अब तो
बीकानेर के आस पास बालू के टीलों का कहीं नाम निशान भी नहीं है, पिछले दिनों जब हम
लोग बीकानेर गए हुए थे, मेरे पोते ने बालू के उन टीलों को, जिन्हें हम बचपन से
धोरों के नाम से पहचानते आये हैं, देखने की इच्छा ज़ाहिर की तो हम कार लेकर जाने
कितने किलोमीटर चारों ओर घूम आये, हमें कहीं धोरों के दर्शन नहीं हुए जबकि किसी
ज़माने में ये धोरे आँधियों में उड़ उड़ कर हमारे घरों में आ जाया करते थे. वैभव जब
छोटा था तब तक धोरे हमसे इतनी दूर नहीं हुए थे. अक्सर जब शाम को मैं खाली होता था,
उसे स्कूटर पर आगे खड़ा करके गंगाशहर की तरफ निकल जाता था, रास्ते में ही धोरे मिल
जाया करते थे और वैभव उन धोरों में देर तक खेलता रहता था. वैसे बहोत मुश्किल वक़्त
था वो. पानी के लिए भिश्तियों पर निर्भर रहना पड़ता था, जो चमड़े की पखालों और मशकों
में भर कर पानी लाते थे. नाप तौल कर पानी काम में लेना पडता था. बिजलीघर हमारे घर
के पास ही था लेकिन उसमें बनने वाली बिजली को हम अपने घर तक नहीं ला पाए थे.
आंधियां चलती तो कई कई दिनों तक चलती ही रहती थीं. पूरे मोहल्ले में एक भी फोन
नहीं था और फ़ोन हो तब भी उससे क्या बनता बिगड़ता क्योंकि फ़ोन करने के लिए दोनों तरफ
फोन का कनेक्शन चाहिए. सन 1975 के आस पास पूरे बीकानेर में 1000 भी फ़ोन कनेक्शन
नहीं थे. ये मैं इतने एतमाद के साथ इसलिए कह सकता हूँ क्योंकि उस वक़्त फोन नंबर तीन
अंकों में ही होते थे. मेरे घर से सबसे करीब फ़ोन मेरी बड़ी बहन के ससुराल में था और
उसका नंबर 690 था, आज भी याद है मुझे.
किचन में जलाने के लिए लकडियाँ और गाय के गोबर से बनी थेपड़ियां यानी उपले काम में
लेते थे. कुछ लोग उपले की जगह गोबर के छाणे काम में लेते थे. आप पूछेंगे कि जब थेपड़ियां
और छाणे दोनों ही गोबर के होते हैं तो दोनों में फर्क क्या होता है?
आइये
इस मामले में आपका जी के बढ़ा देता हूँ थोड़ा सा. अक्सर गायों को चराने आस पास के
जंगल में ले जाया जाता था, ख़ास तौर पर बारिश के मौसम में जब जंगल में हरी घास उग
आती थी. जानवर जंगल में जो गोबर करते थे, वो धूप में पड़ा पड़ा सूख जाता था. इस सूखे
हुए गोबर को छाणे कहते थे जबकि घर में जब गायें गोबर करती थीं, उस गोबर में थोड़ी
घास मिलाकर उसे गोल रोटी की तरह थाप दिया जाता था. ये थेपड़ियां कहलाती थीं. इन लकड़ियों, छाणों और थेपड़ियों को रखने के लिए
हर किचन में एक जगह होती थी जिसे भखारी कहा जाता था. बड़े से बड़े और अमीर से अमीर
घर में भी बिना भखारी की किचन का तसव्वुर नहीं किया जा सकता था. इन भखारियों की एक
खासियत होती थी. चूंकि इसमें लकडियाँ, गोबर से बने उपले, छाणे और इसी तरह का कचरा
भरा रहता था, ये बिच्छुओं और साँपों के छुपने की बहुत अच्छी जगहें हुआ करती थीं.
मैं तो इस मामले में खुशकिस्मत रहा कि घर में ही क्या, महीनों खेतों में रहने के
बावजूद मुझे कभी सांप बिच्छू ने नहीं काटा लेकिन उस ज़माने में मुश्किल से ही आपको
कोई इंसान ऐसा मिलता था जिसका साबक़ा कभी सांप बिच्छू से ना पडा हो. ख़ास तौर पर
औरतें तो बिच्छू के काटने का अक्सर शिकार बनती थीं क्योंकि किचन में खाना बनाते
बनाते जैसे ही भखारी में हाथ डालती थीं, थेपड़ियों में छुपा बिच्छू झट से डंक मार
देता था. सांप के लिए तो कहा जाता है कि काटना उसकी फितरत में नहीं है, वो तो तभी
काटता है जब उसे लगता है कि उसे कोई नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन
बिच्छू की तो फितरत का ही एक हिस्सा है डंक मारना. कहते हैं कि मादा बिच्छू जब माँ
बनती है, सैकड़ों छोटे छोटे बच्चों को जन्म देती है. ये बच्चे पैदा होते ही अपनी
माँ की पीठ से चिपक जाते हैं और उसे खाना शुरू कर देते हैं. बच्चे जैसे जैसे बड़े
होते जाते हैं, माँ मौत के करीब से करीबतर होती जाती है. आखिर वो दिन भी आ जाता है
जबकि मादा बिच्छू दम तोड़ देती है और वो बच्चे मिलकर उस माँ को पूरा चट कर जाते
हैं. जब बिच्छू इस दुनिया में आते ही सबसे पहला काम अपनी माँ को खाने का करते हैं
तो मानकर चलिए, किसी और को तो वो क्या माफ़ करेंगे ?
सारी तकलीफों के बावजूद मुझे अपना शहर बीकानेर हमेशा अच्छा लगा. उस सूखे बंजर रेगिस्तान में रहने वाले ज़्यादातर लोग गरीबी को बहोत शाही अंदाज़ में जीने वाले हुआ करते थे. शहर के एक कोने में बना पब्लिक पार्क हम सबके लिए एक फख्र करने लायक जगह थी और हम जब पब्लिक पार्क में लगे नीम के पेड़ों से ताज़ा ताज़ा रस से सराबोर निम्बोलियाँ तोड़कर खाते थे तो मलीहाबाद के दशहरी आम से भी ज़्यादा स्वाद लगा करती थीं वो निम्बोलियाँ. ऐसे मिज़ाज वाले शहर में भी किचन की भखारियों में जिस तरह बिच्छू जमा रहते थे, न जाने कैसे कुछ बीकानेरी लोगों में भी उन्हीं बिच्छुओं की नस्ल के लोग पैदा हो गए थे और उन्हीं लोगों में से कुछ न जाने कैसे आकाशवाणी में इकट्ठे हो गए थे. डंक मारना उनकी फितरत में ही था. ऐसे ही लोगों से घिरे हुए हम लोग हर मोर्चे पर एक युद्ध लड़ रहे थे. मिसेज़ रुग्मिनी ने भी कुछ वक़्त तक इन बिच्छुओं के डंक का दंश सहन किया, फिर उन्हें लगा कि इन लोगों से छोटी छोटी और ओछी लडाइयां लड़ने का कोई अर्थ नहीं हैं. उन्होंने दिल्ली वालों से कहा कि उन्हें बीकानेर में नहीं रहना है, बेहतर हो उन्हें दिल्ली बुला लिया जाए. कुछ ही महीनों में उनका तबादला दिल्ली हो गया और वो दिल्ली चली गईं लेकिन दिल्ली में डायरेक्टरेट में बैठे लोगों की समझ में भी आ गया कि बीकानेर स्टेशन बाकी स्टेशंस की तरह नहीं हैं. कुछ लोग वहाँ ऐसे बैठे हैं, जो कुछ न कुछ उत्पात मचाते रहते हैं. वहाँ के हालात को काबू में करने का काम असिस्टेंट डायरेक्टर नहीं कर सकता. इसके लिए डायरेक्टर लैवल का कोई ऑफिसर भेजा जाना चाहिए.
थोड़े ही
दिनों बाद सुना कि डायरेक्टर की पोस्ट पर ज्वाइन करने के लिए एक साहब जिनका नाम
श्री पी एम् वैष्णव है, आने वाले हैं. हम लोगों ने सोचा कि शायद एक बड़े अफसर के
आने से स्टेशन के हालात कुछ बेहतर हो जाएँ. एक सुबह एक दुबले से छोटे क़द के साहब
ने आकाशवाणी के दफ्तर में आकर बताया कि उनका नाम पी एम वैष्णव है और वो डायरेक्टर
की पोस्ट पर ज्वाइन करने आये हैं. उन्होंने ज्वाइन किया और प्रोग्राम सैक्शन के
लोगों की एक मीटिंग ली. बीकानेर आने से पहले शायद उन्हें दिल्ली के अफ़सरों ने
बीकानेर स्टेशन के हालात से वाकिफ करवा दिया था. उन्होंने सबसे मीटिंग में एक ही
बात कही, “मुझे काम चाहिए. ऑफिस के टाइम के बाद कौन क्या करता है, किसके साथ उठता
बैठता है, मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं लेकिन ऑफिस में कोई अगर गुटबाजी करेगा या
लड़ाई झगड़ा करेगा तो मुझे उससे निपटना अच्छी तरह आता है.”
मीटिंग में वो लोग भी शामिल थे जो लोकल लोगों के उस गुट के सरगना थे, जिनका मानना था कि इस दफ्तर में तो उनकी ही चलेगी. बाहर से आये हर फर्द को उनके सामने नाक रगड़ना पडेगा, वरना उसके खिलाफ भी कई मोर्चे खोल दिए जायेंगे. हम
लोगों के वहाँ आने के साथ ही कुछ लोगों के पेट में बेहद दर्द रहने लगा था. बहोत कम
तनख्वाहें हुआ करती थीं उन दिनों, फिर भी ज़ाहिर है, जब हम दोनों लोग नौकरी कर रहे
थे तो हमारे घर में तनख्वाहें भी दो ही आएंगी. शायद हम लोगों को 700-700 रुपये के
आस पास तनख्वाह मिलती रही होगी उन दिनों. हमें तो शायद पता भी नहीं रहता था कि किस
किस मद में हम लोग कितना खर्च कर रहे हैं मगर दफ्तर में मौजूद हमारे खैरख्वाह लोग थोड़े
थोड़े दिनों बाद बैठ कर हिसाब लगाते थे. “दो तनख्वाहें आती हैं. फलां मद में इतने
रुपये खर्च हो गए होंगे, फलां में इतने. कुल मिलाकर इतना खर्च हो गया होगा और इस
महीने में इतना रुपया बैंक में जमा हो गया होगा.” छोटे से बच्चे को हम लोग किसी
तरह बाई (मेरी बड़ी बहन) की मदद से सम्हालकर ड्यूटी करते थे और हमारे ये खैरख्वाह
हमारे खर्च और हमारी बचत का हिसाब किताब करते थे. जब कभी हम दोनों में से किसी की
ओवर टाइम ड्यूटी लग जाती थी तो हम लोगों को बहोत परेशानी होती थी क्योंकि इधर
बुज़ुर्ग पिताजी की देखभाल करनी होती थी उधर छोटे से वैभव की लेकिन हमसे ज़्यादा
परेशानी हमारे इन खैरख्वाह साथियों को होती थी कि अरे, इस बार तो ओवर टाइम ड्यूटी
भी लग गयी. अब तो इतना रुपया और जमा हो जाएगा बैंक में.
इसी बीच पोर्ट ब्लेयर से एक प्रोग्राम
एग्जीक्यूटिव श्री एस बी खरे ने आकर ज्वाइन कर लिया था. छोटे से क़द के खरे साहब
यारों के यार थे. खूब खिलाने पिलाने वाले इंसान थे. कल की फिक्र न कर आज में जीने
वाले इंसान. खरे साहब को सब लोग शाह तबियत, शाह खर्च कहा करते थे और वो बस जब तक
तनख्वाह का पैसा जेब में रहता, शाह खर्च बने लोगों को खिलाने पिलाने में लगे रहते
थे. आये दिन शाम में महफ़िलें जमती थीं और उन महफ़िलों में अक्सर खरे साहब का ही
पैसा खर्च होता था. हालांकि उनके इस पैसा लुटाऊ मिज़ाज की वजह से आगे जाकर उन्हें
बहोत दुःख उठाने पड़े. उन दुखों के विस्तार में अभी मैं नहीं जाऊंगा क्योंकि ये
बहोत बाद की बातें हैं. उस वक़्त हम लोग ये दुआ ज़रूर करते थे कि ऊपरवाला अगर कोई है
तो इन्हें थोड़ी समझ दे कि पैसा ही ज़िन्दगी में सब कुछ नहीं है, मगर पैसा इतनी
फालतू चीज़ भी नहीं है कि बिना ज़रुरत उसे उड़ाया जाए. ऐसा माना जाता है कि कायस्थ हर
मामले में काफी होशियार हुआ करते हैं लेकिन हमारे खरे साहब कायस्थ होते हुए भी कुछ
ऐसे मिज़ाज के मालिक थे कि कोई भी उनकी जेब से पैसा निकलवा लेता था. इसके अलावा वो
किसी पर भी आँख मूंदकर यकीन कर लेते थे. कभी किसी पर अविश्वास करना तो वो सीखे ही
नहीं थे. हम लोगों के साथ भी थोड़े ही दिनों में उनकी ट्यूनिंग अच्छी हो गयी थी.
उनके परिवार के साथ भी हमारे सम्बन्ध अच्छे बन गए थे. जब कभी भी हम दोनों शाम में
खाली होते थे, उनका एक ही इसरार होता था, आओ, घर आओ. और अक्सर हम लोग चले भी जाया
करते थे. उनकी बेटी पम्मी और बेटा बबलू हम लोगों के उनके घर जाने पर बहोत खुश होते
थे क्योंकि वैभव के रूप में उन्हें एक खिलौना मिल जाता था. वो उसके साथ खूब खेलते
थे. मिसेज़ खरे भी बहोत सीधी सादी, पुरख़ुलूस, हरदम मुस्कुराते रहने वाली औरत थीं.
कमर भाई के साथ भी मेरे ताल्लुकात बहोत
अच्छे थे. हम लोग मिलकर प्रोग्राम्स में नए नए तजुर्बे करने में लगे रहते थे. हम
दोनों ने मिलकर फीचर्स तो इतने बनाए कि एक वक़्त आया कि हम दोनों ने बैठ कर एक दूसरे
से कहा, “बस बहोत हो गया...... कुछ भी करेंगे लेकिन फीचर नहीं बनाएंगे.” लेकिन फिर
कोई न कोई ऐसा सब्जैक्ट सामने आ जाता कि हम सोचने लगते कि इस सब्जैक्ट पर क्या
प्रोग्राम बनाएं ? दोनों का दिमाग़ कुछ एक ही तरह से सोचता था और अक्सर दो-चार मिनट
सोच कर एक साथ बोल पड़ते थे, “फीचर”. फिर दोनों हंस पड़ते थे कि हमने तो तय किया था,
कुछ भी करेंगे लेकिन फीचर नहीं बनाएंगे. जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूँ, मशीनों
के मामले में ये आकाशवाणी का सबसे बुरा वक़्त था. निप्पन की मशीनें जा चुकी थीं और न
जाने किस लैवल पर कितना रुपया रिश्वत खाकर, मेड इन इंडिया बैल की मशीनें हर स्टेशन
पर थोक के भाव भेज दी गयी थीं जो हर वक़्त हमारे साथी इंजीनियर्स का इम्तहान ही
लेती रहती थीं. कई बार ऐसा हुआ कि फीचर की रिकॉर्डिंग कर ली गयी लेकिन मिक्सिंग के
वक़्त मशीनों ने जवाब दे दिया. रात रात भर डबिंग रूम में बैठ कर हम लोगों ने कई बार
फीचर्स की मिक्सिंग की. बस उसी बीच में दस पांच मिनट का ब्रेक लेकर डबिंग रूम के
फर्श पर लेट कर अपनी थकान मिटा लिया करते थे.
बीकानेर के महारथियों ने कई बार डायरेक्टर
वैष्णव साहब के कान भरकर बीकानेर दर्पण मेरे हाथ से छीनने की भरपूर कोशिश की मगर वैष्णव
साहब सीधे सादे ज़रूर थे, नासमझ नहीं. इन महारथियों की सारी कोशिशें बेकार चली गईं.
मैं उसी तरह अपनी ड्यूटी रूम की ड्यूटीज़ के साथ साथ संगीत की रिकॉर्डिंग्स भी करता
रहा, शहर में और शहर के आस पास होने वाले फंक्शन्स की रिकॉर्डिंग्स भी करता रहा,
कमर भाई को असिस्ट भी करता रहा और बीकानेर दर्पण भी बनाता रहा. हम लोगों का बडा
इम्तहान उस वक़्त होता था, जब कोई वी आई पीज़ शहर में आते थे और हमें उस उस जगह जाकर
रिकॉर्डिंग करनी होती थी जहां जहां उनके प्रोग्राम होते थे. ऐसे में इतना कम वक़्त
होता था हम लोगों के पास कि सोचने का कोई मौक़ा नहीं मिलता था. एक बार उस वक़्त के
उपराष्ट्रपति श्री एम हिदायतुल्ला बीकानेर के दौरे पर आये. उनका ये दौरा तीन दिन
का था. हमें हर रोज़ रात में उनके दिन भर के प्रोग्राम्स की रेडियो रिपोर्ट बनानी
होती थी और हर रोज़ एक कैप्सूल आकाशवाणी दिल्ली और आकाशवाणी जयपुर को फीड करना होता
था ताकि दिल्ली और जयपुर से होने वाले न्यूज़ रील प्रोग्राम में उनके दौरे की कवरेज़
हो सके. डायरेक्टर साहब ने प्रोग्राम स्टाफ के लोगों को कहा कि तीन चार टीमें बना
ली जाएँ ताकि उपराष्ट्रपति के प्रोग्राम्स की रिकॉर्डिंग का भार कई लोगों में बँट
जाए, लेकिन यही तो मौक़ा था बीकानेर के महारथियों के पास, ये साबित करने का कि मुझे
इतने सारे प्रोग्राम देकर डायरेक्टर साहब ने गलती की है. उन सबने मना कर दिया.
स्टाफ के कुछ लोगों ने उनसे डर कर मेडिकल छुट्टियां ले ली. क़मर भाई ने और मैंने
डायरेक्टर साहब को भरोसा दिलाया कि इस काम के लिए हम दोनों काफी हैं, वो फिक्र न
करें.
उन तीन दिनों में कमर भाई और मुझे,
दोनों को पसीने आ गए. रेडियो रिपोर्ट एक भी ऐसी नहीं थी जो पूरी एक ही टेप पर बनी
हो. इस बात को शायद रेडियो के लोग ज़्यादा अच्छी तरह समझ सकते हैं कि इसका क्या
अर्थ होता है. सीधे शब्दों में इसे यों समझा जा सकता है कि अगर कोई प्रोग्राम दिन
में बारह बजे शुरू होकर दो बजे ख़तम हो जाता है और रेडियो रिपोर्ट का प्रसारण रात आठ
बजे होना है तो पूरे छः घंटे हमें मिल जाते हैं रिपोर्ट बनाने के लिए लेकिन अगर दिन
भर में चार प्रोग्राम हैं एक ग्यारह बजे, दूसरा दो बजे, तीसरा चार बजे और चौथा शाम छः बजे . चारों प्रोग्राम्स की
एक रेडियो रिपोर्ट का प्रसारण रात साढ़ेआठ बजे होना है, तो प्रोग्राम बनाया कब
जायेगा? ऐसे में हम लोग दो हिस्सों में बंट जाते थे. मान लीजिये मैं ग्यारह बजे
वाला प्रोग्राम रिकॉर्ड करके लाता था जो साढ़े बारह ख़त्म होता था, मैं साढ़े बारह
बजे भाग कर स्टूडियो में आकर एडिटिंग में जुट जाता, दो बजे का प्रोग्राम क़मर भाई
रिकॉर्ड करते और आकर स्टूडियो में एडिटिंग में लग जाते. तीसरा प्रोग्राम फिर मैं
रिकॉर्ड करके लाता, चौथा फिर क़मर भाई रिकॉर्ड करके लाते. आख़िरी प्रोग्राम की
रिकॉर्डिंग लेकर वो आते तब तक आठ बज रहे होते. अब इतना टाइम कहाँ बचता था कि सारी
रेडियो रिपोर्ट को बनाकर एक टेप पर लिया जाए. आख़िरी रिकॉर्डिंग को तो कई बार लाइव
ही एडिट करके लाइव नरेशन के साथ प्रसारित करना पड़ता था. ये ऐसे चैलेंजेज़ हुआ करते
थे कि जिन्हें करना मुझे और क़मर भाई दोनों को बहोत पसंद था. हालांकि ऐसे मौक़ों पर
कई बार मैं और क़मर भाई दोनों ही झल्ला उठते थे, कई बार एक दूसरे पर चिल्ला भी पड़ते
थे लेकिन वो झल्लाहट, वो चिल्लाना सिर्फ कुछ लम्हों के लिए हुआ करता था. कभी भी हम
एक दूसरे से उन चन्द लम्हों के बाद नाराज़ नहीं रहे.
हालांकि खरे साहब मन से हम लोगों के साथ थे लेकिन वो किसी झगडे झंझट में नहीं
पड़ना चाहते थे. दरअसल किसी झंझट में पड़ना उनकी फितरत में ही नहीं था. काम वो भी
डटकर करते थे, लेकिन जहां कहीं भी किसी के नाराज़ होने या किसी से ताल्लुक़ात बिगड़ने
का अंदेशा नज़र आता था, वहाँ से वो दूर हट जाया करते थे. उन्होंने सोचा होगा कि अगर
वो हमारा साथ देंगे तो बीकानेरी गुट उनसे नाराज़ हो जाएगा. वही क्यों, जब भी कोई
इंसान बाहर से बीकानेर आकर ज्वाइन करता, उसे इस बात का अंदाज़ा हो जाता था कि इस
गुट को नाखुश करने का मतलब है इनसे पंगा लेना और अपनी नींद हराम करना. लेकिन उन
लोगों ने खरे साहब को फिर भी नहीं बख्शा.
एक रोज़ एक स्टाफ मेंबर ने खरे साहब के सामने एक लड़की को लाकर बिठा दिया और
कहा, “खरे साहब आप युववाणी देखते हैं. ये लड़की अच्छा लिखती है, इसे कोई प्रोग्राम
दे दीजिये.”
खरे साहब ने कहा, “ठीक है, मैं देखता हूँ.”
अब वो उस लड़की की तरफ मुखातिब हुए, “ हाँ बेटा क्या लिखती हो?”
“जी सब कुछ, कहानी, कविता, लेख सब लिख सकती हूँ.”
“अच्छा ? कहानी भी लिख सकती हो?”
“जी हाँ.”
“चलो दो चार दिन में एक कहानी लिखकर मुझे दिखाओ.”
“जी अच्छा.”
तीन-चार दिन बाद वो लड़की एक कहानी लेकर आई और खरे साहब के सामने रख दी. खरे
साहब ने कहानी पढ़ी. उन्हें कहानी कुछ ख़ास अच्छी नहीं लगी. उन्होंने उस लड़की का
उत्साह बढ़ाते हुए कहा, “देखो बेटा, कहानी तो तुमने अच्छी लिखी है लेकिन रेडियो के
लिए ये कहानी कुछ ठीक नहीं है. और लिख सकती हो?”
“जी कोई बात नहीं, मैं कल दूसरी ले आऊँगी.”
“अच्छा, और लिखकर रखी हुई है क्या?”
“हाँ जी, तीन चार लिखकर रखी हुई हैं. तीनों चारों ले आऊँगी. आपको जो पसंद आये
आप रख लेना.”
खरे साहब बहोत खुश हुए और बोले, “भई वाह, तुम तो छुपी रुस्तम निकलीं. बीकानेर
में इतना टेलेंट भरा पडा है, मुझे तो पता ही नहीं था.”
वो लड़की मुस्कराहट बिखेरती, नमस्ते करके चली गयी. अगले दिन आयी तो अपने वादे
के मुताबिक तीन चार कहानियां लाकर खरे साहब के सामने रख दी. खरे साहब ने वो
कहानियां पढ़ीं और उनमें से एक कहानी छांट कर रख ली और कहा, “शाबाश बेटा, ये कहानी
हम युववाणी में प्रसारित करेंगे. तुम इस खाली कॉन्ट्रैक्ट पर दस्तखत कर दो. दो दिन
में इसे तैयार करवाकर रखूंगा. तुम दो दिन बाद आकर रिकॉर्डिंग करवा लेना.
दो दिन बाद वो लड़की आई, रिकॉर्डिंग करवाई और अपना कॉन्ट्रैक्ट लैटर और चैक
लिया और अपने घर चली गयी. तीन दिन बाद जिस दिन उस कहानी का प्रसारण था, हमारी एक
साथी श्रीमती गुलाब कल्ला की ट्रांसमिशन ड्यूटी थी. वो ड्यूटीरूम में बैठीं,
स्पीकर पर युववाणी सुन रही थीं. जैसे ही कहानी शुरू हुई, उन्हें लगा कि ये कहानी
तो कुछ जानी पहचानी लग रही है. कहानी जैसे ही थोड़ा आगे बढ़ी, उन्हें याद आया, अरे......ये
कहानी तो मैंने कल ही सरिता में पढ़ी है. इत्तेफाक से वो सरिता उस वक़्त उनके बैग
में ही रखी हुई थी. उन्होंने झट से सरिता निकाली और देखा कि ये कहानी हर्फ़ बा हर्फ़
उसी में से ली गयी है. उन्होंने सरिता के अंक और पेज का हवाला देते हुए इसकी
रिपोर्ट लिखी.
अगले दिन जब मीटिंग में रिपोर्ट पढ़ी गयी तो खरे साहब का चेहरा सफ़ेद हो गया.
डायरेक्टर साहब ने उनसे पूछा कि ये कैसे हुआ ? हालांकि ये मुमकिन नहीं कि
प्रोग्राम ऑफिसर हर पत्रिका हर रिसाले को पढ़े मगर आकाशवाणी में बहोत सारी मैगजीन्स
इसीलिये आती हैं कि प्रोग्राम के लोग उन्हें पढ़ें और प्रोग्राम ऑफिसर से ये उम्मीद
की जाती है कि उसे पता रहे, कब कहाँ क्या छप रहा है, ताकि कोई इस तरह चोरी करके उसे
अपनी रचना के नाम से प्रसारित न करवा सके. अगर किसी भी प्रोग्राम ऑफिसर के
प्रोग्राम में ऐसी कोई चोरी की रचना प्रसारित हो जाती है तो ये उस प्रोग्राम ऑफिसर
की कमजोरी मानी जाती है. खरे साहब बहोत शर्मिन्दा हुए जब सरिता का वो अंक श्रीमती
कल्ला ने उनके सामने रख दिया.
मीटिंग ख़त्म होते ही उन्होंने उन जनाब को बुलवाया जिन्होंने उस लड़की को खरे
साहब के सामने लाकर बिठाया था. उन्होंने तो बिलकुल हाथ खड़े कर दिए. बोले, “ मैं तो
एकाउंट्स का आदमी हूँ, मुझे क्या पता कहानी कविता क्या होते हैं? ये तो आपको देखना
चाहिए था कि कहानी कहीं से मारी हुई तो नहीं है.”
खरे साहब थोड़ा झुंझलाए और बोले, “लेकिन आपने ही तो कहा था कि ये अच्छा लिखती
हैं.”
“वो तो उसने ही कहा था मुझसे कि मैं कहानी, कविता वगैरह लिखती हूँ, तो मैंने
सोचा कि अगर लिखती है तो अच्छा ही लिखती होगी. इसलिए मैंने अपनी तरफ से सिर्फ एक
शब्द अच्छा जोड़कर आपसे कह दिया.”
“अच्छा ज़रा उन मैडम को कल बुला तो दीजिये. कहिये मैंने बुलाया है.”
“ ठीक है कल वो आ जायेगी आपसे मिलने.”
अगले दिन वो लड़की आई, बड़े कॉन्फिडेंस
के साथ मुस्कुराकर खरे साहब को नमस्ते की और बोली, “यस सर आपने बुलाया मुझे ?”
“ बैठिये.”
बहोत इत्मीनान से वो खरे साहब के सामने रखी कुर्सी पर बैठ गयी और खरे साहब की
आँखों में आँखें डालकर देखने लगीं. खरे साहब भी कुछ देर तक उसे घूरकर देखते रहे ये
सोचकर कि शायद अपनी गलती का एहसास हो जाए और ये नज़रें झुका ले, लेकिन वो तो उसी
तरह मुस्कुराती रही. आखिर खरे साहब ने उससे पूछा, “कल अपनी कहानी सुनी आपने रेडियो
पर ?”
“अरे कहाँ सर, कल तो फुर्सत ही नहीं मिली सुनने की.”
“ओह शायद लिखने में बिजी होंगी. क्या कल एक और कहानी लिख ली आपने ?”
“नहीं सर, मम्मी ननिहाल गयी हुई थी, इसलिए मैं किचन में थी उस वक़्त.”
“अच्छा ? वैसे कितने दिन में इस तरह की कहानियां लिख लेती हैं आप ?”
“ जी जब भी वक़्त मिलता है, लिख लेती हूँ.”
“तो जो कहानी आपने रिकॉर्ड करवाई, वो आपकी ही लिखी हुई थी. है ना ?”
“ जी बिलकुल..... मेरी ही लिखी हुई थी.”
खरे साहब को गुस्सा तो आया मगर किसी
तरह गुस्से को काबू करते हुए बोले, “चुप रहिये........ आप झूठ बोल रही हैं, वो
कहानी आपकी लिखी हुई नहीं थी. ऊपर से बड़ी शान से कह रही हैं, जब भी टाइम मिलता है
तो लिख लेती हूँ......”
सरिता उनके सामने फेंकते हुए बोले, “ये रही वो कहानी जो आप रिकॉर्ड करवा कर
गयी थीं. अब फिर से बोलिए कि कहानी आपकी ही लिखी हुई थी.”
“ जी हाँ मेरी ही लिखी हुई थी.”
खरे साहब अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाए. जोर से चिल्लाते हुए बोले, “तो फिर
वो कहानी इस सरिता में कहाँ से आ गयी और वो भी किसी और लेखक के नाम से ?”
अब भी उस लड़की को समझ नहीं आ रहा था कि क्या ग़लत हुआ है फिर भी खरे साहब को
गुस्से में देखकर, वो सहमती हुई सी बोली, “सर मेरा विश्वास कीजिये वो कहानी मेरी
ही लिखी हुई थी, इस सरिता में से देखकर ही लिखी थी मैंने. मैंने झूठ क्या बोला? आप
राइटिंग मिलाकर देख लीजिये, मेरी ही लिखी
हुई थी वो कहानी.”
खरे साहब क्या बोलते ? उन्होंने हाथ
जोड़े उसे और कहा, “आप जाइए देवी, मुझे कुछ नहीं कहना आपसे लेकिन मेहरबानी करके फिर
कभी मेरे पास इस तरह अपनी लिखी कोई कहानी लेकर न आइयेगा.”
उस दिन के बाद खरे साहब ज़रा सावधान हो गए. वो समझ गए कि ये लोग कभी भी कहीं भी
उन्हें फंसा सकते हैं.
मुझे संगीत का शौक़ शुरू से ही था. क़ायदे से कुछ भी सीखने का मौक़ा तो मिला नहीं
लेकिन फिर भी दो चार साज़ थोड़े बहोत बजा लिया करता था. जब आकाशवाणी, बीकानेर में
आया तो उन्हीं दिनों म्यूज़िक कम्पोज़र, तानपूरा प्लेयर, सारंगी प्लेयर, तबला
प्लेयर, ढोलक प्लेयर की पोस्ट्स पर कई कलाकार
लोगों ने ज्वाइन कर लिया था. जब इतने कलाकार आ गए तो ज़ाहिर है उनके बजाने के लिए
कई साज़ भी खरीदे जाने ही थे. थोड़े ही दिनों में वहाँ का म्यूज़िक रूम तरह तरह के
साजों से ठसाठस भर गया था. कई कई सारंगियां, कई सितार, कई सरोद, तबलों की बेशुमार
जोडियाँ, कई हारमोनियम और भी न जाने क्या क्या ? अब मेरी कुछ दबी हुई इच्छाएं जोर
मारने लगीं. जब भी रात की ड्यूटी होती थी और कोई लंबा रिले चलता था, तो मैं म्यूज़िक रूम का ताला
खोलता था, कोई भी साज़ लेकर बैठ जाता था और घंटा डेढ़ घंटा प्रैक्टिस किया करता था.
इसी तरह दिन में भी जब कभी टाइम होता और म्यूज़िक स्टूडियो में कोई रिकॉर्डिंग नहीं
चल रही होती, मेरा खाली टाइम म्यूज़िक स्टूडियो में ही गुज़रता. क्योंकि करीब करीब
म्यूज़िक की सारी रिकॉर्डिंग्स मैं ही किया करता था, म्यूज़िक के सारे कलाकारों का
मुझसे वास्ता पड़ता ही रहता था. सभी लोग बहोत प्यार और इज्ज़त से पेश आते थे. उन्हें
पता था कि मुझे संगीत का बेंतेहा शौक़ है. कई बार जब मैं स्टूडियो में बैठा कुछ
बजाने की कोशिश कर रहा होता, ये कलाकार लोग तारीफ़ भी कर दिया करते थे.
इन्हीं स्टाफ कलाकारों में एक तानपूरा प्लेयर थे, जो तबला भी बहोत अच्छा बजाते
थे और गाते भी बहोत अच्छा थे. एक रोज़ मैं जब स्टूडियो में बैठा कुछ बजा रहा था तो
मेरे पास आकर बैठ गए. थोड़ी देर तक जो मैं बजा रहा था, उसे सुनते रहे, फिर बोले,
“माशाअल्लाह.....हाथ तो अच्छा चलता है आपका.”
मैंने कहा, “शुक्रिया खां साहब, बस टूटा फूटा आता है सो बजा लेता हूँ.”
“क़सम ख़ुदा की, अगर आप किसी से क़ायदे से सीख लें तो बहोत अच्छा गा बजा सकते हैं
क्योंकि सुर ताल सबकी आपको पूरी समझ है यानी म्यूज़िक तो आपमें है, बस उसे सलीक़े और
तरतीब की दरकार है.”
“खां साहब, जब सीखना चाहता था, कोई सिखाने वाला मिला नहीं और अब वो सीखने वाली
उम्र भी नहीं है, बस अब तो खुद अपने लिए ही कुछ बजा लेता हूँ. वैसे भी कौन सा मुझे
किसी कॉन्सर्ट में गाना बजाना है ?”
“अजी जनाब, चाहें तो कॉन्सर्ट में भी गा बजा सकते हैं आप. अभी कौन सी उम्र
निकल गयी आपकी ?”
“आप तो देखते हैं, जिस तरह मसरूफ रहता हूँ ऑफिस में. बस अपने आपको तारोताज़ा
करने के लिए म्यूज़िक स्टूडियो में आकर बैठ जाता हूँ थोड़ी देर.”
“आप अगर चाहें, तो ये जो थोड़ा वक़्त आप म्यूज़िक रूम या म्यूज़िक स्टूडियो में
तशरीफ़ लाते हैं, उस वक़्त मुझे भी बुला लिया करें, मैं थोड़ा बहोत कुछ नया आपको बता
सकूं तो अपने आपको खुशकिस्मत समझूंगा.”
खां साहब ने जब इतने क़ायदे से मुझसे इसरार किया तो मना करना मुझे बदतमीजी लगा.
मैंने कहा, “ठीक है खां साहब, मगर मेरी दो शर्तें हैं.”
“वो क्या हुज़ूर ?”
“पहली तो ये कि मैं मुफ्त में नहीं सीखूंगा. आप जो मुनासिब फ़ीस हो, वो बता
दें, मैं हर महीने वो फ़ीस आपकी नज़्र करूंगा. दूसरी शर्त ये है कि हमारा सीखने
सिखाने का ये रिश्ता दफ्तर के रिश्तों के बीच कहीं नहीं आयेगा.”
“जी सर, हालांकि आपसे फ़ीस लेकर कहाँ रखूंगा मैं, लेकिन अगर आप इसके बिना राजी
नहीं होते तो मुझे मंज़ूर है, आपकी दोनों शरायत.”
अगले दो तीन रोज़ मुझे फुर्सत नहीं मिली. वो इस बीच एक दो बार आये और इशारे से
स्टूडियो में चलने को कहा. मैंने उन्हें बताया कि मैं अभी बिजी हूँ चल नहीं सकता.
दो तीन दिन बाद मुझे थोड़ी फुरसत मिली तो हम लोग थोड़ी देर स्टूडियो में बैठे.
उन्होंने एक दो बातें बताईं मुझे, लेकिन मुझे
उनके बोलने का अंदाज़ थोड़ा बदला हुआ लगा. मैंने सोचा, शायद कुछ ग़लतफहमी हुई है मुझे.
लेकिन मैंने नोटिस किया कि कहाँ तो पहले ऑफिस में मुलाक़ात होने पर बड़े अदब से दुआ
सलाम किया करते थे. अब बस सामने मिलते ही देखते थे इस अंदाज़ से, मानो इंतज़ार कर
रहे हों कि सलाम मैं करूं. मुझे आगे होकर दुआ सलाम करने में कोई एतराज़ नहीं था
लेकिन जब आप महसूस करें कि कोई आपके सामने इसलिए देख रहा है कि आप उसे सलाम करें,
तो थोड़ा सा अजीब लगता है. पहले जब भी बात करते थे तो जनाब, हुज़ूर, सर जैसे अल्फ़ाज़
से ही उनका हर जुमला शुरू होता था. अब इन सारे अल्फ़ाज़ की जगह “मियाँ” लफ्ज़ ने ले
ली थी. मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. फिर भी मैंने उनसे कुछ नहीं कहा. मैं
खामोशी से उनके इस बदले रवैये को बर्दाश्त करता रहा. एक दिन सब कुछ मेरी बर्दाश्त
से बाहर हो गया.
हुआ ये कि ऑफिस के पास तीर्थंभ चौराहे पर एक पान की दुकान थी. मैं हालांकि पान
नहीं खाता था, मगर कभी कभी लक्ष्मी चन्द जी, भट्ट साहब, भीम राज जी, खरे साहब, कमर
भाई या दयाल जी जैसे लोगों के साथ वैसे ही वहाँ तक चले जाया करता था. एक दिन इसी
तरह मैं पान की दुकान पर गया तो पान वाले ने मुझे कहा, “सर अभी अभी आपके गुरु जी
आकर गए हैं.”
“मेरे गुरु जी? मतलब ?
“जी हाँ वो खां साहब. “
मैंने हँसते हुए कहा, “अच्छा ? क्या कुछ कह रहे थे ?”
उसने भी हँसते हुए कहा, “ वो यहाँ किसी से बात कर रहे थे और कह रहे थे, मोदी
से कोई काम हो तो मुझे बताना, मैं कह दूंगा, तो वो इनकार कर ही नहीं सकता. वो मेरा
गंडाबंद शागिर्द है.”
बस इतना काफी था मेरे लिए. मैंने उसी वक़्त ऑफिस जाकर उनसे कहा, “खां साहब आपने
जो भी गंडा बांधा है, बरायेमेहरबानी खोल लीजिये. मुझे आपसे कुछ नहीं सीखना. मैं
जैसा हूँ वैसा ही बने रहने दीजिये. मेरे लिए सबसे पहले मेरा ऑफिस है, उसका
डिसिप्लिन है, उसके बाद मेरा ज़ाती शौक़. ”
और मैं सोचने लगा,
आकाशवाणी बीकानेर के पानी को चैक करवाना चाहिए. कुछ न कुछ दिक्क़त तो है यहाँ के
पानी में. जो भी थोड़े दिन यहाँ का पानी पी लेता है, नार्मल इंसान तो रह ही नहीं पाता.
उसके
बाद बड़े बड़े ज्ञानी और गुणी कलाकारों के साथ रहा, कई बड़े बड़े कलाकारों से अच्छी
खासी दोस्ती भी रही, लेकिन उस दिन से लेकर
आज के दिन तक जब भी कभी संगीत के नाम पर कुछ भी सीखने की सोची तो किसी न किसी ने
ऐसा शॉक दिया कि मेरा संगीत सीखने का सारा शौक़ हवा हो गया. अब तो मैंने मान लिया
है कि मेरी किस्मत में संगीत के नाम पर इतना ही लिखा हुआ है. सन 1968 में मैं संगीत सीखने के लिए गर्ल्स कॉलेज जा
पहुंचा था और मुझे दाखिला देने से इनकार कर संगीत के नाम पर महारानी सुदर्शना कॉलेज की प्रिंसिपल ने जो
ज़ख्म मुझे सौंप दिए थे वो ज़ख्म ही अब तक नहीं भरे हैं, संगीत के नाम पर अब और कोई
ज़ख्म नहीं खाने हैं मुझे क्योंकि बहोत दुःख देते हैं ये ज़ख्म.
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