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Monday, May 16, 2016

हिद बुध जाते ति- पत्ता पत्ता बूटा बूटा - छठी कड़ी



काफ़ी छोटी थी जब मेरे नानाजी गोरखपुर में पोस्टेड थे और गोंडा, बस्ती, बहराइच, देवरिया जिले उनके चार्ज में थे। गोरखपुर में उद्योग लगाने के सिलसिले में एक जापानी
शिष्टमंडल आया था और उसने भगवान बुद्ध का जन्मस्थान देखने की इच्छा व्यक्त की थी। तो प्रोटोकॉल के नाते उनके साथ नानाजी भी सपरिवार लुम्बिनी गये। परिवार के नाम पर बस मैं और मेरी नानी, दो ही जने थे। मैं पूरे शिष्टमंडल का खिलौना बनी हुई थी। लुम्बिनी की बस इतनी सी याद है कि बहुत सारे ऊँचे घने पेड़ थे, ज़मीन में गड़ी एक शिला पर कुछ लिखा था और पास में एक पुराना मंदिर था।

बाद में प्राचीन भारतीय इतिहास,संस्कृति और पुरातत्व की छात्रा के रूप में सीधे अशोककालीन ब्राह्मी लिपि में पढ़ा कि उस शिला पर लिखा था - "हिद बुधे जाते सक्य मुनी ति"। अपने शासन के बीसवें वर्ष में सम्राट अशोक वहां गये थे और उस स्थान को दीवार से घेर कर एक स्तम्भ लगवाया था। अशोक की यह यात्रा 250 वर्ष ईसा पूर्व में हुई थी, जब भगवान बुद्ध के जन्म को बहुत समय नहीं बीता था, इसलिये इसे प्रमाणिक माना जा सकता है।

बौद्ध साहित्य में भगवान बुद्ध के जन्म का जो विवरण मिलता है उसके अनुसार कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन की पत्नी माया देवी अपनी पहली संतान को जन्म देने मायके जा रही थीं। रास्ते में लुम्बिनी के सालवन की शोभा देखकर वहीँ ठहर गयीं। तभी प्रसव पीड़ा हुई और उसी स्थान पर साल वृक्ष की टहनी पकडे हुए उन्होंने बालक को जन्म दिया। कथा है कि जन्म लेते ही बालक सात क़दम चला और हर क़दम पर कमल खिलते गये। सारनाथ के मूलगंध कुटी विहार की दीवार पर बचपन से इस कथा का चित्र देखती आयी थी। आज आप भी देखिये -


लेकिन जन्म के समय वे भगवान बुद्ध नहीं
, शाक्य कुमार सिद्धार्थ थे। वही जिनके बारे में भविष्यवाणी की गयी थी कि या तो वे चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे या गृहत्यागी संन्यासी। भविष्यवाणी का पिछला भाग सच साबित हुआ। सिद्धार्थ, नवजात शिशु और सुन्दर पत्नी के साथ-साथ सारे राजसी ठाठ-बाट भी पीछे छोड़कर चले गये। उन्हें संसार में सब ओर दुःख ही दुःख नज़र आता था और वे इस दुःख से छुटकारा पाने का मार्ग ढूँढ़ने निकल पड़े थे। कई बरस भटकने के बाद आख़िर गया में एक पीपल के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और वे बुद्ध कहलाये। अपना यह बोध सबको बाँटने के लिये वे एक बार फिर निकल पड़े। काशी के पास सारनाथ में उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया, धर्म-चक्र-प्रवर्तन किया। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनके उपदेशों को दूर देशों तक फैलाया। उनकी प्रतिमायें अब तक अफ़ग़ानिस्तान से चीन तक और उससे भी आगे कोरिया और जापान तक पूजी जाती हैं। 


भगवान बुद्ध की मृत्यु भी साल वृक्ष के नीचे ही हुई थी। महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार -
"कुशीनारा के उपवर्त्तन नामक मल्लों के शालवन में जोड़े शाल वृक्षों के बीच तथागत निर्वाण को प्राप्त हुए।"
चुंद कर्मारपुत्र के यहाँ भोजन करने के बाद वे बीमार पड़े और दो बड़े साल वृक्षों के बीच उनका बिछौना किया गया। वहीँ शिष्यों को अंतिम उपदेश देकर उन्होंने शरीर छोड़ा।


 
पर ठहरिये, पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा श्रृंखला साधु-संन्यासियों के नहीं, पेड़ पौधों के बारे में हैं और हमें बुद्ध की नहीं, साल वृक्ष की चर्चा करनी है।

साल, साखू या सखुआ के नाम से जाना जाने वाला यह पेड़ भारत का मूल निवासी है और लगभग पूरे देश में पाया जाता है। ख़ास तौर पर हिमालय की तराई वाले हिस्सों, असम, बंगाल, ओडिशा, झारखण्ड और नेपाल के अलावा पूर्वी और पश्चिमी घाटों में भी घने साल वन पाये जाते हैं। इसका तना सीधा ऊंचा बढ़ता है। ऊँचाई का आलम ऐसा कि कोई-कोई पेड़ 30 से 35 मीटर यानी 115 फुट तक ऊँचा होता है। तने की चौड़ाई भी उसी अनुपात में ढाई मीटर तक पायी जाती है। इसकी मज़बूत और टिकाऊ लकड़ी इमारतों के निर्माण में काम आती है।


साल के चौड़े पत्ते वनवासियों के लिए कमाई का साधन होते हैं। सूखे पत्तों से सामूहिक भोज में इस्तेमाल होने वाले दोने-पत्तल बनाकर बेचने से उन्हें कुछ पैसे मिल जाया करते थे लेकिन थर्मोकोल के चलन ने उनसे जीविका का यह साधन भी छीन लिया है। इसके अलावा साल के बीजों से तेल भी निकाला जाता है।
चैत के महीने में साल के पेड़ों पर फूल आते हैं। इस अवसर पर सरहुल का त्यौहार मनाया जाता है। सरहुल शब्द साल के फूलने और उसकी पूजा से जुड़ा हुआ है। बहुत से लोग इस त्यौहार से पहले नये फल और अनाज नहीं खाते। सरहुल के बाद ही नयी फसल की बुवाई शुरू होती है। गाँव का पुजारी, पहान, कुछ विशेष रस्मों से अगले मौसम की फसल के बारे में भविष्यवाणी करता है। झारखण्ड में सरहुल बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। साल के फूल जुड़े में बाँधे युवतियाँ और कानों पर खोंसे युवक, मादल की ताल पर थिरकते हुए प्रकृति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।



इसी साल वृक्ष से जुड़ी है शालभंजिका। भारतीय मूर्तिकला के शुरुआती दिनों से पेड़ के नीचे खड़ी या फूल-पत्ते तोड़ती स्त्री मूर्तियों को शालभंजिका के रूप में एक अलग पहचान मिली। बाद में सजती-सँवरती और दर्पण में मुख देखती स्त्री मूर्तियों को भी इसी वर्ग में रखा जाने लगा। प्रारंभिक उदाहरण भरहुत स्तूप की रेलिंग पर और साँची के पूर्वी तोरण द्वार पर मिलते हैं। होयसल वंश के बेलूर और हेलेबिड में मंदिरों की दीवारों पर इनके उत्कृष्ट रूप प्राप्त होते हैं।



और अब एक सरहुल गीत सुनिए।




5 comments:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...



बेहद सुंदर, सरल प्रवाहमय, भूगोल, इतिहास भारतीय परम्पराओं को लेकर बुद्ध के अद्भुत जीवन को समेटे आलेख मन को प्रसन्नता से भर गया - लिखतीं रहें सौ. शुभ्राजी ...
~~ लावण्या

Unknown said...

...बहुत बढ़िया मैम...

Unknown said...

साल पेड़ के बीज चाहिए असली बीज चाहिए जो उग सके

Sweta gupta said...

Pranaam mem
Hmne ap s kai lok geet fb pr sun kr rtt liye h
Bde hii sundar h

rajendra bhatt said...

बहुत अच्छा लेख।बहुत प्रवाहपूर्ण।

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