जगजीत सिंह के अवसान कि खबर ने एक बड़ा झटका दिया संगीत-संसार को.
मीडिया को कितना निस्संग और निर्मम होना पड़ता है इसकी एक बानगी आज आपको दी जाए.
जब भी कोई उम्र-दराज़ फ़िल्मी हस्ती अस्पताल पहुँचती है तो रेडियो और टीवी वाले आपातकालीन तैयारियां कर लेते हैं. ताकि वो सबसे पहले श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर सकें. ये बात आपको इसलिए बता रहा हूँ क्यूंकि जगजीत गए तो किसी को इसका अंदेशा तक नहीं था. इससे पहले जब शम्मी कपूर अस्पताल में भर्ती किये गए तो भी किसी ने सोचा नहीं था कि वो हमें छोड़ कर चले जायेंगे. दरअसल शम्मी जी नियमित अस्पताल में भर्ती होते थे और डायलिसिस वगैरह करवाके लौट आते थे. अचानक सितम्बर कि एक सुबह उनकी विदाई का संदेसा आ गया.
रेडियो और टीवी कि दुनिया में आजकल इतनी प्रतियोगिता है कि सबसे पहले और सबसे आगे रहने की तमन्ना में हमें जाने क्या क्या करना पड़ता है. इसमें कुछ बातें निस्संगता और निर्ममता लग सकती हैं. मुद्दा ये है कि जब किसी फ़िल्मी हस्ती कि दुनिया से विदाई होती है और आप रेडियो पर सबसे पहले कोई कार्यक्रम सुनते हैं तो शायद आपके मन में ये नहीं आता होगा कि इसके लिए जो संसाधन हैं वो पहले से जुटाकर रखे गए होंगे. त्वरित प्रस्तुति होते हुए भी इसकी तैयारियां करके रखी होंगी. गाने, जानकारियाँ, इंटरव्यू और संवाद पहले से जमा कर लिए गए होंगे. लेकिन जैसे ही आपको ये बात पता चलती है कि हम रेडियो वालों को अमूमन पहले से मानसिक रूप से तैयारी करके रखनी पड़ती है, तो निश्चित है कि ये बात आपको बहुत नागवार गुजरेगी. पर ये दुनिया ऐसी ही है. हमें सचमुच इतना निर्मम होना पड़ता है.
जगजीत के जाने के बाद मुझे अचानक विविध भारती के लिए श्रद्धांजलि कार्यक्रम पेश करना पडा. यकीन मानिए एक तो अपने प्रिय कलाकार के दुनिया से चले जाने का सदमा और ऊपर से आनन फानन देश के सबसे बड़े रेडियो चैनल पर कार्यक्रम प्रस्तुत करना.....ये बेहद कठिन था. या सच है कि ये हमारा पेशा है, हमें इसकी आदत होती है. लेकिन लाख आदत हो जाए. लाख आप खुद को संभाल लें, पर जिस कलाकार से आपकी जिंदगी की इतनी सारी यादें, इतने सारे रेफेरेंस जुड़े हों. उसकी आवाज़ सुनकर ही सारा धीरज टूट जाता है. केवल आधे घंटे कि उस पेशकश के लिए मैंने ना तो इंटरव्यू ढूंढे, ना ज्यादा जानकारियाँ जमा कीं...इस कार्यक्रम को जज्बाती बनाकर पेश किया. अपने मन कि सच्ची बातें कीं. जो नियमित सुनते हैं उन्होंने महसूस किया कि मेरी आवाज़ काँप रही है. स्टूडियो के कुछ साथियों के गले रुंधे थे....आंखे भीगी थी, यहाँ तक कि एक सहयोगी जब फिल्म और संगीत कि दुनिया की जानी मानी हस्तियों को फोन पर रिकॉर्ड कर रही थीं तो वो रो पड़ीं. श्रद्धांजलि के कार्यक्रमों में समकालीन कलाकारों से बातें करना भी एक चुनौती होती है. क्यूंकि अमूमन किसी का मन नहीं होता उस वक्त बातें करने का. पर हमें सवाल कर करके बातें निकलवानी पड़ती हैं. संस्मरण निकलवाने पड़ते हैं. ये सब उस श्रोता के लिए किया जाता है, जो ऐसे मौकों पर हमसे उम्मीद लगाए रहता है. यकीन मानिए ये अपने आपमें बहुत चुनौतीपूर्ण कार्यक्रम होते हैं.
परदे के पीछे कि ये सच्चाइयां दर्शकों या श्रोताओं तक नहीं पहुँचती. लेकिन इससे प्रदर्शनकारी कलाओं से जुड़े लोगों के जीवन और काम कि मुश्किलों का अंदाजा ज़रूर लगाया जा सकता है. हम जब कार्यक्रम पेश कर रहे होते हैं तो ज़्यादातर अच्छा यही माना जाता है कि हमारे निजी एहसास सामने ना आयें. पर फिर भी आवाज़ और चेहरे झूठ तो नहीं बोल सकते ना. आवाजों की दुनिया में मन की भावनाएं उजागर हो ही जातीं हैं. रेडियो कि दुनिया में कितनी कितनी मिसालें हैं, चुनौतीपूर्ण खबरें देने की. जैसे जब महात्मा गांधी की ह्त्या हो गयी तो रेडियो पर उसकी खबर मेलविल डी-मेलो ने पढ़ी थी. उन्होंने जिस तरह इस खबर को पढ़ते हुए पॉज़ लिया था, वो रेडियो की दुनिया का सबसे सूझ-बूझ भरा पॉज़ बन गया था. वो ज़माना तेज़ी से सूचनायें पहुँचने का नहीं था. इसलिए लोग रेडियो पर निर्भर रहते थे. रेडियो ने ये खबर पंहुंचाई और पूरा देश स्तब्ध रह गया. यही विनम्रता और संवेदनशीलता पिछले कुछ दशकों में कुछ और मशहूर हस्तियों के निधन पर भी देखी गयी।
शोक या दुःख से भरे पलों के कार्यक्रम पेश करने का पाना एक तरीका है. एक अनुशासन है. रेडियो-प्रोफेशनल इसे मानें या ना मानें पर अलिखित रूप से श्रोता भी उम्मीद तो यही करते हैं कि जैसा धक्का या दुख उन्हें पहुंचा है—उनके पसंदीदा रेडियो-प्रस्तुतकर्ताओं को भी पहुंचा होगा। पर अगर रेडियो-प्रजेन्टर अपने ही रंग में रंगा नज़र आए—तो सुनने वाले स्तब्ध रह जाते हैं।
देखा जाता है कि आज के नए ज़माने के रेडियो चैनल ऐसे लम्हों में भी संयमित नहीं होते. एक खास किस्म का शोर, एक खास किस्म कि आक्रामकता के साथ ये चैनल कार्यक्रम पेश करते हैं, ज़ाहिर है कि इस आक्रामकता में दुखी होने की गुंजाइश नहीं होती. अगर थोड़ी बहुत गुंजाइश निकाल भी ली जाए तो भी उसके लिए ज़्यादा वक्त नहीं दिया जा सकता. यही कारण है कि ऐसे मौक़ों पर कई मशहूर चैनल भी अपेक्षा के अनुरूप बर्ताव करते नहीं पाए जाते। वो जिस धूम-धड़ाके के लिए जाने-जाते हैं—उससे पार नहीं हो पाते। बाज़ार के दबाव उन्हें ज़्यादा देर अफ़सोस के रंग में रहने नहीं देते। इसलिए उनका मनाया अफ़सोस भी किसी त्यौहार या मार्केटिंग की तरह लगता है।
जगजीत सिंह की विदाई के बहाने आपने अपने शहर के रेडियो-चैनलों का असली रंग देखा होगा। जब भी कोई बड़ा कलाकार दुनिया से विदा हो, तब किसी भी चैनल के सरोकारों और उसकी गंभीरता का असली रंग आप आसानी से पहचान सकते हैं। अगर आप एक जागरूक श्रोता हैं तो आपको ये फर्क आईने की तरह साफ़ नज़र आएगा।
(जनसंदेश लखनऊ में बुधवार 19 अक्तूबर को प्रकाशित)