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Monday, July 18, 2016

चंपा तुझमें तीन गुण :पत्‍ता पत्‍ता बूटा बूटा चौदहवींं कड़ी


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आजकल पत्र-पत्रिकाओं में, सोशल मीडिया में और आपसी बातचीत में सबसे अहम मुद्दा है -बरसात। बारिश हो रही है तो ख़ुशी में झूमते गीत और नहीं हो रही तो "अल्लाह मेघ दे" सरीखे गीत गाये-बजाये जा रहे हैं। रेडियो पर तो वर्षा गीतों की धूम मची हुई है। कुछ नया सुनाने की चाहत में उद्घोषक-उद्घोषिकायें जाने कहाँ कहाँ से भूले-बिसरे गीत ढूँढ कर ला रहे हैं। कुछ चिर-परिचित गीत भी बरसात के मौसम में सुने जाने पर बिलकुल नये-नये से लगते हैं, जैसे पहली बार सुन रहे हों। जैसे 1953 में बिमल रॉय की फ़िल्म दो बीघा ज़मीन के लिये सलिल चौधरी का संगीतबद्ध किया यह गीत -
हरियाला सावन ढोल बजाता आया,
धिन तक-तक मन के मोर नचाता आया,
मिटटी में जान जगाता आया।
धरती पहनेगी हरी चुनरिया,
बनके दुल्हनिया,
एक अगन बुझी,एक अगन लगी,
मन मगन हुआ एक लगन लगी। 



 

 या फिर शांताराम जी की प्रयोगात्मक फ़िल्म दो आँखें बारह हाथ के लिये भरत व्यास का लिखा और वसंत देसाई के स्वरों से सजा यह अद्भुत गीत -
हो उमड़ घुमड़कर आयी रे घटा,
कारे-कारे बदरा की छायी-छायी रे घटा
 सन सनन पवन का लगा रे तीर,
बादल को चीर निकला जो नीर, निकला जो नीर
 झर-झर झर-झर झर धार झरे हो
धरती जल से माँग भरे।
हो उमड़-घुमड़कर ---------
नन्हीं नन्हीं बूँदनियों की खनन-खनन खन खंजरी बजाती आयी
बजाती आयी देखो भाई बरखा दुल्हनिया, बरखा दुल्हनिया।


 

बरखा दुल्हनिया की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसके आते ही सारी धरती हरी चुनरी ओढ़कर उसके स्वागत के लिये तैयार हो जाती है। घर के बड़े-बूढ़ों सरीखे पेड़ सर हिला-हिलाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते हैं। घर की बेटियों सरीखी लतायें फूली नहीं समातीं। छोटे बच्चों सरीखे पौधे यहाँ-वहाँ, हर कहीं झूमते फिरते हैं। सावन के दूल्हे की शान देखते ही बनती है। और ख़ुद बरखा दुल्हनिया हरी चुनरिया साजे, कलियों के कंगन खनकाती, रंग-बिरंगी झोली भरकर लोगों के भण्डार भरने निकल पड़ती है। बरखा के आने पर तरणि तनूजा तट के तमाल और कदम्ब वनों के पुलक उठने की बात हम पिछली कड़ियों में कर चुके हैं। आज एक और वृक्ष की बात करते हैं जो बरखा की नन्हीं-नन्हीं बूँदों की खंजरी से झूम उठता है - चंपा का वृक्ष। आम तौर पर आज हम जिसे चंपा समझते हैं और अपने बगीचों-पार्कों में बड़े शौक़ से लगाते हैं, वो असली चंपा नहीं है, चंपा का एक वर्णसंकर और आयातित संस्करण है। इसका सही नाम फ्रांजीपनी है और यह मूल रूप से मध्य और दक्षिण अमेरिका की प्रजाति है। ​




भारतीय चंपा इससे भिन्न है। इसका उल्लेख संस्कृत, पाली और तमिल साहित्य में मिलता है। अपने प्राकृतिक परिवेश में इसके पेड़ बहुत ऊँचाई तक जाते हैं। पत्तों की आकृति कुछ-कुछ मौलसिरी जैसी होती है और इसके फूल बहुत सुगंधित होते हैं।

भारत में भी अलग-अलग जगहों पर इसके अलग-अलग प्रकार देखने को मिलते हैं, जैसे काठ चंपा, कटहरी चंपा और नाग चंपा। कहते हैं कि चंपा के फूल पर भँवरे नहीं आते। बचपन में एक कहावत सुनी थी -

चंपा तुझमें तीन गुण, रूप रंग अरु बास 
केवल अवगुण एक है, भँवर न आवै पास।
 कई बार कोशिश की लेकिन इस कहावत की सच्चाई को अब तक सच या झूठ साबित नहीं कर पायी हूँ। अव्वल तो शहरों में भँवरे ही नज़र नहीं आते और कभी कोई भूला-भटका आ जाये तो इधर-उधर मँडराकर लौट जाता है। पता नहीं चंपा से उसकी गुफ्तगू होती है या नहीं।  बहरहाल पाती की जाली पर सोयी चंपा की कली का यह गीत मुझे बहुत प्यारा लगता है। आप भी सुनिये -
  

2 comments:

Satprakash Sanothia said...

अच्छी पोस्ट! नई बात पता चली कि चम्पा पर भँवरे नहीं आते। सुबह पार्क में ध्यान से देखूंगा। चंपा के झुरमुट के पास ही बैठकर प्राणायाम करता हूँ।

Satprakash Sanothia said...

अच्छी पोस्ट! नई बात पता चली कि चम्पा पर भँवरे नहीं आते। सुबह पार्क में ध्यान से देखूंगा। चंपा के झुरमुट के पास ही बैठकर प्राणायाम करता हूँ।

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