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Saturday, October 8, 2011

रेडियो की स्मृति

रेडियो की स्मृति
ब्रजेश कानूनगो
गुम हो गए हैं रेडियो इन दिनों
बेगम अख्तर और तलत मेहमूद की आवाज की तरह


कबाड मे पडे रेडियो का इतिहास जानकर
फैल जाती है छोटे बच्चे की आँखें


बृजेश कानूनगो
25 सितम्बर 1957 देवास, मध्य प्रदेश मे जन्म । रसायन विज्ञान तथा हिन्दी साहित्य मे स्नातकोत्तर।
देश की प्रतिष्ठित पत्र –पत्रिकाओँ मेँ वर्ष 1976 से बाल कथाएँ ,बालगीत, वैचारिक पत्र, व्यंग्य लेख ,कविताएँ, कहानियाँ ,लघुकथाएँ प्रकाशित।
वर्ष 1995 मे व्यंग्यसंग्रह-पुन: पधारेँ, 1999 मे कविता पुस्तिका-धूल और धुएँ के परदे मेँ, 2003 मे बाल कथाओँ की पुस्तक- फूल शुभकामनाओँ के तथा 2007 मेँ बाल गीतोँ की पुस्तिका- चाँद की सेहत प्रकाशित।
स्टेट बैक आफ इन्दौर मे 33 वर्ष सेवा के बाद स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति। बैककर्मियोँ की साहित्यिक संस्था-प्राची के माध्यम से अनेक साहित्यिक गतिविधियोँ का संचालन। तंगबस्तियोँ के गरीब बच्चोँ के लिए चलाए जाने वाले व्यक्तित्व विकास शिविरोँ मे सक्रिय सहयोग।

503, गोयल रिजेंसी,
कनाड़िया रोड़, इन्दौर-18,
मो. नं. 09893944294

न जाने क्या सुनते रहते हैं
छोटे से डिब्बे से कान सटाए चौधरी काका
जैसे सुन रहा हो नेताजी का सन्देश
आजाद हिन्द फौज का कोई सिपाही

स्मृति मे सुनाई पडता है
पायदानों पर चढता
अमीन सयानी का बिगुल
न जाने किस तिजोरी में कैद है
देवकीनन्दन पांडे की कलदार खनक
हॉकियों पर सवार होकर
मैदान की यात्रा नही करवाते अब जसदेव सिंह

स्टूडियो में गूंजकर रह जाते हैं
फसलों के बचाव के तरीके
माइक्रोफोन को सुनाकर चला आता है कविता
अपने समय का महत्वपूर्ण कवि
सारंगी रोती रहती है अकेली
कोई नही पोंछ्ता उसके आँसू

याद आता है रेडियो
सुनसान देवालय की तरह
मुख्य मन्दिर मे प्रवेश पाना
जब सम्भव नही होता आसानी से
और तब आता है याद
जब मारा गया हो बडा आदमी

वित्त मंत्री देश का भविष्य
निश्चित करने वाले हों संसद के सामनें
परिणाम निकलने वाला हो दान किए अधिकारों की संख्या का
धुएँ के बवंडर के बीच बिछ गईं हों लाशें
फैंकी जाने वाली हो क्रिकेट के घमासान में फैसलेवाली अंतिम गेन्द
और निकल जाए प्राण टेलीविजन के
सूख जाए तारों में दौडता हुआ रक्त
तब आता है याद
कबाड में पडा बैटरी से चलनेवाला
पुराना रेडियो

याद आती है जैसे वर्षों पुरानी स्मृति
जब युवा पिता
इमरती से भरा दौना लिए
दफ्तर से घर लौटते थे।

3 comments:

Anonymous said...

भाई वाह !!! आज के युग में कोई कवि अपने आगे-पीछे गुज़र रही तमाम युगांतरकारी घटनाओं के बीच बेचारे स्मृति-शेष रेडियो को इतनी शिद्दत से याद करे तो इसे उस समय के प्रसारणकर्ताओं की उपलब्धि ही कहना चाहिए. काश, हम आज के प्रसारकों को भी कभी कोई इस तरह याद करे.... --शुभ्रा शर्मा

Anonymous said...

बहुत अच्छी रचना
अन्नपूर्णा

Anonymous said...

इस रचना को पढ़कर नॉस्टेल्जिया तारी हुआ....दिल थोड़ा भारी हुआ....अशोक के.व्यास (SBI)

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