सबसे नए तीन पन्ने :

Wednesday, October 5, 2011

पी.सी.चैटर्जी का एक दिलचस्‍प किस्‍सा: न्‍यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा, कड़ी 8

मशहूर समाचार वाचिका शुभ्रा शर्मा रेडियोनामा पर अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। पिछले कुछ हफ्तों से छुट्टियां मनाने गईं शुभ्रा जी अब फिर इस श्रृंखला को आगे बढ़ा रही हैं। आठवीं कड़ी में वो बातें कर रही हैं मशहूर प्रसारणकर्ता पी.सी.चैटर्जी की। आपको बता दें कि उनकी दो मशहूर पुस्‍तकें आई हैं। एक है broadcasting in india जो भारत में प्रसारण के इतिहास पर लिखी गयी एक बेहद सटीक और महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक है। उनकी दूसरी पुस्‍तक आत्‍मकथात्‍मक है The Adventure in Indian Broadcasting; A Philosopher's Autobiography. जिसका जिक्र शुभ्रा जी इस संस्‍मरण में कर रही हैं। ये पुस्‍तक आप यहां से प्राप्‍त कर सकते हैं। शुभ्रा जी के बाक़ी लेख पढ़ने के लिए चटका लगायें यहां।


समाचार कक्ष से अपनी यादों की पिछली कड़ियाँ पढ़ रही थी,तो सोचा ऐसा क्यों हुआ कि वहां सिर्फ मेरी यादें हैं? क्या मुझसे पहले...बहुत पहले से.....समाचार तैयार नहीं होते थे, प्रसारित नहीं होते थे? कौन थे वह लोग जिन्होंने इस प्रसारण की शुरुआत की, इसके नियम-क़ायदे बनाये और एक अनवरत परम्परा की नींव रखी?

समाचार सेवा प्रभाग के पुस्तकालय में जिस अलमारी में इस विषय की पुस्तकें रखी जाती थीं, उसे खोलने पर पाया कि देश की जनसंख्या की ही तरह वहां भी पुस्तकों की संख्या में अप्रत्याशित किन्तु अपार वृद्धि हुई है. हो सकता है कि मैं इसे प्रसारण के इतिहास के प्रति जागरूकता और सही दिशा में उठा क़दम मानकर खुश हो लेती मगर इस गुब्बारे से हवा निकल गयी, जब पता चला कि अधिकतर पुस्तकें ऐतिहासिक दस्तावेज़ न होकर मात्र पत्रकारिता के विविध संस्थानों की परीक्षा पास करने के उद्देश्य से जुटायी गयी हैं. लेकिन कहावत है न कि - "जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ" - सो मैं भी लगी रही....देर तक उस पोथी-समुद्र में डूबती-उतराती रही और आख़िरकार एक मोती ढूंढ लायी.

आकाशवाणी के पूर्व महानिदेशक श्री पी सी चैटर्जी ने एक आत्मकथात्मक पुस्तक लिखी थी .... यह तो मुझे मालूम था, लेकिन अपने करियर की शुरुआत उन्होंने समाचार कक्ष से की थी......यह ज्ञात नहीं था. बहरहाल मैंने वह पुस्तक इशु करायी और छुट्टियों के दौरान पढ़ने के लिए अपने साथ ले गयी. और फिर, जैसा कि आम तौर पर होता है, आने-जाने, मिलने-मिलाने और देखने-दिखाने के बीच पुस्तक पढ़ने का मौक़ा हाथ नहीं लगा. दिल्ली लौटने के बाद ही उसे पढ़ पायी. कुछ हिस्से बड़े रोचक लगे.....ख़ास तौर पर शुरुआती दौर के न्यूज़ रूम का वर्णन.... तो सोचा क्यों न उस समय की कुछ बातें रेडियोनामा के अपने पाठकों के साथ शेयर करूँ.

यह घटना १९४३ की है. चैटर्जी साहब के पिता लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ाते थे. बाद में वाइस प्रिंसिपल img037 और प्रिंसिपल भी बने. ख़ुद चटर्जी साहब ने भी वहीँ से दर्शन शास्त्र में एम ए किया था. वायु सेना के लिए चयन हो गया था लेकिन विमानों की कमी के कारण बुलावा नहीं आ रहा था. ख़ाली बैठे क्या करें....यही सोचते हुए दिल्ली में अपने एक मित्र तोतो गुप्ता को पत्र लिखा कि कोई नौकरी ध्यान में हो तो बताना. मित्र ने फ़ौरन जवाब दिया कि ऑल इंडिया रेडियो में भर्ती चल रही है. आवेदन भेज दो. चैटर्जी साहब को यह तक पता नहीं था कि किस पद के लिए भर्ती हो रही है....बस एक सादे काग़ज़ पर अपनी योग्यता लिखकर, एकाध प्रमाण-पत्रों के साथ डायरेक्टर न्यूज़ को भेज दी. जल्दी ही बुलावा भी आ गया और वे दिल्ली आ गये.

दिल्ली में वे विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार राय बहादुर निशिकांत सेन के यहाँ ठहरे. रजिस्ट्रार के बंगले से अलीपुर रोड के एक बंगले से चल रहे ऑल इंडिया रेडियो तक का रास्ता साइकिल से नापते हुए जब वे न्यूज़ रूम में दाख़िल हुए तब उनके मित्र तोतो गुप्ता ने उन्हें सीनियर असिस्टेंट न्यूज़ एडिटर श्री ए एन भनोट से मिलवाया, जो डायरेक्टर के बाद दूसरे सबसे बड़े अधिकारी थे. श्री भनोट ने उनसे कहा कि इंतजार करें. डायरेक्टर श्री चार्ल्स बार्न्स उन्हें बुलाएँगे.

चैटर्जी साहब शाम तक इंतजार करते रहे. पूरे दिन किसी ने उनसे कोई बात नहीं की. सभी लोग अपने काम में व्यस्त थे. संपादक आते-जाते रहे. स्टेनो को ख़बरें लिखवाते रहे. बुलेटिन प्रसारित होते रहे. आखिरकार शाम के करीब छः बजे श्री बार्न्स ने उन्हें बुलवा भेजा. चैटर्जी साहब ने लिखा है कि वे लगभग चालीस मिनट बार्न्स साहब के कमरे में रहे मगर उन्हें बैठने को नहीं कहा गया. बार्न्स साहब ने उन्हें वापस श्री भनोट के पास भेज दिया. भनोट जी ने उन्हें अलग-अलग दिन अलग-अलग शिफ्ट में ड्यूटी दी ताकि वे सभी शिफ्ट्स का कामकाज समझ सकें.

चैटर्जी साहब ने लिखा है कि उन दिनों अंग्रेज़ी में चार महत्त्वपूर्ण बुलेटिन प्रसारित होते थे. सवेरे आठ बजे, दोपहर डेढ़ बजे, शाम छः बजे और रात नौ बजे. सवेरे और रात के बुलेटिन १५-१५ मिनट के होते थे और दिन तथा शाम के बुलेटिन १०-१० मिनट के. अंग्रेज़ी के बुलेटिनों के ठीक बाद हिन्दुस्तानी के बुलेटिन प्रसारित किये जाते थे. चैटर्जी साहब ने इस बात को ख़ास तौर पर रेखांकित किया है कि ये बुलेटिन हिंदी या उर्दू में न होकर हिन्दुस्तानी में होते थे, यानी उस भाषा में जो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को आसानी से समझ में आ सके. इसके बाद विभिन्न भारतीय भाषाओँ के १०-१० मिनट के बुलेटिन होते थे.

इन बुलेटिनों के संपादन का काम कुछ इस तरह बाँटा जाता था कि अंग्रेज़ी के लिए दो संपादक होते थे, जिनमें से एक ए एन ई और एक सब-एडिटर होता था. हिन्दुस्तानी के लिए ए एन ई या कोई अनुभवी सब होता था. भाषायी बुलेटिन दूसरे सब-एडिटर सँभालते थे. अंग्रेज़ी का बुलेटिन जैसे-जैसे बनता जाता था...उसकी कॉपी हिन्दुस्तानी और अन्य भाषायी एडिटरों के पास पहुँचती रहती थी. वही उनकी मास्टर कॉपी होती थी.

वैसे रॉयटर्स की ख़बरें टेलीप्रिंटर से आती रहती थीं और यू एन आई से भी दिन में ५-६ बार ख़बरों के टेक्स भेजे जाते थे. इनके अलावा लड़ाई की ख़बरों का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण स्रोत था बी बी सी. चैटर्जी साहब ने लिखा है कि बी बी सी से ख़बरें आती थीं, तब संपादक और स्टेनो हेडफ़ोन लगाकर बैठ जाते थे और यथाशक्ति, यथासंभव सभी समाचारों को नोट करने का प्रयास करते थे. अधिकारी उसी बुलेटिन को अच्छा समझते थे जो भाषा-शैली की दृष्टि से बी बी सी के सबसे निकट होता था.

भनोट साहब ने उन्हें यह सब देखने और सीखने को कहा था. सो, काफी समय तक देखने के बाद चैटर्जी साहब ने ए एन ई से काम माँगा. बड़े मनोयोग से ख़बर की प्रसारण-योग्य कॉपी बनायी लेकिन देखा कि ए एन ई ने उसे एक तरफ फेंक दिया. बेचारे मन मसोस कर रह गये. क्या करते. लेकिन जल्दी ही उन्हें अपनी योग्यता साबित करने का मौक़ा मिला.

तब तक ऑल इंडिया रेडियो का कार्यालय अलीपुर रोड से संसद मार्ग वाले प्रसारण भवन में स्थानांतरित हो गया था. इस वजह से काफी अव्यवस्था फैली हुई थी. उनके मित्र तो गुप्ता ने छुट्टी की अर्जी दी थी कि उनकी पत्नी किसी भी समय बच्चे को जन्म देने वाली थीं. लेकिन उनकी अर्जी कहीं इधर-उधर पड़ी रह गयी और उस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. एक दिन सुबह ड्यूटी पर आने के बाद चैटर्जी साहब को पता लगा कि गुप्ता जी नहीं आएंगे और उन्हें सवेरे आठ बजे का बुलेटिन अकेले ही बनाना होगा. डायरेक्टर चार्ल्स बार्न्स पूरा बुलेटिन फोन पर पढ़वाकर सुनते थे. उस दिन भी सुना और प्रसारण की अनुमति दे दी.

कोई दस बजे भनोट साहब आये. चैटर्जी साहब ने उन्हें बताया कि गुप्ताजी नहीं आ सके. भनोट साहब का चेहरा फक्क पड़ गया. चिल्ला पड़े - तो फिर बुलेटिन किसने बनाया?

चैटर्जी साहब ने शांत भाव से कहा - मैंने.

भनोट बिगड़े - मुझे ख़बर क्यों नहीं की?

चैटर्जी साहब ने कहा - चिंता की कोई बात नहीं है. मैंने बार्न्स साहब को पढ़कर सुना दिया था और उनकी मंज़ूरी ले ली थी.

इसके बाद दोनों अधिकारियों के बीच जो भी सलाह-मशविरा हुआ हो उसका तो पता नहीं, लेकिन उस दिन से चैटर्जी साहब को अकेले बुलेटिन की ज़िम्मेदारी सौंपी जाने लगी.

चैटर्जी साहब की पुस्तक में यह प्रसंग पढ़ने के बाद से मैं बराबर सोच रही हूँ कि १९४३ के न्यूज़रूम से आज २०११ के न्यूज़रूम तक क्या और कितना परिवर्तन हुआ है. यह तो स्पष्ट है कि बुलेटिनों की संख्या बढ़ी है, उनकी अवधि बढ़ी है, तकनीकी प्रगति के कारण अब हम दूर दराज़ के संवाददाताओं की आवाजें सीधे बुलेटिनों में शामिल कर पाते हैं. लेकिन क्या आज भी न्यूज़रूम में पहली बार प्रवेश करने वाला व्यक्ति अपने आप को डायरेक्टर चार्ल्स बार्न्स  के सामने खड़ा हुआ नहीं पाता, क्या उसके मेहनत से किये गये काम को उठाकर एक तरफ नहीं फेंक दिया जाता और सबसे बड़ी बात यह कि क्या कोई उसे धैर्य के साथ उसका काम समझाता है?  

1 comment:

nisha said...

chatterjee sir ki baaton ke baad aapne jo sawal khade kiye wo bahoot sahi hai, radio main aaj bhi har koi apne ko mahatvpoorn maanta hai ,aur jo sikhne aaye hai unhe door rahkar he kaam samjhna padta hai ,humne bhi kuch aise he din dekhe jo sirf observasion se he sikh paaye ,lekin chand achhe log dhoondne par mil he jaate hai jo hamare prayaso ki sarahna karte hai ! unmain se khud ek hai hamari shubhra mam. mera anubhav kadva jaroor raha magar unmain se kuch logo ki taraf maine dekha jo mujhe aage badhne ki prerna dete rahte hai.

Post a Comment

आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

अपनी राय दें