर आधी छुट्टी के समय स्कूल में आता. हमारी शान ये थी कि टिफ़िन में हम अपने दोस्तों, नारायण और हरिकिशन को भी न्यौता देते, दोस्तों के साथ मिलकर खाने पर दावत जैसा मजा आता. नारायण पुराने भीलवाड़ा के किसी गरीब परिवार का था और हरिकिशन रेलवे लाइन के उसपार बने ‘मेवाड़ टैक्सटाइल मिल’ के मैनेजर का बेटा. एक बार हमारी, मतलब मेरी और मुन्नी की, हरिकिशन के साथ लड़ाई हो गई. लड़ाई ‘तेरी-मेरी कुट्टी’ से कुछ ज्यादा सीरियस थी. इसलिए हमने हरिकिशन का बायकॉट करते हुए, अपनी टिफ़िन-दावत के पास उसके फटकने पर रोक लगा दी. नारायण हमारी पार्टी में था. उसे लगा कि हरिकिशन के लिए सिर्फ़ इतनी सज़ा ही काफ़ी नहीं है. उसने एक सुझाव दिया कि हरिकिशन से वो सब रोटियां वापस मांगी जाएं, जो हमने उसे खिलाई हैं. मेरी बाल-खोपड़ी को यह सुझाव बिल्कुल तर्क और न्यायसंगत लगा और मैंने यही किया. हरिकिशन से कहा, ‘अबे, हरिया-भरिया कान कतरिया, निकाल हमारी रोटियां.’ हरिकिशन क्या जवाब देता. उस का उतरा हुआ अपमानित चेहरा देखकर मन बहुत मुदित हुआ. लेकिन यह आनंद अधिक नहीं टिका, क्योंकि अगले ही दिन हरिकिशन से दोबारा दोस्ती हो गई और वो फिर से हमारी दावत में शरीक होने लगा. आज इस घटना को याद करते हुए गीतकार शैलेन्द्र के गीत ‘बचपन के दिन भी क्या दिन थे’ की एक पंक्ति याद आ रही है, ‘छोटी छोटी खुशियाँ, छोटे छोटे ग़म, कभी रोए, तो आप ही हंस दिए हम.’


नवयुग विद्यामंदिर में दूसरे विषयों के साथ, हमारा एक पीरियड ‘कहानी’ का भी होता  था. बच्चे इस का बड़ी बेचैनी से इंतज़ार करते. कहानी सुनाने वाले मास्टरजी को पता नहीं कितनी कहानियां याद थीं. रोज़ एक नई कहानी सुनाते. परी, राक्षस, भूत, राजा, राजकुमार, चुड़ैल पता नहीं कितने किरदारों की कहानियां, वे पूरे नाटकीय अंदाज़ में मुंह से साउंड-इफेक्ट निकालते हुए सुनाते. उनकी आँखों पर खूब मोटे कांच वाला चश्मा रहता था, जिसमें से झांकती उनकी आँखें और बड़ी दिखाई देतीं. कहानी सुनते हुए कभी हम हँसते-लुढ़कते, तो कभी डर के मारे हमारी सांस रुक जाती. हमें ये मास्टरजी बहुत भाते थे. लेकिन हम उन्हें कहानी वाले नहीं, ‘गोली वाले मास्टरजी’ कहते थे, क्योंकि वे अपनी जेब में हमेशा एक माचिस की डिबिया रखा करते थे, जिसमें छोटी-छोटी मीठी गोलियां भरी होती थीं. बाज़ार में या सड़क पर भी, अगर कोई बच्चा उन्हें देख लेता, ‘गोलीवाले मास्टरजी, नमस्ते’ कहकर उनकी तरफ लपकता और मास्टरजी बड़े प्यार से माचिस की डिबिया में से एक गोली निकाल बच्चे की खुली हुई हथेली पर धर देते. जीवन में जितने याद रखे जाने योग्य चरित्र मुझे मिले हैं, गोलीवाले मास्टरजी भी निश्चय ही उनमें से एक हैं. मोटे-मोटे कांच के चश्में से झांकती-मुस्कुराती उनकी आँखें और बच्चों को देखते ही उनका झूमने लगना कभी नहीं भूलेगा.

   
खाने की छुट्टी में जितनी देर तक हम टिफ़िन-दावत उड़ाते, धन्ना क्लास के बाहर खड़ा बीड़ी पीता रहता. उसके मुंह से निकलता हुआ धुंआ मुझे जादू सा लगता. धन्ना को एक और काम करते भी मैंने देखा था. अंधेरा होने से पहले ही घर की सारी लालटेनें लेकर धन्ना को उनकी सफ़ाई करनी होती. लालटेनों के कांच अंगीठी की राख से रगड़-रगड़कर चमकाए जाते, लालटेनों में मिट्टी का तेल भरा जाता और बाती के जले हुए हिस्से को कैंची से काटा जाता. ऐसी ही एक लालटेन को घेरकर हमें रात में पढ़ाई करनी होती थी. धन्ना भी अक्सर हमारे पास आकर बैठ जाता. उस अनपढ़ को भी पढ़ाए जाने की कोशिश में, अक्सर मैं ‘माट्साब’ बन जाता. लेकिन काफ़ी कोशिशों के बाद भी मैं उसे केवल एक ही अक्षर पढ़ाने में ही कामयाब हो पाया. उसे याद कराया, ‘ध से धन्ना’.


भाभी (मां) के हाथ की बनी पकौड़े वाली कढ़ी दूर-दूर तक मशहूर थी. जब भी कढ़ी बनती, ढेर सारी बनती. क्योंकि उसका आसपास के परिवारों में बांटा जाना एक नियम सा हो गया था. धन्ना को भी कढ़ी बहुत पसंद थी. जिस दिन बनती, धन्ना के लिए वो दिन उत्सव सा हो जाता. एक दिन धन्ना ने रसोई में आकर भाभी को सूचित किया कि आज कढ़ी में नमक कम है. भाभी ने अचरज से उसकी तरफ़ देखा और कहा, ‘तूने कठे से खा ली. आज तो कढ़ी बणी ही नईं.’
धन्ना ने बताया कि उसने तो बरामदे में टपकी हुई देखी थी सो उंगली में लेकर चाट ली.


पलभर को तो भाभी ने अचरज से धन्ना को देखा, फिर एकाएक ज़ोर से उनकी हंसी फूट पड़ी. इतने ज़ोर से हंस रही थी भाभी कि सुनकर बुआजी दौड़ी आई, “कई व्हैग्यो?”
और फिर भाभी ने हंसी के मारे आंखों में छलक आए आंसू पोंछ-पोंछकर, जो बताया उसे सुनकर बुआजी भी हंसते-हंसते दोहरी होने लगी. हुआ ये था कि दुधमुंहे छोटू ने पोतड़ा गंदा कर दिया था. उसे धोने के लिए छोटू को यों का यों उठाकर भाभी नाली तक ले गईं. लेकिन वहां पहुंचते-पहुंचते शायद पॉटी के कुछ कतरे बरामदे में गिर गए और धन्ना ने इन्हीं को गिरी हुई कढ़ी समझ लिया.


जब धन्ना को असलियत बताई गई, तो जाने कितनी देर तक वो नाली के पास बैठकर कुल्ले करता रहा.


धन्ना का चेहरा बस इतना ही याद है मुझे कि उसके सिर पर एक खूब बड़ा साफ़ा और मुंह में अक्सर बीड़ी रहती थी. बीड़ी पीते हुए उसके मुंह से धुआं निकलता देखना, मुझे बड़ा चमत्कारी लगता था. इसी चमत्कार को दोहराने के चक्कर में, एक दिन उसके द्वारा फेंकी हुई बीड़ी का टुकड़ा मैंने उठा लिया और मुंह से धुआं निकालने की झोंक में, होठों के बीच दबाकर बीड़ी में फूंक मारने लगा. धुआं तो क्या निकलता, मेरी इस हरक़त को बाउजी ने देख लिया और देखते ही इतना जोर से चिल्लाए कि मैं ऊपर से लेकर नीचे तक पूरा कांप उठा. बाउजी लपक कर समीप आए और खींचकर मेरे गाल पर ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया. मैं चीखता हुआ लगभग गिर ही पड़ा, लेकिन इतने पर भी बाउजी का क्रोध शांत नहीं हुआ. मेरे ज़ोर-ज़ोर से रोने पर भी वो पसीजे नहीं. बाज़ू से पकड़कर मुझे उठाया और एक तमाचा और रसीद किया. मेरा चीखना सुनकर भाभी और बुआजी कमरे से बाहर निकल आईं, लेकिन बाउजी के क्रोध के सामने उनकी ज़बान भी तालू से चिपकी हुई थी. बाउजी मुझे घसीटते हुए सीढ़ियों से ऊपर छत पर ले गए. छत का आधा हिस्सा एक खपरैल से ढंका था और खपरैल एक बल्ली के सहारे टिकी थी. बाउजी ने पास पड़ी एक रस्सी उठाई और मुझे बल्ली के साथ बांधने लगे. बीच-बीच में रस्सी को कोड़े की तरह मेरे पैरों और पेट पर जड़ते भी जा रहे थे. मैं लगातार ज़ोर-ज़ोर से रोए जा रहा था, लेकिन उस दिन जाने क्या हुआ था बाउजी को कि सारी दया-ममता भुला बैठे थे. पान-बीड़ी-तंबाकू के वो घोर विरोधी थे. लेकिन उस दिन वो पहले से ही किसी बात पर क्रोधित होकर ऊपर आए थे या मुझे मुंह में बीड़ी लगाए देखने पर आगबबूला हुए, सो तो मैं कभी नहीं जान पाया, लेकिन उनका ऐसा क्रोध किसी ने कभी नहीं देखा था. मुझे बल्ली से बंधा छोड़कर वे नीचे उतरते हुए सीढ़ियों में चिल्लाकर ताक़ीद करते जा रहे थे कि ख़बरदार अगर किसी ने मुझे खोलने की कोशिश की.


मैं कितनी देर तक रोता रहा, कितनी देर तक बंधा रहा, कुछ याद नहीं. बस इतना याद है कि जाने कब बुआजी आई, उन्होंने रस्सी खोलकर मुझे बल्ली की गिरफ़्त से आज़ाद किया और गले लगाकर खूब देर तक रोती रहीं. रोने से बंधी मेरी हिचकियां भी देर तक होती रहीं.


इस घटना का मेरे बालमन पर उस समय क्या असर हुआ था, इस बारे में आज 65-66 बरस बाद मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकता. लेकिन सुना है कि बाउजी से मिली इस सज़ा के बाद, मैं हरदम सहमा और डरा हुआ रहने लगा था. मेरी भूख कम हो गई और खेलने-कूदने का भी जी नहीं करता था. मैं अकेला और चुप-चुप हो गया. मेरी सेहत लगातार गिरने लगी और बदन दुबला होता चला गया. इसी दौरान एक दिन ताऊजी (घासीराम जी डोलिया) ने लाड में आकर मुझसे पूछा, “क्या हो गया रे तुझे मुन्ना ? दिन पर दिन दुबला क्यों होता जा रहा है ?”
मैंने सिर झुकाकर कुछ लजाते, कुछ डरते हुए कहा, “मुझे बाउजी ने मारा ना, इसलिए मैं दुबला हो गया.”


बचपन के भोलेपन में कही गई इस बात में कितनी सच्चाई थी, सो तो नहीं मालूम, लेकिन निश्चय ही मेरे बालमन पर बाउजी के द्वारा दी गई सज़ा ने गहरे ज़ख्म बनाए होंगे. ताऊजी ने जब यह बात बाउजी को बताई, तो वे एकदम से सन्नाटे में आ गए. कुछ नहीं बोले. इसके बाद अक्सर लोग मुझसे यही सवाल करते, मैं यही जवाब देता और हर बार मेरा जवाब बाउजी के वजूद पर कोड़े बरसाता. एक दिन मैंने सुना, वे बुआजी से कह रहे थे, “ठीक कहता है मुन्ना. मैंने उसे मारा, इसीलिए दुबला हो गया.”


मेरे मन पर लगे ज़ख्म तो कुछ दिनों बाद भर ही गए होंगे, लेकिन बाउजी के मन पर लगे पश्चाताप के घाव उम्र भर हरे रहे.

जीवन भर बाउजी ने मुझ पर फिर कभी हाथ नहीं उठाया.



                               ***


सन् 1949-50 तक भीलवाड़ा में आए हुए शरणार्थी धीरे-धीरे, इधर-उधर अपनी घर-गृहस्थी बसा चुके थे. ख़ाली पड़े मैदान, आड़े-तिरछे घरों से आबाद हो गए थे और घरों के आगे-पीछे या अगल-बगल दूकानें खोल ली गईं थीं. भीलवाड़ा की आबादी बढ़ी, तो बाउजी द्वारा स्थापित अजमेर सोप फैक्ट्री का उत्पादन और बिक्री भी बढ़ गए. लेकिन दीन-दुखियों के लिए सदा द्रवित रहने वाला बाउजी का मन, व्यापार के लिए पूरी तरह नाक़ाबिल था.


फैक्ट्री में जो साबुन तैयार होता, उसे टिकियों में काटकर, हर टिकिया पर ‘अजमेर सोप’ का ठप्पा लगाया जाता था. टिकिया को तराशने में जो छिलके उतरते, उन्हें बाउजी एक अलग ढेर बनवाकर दूकान के बरामदे में रखवा देते. साबुन के इन छिलकों को मुसीबतज़दा शरणार्थियों को बहुत कम दामों में बेचा जाता. परिणाम ये हुआ कि सजी-संवरी अजमेर सोप की टिकिया अलमारियों में धरी रह गई और ज्यादातर लोग छिलके ही खरीदने लगे. इस तरह अजमेर सोप फैक्ट्री का उत्पादन कम होने लगा और बही-खातों में घाटा दर्ज होता गया. बाउजी ने अपने संस्कार गणित से नहीं पाए थे. हिसाब-किताब उनके जीवन में कभी उतरा ही नहीं. लेकिन पार्टनर घासीराम जी डोलिया बही-खाते में ख़ासे निपुण थे. शायद उन्हें अपना पार्टनर बनाने के पीछे भी बाउजी के मन में उनके इसी हुनर का ध्यान रहा होगा. लेकिन बही-खाते में नफ़े-नुकसान की रक़म दर्ज की जा सकती है. दर्ज करने वाला नुकसान को नफ़े में बदल नहीं सकता.
धीरे-धीरे घाटा बढ़ता गया.


इस के बावजूद बाउजी ने शरणार्थियों की मदद के लिए एक और काम किया. मकान के बाएं कोने पर बने हॉल के माथे पर तो ‘अजमेर सोप फैक्ट्री’ का बोर्ड टंगा था. लेकिन दाएं कोने वाली दूकान में उन्होंने दूध बेचने का काम शुरू करवा दिया. इस काम की जिम्मेदारी बस्सी (एक गाँव) वाले मामासा मोतीलाल जी को दी गई. मोतीलाल जी मुंह अंधेरे आकर भट्टी सुलगाते और साबुन फैक्ट्री के लिए बनवाई गई, इस्तेमाल से बची एक कढ़ाही में, आसपास के ग्वालों से खरीदा हुआ दूध उबलने के लिए रख दिया जाता. पौ फटते ही दूध खरीदने वाले शरणार्थियों की भीड़ दूकान के आगे जुटने लगती. यह काम भी बाउजी ने केवल शरणार्थियों की मदद के लिए शुरू किया था, इसलिए दूध को लागत के दाम पर ही बेचा जाता था.


मुझे याद है, मैं और मुन्नी बिस्तर से उठते ही नीचे उतरकर मामासा के सामने जा खड़े हो जाते और वे ‘आ गए बगैर मुंह धोए’ की डांट के साथ हमारे हाथों में एक-एक गिलास दूध थमा देते. मैं और मुन्नी दूध पीते जाते और एक-दूसरे के होंठों के ऊपर बनी दूध की मूछों को देख-देखकर हंसते जाते.
शायद दूध की दूकान से बाउजी का बस यही मुनाफ़ा था.


                                            
                             


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