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पिछले दो एपिसोड्स में
मैंने आपको अमरू की बेटी मुनकी की कहानी सुनाई. दिल्ली में जब उससे मुलाक़ात हुई और
मैं उसके घर से उठकर आया तो मुझे लगा कि मेरे जीवन से मुनकी नाम के अध्याय का
समापन हो गया है मगर जीवन तो एक नाटक है. कब कौन सा पात्र आपके जीवन से अचानक गायब
हो जाएगा और कब कौन सा पात्र आपके जीवन रूपी रंगमंच पर लौटकर अपने हिस्से का अभिनय
करने लगेगा, ये किसी को पता नहीं होता. मैंने ग़लत सोचा था कि मुनकी नामक पात्र का
रोल समाप्त हो गया है. वो फिर मेरे जीवन में लौटी, लेकिन बहुत बाद में. वो कथा मैं
आगे चलकर सुनाऊंगा. अभी मेरे जीवन की मुख्य कथा की ओर लौटते हैं.
लेकिन............मुनकी की कहानी ने माहौल
को बहोत भारी बना दिया है और बीकानेर में मेरी पोस्टिंग का साढ़े तीन बरस का वक़्त मेरे
जीवन का सबसे मुश्किल वक़्त रहा. उस मुश्किल वक़्त के किस्से निश्चित रूप से माहौल
को और बोझिल बना देंगे. इसलिए वो सब सुनाने से पहले आइये आपको कुछ हल्की फुल्की
मनोरंजक बातें सुनाता हूँ.
1977 में मैं बीकानेर आ गया था.
यहीं मेरी भेंट एक ऐसी सहकर्मी महिला से हुई जिनसे मैं जोधपुर में मिल तो चुका था
लेकिन साथ काम करने का ये मेरा पहला मौक़ा था. पाठक मुझे क्षमा करेंगे, मैं उनका असली
नाम नहीं लिख रहा हूँ क्योंकि मेरी लिखी हुई किस बात से उनके दिल को चोट पहुँच जाए,
ये मुझे नहीं पता और मैं हरगिज़ नहीं चाहता कि मेरी किसी बात से उनके दिल को चोट
पहुंचे. दरअसल मैंने लिखना शुरू करने से पहले इस इरादे से उन्हें फोन किया था कि उनसे
जुड़ी सारी घटनाएं उन्हें सुनाकर उनसे इन्हें आप सब तक पहुंचाने की इजाज़त ले लूं
मगर बदकिस्मती से उनके घर में एक बड़ा हादसा हो गया था और मैं उनसे इजाज़त नहीं ले
पाया. मैं उनकी बहुत इज्ज़त करता हूँ. मन की भोली भाली, सीधी सच्ची वो महिला मुझसे
बहोत स्नेह रखती हैं और रेडियो जीवन में कई जगहों पर मेरे साथ रही हैं. उनके साथ
काम करना हमेशा मेरे लिए बहोत खुशनुमा रहा, चाहे वो बीकानेर की पोस्टिंग हो चाहे
कोटा की या फिर मुम्बई की. अब जब उनके किस्से सुनाने चला हूँ तो उनका कोई नाम तो
रखना पड़ेगा ना ? चलिए उनका नाम रख लेते हैं...........शान्ति जी. तो........
शान्ति जी हम दोनों के साथ बहुत स्नेह रखती हैं. उनकी एक आदत बहुत शानदार थी. उनकी
उस आदत से हमारा बहोत मनोरंजन होता था. वो जब ड्यूटी पर आती थीं तो अपने साथ कुछ
ना कुछ खाने का सामान ज़रूर लाती थीं. ड्यूटीरूम में 7-8 घंटे लगातार बैठना होता
था. आते ही वो मेज़ की दराज़ में अपनी खाने पीने की सामग्री रख लेती थीं. सामने ही
ड्यूटी रूम का दरवाज़ा था. वो दायें देखतीं, फिर बाएं देखतीं, फिर झट से दराज़
खोलतींऔर खाने की चीज़ का एक टुकड़ा अपने मुंह में रख लेतीं. इसके बाद में जल्दी
जल्दी मुंह चला कर उसे ख़तम कर देतीं. अगर दरवाज़े के सामने से कोई इंसान निकलता तो शान्ति जी झट से मुंह चलाना बंद
करके चेहरे पर एक अच्छी सी प्यारी सी मुस्कान बिखेर देतीं. कह नहीं सकता कि किसी
और को इस बात का पता चलता था या नहीं कि उस मुस्कराहट के पीछे उनके मुंह में कुछ
खाने का सामान छुपा है, लेकिन मुझे तो समझ आ जाता था और मैं ड्यूटीरूम के दरवाज़े के सामने पहुंचता और उनका
चलता हुआ मुंह रुक जाता था. मैं इस तरह आगे बढ़ जाता था मानो मैंने उस तरफ देखा ही
न हो, मैं जैसे ही आगे बढ़ता, उनका मुंह फिर चलने लगता मगर मैं ज़रा सा आगे बढ़कर
वापस मुड़ जाता. उन्हें अपना मुंह फिर रोक लेना पड़ता. इस तरह मैं सामने से कई बार
निकलता. उनका मुंह चलता फिर फ्रीज़ होता फिर चलता फिर फ्रीज़ होता. इस तरह उनके मुंह
में डाली हुई चीज़ किस्तों में चबाई जाती थी.
शादी के बाद शान्ति जी
जयपुर चली गईं. कुछ एक आध साल बाद मेरा जयपुर जाना हुआ तो आकाशवाणी गया. शान्ति जी
इतना स्नेह रखती थीं कि उनसे मिलना तो ज़रूरी था. मैं जैसे ही ड्यूटीरूम में पहुंचा,
उन्होंने अपने चिर परिचित अंदाज़ में मुस्कुराकर मेरा स्वागत किया और अपनी अंग्रेज़ी
स्टाइल की हिन्दी में परिवार की खैरियत पूछी. फिर अचानक से बोलीं “ मोदी जी, जानते
हैं, मैंने एक छोटा सा घर बनाया है जयपुर में.........”
मैंने कहा, “भई बधाई हो
शान्ति जी.”
“नहीं ऐसे बधाई देने से
काम नहीं चलेगा. अभी मेरी ड्यूटी ख़त्म होने वाली है. आप मेरे साथ मेरे घर चलकर
देखिये तो सही कि कैसा घर बनाया है मैंने......”
मैंने पूछा, “शर्मा साहब
कहाँ हैं?”
“वो तो तीन चार दिन के लिए
बाहर गए हुए हैं.”
“वो यहाँ होंगे तभी चलूँगा
ना किसी दिन, उनसे भी मुलाक़ात हो जायेगी.” मैंने थोड़ा टालने के अंदाज़ में कहा.
“नहीं मोदीजी, वो आयेंगे
तब तक तो आप बीकानेर चले जायेंगे. उनसे मिलने के लिए फिर कभी चले चलिएगा लेकिन
मकान देखने तो आपको आज ही चलना पडेगा.”
अब मेरे पास बचने का कोई
रास्ता नहीं था. मुझे कहना पड़ा, “ठीक है जी, आज ही चलता हूँ.”
थोड़ी देर में उनकी ड्यूटी
ख़त्म हो गयी. मैं और वो एक साइकिल रिक्शा पर सवार होकर उनके घर की ओर चले. थोड़ी
देर में हम उनके घर पहुँच गए. उन्होंने ताला खोला. हम दोनों घर में घुसे. उन्होंने
सबसे पहले मुझे घर का कोना कोना दिखाया. छोटा सा लेकिन खूबसूरत घर था. घर देखने के
बाद हम ड्राइंग रूम में आकर बैठ गए. अब उनका मन हुआ मेरी कुछ खातिरदारी करने का.
वो अपने अंदाज़ में हँसते हुए बोलीं, “मोदीजी क्या लेंगे? मुझे पता है कि चाय तो आप
पीते नहीं.”
मैंने कहा, “कुछ नहीं जी......मैं
चलता हूँ. आपका घर देखना था वो देख लिया. कुछ भी खाने पीने का मन नहीं है अभी.”
“नहीं नहीं, ये कैसे हो
सकता है? आप पहली बार मेरे घर आये हैं कुछ तो लेना ही पड़ेगा आपको.”
मैंने बहोत कहा कि मेरा
कुछ भी खाने पीने का मन नहीं है लेकिन वो नहीं मानी और बोलीं, “और कुछ नहीं तो
थोड़ा सा रूह अफज़ा शरबत तो चलेगा.”
“जी आप तो पानी पिला
दीजिये बस.”
“जी हाँ पानी तो लाती ही
हूँ मैं.”
एक स्टील के ग्लास में
पानी लेकर आयीं. मैंने पानी पी लिया. वो बोलीं, “मैं तो इस वक़्त ऑफिस से लौटकर चाय
पीती हूँ. आप पांच मिनट बैठिये, मैं अपने लिए चाय और आपके लिए शरबत बना कर लाती
हूँ.”
“जी अच्छा.”
वो अन्दर किचन में चली गईं
और मैं ड्राइंगरूम की साजसज्जा को निरखने लगा. एक कैलेण्डर टंगा हुआ था, कुछ
तस्वीरें फ्रेम करवा कर दीवारों पर टांग रखी थी. कुछ कुर्सियां और एक सेंटर टेबल
रखी हुई थी. एक शीशा लगी अलमारी थी ड्राइंगरूम में जिसमे कई शो पीस सजाये हुए थे.
थोड़ी देर में हाथ में ट्रे लिए शान्ति जी ड्राइंग रूम में दाखिल हुईं. उन्होंने
ट्रे को सेंटर टेबल पर रखा. ट्रे में एक कप रखा हुआ था और एक स्टील का ग्लास. ट्रे
रखते हुए वो बोलीं, “लीजिये मोदी जी, शरबत लीजिये.”
उन्होंने चाय का कप उठा लिया और मैंने ग्लास. वो
फिर हँसते हुए बोलीं, “मोदी जी माफ़ करना, शरबत स्टील के ग्लास में पिला रही हूँ
कांच के ग्लास सारे जूठे पड़े हैं.”
मैंने कहा, “जी उससे क्या
फर्क पड़ता है ? शरबत को बस मीठा होना चाहिए, चाहे वो स्टील के ग्लास में हो या
कांच के ग्लास में.”
इस पर उन्होंने फिर अपनी
स्टाइल में एक ठहाका लगाया.
मैंने ग्लास मुंह के
लगाया. कुछ बर्फ के टुकड़े मुंह के लगे लेकिन कहीं मिठास नाम की चीज़ नहीं थी. मैंने
सोचा शायद पहले शरबत बना कर रख दिया होगा और अपनी चाय बनाने लगी होंगी. चाय बनी तब
तक शायद बर्फ थोड़ी पिघल गयी होगी इसलिए फीका लग रहा है. एक एक घूँट भरते भरते आधा
ग्लास खाली हो गया लेकिन मिठास का कहीं नामोनिशान नहीं था. मुझे लगा शान्ति जी
शरबत डालना ही भूल गयी हैं शायद. अब इनको कहकर क्यों तकलीफ पहुंचाई जाए? चुपचाप
पानी ही पी लेता हूँ. मैं घूँट भरता रहा. जब ग्लास में चार छः चम्मच तथाकथित शरबत
बचा, जैसे ही घूँट भरा मेरे चेहरे के तास्सुर न चाहते हुए भी बिगड़ गए क्योंकि मेरे
मुंह में गाढ़ा गाढ़ा रूह अफज़ा आ गया था. शान्ति जी बोलीं, “अरे क्या हुआ मोदी जी ?”
मैंने कहा, “कुछ नहीं,
आपने शरबत तो ग्लास में डाला लेकिन शायद पानी डालने के बाद चम्मच से उसे मिलाना
भूल गईं तो रूह अफज़ा सारा ग्लास के पैंदे में ही रह गया.”
उन्होंने एक ठहाका लगाया
और बोलीं, “सॉरी मोदी जी मैं चम्मच घुमाना तो भूल ही गयी. लाइए इसमें थोड़ा पानी डाल
कर चम्मच से मिला देती हूँ.”
दो ग्लास पानी पहले ही पी
चुका था. अब और शरबत पीने की हिम्मत नहीं थी मुझमें. मैंने कहा, “सॉरी शान्ति जी
अब पेट में बिलकुल जगह नहीं है. आप इस रूह अफज़ा को किसी शीशी में निकालकर रख
लीजिये. अगली बार आऊँ तब शरबत बना कर पिला दीजिएगा.”
उन्होंने फिर एक शान्ति
शर्मा छाप ठहाका लगाया और बोलीं, “क्या मोदी जी, आप भी कमाल करते हैं.”
मैंने कहा, “जी धन्यवाद,
अब मैं चलता हूँ.”
और मैं वहाँ से उठकर
नमस्ते करके चला आया लेकिन ये किस्सा उस वक़्त पूरा नहीं हुआ. ये किस्सा पूरा हुआ
इसके दो-तीन बरस बाद. हुआ यों कि मुझे फिर
किसी काम से जयपुर जाना पड़ा. शान्ति जी की पोस्टिंग जयपुर ही थी. उनसे मिलना तो था
ही क्योंकि इतना स्नेह रखने वाले सहकर्मी रेडियो में कम ही होते हैं. मैं जब उनसे
मिला तो शान्ति जी बहुत खुश हुईं और मुस्कुराते हुए बोलीं, “मोदीजी आज फिर आपको मेरे
घर चलना पड़ेगा.”
मैंने कहा, “आज क्या खास
बात है शान्ति जी ?”
वो मुस्कुराहट को थोड़ा और
बढ़ाते हुए बोली, “आप पिछली बार जिस छोटे से मकान को देखकर आये थे अब वो थोड़ा बड़ा
हो गया है.”
“अच्छा? ये तो बहोत खुशी
की बात है. अच्छा उस दिन वाला रूह अफज़ा आपने सहेजकर रखा लगता है, वही पिलाना चाहती
हैं शायद.”
उन्होंने एक ठहाका लगाया
और बोलीं, “आप भी मोदीजी चूकते नहीं. लेकिन आज मैं पिछली बार की तरह फीका शरबत
नहीं पिलाऊंगी. आज आपके सामने ही बैठकर शरबत बनाऊँगी और अच्छी तरह चम्मच से चलाकर
शरबत को अच्छी तरह घोलकर फिर आपको पिलाऊंगी.”
मैंने कहा, “जी बहोत अच्छा.”
थोड़ी ही देर में उनकी
ड्यूटी ख़त्म हो गयी और वो बोलीं, “चलिए, घर चलते हैं.”
“जी चलिए.”
हम फिर एक रिक्शा में बैठे
और उनके घर आ गए. उन्होंने मकान को पहले से बड़ा और सुन्दर बना लिया था. मकान घूम
फिरकर देखने के बाद फिर ड्राइंग रूम में आकर हम लोग बैठ गए. इस बार उसमे एक सुन्दर
सोफा भी लग गया था. सेंटर टेबल भी नई आ गयी थी और एक कोने में एक किताबों का रैक
लग गया था जिसमे अच्छी किताबों का सुन्दर सा कलैक्शन सजा हुआ था. शान्ति जी बोलीं,
“मोदीजी, इस बार आपको शिकायत का कोई मौक़ा नहीं दूंगी. मैं भी आपके साथ शरबत ही
पियूंगी ताकि कोई कमी रहे तो मुझे पता चल जाए. आप दो मिनट बैठिये मैं शरबत बनाने
का सामान यहीं ले आती हूँ.”
मैंने बहोत कहा कि उनके
चाय पीने का वक़्त है, वो शौक़ से चाय पियें, मैं बिना किसी शिकायत के शरबत पी लूंगा,
लेकिन वो नहीं मानीं. बोली, अभी तो मैं भी शरबत ही पियूंगी. चाय पीनी होगी तो बाद
में बनाकर पी लूंगी.”
थोड़ी देर में वो रूह अफज़ा
की बोतल, दो चम्मच और दो ग्लास लेकर आईं और उन्हें टेबल पर रख दिया. फिर अन्दर गईं. जब वो वापस आईं
तो एक भगोने को पकड़ से पकड़े हुए थीं. मैं असमंजस में पड़ गया. मैंने कहा, “आज क्या
गरम पानी में शरबत घोलकर पिलाने वाली हैं ?”
वो एकदम चौंकते हुए बोलीं,
“नहीं तो....... मैं क्या पागल हूँ मोदीजी ? भला गरम पानी में शरबत क्यों बनाऊँगी
?”
“तो गरम पानी क्यों लेकर
आई हैं?”
वो हँसते हुए बोलीं, “गर्म
पानी ? आपको किसने कहा कि मैं गरम पानी लेकर आयी हूँ?”
“तो फिर इस भगोने को पकड़
से क्यों पकड़े हुए हैं?”
“अरे हाँ, इस भगोने में तो
बर्फ डालकर पानी लाई हूँ मैं. इसे पकड़ से पकड़ने की क्या ज़रुरत थी भला ?” और खुद ही
ठहाका लगाकर हंस पड़ीं.
उन्होंने वहीं बैठकर शरबत
बनाया. हम दोनों ने शरबत पिया और मैं नमस्ते करके हंसता हुआ उनके घर से लौट आया.
जब वो बीकानेर में थीं तो
मैं उन्हें अक्सर कहा करता था, “आप ड्यूटी टाइम में ऑफिस छोड़कर मत जाया कीजिये.”
मगर उनकी सेहत पर मेरी इस बात का कम ही असर हुआ करता था. वो अक्सर ऑफिस छोड़कर निकल
जाया करती थीं. खैर बीकानेर में तो कुछ नहीं हुआ. जब वो जयपुर में थीं और एक बार
मैं आकाशवाणी गया तो मुझसे कहने लगीं, “मोदीजी आप हमेशा कहा करते थे ना कि ड्यूटी
टाइम में ऑफिस छोड़कर ना जाया करूं....... !!! इस बार तो बहुत गड़बड़ होते होते बची.
“
मैंने कहा, “क्या हुआ
शान्ति जी ?”
“एक शादी में जाना बहुत
ज़रूरी था. मेरे पतिदेव शाम को आ गए और मैं ऑफिस छोड़कर शादी में चली गयी. कंट्रोल
रूम के किसी इंजीनियर ने डायरेक्टर साहब को फोन करके शिकायत कर दी. डायरेक्टर साहब
ने प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव कोआर्डिनेशन मंजुल साहब को फोन करके कहा,आप जाइए और
ड्यूटीरूम संभालिये. वो लड़की आये तो उसे बता दीजिये कि वो सस्पैंड कर दी गयी है.
मैं रात को लौटी तो देखा ड्यूटी ऑफिसर की कुर्सी पर मंजुल साहब बैठे हैं. मैंने
मुस्कुराकर कहा, गुड ईवनिंग सर. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया बस थोड़ी देर तक मुझे
घूरते रहे. फिर बोले, आप घर जाइए. आप सस्पैंड कर दी गयी हैं. मुझे रोना आ गया.
लेकिन इससे क्या होना था? मुझे घर लौटना पड़ा. अगले दिन ऑफिस आई और डायरेक्टर साहब
से मिली. बहुत डांटा उन्होंने मुझे पर खैर सस्पेंशन के ऑर्डर्स तो उन्होंने वापस
ले लिए.”
मैंने कहा, “शुकर है
शान्ति जी, सस्पेंशन के ऑर्डर्स वापस ले लिए उन्होंने. वरना सर्विस लाइफ पर एक दाग़
लग जाता.”
इस पर वो मुस्कुराकर
बोलीं, “हाँ ये तो है, लेकिन मोदीजी एक बात बताऊँ ?”
मैंने कहा, “जी.”
उन्होंने अपना वही शान्ति
शर्मा छाप ठहाका लगाया और बोलीं, “मैं तो अब भी कई बार चली जाती हूँ इसी तरह.”
मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा, “आप
वास्तव में महान हैं.”
वो जब कोटा में थीं तब के
उनके कई किस्से तो ग़ज़ब के हैं. कोटा में आकाशवाणी के बिलकुल पीछे ही आकाशवाणी
कॉलोनी बनी हुई है. शान्ति जी को भी एक फ़्लैट मिल गया था कॉलोनी में, जिसमें वो
अपने बेटे के साथ रहा करती थीं. उनके पतिदेव की पोस्टिंग कहीं और थी. एक बार
उन्होंने मुझे परिवार सहित खाने पर बुलाया. हम लोग उनके घर पहुंचे तो मैंने वैसे
ही किचन में झाँक लिया. मैंने देखा किचन के एक कोने में एक के ऊपर एक काले काले
भगोनों की कुतुबमीनार सी बनी हुई थी. मुझे समझ नहीं आया कि इतने सारे भगोने और वो
भी इस तरह जलकर काले पड़े हुए क्यों एक के ऊपर एक रखे हुए हैं ?मैंने शान्ति जी से
हँसते हँसते पूछ ही लिया, “शान्ति जी ये इतने सारे जले हुए भगोने किचन में क्यों
रखे हुए हैं ?”
“ये सारी गलती मेरे पतिदेव
की है ?”
“अरे.... वो तो यहाँ रहते
ही नहीं हैं, उन बेचारों को क्यों इलज़ाम दे रही हैं?”
उन्होंने एक ज़ोरदार ठहाका
लगाया और बोलीं, “यही तो गलती है उनकी .”
मैंने कहा, “क्या मतलब ?”
वो हँसते हँसते बोलीं, “देखिये
ना, खुद तो अकेले जयपुर में मज़े से बैठे हुए हैं. बेटा मेरे पास है तो मुझे उसे
अकेले ही देखना पड़ता है. सुबह उसे स्कूल भेजकर नहाती हूँ तभी दूध वाला आता है. दूध
लेकर चूल्हे पर चढ़ा तो देती हूँ मोदी जी लेकिन उतारना भूल जाती हूँ. ऑफिस के लिए
देर हो रही होती है. मैं फटाफट तैयार होकर ऑफिस के लिए निकल जाती हूँ. चूल्हा
बेचारा जलता रहता है और दूध उबलते उबलते पूरा जल जाता है जब भगोना जलने लगता है तो
पूरी कॉलोनी में दूध जलने की बदबू फैल जाती है तो कॉलोनी में रहने वालों में से कोई
डायरेक्टर साहब के घर जाकर मुझे फोन करता है. मैं भागकर आती हूँ तब तक भगोना
बेचारा पूरा जलकर काला हो जाता है. ये घटना मेरे साथ हर दो तीन दिन में हो जाती
है. ये सारे पिछले दो महीनों में जले हुए भगोने हैं.”
मैंने कहा, “आप बहोत महान
हैं मैडम.”
शान्ति जी कोटा में और
कामों के अलावा बच्चों और महिलाओं के कार्यक्रम देखती थीं. एक दिन मैं बच्चों का
प्रोग्राम सुन रहा था. शान्ति जी बच्चों से पूछ रही थीं, “बच्चो आप लोगों में से
कुतुबमीनार देखी है किसी ने ?” इत्तेफ़ाक से जो बच्चे प्रोग्राम में बैठे थे उनमें
से किसी ने कुतुबमीनार नहीं देखी थी. अब शान्ति जी बच्चों को बताने लगीं, “बच्चो,
कुतुबमीनार लोहे की बनी हुई है.” छोटे छोटे बच्चे बैठे हुए थे, उन्हें क्या पता कि
कुतुबमीनार किस चिड़िया का नाम है ? उन्हें तो प्रोग्राम शुरू होने से पहले यही
समझाया गया था कि जो ये दीदी कहें, उसपर आपको जी दीदी कहना है, तो बच्चों ने कह
दिया, “जी दीदी..........”
अगले दिन शान्ति जी से
मैंने पूछा, “शान्ति जी, आपने कुतुबमीनार देखी है ?”
वो हँसते हुए बोलीं, “कैसी
बात करते हैं मोदी जी, क्यों नहीं देखी ? बिलकुल देखी है.”
“तो फिर बच्चों को आप कल
प्रोग्राम में ये क्या बता रही थीं कि कुतुबमीनार लोहे की बनी हुई है ?”
“इसमें क्या ग़लत बताया
मैंने ? जहां क़ुतुबमीनार का बोर्ड लगा हुआ है वहाँ एक लोहे का खम्भा ही तो खड़ा हुआ
है.”
“अरे मैडम वो जो लोहे का
खम्भा खड़ा हुआ है वो तो अशोक की लाट है. उसके पास एक ऊंची सी मीनार खड़ी हुई नहीं
देखी क्या आपने ?”
“हाँ हाँ देखी है, एक बहोत
ऊंची सी मीनार है..........अच्छा वो कुतुबमीनार है क्या ?”
अब मैं भला क्या जवाब देता
उनको ? मगर उस महान हस्ती ने फ़ौरन कहा, “हा हा हा...... अब जो बोल दिया सो तो बोल
दिया और वो रेडियो पर ब्रॉडकास्ट भी हो गया. अब क्या किया जा सकता है ?”
महिलाओं के कार्यक्रम में
एक कैज़ुअल कम्पीयर बुक होती थी और एक स्वयं शान्ति जी प्रोग्राम में बैठा करती
थीं. होता ये था कि कोई इंजीनियर या टैक्नीशियन इन दो महिलाओं की कम्पीयरिंग
रिकॉर्ड कर लेता था. बाद में शान्ति जी उस टेप को लेकर गीत और दीगर प्रोग्राम, बीच
बीच में इस कम्पीयरिंग के टुकड़े लगा कर फाइनल प्रोग्राम बना लेती थीं. एक दिन कोई
इंजीनियर उन्हें मिला नहीं. मीना चौरायवाल नाम की लड़की कैज़ुअल थी. शान्ति जी
बोलीं, चलो बूथ में टेप रिकॉर्डर पर रिकॉर्ड का बटन दबाकर हम स्टूडियो में जाकर
बैठ जायेंगे और खुद ही रिकॉर्ड कर लेंगे. रिकॉर्ड का बटन दबाया और स्टूडियो में
दोनों महिलायें जा बैठीं. शान्ति जी मीना को समझाने लगीं, “ देखो मीना पहले मैं
कहूंगीसभी बहनों को हमारा.....उसके बाद हम दोनों एक साथ बोलेंगे, नमस्कार. फिर तुम
कहना दीदी आज तो बड़ी अच्छी साड़ी पहन रखी
है आपने. मैं कहूंगी हाँ मीना तुम जानती हो ये कोटा डोरिया की साड़ी है. फिर
हम कोटा के डोरिया उद्योग के बारे में थोड़ी बातचीत करेंगे. फिर तुम कहना दीदी अब
एक अच्छा सा गीत सुनवा दीजिये. मैं गीत के डिटेल्स बताकर कहूंगी, तो आइये बहनो, ये
वाला गीत सुनते हैं. गीत बजाकर फिर तुम कहना, दीदी आपने गीत तो बहुत अच्छा सुनवाया.
अब मैं बहनों को खम्मण ढोकला बनाने की विधि बताती हूँ. तुम वो बता देना...... फिर
तुम ये कहना .......... मैं ये कहूँगी ........... फिर तुम ये कहना........ फिर
मैं इस विषय पर कम्पीयरिंग करूंगी.......
इसके बाद तुम इस विषय पर कम्पीयरिंग कर देना. “ बस दोनों इसी तरह आपस में बतियाती
रहीं और उधर बूथ की तरफ झांककर देखा कि टेप ख़तम हो रहा है. टेप को रिवाइंड किया, न
कोई गीत लगाया न कोई और प्रोग्राम और न जाने शान्ति मैडम का ध्यान कहाँ था, टेप
क्यूशीट तो पहले से ही बना रखी थी, इस टेप को और क्यूशीट को कार्टन में रखा और
ब्रॉडकास्ट के लिए दे दिया. जब टेप ब्रॉडकास्ट होना शुरू हुआ तो ड्यूटी ऑफिसर ने सुना
कि ये क्या बज रहा है ? उसने अपना सिर पीट लिया. चार पांच मिनट तक तो दोनों
महिलाओं की ये तुम ऐसा बोल देना और मैं ऐसे बोल दूंगी एयर पर जाता रहा फिर रोककर
महिलाओं के प्रोग्राम की जगह संगीत बजाया गया. शान्ति जी बिंदास मुस्कुराती रहीं
जब ये बात उन्हें बतायी गयी.
शान्ति जी लिखती भी थीं और
अच्छा खासा लिखती थीं. रेडियो के लिए कई फीचर भी उन्होंने लिखे. एक बार उन्होंने
मुझे बताया कि उन्होंने एक फीचर लिखा है. क्या मैं आलेख सुनना चाहूंगा ? मैंने कहा,
“जी ज़रूर सुनाइये.”
अब उन्होंने पढ़ना शुरू
किया. एक जगह एक लाइन उन्होंने लिखी, “कोटा के ये कल कल करते कारखाने इस शहर की
पहचान है.”
कल कल करते कारखाने सुनते
ही मुझे हंसी आ गयी. स्क्रिप्ट पढ़ना बंद करके उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या हुआ
मोदीजी आप हँसे क्यों?”
मैंने हँसते हुए कहा,
“क्या बोला आपने ? कल कल करते कारखाने......?”
“ हाँ....... कुछ ग़लत है
इसमें ?
“देखिये शान्ति जी कल कल करते
झरने होते हैं कारखाने नहीं.”
“क्यों मैंने तो कई जगह
पढ़ा है, कल कारखाने.”
“बिलकुल सही कह रहीं हैं
आप. कल कारखाने भी सही है, कल-पुर्जे भी सही है, मगर कल कल करते कारखाने सही नहीं.”
उनका जवाब फिर वही था........
शान्ति शर्मा छाप बिंदास ठहाका.
कोटा से हमारे एक साथी का
ट्रान्सफर हुआ. उनको विदाई पार्टी दी जानी थी. न जाने शान्ति जी को क्या सूझी.
मुझसे बोलीं, “मोदी जी, कोई भी जाता है तो हां लोग रेस्टोरेंट में विदाई पार्टी
करते हैं. बाज़ार का खाना तो होता है जैसा ही होता है. आप थोड़ी सी हिम्मत करें तो
इस बार हम लोग खुद खाना बनाएं, चाहे आइटम कम हों, कम से कम शुद्ध तो होंगे.”
मैंने कहा, “मैडम 22-25
लोगों का खाना बनाना आसान काम नहीं है. इतना खाना बनाएगा कौन?”
वो मुस्कुराते हुए बोलीं,
“ मैं और आप बनायेंगे. वैसे मैं ही बनाऊँगी........आप बस थोड़ी मदद कर दें तो मैं
संभाल लूंगी. “
बैठकर मेन्यू तैयार किया
गया. मटर पनीर की सब्जी, पूरियां, दाल, चावल, रायता और सलाद. डायरेक्टर का फ़्लैट
उन दिनों खाली पडा था. सो उसमें सफाई करवाकर वहीं खाना बनाने और खाने का कार्यक्रम
तय हुआ. बाज़ार जाकर हम लोग सामान ले आये. मैंने कुछ साथी लोगों को दिन में कहा था
कि यार आकर खाना बनाने में मदद करना. कुछ लोगों ने तो “हमें नहीं आता किचन का कोई
काम” कहकर पल्ला झाड़ लिया दो तीन लोग खाने के वक़्त से थोड़ा पहले आने का वादा कर
लिया और आ भी गए लेकिन शान्ति मैडम ने कैसी की मेरे साथ ये सुनने वाली बात है.
उन्होंने कहा, “मोदी जी, आप आटा लगा लीजिये, तब तक मैं सलाद काट लेती हूँ.”
मैंने कहा, “बिलकुल ठीक है.
मैं आटा लगा लेता हूँ.”
मैंने आटा लगा लिया. देखा
वो सलाद काट रही थीं. मैंने सोचा, चलो इनकी सलाद कटती है तब तक मैं सब्ज़ी बना लेता
हूँ. मैं सब्जी बनाने लगा और इस बीच चावल और दाल बीनकर उन्हें भिगो दिया. सब्जी बन
गयी तो जिस कमरे में शान्ति जी बैठी थीं, वहाँ जाकर देखा कि वो सलाद काट रही थीं.
मैंने पूछा, “अभी सलाद नहीं कटी क्या ?”
उन्होंने जवाब दिया, “बस
थोड़ी सी बाकी है चावल में तो क्या करना है उबलने ही तो चढ़ाना है सो आप चढ़ा दीजिये
और लगे हाथ दाल भी चढ़ा दीजिये. छौंक मैं सलाद काट कर लगा दूंगी.” मैंने चावल चढ़ा
दिए, दाल चढ़ा दी. वो दोनों उबल गए तो मैंने दाल में छौंक भी लगा दिया. मैंने आवाज़
लगाकर पूछा, “शान्ति जी सलाद कटी या नहीं आपकी ?”
उधर से जवाब आया, “कट तो
गयी लेकिन मुझे लग रहा है, थोड़ी कम पड़ेगी इसलिए थोड़ी और काट रही हूँ.”
उसी वक़्त पूरियां बेलने
वाली औरतें आ गईं तो शान्ति जी बोलीं, “अरे मोदी जी ये पूरियां बेलने वाली आ गयी
हैं, तो आप पूरियां निकाल लीजिये तब तक सलाद भी कट जायेगी. मैंने पूरियां निकालनी
शुरू करदी. तब तक कुछ भाई लोग भी आ गए. बोले, “बताओ क्या मदद करें?”
मैंने कहा, “भैया मेरी मदद
तो रहने दो, तुम लोग शान्ति जी की मदद करो, वो सलाद काटने में लगी हुई हैं. मुझे
तो पूरियां निकालने के बाद सिर्फ रायता बनाना है.”
तो इस तरह 25 लोगों का
खाना शान्ति जी ने बनाया और मैंने उन्हें असिस्ट किया.
आखिर में मुम्बई का एक
किस्सा. भोपाल की मीटिंग में वो भी गईं थीं और मैं भी गया था. मुझे उन्हें और
राजेश रेड्डी जी को एक ही फ्लाइट से लौटना था. हम तीनों एक ही कार में हवाई अड्डे
की तरफ जा रहे थे. रास्ते में बातें करते करते मैंने कोई किस्सा सुनाया तो शान्ति
जी ने ठहाका लगाते हुए कहा, “ये हुआ ना नौ पर ग्यारह..........”
मैं सोचने लगा, ये कौन सा
मुहावरा है ? मैंने पूछ भी लिया, “शान्ति जी इसका क्या अर्थ हुआ?”
वो हंस कर बोलीं, “अरे आपको नहीं पता ? लगता है
ताश नहीं खेली आपने कभी ? अरे जब कोई नहला डाले और आप उस पर 11 यानी गुलाम डाल
देंगे तो आप जीत जायेंगे ना?”
अब रेड्डी जी ने ठहाका
लगाया, “अरे शान्ति जी, आपने दो मुहावरों को मिला दिया है. एक है नहले पर दहला
मारना और दूसरा है नौ दो ग्यारह होना.”
तो ऐसी हैं हमारी शान्ति
जी. हम लोग एक साथ नौकरी लगे थे. उस दिन से लेकर आज तक उनका मुझ पर असीम स्नेह बना
हुआ है. हम चाहे एक स्टेशन पर रहे हों चाहे अलग अलग स्टेशंस पर. उनके बहन जैसे
स्नेह में कभी कोई कमी नहीं आई. अब वो भी
रिटायर हो चुकी हैं. उनकी रिटायर्ड जीवन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.
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