हमारी
अहमदाबाद,
मुम्बई और पूना की यात्रा एक महीने में पूरी हुई जबकि हम लोग पंद्रह दिन की छुट्टी
लेकर कन्या कुमारी की यात्रा पर निकले थे. खुद ए ओ साहब ने ही सलाह दी थी कि कन्या
कुमारी के लिए एल टी सी लूं तो एक बार तो ज़्यादा पैसे मिल जायेंगे. अगर वहाँ तक न
जा सकूं तो जहां तक जा सकूं वहीं तक चला जाऊं, वहाँ के टिकट का पैसा रखकर बाकी जमा
करवा दूं.इसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं है. मैंने लौटते ही बाकी का पैसा ऑफिस में
जमा करवा दिया. छुट्टी बढाने के लिए मैंने मुम्बई से तार भेज ही दिया था. मुझे लगा
कि मैंने कोई भी काम नियम के खिलाफ नहीं किया है लेकिन ऑफिस में आते ही हमने देखा
कि ए ओ साहब और उनके मातहतों के सुर बदले हुए थे. हम दोनों को ज्वाइन करते ही ऑफिस
ने लम्बे चौड़े मेमो पकड़ा दिए. इनमें लिखा था कि हमने कई काम नियम विरुद्ध किये
हैं. पहली बात, हमने कन्या कुमारी के लिए एल टी सी लिया था, हम बिना ऑफिस से पूछे
पूना कैसे चले गए? दूसरी बात, अगर हमें कन्याकुमारी जाना था, तो हमने पंद्रह दिन
की ही छुट्टी क्यों ली? तीसरी बात, हमारी छुट्टी बढाने की दरख्वास्त मंज़ूर नहीं
हुई थी, इसके बावजूद हम वापस नहीं लौटे, तो क्यों न हमारी उस गैर हाजिरी को विलफुल
एबसैंस मानकर हमारी नौकरी में ब्रेक दे दिया जाए. चौथी बात, हमने सरकार का पैसा
छुट्टी के दौरान पंद्रह दिन तक अपने पास बिना किसी इजाज़त के एक्स्ट्रा रखा तो
क्यों न उसका ब्याज हमसे चार्ज किया जाए ? पांचवां, क्या सबूत है कि हम पूना भी गए
थे ? दफ्तर को लगता है कि हम कहीं नहीं गए और सरकार का एल टी सी का पैसा घर बैठ कर
खा लिया. तो क्यों न सरकारी पैसे के दुरुपयोग के इलज़ाम में हमें सस्पैंड कर दिया
जाए ?
मैडम रुग्मिनी हालांकि हम
दोनों से बहोत स्नेह रखती थीं और जानती थीं कि हम लोग जी जान से दफ्तर में काम
करते हैं. खुद मैडम ने ही मुझे ऑफिस की इतनी जिम्मेदारियां सौंपीं थीं, लेकिन इससे
पहले वो न्यूज़ रीडर रही थीं. उन्हें ऑफिस के एडमिनिस्ट्रेशन का बहोत तजुर्बा नहीं
था, इसलिए ए ओ ने फ़ाइल पर हम लोगों के खिलाफ अपने क्लर्क दिमाग़ से ऐसी लम्बी चौड़ी
नोटिंग की कि मैडम को कुछ समझ नहीं आया कि उस नोटिंग पर दस्तखत करने से कैसे इनकार
करे? नतीजा ये हुआ कि उन नोटिंग्स को आधार बना कर दफ्तर ने हमें लम्बे चौड़े मेमो
थमा दिए. मैंने मैडम को जाकर पूछा, मैडम क्या है ये? क्या अच्छा काम करने का यही
सिला दे रही हैं आप ?
वो भी बहोत परेशान हुईं
लेकिन पूरा एडमिन सेक्शन उनके खिलाफ था इसलिए उनकी कुछ नहीं चली और वो हमारे लिए
कुछ नहीं कर पायीं. हम लोगों ने इत्तेफाक से अपनी पूरी यात्रा के दौरान सोवेनियर
के तौर पर उदैपुर, अहमदाबाद, मुम्बई और पूना के होटल्स की रसीदें, जहाँ जहां घूमे
उन जगहों की टिकटें, पैट्रोल की रसीदें, सिनेमा के टिकट वगैरह संभाल कर रखे हुए थे
, उनके फोटोस्टेट करवाकर उन्हें ऑफिस को
सौंप दिया जिससे ये तो साबित हो गया कि हम पूना गए थे. बाकी सवालों के जवाब भी
हमने लिखकर दिए कि हम सही रास्ते से जा रहे थे और ये तो हम पहले ही लिखकर दे चुके थे कि हम अपनी
कार से जा रहे हैं, अब अगर कार रास्ते में खराब हो गयी तो हम क्या कर सकते हैं ? कार
कई जगह खराब हुई, इसीलिए हमें छुट्टी बढानी पड़ी. हमने छुट्टी बढाने की दरख्वास्त
तार द्वारा भेजी थी, इसके सबूत के तौर पर
तार की रसीदऑफिस को दे दी. उस तार के जवाब में दफ्तर ने हमें कोइ लिखित सूचना नहीं
भेजी कि हमारी छुट्टी मंज़ूर नहीं की गयी है. हमने बीकानेर लौटते ही एडवांस में से बचा
हुआ एक एक पैसा दफ्तर में जमा करवा दिया था, इसलिए ये इलज़ाम सरासर ग़लत है कि हमने
पैसा किसी ग़लत ख़याल से अपने पास रखा या हमने उसका दुरुपयोग किया. कुल मिलाकर हमारी
नीयत में ज़रा भी खोट नहीं थी, बल्कि खुद ए ओ ने ही हमें राय दी थी कि हम कन्या
कुमारी का एल टी सी लें, आगे जाकर ज़रूरत हो तो छुट्टी बढ़ा लें, कन्याकुमारी न जा
सकें तो जो पैसा बचे वो वापस जमा करवा दें और अब वही ए ओ साहब अपने चमचों के साथ
मिलकर इस बात का फ़ायदा उठा रहे थे कि मैडम को एडमिनिस्ट्रेशन का ज़्यादा ज्ञान नहीं
था.
हमें
हालांकि कोई डर नहीं था, क्योंकि हमारी नीयत में कोई खोट नहीं थी लेकिन उन मेमोज़
ने एक बार को हमारी नींद तो उड़ा ही दी थी. हम समझ रहे थे कि ये उन अनाउंसर महोदय
और बीकानेर के लोकल लोगों के गुट की साज़िश है लेकिन फ़ौरन फ़ौरन इसका कोई हल निकाला
ही नहीं जा सकता था. हमने भी तय कर लिया कि लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ेगी तो लड़ेंगे. वैसे
भी सरकारी हाथी तो ज़रा झूम कर ही चलता है. हमने मेमो के जवाब दिए, उनके जवाब में
दफ्तर ने फिर कुछ मेमो दिए , फिर हमने जवाब दिए, फिर हमें कुछ मेमो दिए. यानी
दफ्तर की तरफ से भरपूर कोशिश हो रही थी, हमारे दिमाग़ को इतना परेशान कर दिया जाए
कि हम काम न कर पायें. हम दो दो मोर्चों पर जूझ रहे थे. एक तरफ ऑफिस के हैड की
हैसियत से मैडम ने हमारे ऊपर ढेरों जिम्मेदारियां डाल रखी थीं, दूसरी तरफ उसी ऑफिस
का एक हिस्सा एडमिनिस्ट्रेटिव सेक्शन, मैडम के ही दस्तखत करवा करवाकर, हमें मेमो पर मेमो दिए जा रहा था और हमें बेईमान
साबित करने की कोशिश किये जा रहा था. मैं सोच रहा था, बाहर से जो डिपार्टमेंट इतना
सभ्य और सुसंस्कृत लगता है , उसके अन्दर कितनी ग़लाज़त भरी हुई है ? ये सब ईनाम मिल
रहे थे हमें अपनी ड्यूटी ईमानदारी से करने के ? ये ईनाम मिल रहे थे अपनी ड्यूटी के
अलावा आफिस में रुककर सारी संगीत की रिकॉर्डिंग करने के? ये ईनाम मिल रहे थे, बाहर
की सारी रिकॉर्डिंग करने के? ये ईनाम मिल रहे थे, रेडियो रिपोर्ट्स बनाने के ? ये
ईनाम मिल रहे थे, बीकानेर दर्पण नाम के उस प्रोग्राम को बनाने के, जिसे बनाने के
लिए प्रोग्राम सेक्शन का हर इंसान लालायित रहता था. ये दरअसल हमारे खिलाफ रची गयी
एक साज़िश थी, जिसमे हम लोग फंसते जा रहे थे. मैडम रुग्मिनी हालांकि मन से हमारे
साथ थीं लेकिन ए ओ के क्लर्क दिमाग़ की चालों के खिलाफ कुछ नहीं कर पा रही थीं. क़मर
भाई पूरी तरह हमारे साथ थे मगर थे तो वो भी प्रोग्राम के ही इंसान, एडमिनिस्ट्रेशन
की बारीकियां वो भी नहीं जानते थे उस वक़्त तक.
हम अपनी ड्यूटी भी कर रहे
थे, ड्यूटी के अलावा हमें सौंपे गए वो काम भी कर रहे थे, जो हमारी ड्यूटी में
शामिल नहीं थे लेकिन जिनसे हमें मानसिक संतुष्टि मिलती थी और उसी के बीच बीच में
अपनी क्रिएटिविटी को भुलाकर ऑफिस के मेमोज़ के जवाब भी लिख रहे थे. दूसरी तरफ दफ्तर
में एक गुट हर रोज़ मीटिंग्स कर करके योजनाएं बना रहा था कि अब आगे हमें तंग करने
के लिए कैसे और क्या चाल चली जाए ? इसी बीच
शायद हमारे सितारों ने एक करवट बदली और हमारे भाग्य से ए ओ का तबादला बीकानेर से जयपुर
हो गया. ए ओ की पोस्ट खाली रही और अकाउंटेंट की पोस्ट पर आया मेरा पुराना दोस्त
शशिकांत पांडे जो स्कूल में मेरा साथी रह चुका था. उसके आते ही एक बार पूरे
बीकानेरी खेमे में हलचल मची क्योंकि शशिकांत पांडे बहोत होशियार इंसान था और सब
जानते थे कि वो मेरा स्कूल के वक़्त का दोस्त है.
मैंने उसे सारा किस्सा बताया.
उसने सारी फाइलें देखीं लेकिन ए ओ ने मेरे केस को इस क़दर क़ज़दन खराब कर दिया था कि
उसे भी समझ नहीं आया कि क्या किया जाए ? उसने मुझे बताया कि ए ओ और उसके चमचों ने
केस को बुरी तरह खराब कर दिया है. अब एक ही रास्ता है कि इस पूरे केस को दिल्ली भेजा
जाए और दिल्ली वालों से गाइडेंस ली जाए कि क्या किया जाना चाहिए ? उस ज़माने में
ज़ेरोक्स मशीन तो पैदा नहीं हुईं थीं मगर ज़ेरोक्स की पूर्वज फोटोकॉपी मशीन वजूद में
बस आई ही आई थी. मैंने सारे कागज़ात की फोटो कॉपियां ही आफिस को दी थीं . सारे
ओरिजिनल कागज़ मेरे पास थे. फिर से एक बार उन कागज़ात की फोटो प्रतियां लगाकर फ़ाइल
तैयार की गईं और उसे दिल्ली भेजा गया. क्या आप यकीन करेंगे, मेरे इस छोटे से केस
को सुलझाने में दिल्ली के हमारे दफ्तर को 12 बरस लग गए. एक बार तो हमारे
डायरेक्टरेट ने ये फैसला ले लिया कि कि एल टी सी का जो पैसा हमने लिया है वो ग़लत
है और वो पैसा दस बरस के ब्याज के साथ हमें लौटाना होगा. मैंने उनके इस फैसले के
खिलाफ अपील की .सच पूछिए तो मैंने सोचा कि मैं कैसे लोगों के बीच आ फंसा हूँ? ये
वो आकाशवाणी है....... जिसे सुनकर लोग घड़ियाँ मिलाते हैं? ये वो आकाशवाणी हैं जिसके
समाचारों पर लोग आँख मूँदकर भरोसा करते हैं? ये वो आकाशवाणी है जहां स्टेज के
कार्यक्रमों के लिए लाखों रुपये लेने वाले कलाकार कुछ सौ रुपये लेकर प्रोग्राम
करने में फख्र महसूस करते हैं? आखिरकार मेरी अपील पर जब किसी अफसर ने डायरेक्टरेट
में मेरी फ़ाइल को गौर से देखा तो उसे उसमें किसी साज़िश की बू आई और मेरा वो केस
पूरे बारह बरस बाद किसी तरह सेटल हुआ. यानी
बीकानेर के उन क्लर्कों के जमावड़े ने जो आग लगाई थी उस आग को बुझाने में
मुझे पूरे बारह बरस लग गए.
मैं बहोत दुखी मन से काम कर रहा था, बल्कि कई बार
अफ़सोस होता था कि मैंने कस्टम्स की नौकरी क्यों नहीं ज्वाइन की? मैंने बैंक ऑफ
इंडिया को क्यों इनकार कर दिया, लेकिन अब बहोत देर हो चुकी थी. लग रहा था, अब तो
शायद इन्हीं लोगों के साथ रहना है , इन्हीं लोगों के साथ जीना है और इन्हीं लोगों
के साथ मरना है. ये लोग...? कैसे लोग हैं ? कल्चर से जुड़े हुए डिपार्टमेंट में इतने
अनकल्चर्ड लोग? आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो जो काम किया उसपर बहोत फख्र होता है,
बहोत अच्छे अच्छे लोगों के साथ काम किया इस पर ख़ुशी भी होती है. ये आकाशवाणी ही
थी, जिसकी बदौलत मैंने अल्लाह जिलाई बाई से लेकर सोहनी देवी और माँगी बाई जैसी
लोकसंगीत की हस्तियों को रिकॉर्ड किया. ये आकाशवाणी ही थी, जिसकी बदौलत मुझे डी एस रेड्डी और घनश्याम
सुखवाल जैसे कम्पोज़र्स के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो दोनों ही संगीतकार मदन
मोहन के असिस्टेंट और अरेंजर रहे. ये आकाशवाणी ही थी जिसकी बदौलत उस्ताद बिस्मिल्ला
खां, पंडित शिवकुमार शर्मा,पंडित जसराज, पंडित राजन साजन मिश्र से लेकर संजीव
अभ्यंकर जैसे शास्त्रीय संगीत के महारथियों को रिकॉर्ड करने का अवसर मिला, लेकिन सच कहूं तो बहोत अफ़सोस भी होता है कि
मैंने ऐसे लोगों के साथ भी काम किया जो कतई रेडियो के लायक नहीं थे, इस कल्चरल
डिपार्टमेंट के लायक नहीं थे.
कुर्सी बदलते ही किस तरह इंसान रंग बदल लेता है इसे
भी खूब अच्छी तरह देखा मैंने आकाशवाणी में रहकर. एक साहब जो किसी ज़माने में एक्सटेंशन
ऑफिसर थे, डायरेक्टर हो गए. एक वक़्त पर
मेरे साथ घूमने वाले, मेरी मदद करने वाले,मुझे अपना दोस्त मानने वाले, डायरेक्टर
बनते ही मानो अलग ही इंसान बन गए थे. वो उन दिनों जोधपुर में पोस्टेड थे. मेरे एक अनाउंसर
दोस्त के घर अक्सर उनका पीने पिलाने का प्रोग्राम होता था. मैं एक बार जोधपुर गया
हुआ था और उस अनाउंसर दोस्त के घर ही रुका हुआ था . मुझे बाद में पता चला कि उस
दिन शाम को डायरेक्टर साहब वहाँ डिनर के लिए आने वाले थे. ज़ाहिर है डिनर में दारू भी
शामिल थी. सामने के घर में मेरा कॉलेज का दोस्त दिनेश मिश्रा रहता था जो उन दिनों कस्टम्स
में सुपरिंटेंडेंट होकर जोधपुर आया ही था. मैं शाम को दिनेश से मिलने उसके घर चला गया. जब मैं दिनेश के घर बैठा हुआ था तभी
डायरेक्टर साहब मेरे अनाउंसर दोस्त के घर आये. उन्हें पता लगा कि मैं भी आया हुआ
हूँ तो न जाने क्यों उनके मुंह का जायका खराब हो गया. जब खाने पीने की बात आई और मेरे अनाउंसर दोस्त
ने इच्छा ज़ाहिर की कि मैं भी उन्हें
ज्वाइन करूं तो डायरेक्टर साहब ने फरमाया, “ नहीं, मैं डायरेक्टर हूँ, मुझे एक प्रोग्राम
एग्जीक्यूटिव के साथ बैठकर खाना पीना पसंद नहीं है..”
मेरा वो अनाउंसर दोस्त मेरे पास आया और मुझे एक तरफ
लेजाकर रुआंसा सा होकर मेरे कान में बोला, “सर सॉरी ... हम लोग बाद में खाना
खायेंगे. मेरे साहब आपके साथ खाना खाना नहीं चाहते.”
मैंने कहा, “ कोई
बात नहीं दोस्त तुम इस बात को मन पर मत लो, मैंने आकाशवाणी में लोगों को
इसी तरह रंग बदलते अक्सर देखा है.”
बहोत बेइज़्ज़ती महसूस हुई मगर अपने दोस्त की इज्ज़त
को मद्देनज़र रखते हुए मैं दिनेश के यहाँ ही रुका रहा जब तक कि वो डायरेक्टर साहब
पी पिलाकर वापस न चले गए. दिनेश और मधु भाभी ने बहोत कहा कि मैं खाना उनके साथ ही
खा लूं लेकिन मैंने उन्हें साफ़ कह दिया, “मैं आपके साथ कल खाना खा लूंगा लेकिन आज तो
आपके सामने वाले घर में ही खाऊंगा क्योंकि अगर मैंने यहाँ खा लिया तो मेरे दोस्त
को लगेगा कि मैं नाराज़ हो गया हूँ इसलिए उसके घर खाना नहीं खा रहा हूँ.”
आकाशवाणी में बहोत से लोग ऐसे भी देखे जो शराब को
हाथ भी नहीं लगाया करते थे, लेकिन मैंने अपने सैंतीस साल की नौकरी के दौरान देखा
कि शराब और वो भी मुफ्त की शराब आकाशवाणी के ज़्यादातर लोगों की कमजोरी रही है.
अपनी बीकानेर की पोस्टिंग के दौरान भी ऐसे कई वाकये मैंने देखे जिनमें शराब की वजह
से आकाशवाणी के लोगों की इज्ज़त कौड़ियों के भाव बिक गयी. हर जगह की तरह बीकानेर में
भी सैनिकों के लिए हमने कई प्रोग्राम किये. एकबार एक प्रोग्राम था, आर्मी एरिया
में. लोकसंगीत और सुगम संगीत के बहोत बड़े बड़े कलाकारों को हमने आर्मी के जवानों के
मनोरंजन के लिए बुलाया था.दो-ढाई घंटे का प्रोग्राम था. प्रोग्राम बहोत अच्छा रहा.
सर्दी का मौसम था. खुले मैदान में यू आकार में
टेंट लगाकर सैनिकों के बैठने का इंतजाम किया गया था और एक ऊंचा सा स्टेज बनाया
गया था. बहोत तेज़ सर्दी थी इसलिए सैनिकों के पास टेंट्स में हाथ तापने के लिए बड़ी
बड़ी सिगड़ियों का इंतजाम था. इसी तरह स्टेज को भी तीन तरफ से घेरकर उसमे आग जलाकर कलाकारों
को गर्माहट देने की कोशिश की गयी थी. सभी सैनिकों को पूरी छूट दी गयी थी कि वो रम
की चुस्कियों के साथ प्रोग्राम का आनंद उठा सकते हैं. प्रोग्राम के दौरान सैनिकों
को पीते देखकरआर्टिस्ट्स ने भी ये कहकर दारू पीने की इच्छा ज़ाहिर की कि बहोत सर्दी
है, गला और हाथ बर्फ हो रहे हैं, गायेंगे बजायेंगे क्या? अगर थोड़ा गला गर्म करने को
कुछ रम वम मिले तो बात बने.हमें कलाकारों की बात ठीक भी लगी क्योंकि वास्तव में
बहोत तेज़ सर्दी थी. हम लोगों ने सेना के
अफ़सरों से कहकर उनके लिए पीने का इंतज़ाम किया. वो पीते रहे प्रोग्राम करते रहे.
सभी सैनिकों और अफ़सरों ने प्रोराम का भरपूर लुत्फ़ लिया. जब प्रोग्राम ख़त्म हुआ,
बीकानेर में आर्मी के सबसे बड़े ऑफिसर मेजर जनरल ने सारे ऑफिसर्स और आर्टिस्ट्स को डिनर
पर आमंत्रित किया और डिनर से पहले फिर ड्रिंक्स सर्व किये गए . सब लोग फिर पीने
बैठ गए. आर्मी का तो अपना एक कायदा होता है. दो दो तीन तीन पैग लेकर मेजर जेनेरल
साहब ने सबको खाने के लिए कहा मगर हमारे वो अफसर और कर्मचारी मुफ्त की दारू मिलते
ही पैग पर पैग पीने लगे. इनमें से कुछ लोग तो ऐसे भी थे, जिन्होंने अपने पैसे से
खरीदकर अपनी पूरी ज़िंदगी में एक घूँट शराब भी नहीं पी थी.
मेजर जनरल साहब ने थोड़ी देर इंतज़ार किया, फिर सेना की परम्परा के हिसाब
से खाना खाकर चल दिए. मेजर जनरल के निकलते ही ब्रिगेडियर साहब भी निकल लिए.एक
कर्नल साहब और मेजर साहब ने एक आध बार आकर इसरार किया, प्लीज़ आप लोग अब खाना खा
लीजिये, कहीं एसा ना हो कि खाना ख़त्म हो जाए लेकिन हमारे साथी लोग तो जुटे पड़े थे
शराब की बोतलें खाली करने में . थोड़ी देर बाद, कर्नल, फिर थोड़ी देर बाद मेजर और फिर
थोड़ी देर बाद कैप्टन, यहाँ तक कि जे सी ओज़ तक सब लोग चले गए, लेकिन हमारे वो कुछ
साथी बस पिए ही चले जा रहे थे. हम कुछ लोग जो दारू नहीं पिया करते थे और न ही उस
दारू की अहमियत समझते थे, हमें ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी कि सब लोगों को उनके घर
पहुंचा कर ही हम अपने घर जाएँ, इंतज़ार कर रहे थे कि ये लोग अपने ड्रिंक्स खत्म कर
लें और खाना खा लें तो उन्हें घर पहुंचाकर हम भी अपने घर जाएँ. जब सब लोग पी कर
एकदम टुन्न हो गए तो बोले, खाना लगाओ. आर्मी के लोग जो आर्मी के कायदों के आदी थे,
उन्होंने बहोत नम्रता के साथ कुछ सब्जियां और रोटियाँ लाकर लगा दी. इतनी दारू पीने
के बाद अपने सामने सब्जी और दाल देखकर आकाशवाणी के स्टाफ के लोगों का दिमाग़ खराब
होगया. वो चिल्लाकर बोले, “ये क्या है ?हटाओ ये सब दाल-वाल नहीं खानी हमें. चिकेन
लाओ, मटन लाओ, बिरियानी लाओ.”
रात का
एक बज चुका था. रात के एक बजे आकाशवाणी के कुछ लोग सेना के कड़े नियमों में रहने वाले
सैनिकों पर इस बात के लिए चिल्ला रहे थे कि उन्हें दाल खिलाई जा रही थी, सब्जी
खिलाई जा रही थी. कुछ देर तो उन्होंने नम्रता से कहा, “देखिये, खाना ख़त्म हो चुका
है, अब चिकन मटन कुछ नहीं है, जो है सो खा लीजिये क्योंकि यहाँ से भूखे निकलेंगे
तो बाहर भी आपको कहीं कुछ नहीं मिलेगा.”
इस पर नशे
में बुरी तरह चूर हमारे साथी लोग और भड़क गए. बोले, “हम कुछ नहीं जानते, हमारे लिए
फिर से चिकन मटन बनाओ. “
अब सेना के लोगों को भी गुस्सा आगया. उन्हें सुबह
जल्दी उठकर ड्यूटी पर जाना था. उनके अफसर लोग तो जा ही चुके थे, उन्हें किसी का डर
नहीं था, वो बहोत शान्ति से बोले, “यही है
, अगर खाना हो तो खाओ वरना दो दो लात खाओगे.”
चुपचाप सबने सब्जी रोटी खाई
और गाड़ियों में बैठ गए. उन्हें घर तक पहुंचाना मेरी ड्यूटी में शामिल था. ज़रा
सोचिये मेरी क्या हालत हुई होगी जब हमारे स्टाफ के एक तानपूरा वादक को अपना घर ही नहीं मिला. बड़ी मुश्किल से उन
साहब का घर मैंने ढूंढा और उन्हें किसी तरह उनके घर फेंककर मैं घर लौटा.
पता नहीं इस दारू ने रेडियो
के कितने घरों को बर्बाद किया है ? जब बीकानेर में था, एक बहोत अच्छा गाने वाला था.
उस बेचारे का एक ही माइनस पॉइंट था. वो ये कि वो एक कलाल था, यानी उसकी दारू की
दुकानें थीं. मेरे दोस्त संगीत के प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव थे, कभी कभी दो पैग ले
लिया करते थे. बीकानेर में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बनकर आने के बाद उस गायक से
मुलाक़ात हुई. गायक को पता लगा कि साहब दारू के शौक़ीन हैं, वो दो बोतल लेकर ही आया
करता था. धीरे धीरे उनके सम्बन्ध बने और एक दिन वो भी आया कि दारू की बोतलों का
पूरा क्रेट उनके घर पहुंचने लगा और उनका ये हाल हुआ कि सुबह कुल्ला भी दारू से
करने लगे. नाश्ते में दो पैग लेने लगे , लंच में तीन पैग लेने लगे और शाम को ऑफिस से
आकर बाकायदा दारू की महफ़िल सजाने लगे. रात ग्यारह-बारह बजे खाना खाकर सोते थे वो और
सुबह हैंग ओवर उतारने के लिए नाश्ते में फिर दो पैग लेने ही पड़ते थे उन्हें.
पहले वो दारू पिया करते थे
फिर दारू उन्हें पीने लगी और फिर वही हुआ जो होना था. कुछ ही बरसों में उनका लीवर
जवाब दे गया और नौकरी में रहते रहते ही वो
दुनिया छोड़कर चल दिए. बहोत अच्छे कलाकार थे वो, आज भी मैं उन्हें बहोत यद् करता
हूँ इस अफ़सोस के साथ कि उनकी स्वाभाविक मौत नहीं हुई, उन्होंने दारू पी पीकर आत्महत्या
ही की कुछ मायनों में.
वो तो फिर
भी ठीक थे कि अपना पैसा खर्च करके भी पी लेते थे लेकिन एक साहब प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव थे और बाद में डायरेक्टर
भी हुए, जिन्होंने अपने पैसे से कभी एक रुपये की भी शराब नहीं पी लेकिन जाने कैसे,
जब कोई और पिलाता था तो वो आधी बोतल तक शराब पी जाते थे. आम तौर पर शराब का ये
कायदा है कि जो लोग रोजाना पीते हैं उनके पीने की मिकदार धीरे धीरे बढ़ती चली जाती
है. उनपर थोड़ी बहोत दारू जल्दी से असर नहीं करती लेकिन जो कभी कभी पीते हैं , एक
दो पैग पीकर ही टुन्न हो जाते हैं, क्योंकि उनके मैदे को नशे की आदत नहीं होती.
लेकिन हमारे ये साहब कुछ अलग ही थे और इनका मैदा भी शायद कुछ अलग ही किस्म का था.
ये अपने पैसे से तो कभी नहीं पीते थे. बस जब जब भी कहीं मुफ्त की नसीब होती थी,
तभी पीते थे और तब क्या खूब पीते थे !!!
लोग देखते ही रह जाते थे और ये आधी बोतल शराब मज़े से गटक जाते थे और उन पर उसका कोई
असर नहीं होता था.
कुछ
इसी तरह के एक डायरेक्टर जब मैं सूरतगढ़ में था तो वहाँ आये. फार्म रेडियो ऑफिसर से
सीधे डायरेक्टर बने थे. फार्म रेडियो ऑफिसर रहे तब तक कोई ऐसा मौक़ा नहीं मिला कि
खुलकर खाएं पियें. बस खेत खलिहानों में जाते थे तो कुछ छोले कुछ सब्जियां ले आया
करते थे. डायरेक्टर बनकर सूरतगढ़ आये तो गाडी भी उनके पास और रोज़ के दावतनामे भी.
रही सही कसर पूरी करदी वहाँ पोस्टेड फ़ार्म रेडियो अफसर ने. वो डायरेक्टर साहब को
कभी कभार मुफ्त की दारू पार्टियों में ले जाया करते थे. शुरू शुरू में तो मैंने
खुद ने देखा कि डायरेक्टर साहब बाज़ार सब्जी लेने जाते तब भी साइकिल रिक्शा पर
बैठकर जाते थे, उनके मातहत काम करने वाले फ़ार्म रेडियो अफसर ने उन्हें चढ़ाना शुरू
किया कि सर क्या आप रिक्शा में जाते हैं तो हमें शर्म आती है. ऑफिस में गाडी है तो
उसका इस्तेमाल कीजिये. धीरे धीरे सत्ता का नशा चढ़ने लगा और उस नशे को चौगुना किया
उन दावतनामों ने जो उन्हें आर्मी से मिलते थे, जहां शराब की नदियाँ बहती थीं. धीरे
धीरे उनकी शराब नोशी की आदत बढ़ती गयी. मुझे आज भी वो दिन अच्छी तरह याद है जब एयर
फ़ोर्स में हम लोगों ने एक स्टेज प्रोग्राम किया था. प्रोग्राम ख़त्म हो गया था. एयर
फ़ोर्स के सारे अफसर जाने का इंतज़ार कर रहे थे लेकिन हमारे डायरेक्टर साहब थे कि
उनके ड्रिंक्स ही पूरे नहीं हो रहे थे. बहोत बड़े बड़े अफसर तो हार थककर चुपचाप खिसक
लिए थे मगर कुछ अफसर शर्म के मारे वहाँ से जा नहीं पा रहे थे. हमारे साथी श्री अनिलकुमार
राम ने जब देखा कि डायरेक्टर साहब पिए ही चले जा रहे हैं, तो उन्होंने उनका ग्लास
उठाकर झाड़ियों में उलट दिया. उन्होंने फिर दूसरा ग्लास उठा लिया, अनिल जी ने उसे
भी झाड़ियों में उलट दिया. तीन चार बार ऐसा हुआ और उसके बाद डायरेक्टर साहब भयंकर
उल्टी करके खुद ही उलट गए. बड़ी मुश्किल से उन्हें उठाकर कार में डाला गया और उनके
घर पहुंचाया गया.
वैसे ये डायरेक्टर
साहब शुरू में ईमानदार थे लेकिन धीरे धीरे इनकी आदतें बिगड़ रही थीं. कुर्सी किस
तरह इंसान को बदल देती है, ये इसकी एक बहोत अच्छी मिसाल थे. एक वक़्त पर जो इंसान
सब्जी लेने भी तीन मील दूर साइकिल रिक्शा पर जाता था, वही आदमी कुछ साल बाद इतना
भ्रष्ट हो गया कि हर काम में पैसा खाने की सोचने लगा. जब वो जोधपुर के डायरेक्टर
बनकर गए तो उस वक़्त डायरेक्टर्स की बहोत कमी हो गयी थी और कुछ सरकारी नियमों के
चलते नए खुलने वाले राजस्थान के सभी आकाशवाणी केन्द्रों पर अनाउंसर्स की भर्ती का
काम इनके ही हाथ में आ गया. इत्तेफाक से इन्हें एक ऐसा कर्मचारी भी मिल गया जिसने
कहा, “साहब, इस ईमानदारी में कुछ नहीं रखा. आपको बच्चों को पढ़ाना लिखाना है, उनकी
शादियाँ करनी है, आप तो अनाउंसर की हर पोस्ट के लिए एक रक़म तय कर दीजिये. आपको
किसी से बात नहीं करनी होगी. जो करना होगा मैं करूंगा. आप तो मुझसे हर एक पोस्ट के
लिए पचास हज़ार ले लीजिये और जिस जिस का मैं कहूं उसका सलैक्शन कर दीजिये. पचास से
ऊपर जो भी होगा, वो मैं रख लूंगा.”
उन दिनों
राजस्थान में करीब दस-बारह नए स्टेशन खुल रहे थे. हर स्टेशन पर लगभग चार चार पोस्ट्स
थीं अनाउंसर की. यानी करीब पैंतालीस पचास लोगों को चुना जाना था. डायरेक्टर साहब और
उस कर्मचारी ने मिलकर खूब माल समेटा. यही डायरेक्टर साहब आगे चलकर आकाशवाणी जयपुर के
डायरेक्टर यानी पूरे रीजन के डायरेक्टर हो गए और सरकारी नियमों की कारण सबसे
सीनियर भी हो गए. आकाशवाणी की प्रथा है कि थोड़े थोड़े वक़्त के बाद पूरे प्रदेश की
सारे सीनियर अफ़सरों की मीटिंग होती है जिसे कोओर्डिनेशन मीटिंग कहा जाता है. अब हर कोओर्डिनेशन मीटिंग
के चेयरमैन यही डायरेक्टर साहब हुआ करते थे. उन्हें दस्तखत बोलना नहीं आता था. वो
हमेशा दस्तखत को दस्तक बोलते थे. उच्चारण इतने खराब कि तौबा तौबा, सही उच्चारण
वाला कुछ दिन उनके साथ रह जाए तो उसके भी उच्चारण यकीनन खराब हो जाएँ लेकिन अब
ऊंची कुर्सी पर बैठ गए थे. अब तो ज्ञानी होना उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो गया था. एक
मीटिंग में इत्तेफाक से मैं भी बैठा हुआ था. वो कहने लगे, “देखिये......हम लोग
आकासवाड़ी के लोग हैं हमें हर हालत में सुद्ध बोलना चाहिए. असुद्ध बोलने वाले हमारे
यहाँ नहीं चलेंगे. हमें उनकी भासा की गलतियों को सुधारकर उन्हें सुद्ध बोलना
सिखाना पडेगा. सब लोग मन ही मन उनके भाषण को सुनकर हंस रहे थे, मैंने हंसकर कहा, “
क्या सिखायेंगे सर, पूरी ज़िंदगी निकल गयी सिखाते सिखाते कि दस्तक नहीं दस्तखत होता
है लेकिन एक साहब हैं वो अब भी दस्तक ही बोलते हैं.”
पूरी सभा हो हो कर हंस पड़ी. झेंपकर डायरेक्टर साहब
ने बात बदली और कुछ दूसरी बात करने लगे. आकाशवाणी के जयपुर स्टेशन पर रहकर इन साहब
ने कई बड़े बड़े कामों को अंजाम दिया, जिनका ज़िक्र मैं आगे चलकर करूंगा. यही साहब
कुछ बरस बाद जयपुर दूरदर्शन के डायरेक्टर बना दिए गए. अब क्या था? उन्हें खेलने को
और लंबा चौड़ा मैदान मिल गया. आकाशवाणी की परम्पराओं में भ्रष्टाचार नहीं है. यहाँ
के नियम भी कुछ ऐसे हैं कि आम तौर पर बिना इन नियमों को तहस नहस किये कोई भ्रष्ट
होना चाहे तो भी ये मुमकिन नहीं हो पाता लेकिन कुछ महारथी तो ऐसे मिल ही जाते हैं
जो बड़े बड़े दांव खेल जाते हैं . दूरदर्शन की तो जब से नींव पड़ी तभी से भ्रष्टाचार
इसका अहम् हिस्सा बनकर इसके साथ ही साथ पनपता रहा. जब ये डायरेक्टर साहब जयपुर
दूरदर्शन में पहुँच गए, फिर तो ये पूरा खुलकर खेलने लगे. रिटायरमेंट नजदीक था
इसलिए सोचा दोनों हाथों से जितना उलीच सकते हैं उलीच लिया जाय लेकिन किसी का भी
सारा समय एक जैसा नहीं रहता. एक दिन आया जब साहब जी किसी से रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों धर
लिए गए और सस्पैंड कर दिए गए. उनका रिटायरमेंट सस्पेंशन के दौरान ही हुआ.
जैसा कि मैंने कहा, आकाशवाणी में पारदर्शिता ज़्यादा
है इसलिए इसमें भ्रष्टाचार के इमकान बहोत कम रहते हैं फिर भी कुछ हज़रत ऐसे होते
हैं जो कोई न कोई रास्ता अपने लिए निकाल ही लेते हैं. एक सिंह साहब हुआ करते थे.
बड़े नामी प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव. लोकसंगीत देखा करते थे अपने स्टेशन पर जहां बहोत
सी लोकसंगीत की पार्टियां रिकॉर्डिंग के लिए आया करती थीं. आकाशवाणी में हर दो तीन
साल में कलाकारों की फ़ीस रिवाइज़ होती है. एक बार फ़ीस में काफी बढ़ोतरी हुई. हर
कलाकार की फ़ीस करीब दुगुनी हो गयी. उन्होंने कलाकारों को ये नहीं बताया कि उनकी
फ़ीस बढ़ गयी है. उन्होंने हर कलाकार को पूछा, “आपकी पार्टी की फ़ीस कितनी है ?” किसी
ने बताया चार हज़ार, किसी ने पांच हज़ार तो किसी ने तीन हज़ार. इस पर वो बोले,
“देखिये, सरकार ने अब एक नया नियम बनाया है.”
“वो क्या जी ?”
“ऐसा है कि मान लीजिये आपकी फ़ीस चार हज़ार है. आपको
पहले स्टूडियो बुक करने के लिए मेरे पास तीन हज़ार जमा करवाने पड़ेंगे. जब आपकी
रिकॉर्डिंग हो जायेगी तो आपकी फ़ीस में वो तीन हज़ार मिलाकर मैं आपको सात हज़ार का
चैक दे दूंगा.”
गावों से आये कलाकारों की पार्टियों को इसमें कुछ
भी ग़लत नहीं लगा क्योंकि उन्हें इस बात का इल्म ही नहीं था कि उनकी फ़ीस तो पहले ही
बढ़कर सात हज़ार हो चुकी है. ये जो कैश तीन हज़ार स्टूडियो बुकिंग के नाम पर लेनेवाले
हैं, वो तो इन साहब की जेब में ही जाने वाला है. यही व्यवस्था चल पड़ी. सब लोग
संतुष्ट थे. सिंह साहब रोज़ के हज़ारों रुपये जेब में डालने लगे. बस वो बिना एडवांस
में योजना बनाए कभी छुट्टी नहीं लेते थे क्योंकि वो जानते थे कि अगर बिना योजना
बनाए छुट्टी लेनी पड़ गयी तो उनकी पोल खुल
जायेगी. हाँ योजना बना कर छुट्टी लेते थे तो उस दौरान कोई रिकॉर्डिंग ही नहीं रखते
थे जब उन्हें छुट्टी पर रहना होता था.
एक दिन एक गड़बड़ हो गयी. उनके चाचा जी का निधन हो
गया. अब तो कोई चारा नहीं था. छुट्टी लेनी ही पड़ी. इधर उस दिन तीन चार पार्टियों
की रिकॉर्डिंग थी. वो कलाकार आकाशवाणी पहुंचे तो बड़े निराश हुए क्योंकि सिंह साहब
नहीं मिले. वो लोग स्टाफ के लोगों से पूछने लगे कि सिंह साहब नहीं हैं तो वो
स्टूडियो बुकिंग की फ़ीस कहाँ जमा करवानी है ? स्टाफ के लोग स्टूडियो बुकिंग और
उसकी फ़ीस की बात सुनकर चौंके. उन्हें लगा, कुछ न कुछ घपला है. उन्होंने उन
कलाकारों को डायरेक्टर साहब के कमरे की तरफ इशारा करके कहा, वहाँ जाओ, वहाँ जमा
करवा दो. वो बेचारे सीधे सादे, गावों से आये कलाकार जा पहुंचे, डायरेक्टर साहब के
कमरे में, हाथ में नक़द नोट लिए हुए और जाकर बोले, “जी ये स्टूडियो की फ़ीस ले
लीजिये.”
डायरेक्टर साहब भी चौंके. उन्होंने पूछा, “क्या
मतलब?”
उन कलाकारों में से एक बोला, “जी आज हमारी
रिकॉर्डिंग है, तो स्टूडियो की फ़ीस देनी है.”
“रिकॉर्डिंग है तो फ़ीस तो हम देंगे आपको. आप कौन सी
फ़ीस दे रहे हैं ?”
“जी वो बड़े अच्छे आदमी हैं जी सिंह साहब. उन्होंने हमें बताया था कि नियम बदल
गया है कुछ. अब हमें कुछ रुपया स्टूडियो के लिए देना पड़ता है, फिर जब रिकॉर्डिंग
हो जाती है तो हमारी फ़ीस में वो रुपया मिलाकर हमें पूरी रक़म का चैक मिल जाता है. बड़े ही भले आदमी हैं जी वो
सिंह साहब. कभी कोई गड़बड़ नहीं हुई इसमें. जितना पैसा हम देते हैं वो पूरा हमारी
फ़ीस में जोड़कर हमें मिल जाता है जी. बोहत शरीफ आदमी हैं जी सिंह साहब. आज वो आये
नहीं हैं तो...... बाहर लोगों ने कहा कि रुपया आपके पास जमा करवा दें.”
डायरेक्टर साहब को तो पता था कि पिछले दिनों
कलाकारों की फ़ीस में भारी बढ़ोतरी हुई है. उनकी समझ में तुरंत पूरा माजरा आ गया.
उन्होंने कलाकारों को कहा, “ये पैसे तो आप जेब में रखो और बाहर बैठो. मैं आप लोगों
की रिकॉर्डिंग का इंतजाम अभी करवाता हूँ.” और ड्राइवर को बुलाकर कहा, “गाडी ले जाओ और उस सिंह को जहां कहीं भी वो
हो, फ़ौरन गाडी में डालकर लाओ.”
ड्राइवर सिंह साहब के घर पहुंचा. पता लगा कि
श्मशानघाट गए हुए हैं सिंह साहब. वो चला श्मशान की तरफ. उधर सिंह साहब का दिल तो
पहले से ही धड़क धड़क कर रहा था कि क्योंकि उन्हें अचानक छुट्टी लेनी पड़ गयी थी और
उन्हें याद था कि आज तो तीन चार रिकॉर्डिंग लगी हुई हैं. वो सोच ही रहे थे कि जाने
ऑफिस में क्या हो रहा होगा कि उन्हें सामने से आती आकाशवाणी की कार दिखाई दी.
उन्होंने अपना सर पीट लिया और बड़बड़ाए, “हुणै तां चाचा ई मर्या सी, हुण तां प्यो वी
गया.”(अभी तो चाचा ही मरा था, अब तो बाप भी मर गया.)
बस सिंह साहब को कार में डालकर आकाशवाणी लाया गया
और फ़ौरन से पेश्तर सस्पैंड कर दिया गया.
ऐसी ही कुछ महान हस्तियों के साथ मैंने काम किया है
और उनके कई किस्से मेरे दिमाग़ में महफ़ूज़ हैं जिन्हें आगे आने वाले एपिसोड्स में
मैं आपको सुनाऊंगा.
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।