
पिछले रविवार को जनसत्ता के रविवारी में अविनाश ने अपने कॉलम ब्लॉग लिखी में रेडियोनामा पर लिखा है । चूंकि दिल्ला का जनसत्ता देश भर में कई इलाक़ों में नहीं पहुंचता, ज़ाहिर है कि मुझे भी इसकी ख़बर ज़रा देर से ही मिली । और जब मेरे भाई ने कटिंग स्कैन करके भेजी तो लगा कि क्यों ना इसे रेडियोनामा के साथियों और ब्लॉगजगत के हमसफरों के साथ बांटा जाए । इस लेख का शीर्षक है यादों का सिलसिला ।
ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस बरसों से नहीं सुनी । वरना पूरी दोपहर कई पीढि़यों ने इस सर्विस को सुनने में वक्त ज़ाया किया होगा । हर उस काम को हमारे समाज में वक्त ज़ाया करना कहते हैं जिससे आमदनी नहीं होती । जैसे तलत महमूद की आवाज़ से मकबूल हुई मजाज़ की नज़्म है--जगमगाती सड़कों पे आवारा फिरूं, ऐ ग़मे दिन क्या करूं, वहशते दिल क्या करूं....तो कईयों ने इस आवारगी से वक्त ज़ाया किया होगा । लेकिन जिसने इस तरह से ज़ाया हुए वक्त को जिंदगी की लय दे दी वो मजाज़ हो गया ।
एक ज़माने में पुरानी दिल्ली के चावड़ी बाज़ार की गलियों से गुज़रते हुए कानों में ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस की आवाज़ जा घुसती थी--अंखिया मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना । अब पता नहीं उन गलियों में भी पुराना जादू चल रहा है या हिमेश रेशमिया की तान का राज है । लेकिन नाजायज़ यह भी है कि नई पीढ़ी और नए ज़माने के बीच हम पुरानी आवाज़ों के किस्से बताते रहें । डी टी सी की बसों में कान से लगे एफ एम से जैसे गाने सुने जा रहे हों, स्मृतियों का एक बस्ता हर उस आदमी के कंधे पर सवार है जो पुरानी आवाज़ों की कदर में अब भी है । इसलिए हम नई आवाज़ों के मुरीदों से माफी चाहते हुए एक ऐसे ब्लॉग की कहानी कह रहे हैं जो पुरानी आवाज़ों के साए में संचालित किया जा रहा है ।
रेडियोनामा यानी रेडियोनामा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम । इस ब्लॉग पर इतनी पुरानी यादों को समेटा जा रहा है जिसकी याद पुराने लोगों के ज़ेहन से ग़ायब हो रही है । अन्नपूर्णा ने एक पोस्ट लिखी--फिज़ाओं में खोते गीत । लिखा, आजकल भूले बिसरे गीत में पचास के दशक के गीत बहुत बज रहे हैं । इससे पहले के गीत बहुत कम सुनाई दे रहे हैं । 2002 तक पचास के दशक से पहले के गीत सुनाए जाते थे । लगभग सभी गीत अच्छे होते थे । लेकिन कुछ गीत बहुत अच्छे लगते थे । ऐसा ही एक गीत है सुधा मल्होत्रा की आवाज़ में, जो हास्य गीत है । मुखड़ा है--आई भाभी आई । इसमें कुछ संवाद भी हैं: भाभी रेलवे स्टेशन से बाहर निकलीं और उन्होंने रिक्शा बुलाया, पर रिक्शा वाले ने उन्हें बैठाने से इंकार किया । शायद भाभी बहुत मोटी हैं । अंतिम पंक्तियां हैं । ठुमक ठुमक ठुमक पैदल आई भाभी । एक युगल गीत है, जिसमें आवाज़ शायद पहाड़ी सान्याल की है । इसमें भी कुछ संवाद हैं--अनुराधा तुम बीच रास्ते में क्यों खड़ी हो....गीत के बोल याद नहीं आ रहे हैं । एक और गीत सुने बहुत समय बीत गया--मैं बन की चिडि़या बन बन डोलूं रे....चल चल रे नौजवान । इनके अलावा कानन देवी की फिल्म जवाब के गीत और दूसरी फिल्मों के भी कुछ गीत । सरस्वती देवी और बुलो सी रानी के स्वरबद्ध किये गये गीत । अमीर बाई कर्नाटकी, के0सी0 डे, पंकज मलिक के गाए गीत । एक लंबी सूची है ऐसे गीतों की, जिन्हें सुने अर्सा हो
गया ।
इस ब्लॉग के लगभग तमाम मेंबरान ऐसी ही बातें करते हैं । ऐसी बातों के बीच से वे सूचनाएं भी हम तक पहुंचती हैं जो आज का अखबार या टी वी मीडिया नहीं पहुंचाता । ज़ाहिर है, ये सूचनाएं ग्लैमरस नहीं हैं और नए समाज से इन सूचनाओं का कोई ताल्लुक नहीं है । पिछले हफ्ते रेडियोनामा से पता चला कि शिव कुमार त्रिपाठी नहीं रहे । तफसील कुछ इस तरह थी: महात्मा गांधी की शवयात्रा के समय बिड़ला हाउस से राजघाट तक हिंदी में आंखों देखा हाल सुनाने वाले शिवकुमार त्रिपाठी का कैलाश अस्पताल में निधन हो गया । त्रिपाठी इक्यानवे वर्ष के थे ।
रेडियोनामा पर ही विविध भारती मुंबई के उदघोषक और ब्लॉगर यूनुस खान ने बताया कि चौबीस दिसंबर को जयपुर में गोपाल दास जी का निधन हो गया । यूनुस खान ने सूचना शेयर करने से पहले बताया कि जयपुर से राजेंद्र प्रसाद बोहरा जी का अंग्रेज़ी मेल आया । उन्होंने लिखा था: भला कोई भी प्रसिद्ध ब्रॉडकास्टर गोपालदास जी के निधन पर आंसू बहाए, भले उनके निधन की खबर आज के रेडियो चैनलों पर जगह ना बना सके, पर रेडियोनामा पर गोपालदास जी के निधन की खबर जरूर जारी की जानी चाहिए ।
रेडियोनामा एक और काम कर रहा है, पुरानी यादों के सिलसिले को तरतीब दे रहा है । अन्नपूर्णा लिखती हैं: पिछले कुछ समय से या कहें कुछ अरसे से मैं सीलोन नहीं सुन पा रही थी । पहले तो तकनीक की वजह से रेडियो में सेट नहीं हो रहा था । फिर आदत छूट गयी थी । जब से रेडियोनामा की शुरूआत हुई, सीलोन फिर से याद आने लगा । वैसे यादों में तो हमेशा रहा है, पर अब सुनने की ललक बढ़ने लगी । इसलिए मैंने फ्रीक्वेन्सी पता की और इसी मीटर पर जैसे ही मैंने सेट किया । रफी साहब की आवाज़ गूंजी तो लगा कि मंजिल मिल गयी । गाना समाप्त हुआ तो उदघोषिका की आवाज़ सुनाई दी पर एक भी शब्द समझ में नहीं आया । इसी तरह से बिना उदघोषणा सुने एक के बाद एक रफी के गीत हम सुनने रहे । गाईड, यकीन, और एक से बढ़कर एक गीतकार । शायर राजेंद्र कृष्न, गीतकार हसरत जयपुरी.....
खरखराहट तो थी फिर बाद में आवाज़ थोड़ी साफ होने लगी और अंत में सुना: आप सुन रहे थे फिल्मी गीत, जिसे रफी की याद में हमने प्रस्तुत किये । रेडियोनामा एक कम्यूनिटी ब्लॉग है । फिल्हाल इसके 21 मेंबर हैं जो देश विदेश के अलग अलग कोनों में बसे हैं । पर जो जहां भी है वहीं से रेडियो से जुड़ी अपनी यादों को समेट रहे हैं ।
रेडियोनामा की ओर से हम सभी अविनाश को धन्यवाद देते हैं ।
हम रेडियोनामा पर न सिर्फ यादों का कारवां चलाना चाहते हैं बल्कि रेडियो पर एक सिलसिलेवार विमर्श भी शुरू करना चाहते हैं ।
रेडियोनामा का मंच खूब फैले और असरदार बने, सभी को शुभकामनाएं ।