रेडियोनामा पर जानी-मानी समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपनी यादें हमारे साथ बांट रही हैं। ये है इस श्रृंखला की सातवीं कड़ी। इस अंक में वे बात रही हैं कुछ 'लकीर के फ़कीरों' के बारे में। इस श्रृंखला के बाक़ी लेख यहां पढ़े जा सकते हैं।
अगस्त के महीने में न सिर्फ हम इतिहास को याद कर रहे थे, बल्कि इतिहास को बनते भी देख रहे थे. अन्ना के आन्दोलन का अंततः क्या हश्र होगा यह अभी से कहना कठिन है, लेकिन दिल्ली में रामलीला मैदान और इंडिया गेट पर जिस तरह के जन-पारावार को उमड़ते देखा, और देश के कोने-कोने से उसे जिस तरह का समर्थन मिलने की ख़बरें पढ़ी-सुनीं उससे इतना तो तय हो गया कि हम क्षेत्र-भाषा-जाति-वर्ग के कितने ही टुकड़ों में बँटे हुए क्यों न हों ......सबके सब भारतीय हैं....जब चाहें एक सुदृढ़ दीवार बनकर खड़े हो सकते हैं.
अपने मिनी भारत की यानी हमारे हिंदी न्यूज़ रूम की भी कुछ ऐसी ही कैफियत है. आपस में उलझते रहते हैं, एक-दूसरे की टांग खींचते रहते हैं, महीनों तक बोलचाल भी बंद हो जाती है...लेकिन जब कभी अंग्रेज़ी न्यूज़ रूम का कोई व्यक्ति हमारे किसी सदस्य पर हावी होने की या उसे नीचा दिखाने की कोशिश करता है...तब देखिये हमें. सुमित्रानंदन पन्त जी के शब्दों में कहूं तो ..."लोहे की दीवार गरजती" सामने आ खड़ी होती है. और अंग्रेज़ी न्यूज़ रूम ही क्यों, कभी-कभी हमारे अपने न्यूज़ रूम में कोई ऐसे अधिकारी आ जाते हैं, जो हमारी एकता को ललकार देते हैं.
एक ऐसे ही अधिकारी आये थे, जो थे तो ए एन ई (एसिस्टेंट न्यूज़ एडिटर) ही, लेकिन हमें सुधारने का बीड़ा उठा चुके थे. हममें से कोई भी जब न्यूज़ रूम में प्रविष्ट होता तो उनकी निगाहें घड़ी की तरफ उठ जाती थीं. शायद लेखा-जोखा रखते थे कि कौन कितने बजे आया और कितने बजे गया, दफ्तर के समय में से कितना समय व्यर्थ गंवाया.
राष्ट्र भाषा समिति की सिफारिश पर समाचार कक्ष में हिंदी में काम-काज को बढ़ावा देने के लिए हिंदी पूल की व्यवस्था शुरू हुई. समिति के सदस्यों को आमंत्रित किया गया था ताकि उसका विधिवत उद्घाटन कराया जा सके. कार्यक्रम साढ़े तीन बजे से था. हमारे अधिकारी जी बढ़िया कोट-पैंट पहनकर आये थे. वैसे उनकी ड्यूटी दिन शिफ्ट में थी, जो ३ बजे समाप्त हो जाती है. लेकिन वे अपने कोट की जेब में हाथ डाले, इधर-उधर घूमते हुए तैयारियों का जायज़ा ले रहे थे. तभी उनके घर से फ़ोन आया. शायद वे घर पर कहना भूल गये थे कि देर से पहुंचेंगे. बहरहाल, हमने सुना वे पत्नी से कह रहे थे - "समझती नहीं हो, हम अभी कैसे आ सकते हैं. इतना बड़ा कार्यक्रम है. हम अधिकारी हैं, हमें ही सब प्रबंध देखना है."
इसी के बाद हमने आधिकारिक तौर पर उनका नाम "अधिकारी जी" रख दिया था. उनकी अधिकारिता के अलग-अलग क़िस्से अलग-अलग लोगों से सुने जा सकते हैं. मेरे साथ जो हुआ, वो मैं आपको सुनाये देती हूँ. कोई टेस्ट मैच चल रहा था...शायद भारत और इंग्लैंड के बीच. अंग्रेज़ी का आइटम उन्होंने मुझे अनुवाद के लिए दिया. उसमें लिखा था आज मैच के "पैन- अल्टीमेट" दिन अमुक टीम ने इतने रन बनाये. मैंने अनुवाद करते हुए लिख दिया कि आज मैच के चौथे दिन....
अधिकारी जी बिगड़ गये. बोले - "यह चौथा दिन कहाँ से आ गया?"
मैंने कहा- यह ख़बर रोज़ जा रही है. आज चौथा दिन है.
कहने लगे - इस ख़बर में यह बात कहाँ लिखी है ?
मैंने चिढ़कर कहा - यहाँ तो पैन-अल्टीमेट लिखा है, तो क्या अंतिम दिन के पहले दिन लिखूं?
बोले - और नहीं तो क्या? यह तो लिखना ही पड़ेगा.
मैंने समझाने की कोशिश की कि महराज टेस्ट मैच ५ दिन का होता है और पैन-अल्टीमेट चौथा दिन ही है.
कहने लगे - वाह, क्या चार या छः दिन का नहीं हो सकता?
मैंने कहा कि अगर होता तो साफ लिखा होता कि चार दिन के इस टेस्ट-मैच में या छः दिन के मैच में....
लेकिन उन्हें नहीं मानना था नहीं माने.
इसी तरह के एक और अधिकारी से साबका पड़ा एक बार. उस दिन मेरी वाचन की ड्यूटी थी. रिहर्स कर रही थी. एक ख़बर पर नज़र पड़ी तो ठिठक गयी. लगा, कहीं कुछ गड़बड़ है. ख़बर ज़रा ध्यान से पढ़ी. कुछ ऐसा हुआ था कि एक मोटर नौका एर्णाकुलम से लक्ष-द्वीप के लिए रवाना हुई थी लेकिन उसका तट से संपर्क टूट गया था. इसके बाद के वाक्य से मैं चौंक गयी थी. लिखा था- हमारे कलकत्ता (हाँ, तब तक कलकत्ता ही था, कोलकाता नहीं हुआ था) संवाददाता ने बताया है कि .....
मैंने संपादक से कहा - एर्णाकुलम से नाव चली... लक्ष द्वीप जा रही थी...इसके बारे में भला कलकत्ता संवाददाता क्यों बोल रहा है?
संपादक महोदय ने पहले तो मेरी आपत्ति पर ही आपत्ति व्यक्त की. बोले- आपके साथ यही मुश्किल है, हर बात में तर्क करने लगती हैं.
लेकिन जब मैंने भारत के मानचित्र पर तीनों स्थान दिखाकर फिर अपनी आपत्ति दोहरायी तो बोले - अरे भाई, कलकत्ता संवाददाता छुट्टी मनाने वहां गया होगा. आपको इससे क्या मतलब? आप बाकी आइटम देखिये.
बात कुछ हज़म नहीं हुई वाले अंदाज़ में मैंने उनसे उस आइटम की अंग्रेज़ी कॉपी मांगी और तब तक मांगती रही, जब तक उन्होंने उसे ढूंढकर मेरे हवाले नहीं कर दिया. पता है, उसमें क्या लिखा था? जी हाँ, बिलकुल ठीक समझे आप. जल्दबाज़ी या गफ़लत में कालीकट का कलकत्ता हो गया था.
एक और अधिकारी थे, जिन्हें तमाम घरेलू बुलेटिनों से ज़्यादा फ़िक्र सुबह ०८५० के विदेश प्रसारण सेवा के बुलेटिन की थी. आम तौर पर ड्यूटी पर आते ही लोग सबसे पहले आठ बजे का बुलेटिन ध्यान से देखते-पढ़ते हैं. लेकिन इन सज्जन की तो बात ही कुछ और थी. आठ बजे का बुलेटिन किनारे धर देते और पूरे मनोयोग से ०८५० का बुलेटिन देखते. फिर पूछते किसने बनाया, किसने पढ़ा और ख़ुदा न खास्ता अगर दोनों में से कोई उनके सामने पड़ जाता तो ख़ैर नहीं थी. विदेश प्रसारण के बुलेटिन कैसे होने चाहिए- कैसे नहीं, इस पर अच्छा-ख़ासा भाषण सुनना पड़ता.
पहले अक्सर इस बुलेटिन पर कैजुअल संपादक और वाचक की ड्यूटी लगती थी लेकिन उन्होंने फरमान जारी कर दिया कि केवल रेगुलर लोग ही यह बुलेटिन बनायेंगे और पढेंगे. उन दिनों मैं ज़्यादातर सुबह की शिफ्ट में ड्यूटी किया करती थी. सो हफ्ते में कम से कम तीन-चार दिन यह सौभाग्य मुझे प्राप्त होने लगा - पहले तो "सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बुलेटिन" बनाने या पढ़ने का और उसके बाद अधिकारी महोदय की लेक्चर क्लास अटेंड करने का. मुझे याद है एक बार जब मैं लगातार तीसरे दिन यह ड्यूटी कर रही थी, तब मेरे सहयोगी जोगिन्दर शर्मा मेरी मेज़ के पास आये, पानी छिड़का, लाल फूलों की माला चढ़ायी और अगरबत्ती जलाकर बोले - "लो, अब यह बलि का बकरा तैयार है".