जूलॉजी बॉटनी पढ़ना शायद मेरे लिए मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सज़ा थी. सब कुछ बस रटना पड़ता था, कुछ भी ऐसा नहीं था जो तर्क के आधार पर चलता हो. साइंस का अर्थ ही है तर्क संगत ज्ञान, लेकिन यहाँ जो गुरु लोग बताते थे उन सारी चीज़ों को रट लो बस........ ऐसा क्यों होता है या कुछ नहीं होता है तो क्यों नहीं होता है इसे समझने की कोई ज़रूरत नहीं. मुझे लगा इस से अच्छी तो गणित थी जिसमे सब कुछ तर्कसंगत होता है. ए+बी का होल स्क्वायर करेंगे तो हमेशा एक ही उत्तर आएगा. जूलॉजी की तरह नहीं कि मछलियों में तो अपनी संतान पैदा करने के लिए मादा को बस अण्डों का एक झुण्ड रख देना है, बाकी काम नर करेगा लेकिन इंसान को संतान पैदा करने के लिए पता नहीं क्या क्या पापड बेलने पड़ते हैं और केंचुए में तो नर और मादा अंग एक ही केंचुए में पाए जाते हैं, यानि संतान पैदा करने के लिए उन्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं. एक बात मुझे और समझ नहीं आई कि डॉक्टरी की पढाई करने के लिए केंचुए के बारे में जानना क्यों ज़रूरी है? क्या ज़रूरत है केचुए का डिसेक्शन करके उस प्रजाति का एहसान लेने की ? खैर गुरुओं खास तौर पर गुरुदेव दलीप सिंह जी की मदद से जूलॉजी, बॉटनी की प्रैक्टीकल परीक्षाएं पास कर लीं. ऐसा भी नहीं कि उन्होंने नक़ल करवाई हो, बस थोड़ा सा सहारा उन्होंने लगाया और मेरी नैया पार लग् गयी. इस तरह तीन साल के बी एस सी कोर्स के पहले साल की परीक्षा तो येन केन प्रकारेण पास कर ली लेकिन रिज़ल्ट आते ही मैं गुरुदेव दलीप सिंह जी के पास गया और उनसे हाथ जोड़कर कहा “गुरुदेव, क्षमा चाहता हूँ, मैं बायो नहीं पढ़ सकता.” वो बोले “ महेंद्र, तुम्हें प्रॉब्लम तो प्रैक्टिकल्स में है ना, तुम पी एम् टी तो दो, उसमे तो सिर्फ लिखित परीक्षा ही देनी होती है और मुझे लगता है, उसमे तुम निकल जाओगे. एक बार उसमे निकल गए तो आगे फिर क्या है? मेडिकल में एक बार घुस गए तो डॉक्टर तो बनकर ही निकलोगे.”
मैंने कहा “गुरुदेव मेरे भाई साहब मेडिकल कॉलेज में पढ़ चुके
हैं, इन्टर्नशिप कर रहे हैं. मैं जानता हूँ कि वो पढाई में मेरे मुकाबले बहुत
होशियार हैं फिर भी उन्हें कितनी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है...... नहीं सर मुझे लगता
है, अव्वल तो मैं पी एम् टी में निकलूंगा नहीं और मरते पड़ते अगर किसी तरह निकल गया
तो उनकी तरह रात और दिन पढाई नहीं कर पाऊंगा और अगर मैं पूरी दुनिया को भुलाकर दिन
रात पढाई में लग भी जाऊं तो मेडिकल कॉलेज में बैठा बैठा अटेम्प्ट्स पर अटेम्प्ट्स खाता
रहूँगा.”
वो मुस्कुराकर बोले “फिर क्या करोगे.”
“जी सर बहुत अच्छा रहता अगर मैं मैथेमैटिक्स ना छोडता
क्योंकि उसमे मैं ठीक ठाक था.”
“तो फिर मैथेमैटिक्स में जाओगे ?”
“क्या हो जाएगा सर बी एस सी करने से? मैं सोच रहा हूँ
आर्ट्स ले लूं और बी ए करलूं.”
“मतलब मौज करनी है अब तुम्हें....... पढाई लिखाई नहीं करनी.
ठीक है जैसा तुम ठीक समझो......वैसे महेंद्र एक बात सुन लो, जंग में पीठ दिखाकर
जाने वाले लोग मुझे पसंद नहीं हैं. खैर जाओ आर्ट्स में जाओ........वहाँ जाकर कुछ
नाम करोगे तो अच्छा लगेगा वरना अगर किसी बैंक में क्लर्की ही करनी है तो बी ए करने
की भी क्या ज़रूरत है. दसवीं पास को भी मिल जाती है क्लर्की तो.”
मेरे पास उनकी बातों का कोई जवाब नहीं था. मैं गर्दन झुकाए
उठा, उनके पाँव छुए और वहाँ से चल दिया. चलने से पहले मैंने सिर्फ इतना कहा
“गुरुदेव, आपसे वादा करता हूँ, कुछ भी करूँगा लेकिन बैंक में क्लर्की नहीं करूँगा.
आपका आशीर्वाद रहा तो....... एक दिन मैं आऊँगा ज़रूर आपके पास, आपको प्रणाम करने.”
न जाने कितने सवाल दिमाग में घूम रहे थे...... कह तो दिया
था, मैंने गुरुदेव से कि मैं आर्ट्स लूंगा मगर आर्ट्स मायने क्या? हिन्दी तो मेरी
मातृभाषा है, उसे कॉलेज में क्या पढ़ना...... अंग्रेज़ी अपने बस की नहीं थी, क्योंकि
छठी क्लास में तो ए बी सी डी सीखना शुरू किया था. पोलिटिकल साइंस बस नाम की ही साइंस थी, साइंस
वाला एक भी गुण उसमें नहीं था. शुरू से दर्शन में थोड़ी रूचि थी. प्लेटो, अरस्तू,
सुकरात, हैरेक्लिटेस को थोड़ा बहुत पढ़ चुका था. लेकिन यों किताबें पढकर उन्हें पसंद
करना अलग बात है और एक सब्जेक्ट के तौर पर पढकर मार्क्स स्कोर करना दोनों दो अलग
अलग बातें हैं.इसी उधेड़बुन में उलझा हुआ मैं ताऊजी के पास गया तो उन्होंने सलाह दी
कि बी ए में मुझे अर्थशास्त्र ज़रूर पढ़ना चाहिए और अर्थशास्त्र में ही एम् ए करनी
चाहिए. बी ए में बाकी कोई भी दो सब्जेक्ट लूं कोई खास फर्क नहीं पड़ता. अगले दिन
मैं फिर कॉलेज गया तो दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर डॉक्टर शिव नारायण जोशी जी से भेंट
हो गयी. मैंने उन्हें अपनी दुविधा बताई तो वो बहुत स्नेह के साथ बोले “देखो
महेंद्र साइंस से आर्ट्स में बहुत लोग आते हैं, लेकिन वो सब के सब फर्स्ट ईयर
साइंस में फेल होकर आते हैं. तुम्हारा केस थोड़ा सा अलग है. तुम फर्स्ट ईयर साइंस
पास कर चुके हो और अब सेकंड ईयर में आर्ट्स लोगे. ऐसे में तुम्हें एक ही साल में
सेकंड ईयर और फर्स्ट ईयर आर्ट्स दोनों सालों के पेपर क्लियर करने होंगे. खैर तुम
एक काम करो. मैं रानी बाज़ार में रहता हूँ, कल रविवार है, घर आ जाओ बैठकर विचार
करते हैं.”
दूसरे दिन मैं गुरुदेव शिव जी के घर पहुंचा.उनके पाँव छुए.
बहुत स्नेह के साथ उन्होंने मेरा स्वागत किया और अपनी पत्नी से मिलवाया. मैंने
नीचे झुककर गुरुआनी जी के भी पाँव छुए. एक
छोटा सा बेटा था उनका सोमेश. पूरे परिवार से पहले ही दिन कुछ अजीब सी आत्मीयता के
तार जुड गए. गुरु जी मुझे ऊपर के कमरे में ले गए. उन्होंने मुझसे पूछा चाय पियोगे?
मैंने हाथ जोड़कर जवाब दिया “ गुरुदेव मैं चाय नहीं पीता.” वो हंसकर बोले “चलो
अच्छा है, मैं भी चाय नहीं पीता” वो नीचे जाकर एक प्लेट में कच्ची मूंगफली के दाने
और दूसरी प्लेट में गुड ले आये. बोले “लो ये खाओ.......इससे सेहत अच्छी रहती है.”
अब हम लोग विचार विमर्श करने लगे कि कौन कौन से सब्जेक्ट्स
मुझे लेने चाहिए. वो बोले “सबसे पहले बात करते हैं मेरे सब्जेक्ट की. अगर तुम्हारी
रूचि दर्शन में है तभी ये विषय लेना, मेरे कहने से नहीं. हाँ इतना वादा मैं करता
हूँ कि कॉलेज के अलावा जब भी तुम्हें समय मिले, तुम मेरे घर आओ, मेरे घर के दरवाज़े
हमेशा तुम्हारे लिए खुले रहेंगे. तुम्हें दो साल के पेपर्स एक साल में करने हैं
इसलिए मेहनत तो तुम्हें करनी पड़ेगी, लेकिन ये बहुत ज़्यादा मुश्किल नहीं होगा
तुम्हारे लिए, मुझे ऐसा लगता है.”
मैंने डरते डरते पूछा “गुरुदेव आपकी फीस क्या होगी?”
वो थोड़े गंभीर होते हुए बोले “हाँ ये अच्छा सवाल किया
तुमने.”
फिर एक सेकंड का पॅाज़ देकर बोले “देखो भाई महेंदर..... मैं
ट्यूशन नहीं पढाता क्योंकि मेरा विश्वास है कि विद्या बेचने की चीज़ नहीं है. मेरी
आजीविका का साधन यही है ये सच है लेकिन मुझे सरकार जो तनख्वाह देती है मैं उसमें
पूरी तरह संतुष्ट हूँ. तुम बिना किसी संकोच के मेरे यहाँ आओ और पढाई करो.एक बात आज
पहले ही दिन सुन लो, मुझे डिसिप्लिन बहुत पसंद है और जो स्टूडेंट्स डिसिप्लिन्ड
होते हैं मैं उनकी कई गलतियाँ माफ कर सकता हूँ. जहां तक बाकी दो सब्जेक्ट्स की बात
है, चूंकि तुम मैथ्स के स्टूडेंट रह चुके हो, मेरा भी ख़याल यही है कि तुम
अर्थशास्त्र ले लो, तुम्हारे लिए आसानी रहेगी.”
मैंने कहा “ जो आज्ञा गुरुदेव.”
पिताजी के बाद गुरूजी मेरी ज़िंदगी में आने वाले दूसरे ऐसे
शख्स थे, जो मुझे डिसिप्लिन का पाठ पढाने जा रहे थे. मैं समझ गया कि गुरुदेव से
मेरी निभ जायेगी. आज उन बातों को करीब ५० बरस हो रहे हैं, मैं बड़े फख्र के साथ कह
सकता हूँ कि मैंने अपनी पूरी ज़िदगी एक डिसिप्लिन के साथ जी है और ये डिसिप्लिन मेरे
पिताजी और मेरे गुरुदेव श्री जोशी जी की बदौलत ही इस तरह मेरे जीने की शर्त बना.
गुरुदेव शिवजी ने मुझे दर्शनशास्त्र की कुछ पुस्तकें दीं और
कहा देखो, अगर तुम्हारा उद्देश्य सिर्फ पास होने का है तो भारतीय दर्शन पर ये पतली
पतली दो पुस्तकें पढ़ना काफी होगा लेकिन अगर तुम भारतीय दर्शन को गहराई से समझना
चाहो तो डॉक्टर राधा कृष्णन की लिखी हुई ये दो किताबें हैं, इन्हें पढ़ो, ये
तुम्हारी हर जिज्ञासा को शांत करेंगी. डॉक्टर राधा कृष्णन की वो दोनों किताबें
बहुत मोटी मोटी थीं लेकिन मैं घबराया नहीं क्योंकि मैंने भाई साहब को ग्रेज़
अनोटॉमी की जो किताब पढते हुए देखा था ये दोनों किताबें मिलाकर भी उससे छोटी ही
थी. मैंने सोचा कि अगर मेडिकल में जाना पड़ता तो भी ऐसी मोटी मोटी किताबें पढनी ही
पड़तीं.
मैंने उनके और गुरुआनी जी के पैर छुए और मन ही मन
दर्शनशास्त्र पढ़ने का फैसला करके घर लौट आया. तीसरा कोई ऐसा विषय मुझे समझ नहीं
आया जिसे मैं मन से पढ़ना चाहूँ तो मैंने इतिहास पढ़ने का निर्णय किया.
इधर मैं इतिहास पढ़ने का मन बना रहा था, उधर विश्व इतिहास और
खास तौर पर एशिया का इतिहास कुछ नए, अजब और गज़ब मोड़ ले रहा था, जिसका शायद
बंगालियों के बाद सबसे ज़्यादा असर, हम राजस्थान और गुजरात में रहने वालों पर ही पड़ने
वाला था.
१९७० में पाकिस्तान में आम चुनाव हुए, तो मजलिस-ए-शूरा की
पूर्वी पाकिस्तान की १६९ सीटों में से १६७ सीटों पर, शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी
लीग ने जीत हासिल कर ली. इस तरह ३१३ सीटों वाली मजलिस-ए-शूरा में, अवामी लीग का
बहुमत हो गया. इससे पहले १९६९ में जनरल याह्या खां ने मार्शल ला लगाकर हुकूमत पर
कब्जा किया था, मगर साथ ही अपने अवाम से वादा भी किया था कि दो साल में वो मुल्क
में आज़ाद और गैर जानिबदाराना इन्तेखाबात करवाकर, खुद कुर्सी से हट जायेंगे और
मुन्तखब प्राइम मिनिस्टर को हुकूमत की बागडोर सौंप देंगे. अब जब कि शेख मुजीब की
पार्टी को ५०% से ज़्यादा सीटें मिल गईं तो उन्होंने प्राइम मिनिस्टर की कुर्सी का
दावा कर दिया. पाकिस्तान के थिंकर्स जनाब हसन निसार और जनाब तारेक फतह कई जगह
लिखते हैं कि पश्चिमी पाकिस्तान के लंबे-चौड़े गोरे-चिट्टे सिंधियों पंजाबियों ने
पूर्वी पाकिस्तान के छोटे-छोटे काले-कलूटे बंगालियों को, हमेशा हिकारत की नज़र से
देखा. एक मायने में वो उनसे नफरत करते थे. भला ये गोरे चिट्टे नवाब कैसे बर्दाश्त
कर सकते थे कि वो काले कलूटे बंगाली आकर उनपर हुकूमत करें? याह्या खां पशोपेश में
पड गए. आखिरकार जुल्फिकार अली भुट्टो ने याह्या खां को कहा कि शेख मुजीब को
पाकिस्तान के वजीरेआज़म की कुर्सी पर आपने बिठा दिया, तो पूरे पाकिस्तान में आग लग
जायेगी. १ मार्च १९७१ को नई चुनी गयी मजलिस का इजलास शुरू होने वाला था, याह्या
खां ने उसे रोक दिया. इधर जब ईस्ट पाकिस्तान में ये खबर पहुँची तो बंगालियों ने
गुस्से में आकर, उन ३०० बिहारियों को क़त्ल कर दिया, जो वेस्ट पाकिस्तान के हामी
थे. बस याह्या खां को बहाना मिल गया, अपनी फौजें ईस्ट पाकिस्तान भेजने का. २५
मार्च को शेख मुजीब को गिरफ्तार करके वेस्ट पाकिस्तान लाया गया और करीब ७५०००
फौजियों को हवाई जहाज़ों से ईस्ट पाकिस्तान पहुंचा दिया गया. ऑपरेशन सर्चलाईट शुरू कर
दिया गया, जिसका मकसद था, तमाम पढ़े लिखे और ऊंचे तबके के बंगालियों का कत्लेआम
करना.
ये सही है कि ज़्यादा हलचल हमारे देश के ईस्टर्न हिस्से में
हो रही थी मगर हम वेस्टर्न राजस्थान के लोग भी तो देश के बोर्डर पर ही बैठे थे. हर
तरफ फौजों का बहुत ज़बरदस्त मूवमेंट चल रहा था. कई इलाकों से फौजें हमारे आस पास
जमा हो रही थीं, क्योंकि इस बात का पूरा अंदेशा था कि पाकिस्तान को अगर ईस्ट में
मार पड़ेगी, तो वो अपनी खिसियाहट हमारे इलाके पर हमला करके निकालेगा.
अब तक भाई साहब की पोस्टिंग जोधपुर जिले के पीलवा गाँव में
हो चुकी थी. वो अपने बोरिया बिस्तर बांधकर पीलवा जा चुके थे. अब घर में बस मैं,
माँ और पिताजी, तीन लोग बच गए थे. माँ कुछ ज्यादा ही बीमार रहने लगी थीं. इसलिए घर
का काम भी मेरे कन्धों पर बढ़ता जा रहा था. मेरे लिए तो ये मोर्चा भी कम अहमियत
नहीं रखता था. आखिरकार माँ ने फैसला लिया कि हम बरसों से जो दो गायें रखते आ रहे
थे, उन्हें बेच दिया जाए ताकि मेरे कन्धों का बोझ कुछ हल्का हो सके. यही किया गया.
गायों के चारे का इंतजाम, उन्हें चारा देना, ग्वार उबालना, उसे हाथ से मथ कर गायों
को खिलाना और बछड़ों की देखभाल करना, दूध को संभालना, इन सब कामों से आखिर मुझे छुट्टी
मिल गयी, लेकिन बहुत दिन तक मैं ही क्या, हम तीनों बहुत बेचैन से रहे. घर जैसे
सूना हो गया. गाय को जब मैं बांटा (ग्वार को मथ कर उसमे गुड और तिल की खल मिलाकर
बना स्वादिष्ट भोजन) खिलाता था तो वो इतने प्यार और आत्मीयता के साथ मेरी और देखती
थी और बांटा देने में थोड़ी देर हो जाने पर जिस तरह राम्भाकर पुकारती थी तो लगता था
कि ज़रूर हमारा पिछले जन्म का कोई रिश्ता है.
भाई साहब के पीलवा चले जाने और गायों को घर से विदा कर देने
के बाद, हम तीनों बहुत अकेलापन सा महसूस करते हुए रह रहे थे. हमारे चरों तरफ का
माहौल दिनोदिन खौफनाक होता जा रहा था कि एक दिन खबर मिली, शेख मुजीब को गिरफ्तार
करके वेस्ट पाकिस्तान ले जाया गया है और ईस्ट पाकिस्तान के एक मेजर ज़ियाउर्रहमान
ने बंगलादेश की आज़ादी का ऐलान कर दिया है. सियासी सरगर्मियां तेज हो गयी थीं और
फ़ौजी सरगर्मियां भी. रोजाना ब्लैक आउट की रिहर्सल होने लगी और हर मोहल्ले में मोहल्ला
कमेटियां बनाने लगीं, खाइयां खोदी जाने लगी ताकि हवाई हमलों के दौरान उन में लेटकर
अपने को बचाया जा सके. बाज़ार में हर चीज़ के दाम बढ़ने लगे. हर तरफ बस यही चर्चा थी
कि फलां चीज़ बंगाल जा रही है, फलां चीज़ मोर्चों पर जा रही है. देश के लोग भी हर
चीज़ की कमी को सहन करते हुए जीने की आदत डालने लगे. लगने लगा कि जंग कभी भी शुरू
हो सकता है. मेजर जिया ने अपनी सरकार बनाकर सभी मुल्कों से अपील की, कि बांग्लादेश
को आज़ाद देश का दर्जा दिया जाए. पाकिस्तान के जनरल टिक्का खां ने अपनी फ़ौज को पूरी
तरह से ज़ुल्म करने की खुली छूट देते हुए कहा ...... हमें यहाँ के लोग नहीं चाहिए,
हमें सिर्फ ये ज़मीन चाहिए. मेजर जनरल फरमान ने अपनी डायरी में लिखा, “ बंगालियों
को काट काट कर बंगाल की इस हरी भरी ज़मीन को हम खून से लाल कर देंगे.” पूरे ईस्ट
बगाल में कत्ले आम मच गया. पाकिस्तानी फ़ौज हर रोज हज़ारों लोगों को क़त्ल कर रही थी और हज़ारों औरतों
के साथ बलात्कार कर रही थी. ज़ुल्म की इन्तेहा हो गयी थी. पूरे बांग्लादेश में
त्राहि त्राहि मच गयी थी.लोग वहाँ से सर पर पैर रखकर भागने लगे. भारत ने अपनी
सीमाएं शरणार्थियों के लिए खोल दी और लाखों की तादाद में बंगाली शरणार्थी, वेस्ट
बंगाल, बिहार, उड़ीसा, त्रिपुरा में बने कैम्पों में आकर रहने लगे.
भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने
अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी से बांग्लादेश में हो रहे कत्लेआम को रुकवाने की अपील की,
लेकिन किसी देश ने हस्तक्षेप नहीं किया. आखिरकार २८ अप्रेल को भारतीय सरकार ने
जनरल मानेकशा को बांग्लादेश कूच करने और वहाँ की मुक्तिबाहिनी को सहायता देने का
आदेश दे दिया. इसी समय मुक्तिबाहिनी रेडियो भी शुरू हो गया. मुक्तिबाहिनी के ये
रेडियो स्टेशन किसी एक स्थान पर नहीं रहते थे. इनकी जगह बदलती रहती थी. २०-२०
किलोवाट के ये शक्तिशाली रेडियो ट्रांसमीटर ट्रकों पर रहते थे. पाकिस्तानी फौजों
को इन रेडियो स्टेशंस ने बहुत छकाया. जैसे ही वो इन स्टेशंस की स्थिति का पता
लगाकर वहाँ हमला करने पहुंचते, स्टेशंस अपनी जगह बदल चुके होते. इन्ही ट्रक पर लदे
२० किलोवाट के एक ट्रांसमीटर को छूने का, उसमे बैठकर काम करने का मौक़ा, सौभाग्य से
सन १९८१-८२ में मुझे भी मिला, जब मेरा तबादला आकशवाणी, सूरतगढ़ हुआ और मैंने देखा
कि ट्रांसमीटर एक ट्रक पर खडा है. पूछने पर मुझे बताया गया कि ये उन्हीं
मुक्तिबाहिनी रेडियो के ट्रांसमीटर्स में से एक ट्रांसमीटर है जिनकी वजह से
पाकिस्तानी फ़ौज के नाक में दम हो गया था. वो बेजान ट्रांसमीटर मुझे बेजान हरगिज़
नहीं लगा. उसे छूकर मुझे ऐसा महसूस हुआ मानो मैं किसी ऐसे जवान से हाथ मिला रहा
हूँ जो अभी अभी दुश्मनों को शिकस्त देकर आया है.
जैसे ही हिदुस्तानी फ़ौज ने बांग्लादेश के मुक्तिबाहिनी के
गुरिल्लाओं को ट्रेनिंग देनी शुरू की और उन्हें हथियारों से लैस करना शुरू किया
पूरे पाकिस्तान में भारत के खिलाफ एक ज़बरदस्त तूफ़ान खडा हो गया जो हुकूमत पर इस
बात के लिए जोर देने लगा कि शेख मुजीब को
फांसी पर लटकाया जाये और हिन्दुस्तान के खिलाफ जंग का ऐलान किया जाये.
कॉलेज खुले तो इस बार कॉलेज में पढाई की बातें नहीं हो रही
थीं. एन सी सी की परेड में जाते, तो यही लगता कि शायद आज हमें सरहद के लिए कूच
करने के ऑर्डर आ जाएँ. हर कैडेट जोश से भरा हुआ था. हम में से कई लोग तो दिन रात
यही ख्वाब देख रहे थे कि अगर अभी ज़रूरत पड जाए तो फ़ौज में रिक्रूटमेंट तो होगा ही.
ऐसे मौके पर जब रिक्रूट किया जाता है, तो बहुत सख्ती भी नहीं होती इसलिए आसानी से
कमीशन मिल जाएगा.
नवंबर शुरू होते होते हालात कुछ ऐसे हो गए कि लगता था, कभी
भी, किसी भी लम्हे जंग शुरू हो सकता है. हमारे शहर में रोज रात को पूरा ब्लैक आउट
रहने लगा था. बीकानेर डिवीज़न के ही शहर श्रीगंगानगर में हर परिवार को एक हफ्ते का
वक्त दिया गया कि सब लोग अपने परिवार की स्त्रियों और बच्चों को वहाँ से हटा दें
और हर घर का कम से कम एक कमरा फ़ौज के सुपुर्द कर दें. जो लोग शहर में रुकेंगे,
अपनी रिस्क पर रुकेंगे. उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी फ़ौज की नहीं होगी. एक हफ्ता
गुजर गया, मगर कुछ एक लोगों को छोड़कर कोई शहर से नहीं गया. हाँ लोगों ने अपने घरों
का सामान और खुद को एक दो कमरों में समेटकर, बाकी पूरे घर फ़ौज को सुपुर्द कर
दिए.कुछ कमरों की छतों में छेदकर एंटी एयरक्राफ्ट गन्स फिट की गईं, कुछ कमरों में
ट्रांसमीटर फिट किये गए कुछ को आर्म्स अम्यूनेशन के गोदाम का रूप दिया गया और कुछ
कमरों को मैस बनाया गाया. लेकिन मैस की ज़रूरत कहाँ पड़ने वाली थी. फ़ौज के शहर में
डेरा डालते ही शहर की महिलाओं ने पूरी फ़ौज
के खाने, चाय, नाश्ते सबकी जिम्मेदारियां अपने सर पर ले ली. शुरू में तो फ़ौजी थोड़ा
सख्त रहे...... लेकिन धीरे धीरे उनकी सख्ती पिघलने लगी और पूरा शहर मानो एक परिवार
बन गया, एक बड़ा परिवार, जिसमे कुछ लोग बिना वर्दी वाले थे, तो कुछ लोग वर्दी वाले.
याह्या खां ने जब देखा कि पूरा मुल्क गुस्से में उबल रहा
है, उसने पाकिस्तान में एमरजैंसी लागू कर दी और आखिरकार ३ दिसंबर की शाम पाकिस्तान
के ५० हवाई जहाज़ों ने भारत के १२ हवाई ठिकानों पर हमला बोल दिया. इन १२ ठिकानों
में एक बीकानेर का नाल हवाई अड्डा भी था. हम लोगों ने फिर घर के आगे खुदी खाइयों
में उलटे लेटकर बम के भयंकर धमाके सुने. पाकिस्तान को अमेरिका से भीख में मिले
सेबरजेट हवाई जहाज़, हमारे ऊपर चक्कर काट रहे थे, बम गिरा रहे थे और हमारी फ़ौज के
जवान एंटी एयरक्राफ्ट गन्स से उन सेबरजेट विमानों का शिकार करने की कोशिश कर रहे
थे. थोड़ी देर तो हम लोग खाईयों में दुबके रहे, फिर आसमान में हो रही लड़ाई को देखने
की ख्वाहिश इतनी शदीद हुई कि हम सब मोहल्ले वाले खाइयों से बाहर आकर आसमान की तरफ
देखने लगे. पाकिस्तानी हवाई जहाज़ जैसे तैसे बम गिराकर भागे, लेकिन जाते जाते उनके
दो जहाज़ों को एंटी एयरक्राफ्ट गन के गोलों ने हिट कर दिया. ये तो पता नहीं कि उन
हवाई जहाज़ों का बाद में क्या हुआ, लेकिन बम सारे के सारे रेत के धोरों में गिरे
थे. एक भी बम न तो हवाई अड्डे पर गिरा और न ही बीकानेर शहर पर. रात की ख़बरों में
रेडियो पाकिस्तान ने कहा “हिदुस्तान के बीकानेर शहर और हवाई अड्डे को नेस्तनाबूद
कर दिया गया है.”
दूसरे दिन सुबह पिताजी ने कहा “महेंदर, राजा (भाई साहब)
वहाँ गाँव में अकेला परेशान हो जाएगा ना ? तुम्हें क्या लगता है?”
मैंने कहा “जी हाँ, बात तो सही है. है तो जोधपुर भी सरहद पर
ही और वहाँ भी ब्लैक आउट तो होता ही होगा. आप कहें तो मैं चला जाऊं उनके पास ?”
वो बोले “ तुम चले जाओगे ?”
मैंने कहा “ जी इसमें क्या है ? यहाँ से फलौदी बस से, फलौदी
से लोहावट ट्रेन से और फिर लोहावट से पीलवा बस से.”
उन्होंने थोड़ा सोचते हुए कहा “कब जाओगे ?”
मैंने कहा “आप फिक्र मत कीजिये मैं कल सुबह ही रवाना हो
जाऊंगा.”
ये वो वक्त था जब संचार के कोई साधन नहीं हुआ करते थे और
आने जाने के लिए भी जो कुछ साधन थे वो इतने धीमे थे कि आज की जेनरेशन शायद उसकी
कल्पना भी न कर सके. मैं दूसरे दिन सुबह जल्दी रवाना हो गया. दिन में फलौदी
पहुंचा. ट्रेन आई तो देखा पूरी ट्रेन फौजियों से भरी हुई थी. फलौदी स्टेशन पर
सैकड़ों लोग खाने पीने की चीजें लिए हुए उन फौजियों की सेवा में लग गए. इसी बीच मैं
एक डिब्बे में चढ़ने की कोशिश करने लगा. थोड़ी मशक्कत के बाद मुझे एक डिब्बे में खड़े
रहने की जगह मिल गयी. मेरा सफर महज़ एक घंटे का था. जैसे ही ट्रेन लोहावट पहुँची
देखा, वहाँ भी फलौदी की तरह ही लोग फ़ौजी भाइयों के लिए ढेरों खाने पीने की चीज़ें लिए
हुए खड़े थे. मैं वहाँ से निकल कर जैसे ही बस स्टैंड की तरफ आया, मुझे लोहावट के
डॉक्टर व्यास मोटर साइकिल पर सामने से आते हुए मिल गए. मुझे देखते ही उन्होंने
मोटर साइकिल रोकी और बोले “अरे महेंदर कहाँ जा रहे हो ?”
मैंने कहा “डॉक्टर साहब, भाई साहब के पास जा रहा हूँ
पीलवा.”
वो बोले “अरे लेकिन वो तो आज सुबह ही जोधपुर चले गए हैं.
लड़ाई शुरू होने के कारण उनको कुछ दिन के लिए जोधपुर की मंडोर डिस्पेंसरी में लगाया
गया है.”
मैं सोच में पड गया. शाम हो रही थी, अब जोधपुर के लिए कोई
ट्रेन नहीं थी.
तभी डॉक्टर साहब बोले “ देखो ऐसा है तुम चाहो तो मेरे घर
चलो, सुबह जोधपुर चले जाना और अगर अभी ही जाना चाहो तो एक जीप जाने वाली है, मैं
तुम्हें उसपर भेज सकता हूँ.”
मैं तो जल्दी से जल्दी भाई साहब के पास पहुंचना चाहता था
इसलिए जल्दी से बोला “ थैंक यू डॉक्टर साहब आपके साथ फिर कभी आकर रहूँगा अभी तो
मैं जल्दी से जल्दी भाई साहब के पास पहुंचना चाहता हूँ.”
उन्होंने मुझे एक जीप पर बिठा दिया और मैं चल पड़ा जोधपुर की
तरफ, इस बात से बिलकुल अनजान कि वहाँ कौन सी घटना मेरा इंतज़ार कर रही है. रात करीब
एक बजे मैं मंडोर डिस्पेंसरी पहुंचा. भाई साहब मुझे देखकर बहुत चकित भी हुए और खुश
भी. हम दोनों डिस्पेंसरी के एक कमरे में दो पलंगों पर लेटे हुए बातें कर रहे थे. बातें करते करते चार बज गए. मैं भाई
साहब को दो दिन पहले बीकानेर में हुए हवाई हमले की बातें ही सुना रहा था कि अचानक
सायरन की आवाज़ गूंजने लगी. सायरन का मतलब हवाई हमले की चेतावनी. भाई साहब बोले
“चलो बाहर ट्रेंच में.”
मैंने कहा “भाई साहब यहीं कोने में मुंह करके खड़े हो जाते
हैं न”
वो बोले “नहीं नहीं रिस्क नहीं लेनी चाहिए.....”
उन्होंने अपने कम्पाउन्डर और स्टाफ के एक दो और लोगों को भी
उठाकर अपने साथ ले लिया. चारों तरफ घना अन्धकार और घना जंगल. हम लोग जल्दी जल्दी उन
खाइयों की तरफ लपके. भाई साहब का एक कम्पाउन्डर सबसे आगे था. जैसे ही वो ट्रेंच के
पास पहुंचकर उसमें उतरने लगा कि फुफकार की ज़ोरदार आवाज़ आई और वो चिल्लाया
“बांडी............(एक खतरनाक, रेत में मिलने वाला सांप)” सबके पाँव रुक गए. भाई
साहब ने कहा “सब लोग जल्दी से कमरों में पहुँचो, एक एक कोना पकड लो और दीवार की
तरफ मुंह करके खड़े हो जाओ.”
उनका इतना कहना था कि हमारे बिलकुल ऊपर से तीन चार हवाई
जहाज़ गुज़रे. हम भाग कर कमरे में पहुंचे तब तक धडाम धडाम की आवाजें आने लगी. हम समझ
गए बम गिरे हैं......... कुछ ही सेकंड्स के बाद फिर हवाई जहाज़ हमारे ऊपर से होकर
गुज़रे और फिर धडाम धडाम की ज़ोरदार आवाजें आईं. इस बार की आवाजें काफी नज़दीक से आती
हुई महसूस हुई. थोड़ी देर बाद क्लीयरेंस का सायरन बजा तो हम लोगों ने राहत की सांस
ली लेकिन आज मुझे लगा बम कहीं जोधपुर शहर के किसी हिस्से पर ही गिरे हैं....... सुबह
होने पर पता चला कि जोधपुर के जनरल हॉस्पीटल पर कुछ बम गिरे थे जिसमे हॉस्पीटल का
एक हिस्सा टूट गया और कई लोग मारे गए.
मेरी बात खत्म नहीं हुई है. इस युद्ध के समय तक मैं काफी
बड़ा हो गया था और कॉलेज में पढ़ रहा था. कई बातें जो ६५ के युद्ध में मैं महसूस नहीं
कर पाया था, इस युद्ध में मैंने महसूस की. मैं मानता हूँ कि हम सब देशभक्त हैं
लेकिन बहुत कट्टर देशभक्त भी कभी कभी किस तरह कुछ ऐसा करने को मजबूर हो जाता है कि
शक की सुइयां उसकी तरफ उठने लगती हैं तो
ऐसी ही युद्ध से जुडी कुछ बातें मैं आपको अगले एपिसोड में सुनाऊंगा..
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