मैंने इंजीनियरिंग न पढ़ने का फैसला ले लिया था, संगीत सीखना
चाहता था मगर लड़कों के लिए इसका कोई माकूल इंतज़ाम बीकानेर में नहीं था और लड़कियों
के कॉलेज ने मुझे दाखिला देने से इनकार कर दिया था, घर पर आये पॉलीटेक्नीक कॉलेज
के निमंत्रण को मैंने मंज़ूर नहीं किया था और अब जब कि विशम्भर नाथ जी और मंज़ुरुल
अमीन साहब के ज़रिये मुझे आकाशवाणी ज्वाइन करने की दावत मिली तो उसे भी कुबूल करना
न मैंने मुनासिब समझा और न ही मेरे घर के बाकी लोगों ने क्योंकि उस वक्त नौकरी
करने का मतलब था पढाई की छुट्टी यानि मैं रह जाता बस हायर सैकेंडरी पास. मैंने
सोचा एक बार नौकरी में आने के बाद कौन जाने मुझे पढ़ने का मौक़ा मिले या ना मिले. जब
मैं दसवीं में था तभी से एक सिलसिला चल पड़ा था कि मेरे साथ के लड़के गर्मी की
छुट्टियों में अक्सर इधर उधर दफ्तरों के चक्कर काटा करते थे और फिर खुश होकर बताया
करते थे कि उन्हें दो महीने या तीन महीने के लिए कोई टेम्परेरी नौकरी मिल गयी है
और इन दो तीन महीनो में वो ढाई तीन सौ रुपये कमा लेंगे लेकिन मैंने कभी इस तरह
किसी दफ्तर के चक्कर नहीं काटे और घर वालों की तरफ से भी यही कहा गया कि अभी कोई
जल्दबाजी नहीं है कमाने की. इसलिए नौकरी के पीछे भागने की न तो ज़रूरत महसूस होती थी
और न ही पढाई को एक मुकाम तक पहुंचाए बगैर नौकरी करने का मन था. इसी दौरान घटी एक
घटना ने सच पूछिए तो मेरे दिल में नौकरी को लेकर एक डर सा बिठा दिया था. लगता
था.....अभी मेरी उम्र नहीं हुई है नौकरी करने की. लेकिन नहीं अभी उस घटना के विस्तार
में नहीं जाऊंगा. उसका बयान मैं सही जगह आने पर ही करूँगा.
अब मुझे डूंगर कॉलेज में दाखिला लेना था. बीकानेर के पूर्व
महाराजा डूंगर सिंह जी के नाम पर बना हुआ कॉलेज......इधर आज़ादी मिले भी २०-२१ बरस
ही तो गुज़रे थे. ज़ाहिर है कॉलेज में हर तरफ बन्ना ही बन्ना थे या फिर उनके आस पास
बिखरे हुए चमचे...... कुछ ज़ात से गोले थे तो कुछ अपने अमल से बन गए थे......टीचर्स
भी दोहरे पैमाने रखते थे. बन्ना लोगों के लिए अलग और बाकी लोगों के लिए अलग. लेकिन
वक्त तेज़ी से बदल भी रहा था. बन्ना लोगों को आदत थी गाड़ियों में घूमने की शराब से
लेकर अफीम तक हर नशे की..... कुछ वास्तव में पढाई में संजीदा बन्नाओं को छोड़कर
बाकी तो बस एक क्लास में बैठ जाते तो जम कर ही बैठ जाते थे. या फिर जो पढाई में
थोड़े ठीक होते थे, बी ए पास कर लेते थे तो घूम घूम कर देखते थे कि एम् ए के किस
सब्जेक्ट में ज़्यादा सुन्दर लड़कियों ने इस बार दाखिला लिया है, बस उसी में उन्हें
भी दाखिला लेना होता था. अगले साल फिर से इस पर पूरी रिसर्च होती थी कि किस
सब्जेक्ट में दाखिला लेना चाहिए. उन लोगों की ज़िंदगी इसी तरह गुजर रही थी. ऐसे में
दो जातियां बहुत तेज़ी से डूंगर कॉलेज में ही नहीं पूरे क्षेत्र में उभर कर बन्ना
लोगों के मुकाबले में खडी हो रही थीं एक पुष्करणा ब्राह्मण और दूसरे जाट. कॉलेज
में चुनाव होते तो इन तीनों जातियों में आपस में ज़ोरदार मुकाबला रहता था. छात्र
नेता के रूप में उभर कर तीनों ही जातियों के नेताओं ने आगे जाकर राजनीति में नाम
कमाया. ऐसे में मेरे जैसे छात्रों को बहुत तवाज़ुन बनाकर चलना पड़ता था क्योंकि हम
लोग इन तीनों ही जातियों में से नहीं थे और इनमे से किसी भी जाति का कोई ग्रुप अगर
हमसे नाराज़ हो गया तो हमारी शामत थी.
कॉलेज का फॉर्म भरने गया तो सबसे पहले पूरा माहौल इतना
डरावना लगा कि कॉलेज में पढ़ने का उत्साह ठंडा होने लगा...... हर तरफ रैगिंग की
चर्चा थी और हर गलियारे में एक नाम गूँज रहा था “करणी सिंह बॉस”. जो भी फॉर्म लेने
गया था बस यही मना रहा था कि करनी सिंह बॉस से सामना न हो. मैंने भी फॉर्म लिया और
चुपचाप वापस रवाना हो गया. कॉलेज के मेन गेट तक यही दुआ करता रहा कि बॉस से सामना
न हो. राम राम करके घर लौट आया. फॉर्म भरकर जमा करवाने गया तब भी देखा कि हर तरफ
बॉस का ही खौफ पसरा हुआ था. तीन चार लड़के आते और फॉर्म जमा करवाने के लिए लगी लाइन
में से किन्हीं तीन चार को छांट कर कहते “ चलो बेटा करनी सिंह बॉस ने याद किया है”
वो कितना भी हाथ पैर जोड़ते, उन्हें नहीं छोड़ा जाता. जिस जिस को भी लाइन में से
छांट कर निकाला जाता, उनका हाल उसी बकरी के जैसा हो जाता जिसे शेर के सामने बाँध
दिया गया हो. लाइन में खड़ा हर स्टूडेंट बस इसी खौफ का मारा हुआ था कि अब मेरी बारी
आई.......अब मेरी बारी आई. जैसे ही तीन चार लड़कों को ले जाया जाता बाकी लड़के चैन की
सांस लेते कि इस बार तो जान बची. उस क्यू में खड़े खड़े मुझे फिर से याद आ गया
सरदारशहर का अपना घर और उसके पड़ोस के कसाइयों के वो बाडे जिनमें बंधे हुए बकरे अपनी बारी का इंतज़ार करते थे और
जब एक बकरे को पकड़ कर काटने के लिए ले जाया जाता तो वो आने वाली मौत के डर से
चिल्ला पड़ता था, उसके साथ ही वहाँ बंधे सारे बकरे चिल्ला पड़ते थे लेकिन जैसे ही
कसाई उस बकरे को दूसरी तरफ लेकर चला जाता, सभी बकरे चैन की सांस लेते कि इस बार तो
उनकी जान बच गयी. क्यू बहुत लंबी थी. हर थोड़ी देर में करणी सिंह बॉस के वो चमचे आ
रहे थे. एक तरफ जहां दिल कर रहा था कि
जल्दी से फॉर्म जमा हो और मैं निकलूँ वहाँ से वहीं दूसरी तरफ दिल में एक अजीब तरह
की उत्कंठा भी थी कि आखिर ये बॉस चीज़ क्या है? कैसी शक्ल सूरत, कैसी कद काठी का
होगा ? थोड़ी देर में खिड़की पर मेरी बारी आ गयी. मैंने फॉर्म जमा करवाया और वापस निकल
गया. आज तो यकीनन जान बच गयी थी. सोचा अब जब क्लासेज़ होने लगेगी तभी आना है और
सुना था बॉस पिछली बार भी फर्स्ट ईयर में फेल हो चुके हैं, अब वो भी क्लास के टाइम
क्लास अटेंड करेंगे या कि रैगिंग लेंगे?
कुछ दिन बाद ही क्लासेज़ शुरू हो गईं.....छनते छनते खबर आ
रही थी कि करनी सिंह बॉस की रैगिंग जैसे जैसे दिन गुज़र रहे थे और खतरनाक होती जा
रही थी. बकरे की माँ आखिर कब तक खैर मनाती? पढ़ाई में बहुत कुछ ऐसा था जो मेरे लिए
बिलकुल नया था इसलिए ज़रूरी था कि मैं जल्दी से जल्दी कॉलेज जाऊं. एक दिन सारी
हिम्मत बटोरकर मैं कुछ ऐसे दोस्तों के साथ कॉलेज जा पहुंचा जो सादुल स्कूल में भी
मेरे साथ थे. सुना टाइम टेबल नोटिस बोर्ड पर लगा हुआ है, वहीं जाकर देखना होगा कि
कब कौनसे सब्जेक्ट की क्लास है. हम लोग ६-७ लोग थे. हमें लग रहा था कि शायद ६-७ के
ग्रुप को देखकर हमें बख्श दिया जाएगा. हम लोग जैसे ही नोटिस बोर्ड के पास पहुंचे,
एक दुबले पतले इंसान ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा “इधर आ जा”
मैंने समझा होगा ये भी मेरी तरह कोई न्यू कमर...... मैंने
कहा “क्या है?”
उसने कहा “कुछ नहीं बेटा इधर एक तरफ आ जा........”
इतने में लोगों की फुसफुसाहट सुनाई दी “करनी सिंह
बॉस....... करनी सिंह बॉस....”
अब मेरी सिट्टी पिट्टी गुम हुई. मैंने उस दुबले पतले इंसान
से कहा “देखो भाई आप जो भी हो, फिर कभी बात करेंगे, अभी तो ये बागड़बिल्ला आ रहा है
इस से आप भी बच लो और मुझे भी बचने दो.”
वो गहरी नज़रों से मुझे देखता हुआ बोला “ कौन बागड़बिल्ला?”
मैंने डरते डरते कहा “अरे ये करनी सिंह बॉस..........”
अब उसकी आँखों में जैसे शोले धधक उठे. उसने तीन चार मोटी
मोटी गालियाँ निकालीं और जोर से चिल्लाया “कौन है रे ये
(गाली)............(गाली).......(गाली)?”
उसका चिल्लाना सुनते ही मुझे लगा आज तो कहीं गलत फँस गया
मैं. तभी तीन चार लड़के दौड़े हुए आये और उस दुबले पतले इंसान से पूछने लगे “क्या
हुआ बॉस ? हुकुम क्या किया इस छोरे ने?”
वो चिल्लाया “ले चलो साले को लैब में.............”
अब अपनी गलती मुझे समझ आ गयी थी. मैंने बॉस, बिग बॉस और
करनी सिंह बॉस के संबोधनों को सुनकर करनी सिंह के व्यक्तित्त्व की जो तस्वीर बनाई
थी वो गलत निकल गयी थी. मेरी कल्पना में बॉस को छ फुट हाइट का चौड़े कंधों वाला एक
गबरू जवान होना चाहिए था लेकिन ये बॉस तो निकला एक निहायत औसत हाइट का दुबला पतला
इंसान. अब जैसे ही उसने लैब में ले जाने का हुकुम जारी किया बात मेरे समझ आ गयी
क्योंकि ये बहुत मशहूर था उन दिनों कि लैब कोडवर्ड है कॉलेज के पिछवाड़े लगे हुए
बोटनिकल जंगल का. जिसकी भी ज़ोरदार रैगिंग लेनी होती थी उसे वहीं ले जाया जाता था.
अब तो कोई चारा नहीं था, जानता था अगर इनकी बात नहीं मानूंगा तो ये लोग घसीट कर ले
जायेंगे मुझे और कोई मुझे बचाने आये इसके कोई इमकान थे नहीं. मैं गर्दन झुकाए हुए
उन लोगों के पीछे पीछे चल पड़ा और करनी सिंह बॉस ने मेरी जी भरकर रैगिंग ली. रैगिंग
में क्या क्या हुआ ये तो मैं बता नहीं सकता क्योंकि रैगिंग का पहला स्टैप ये क़सम
खाना ही होता है कि जो कुछ मेरे साथ यहाँ होगा उसकी तफसील मैं किसी को नहीं
बताऊंगा.
कॉलेज में इसके बाद क्या हुआ ये भी मैं आपको बताऊंगा लेकिन
पहले मुझे लगता है कि रैगिंग की जो बात शुरू की है उसे पूरा कर लूं. तो चलते हैं
रैगिंग वाले इस दिनके लगभग ३० साल आगे.......यानि १९९७-९८ में. मेरे भाई साहब
लूनकरनसर के हस्पताल के इंचार्ज थे. मेरी पोस्टिंग उन दिनों आकाशवाणी उदयपुर में
थी. कुछ दिन की छुट्टी लेकर भाई साहब के पास लूनकरनसर आया हुआ था. एक दिन दोपहर
में भाई साहब हस्पताल से लौटकर आये, हमने खाना खाया और कूलर चला कर बैडरूम में
लेटे हुए गपशप कर रहे थे कि घंटी बजी.
भाई साहब बोले “इस तपती दोपहरी में कौन आ गया है यार?”
मैंने कहा “मैं देखता हूँ...... बेचारा कोई ज़रूरत का मारा
ही होगा वरना इतनी गर्मी में कौन घर से निकल कर आएगा?”
मैंने दरवाजा खोला तो सामने पुलिस वर्दी में एक इंसान पसीने
से नहाया हुआ खड़ा था. मैंने कहा “जी कहिये ?”
सर पर एक गमछा रखकर धूप की मार से बचने की कोशिश करता वो
पुलिस वाला बोला “डॉक्टर साहब कहाँ है ? ज़रूरी काम है.”
मैंने अंदर आकर भाई साहब को बताया “एक पुलिस वाला है.”
“अच्छा ड्राइंगरूम में बिठा मैं आता हूँ.”
मैंने उन साहब को ड्राइंगरूम में बिठा दिया. इतने में भाई
साहब अंदर से आ गए. उनके आते ही उन साहब ने झट से गमछा हटाया और ठक से एड़ी पर एड़ी
मारकर भाई साहब को सल्यूट मारा. भाई साहब ने हँसते हुए कहा “आइये आइये एस आई साहब
बैठिये. ये मेरा छोटा भाई है महेंद्र. ऑल इंडिया रेडियो में अफसर है.” अब हम दोनों
की नज़रें मिलीं. मैंने ध्यान से उस चेहरे को देखा ........ अरे ये तो करनी सिंह
बॉस है......... मैंने मुस्कुरा कर हाथ आगे बढ़ाया और बोला “क्यों बॉस पहचाना नहीं
क्या?” वो एकदम से पहचानते हुए बोले “ अरे महेंदर जी आप?” मैंने कहा “जी.......
बॉस”.
“अरे नहीं महेंदर
जी कहाँ के बॉस हैं हम पुलिस में ए एस आई बनकर बस टाइम गुज़ार रहे हैं.”
“बॉस तो बॉस ही रहेंगे..... चाहे वो किसी पोस्ट पर
हों......”
भाई साहब बोले “अरे आप लोग एक दूसरे को जानते हैं क्या?”
तब हम दोनों ने टुकड़ों टुकड़ों में अपने अपने नज़रिए से
रैगिंग की वो दास्तान उन्हें सुनाई. हम सब मिलकर खूब हँसे और उस दिन ही नहीं
हँसे..... उसके बाद भी जब तक मैं वहाँ रहा वो कई बार हमारे घर आये और हम खूब हँसते
रहे. वो उस ३० साल पहले ली गयी रैगिंग के लिए माफियाँ माँगते रहे और मैं बराबर
उन्हें कहता रहा “छोडए बॉस, आप मेरे बॉस हैं तो बॉस ही रहेंगे.”
तब मेरे दिमाग में आया, इंसान अक्सर अपने वर्तमान को ही
कसौटी बनाकर सोचता है. उसे नहीं पता होता कि भविष्य के गर्भ में उसके लिए क्या कुछ
छुपा है. अगर करनी सिंह बॉस को कॉलेज के वक्त में ज़रा भी इस बात का अंदाजा होता कि
आने वाले कल में हम किस मोड पर मिलेंगे तो क्या वो उस बुरी तरह से रैगिंग ले पाते?
साइंस बायो पढ़ना मुझे थोड़ा भारी पड रहा था. पी सी लवानिया,
दलीप सिंह जी, गेलड़ा साहब, सोनी साहब, भंडारी साहब, राठी साहब जैसे बड़े बड़े नाम
साइंस फैकल्टी में हुआ करते थे. फीजिक्स, कैमेस्ट्री तो चूंकि मैं ९ वीं कक्षा से
पढता आ रहा था, मुझे ज़्यादा दिक्कत नहीं हो रही थी लेकिन जूलोजी, बोटनी में मेरे
कुछ भी पल्ले नहीं पड रहा था. मेरे साथ के ९९% लड़के ९ वीं से वो सब कुछ पढ़ रहे थे
और मुझे एक तरह से चार साल का कोर्स एक साल में पूरा करना था जो मेरे जैसे औसत
दर्जे के स्टूडेंट के लिए बहुत मुश्किल था. ऊपर से जूलॉजी में जो डिसेक्शन करने
होते थे वो मुझे पूरा हिला कर रख देते थे. मेंढक बेचारा अपनी जान से जाता और मैं न
उसका रेस्पीरेटरी सिस्टम निकाल कर गुरु लोगों को दिखा पाता न ही सर्कुलेटरी
सिस्टम. उन दिनों कॉलेज में एन सी सी हर एक के लिए ज़रूरी होती थी. हमारे एन सी सी
के दो गुरु हुआ करते थे. ठाकुर दलीप सिंह जी और ठाकुर वाई पी सिंह जी. आगे जाकर
रेडियो में आने के बाद तो वाई पी सिंह जी से कमर भाई के ज़रिये मेरे बहुत अच्छे
ताल्लुकात हो गए लेकिन न जाने क्यों कॉलेज के वक्त वो मुझे पसंद नहीं करते थे.
मुझे डरते डरते दलीप सिंह जी की शरण में जाना पड़ा जोकि बहुत सख्त किस्म के टीचर
माने जाते थे और एन सी सी में तो और भी ज्यादा सख्त. उन्होंने मुझे अपनी कंपनी में
ले लिया. दलीप सिंह जी के थोड़ा करीब पहुँचने पर मैंने पाया कि वो ऊपर से जितने
सख्त दिखाई देते हैं अंदर से उतने हैं नहीं. मुझे हफ्ते में दो दिन एन सी सी की
परेड के लिए जाना होता था जिसमे मैं थोड़ा ठीक था, शूटिंग में भी मेरी गिनती अच्छे
कैडेट्स में होती थी. हमें जैन कॉलेज के पीछे बनी एक छोटी सी शूटिंग रेंज में ले
जाया जाता था जहां .२२ की राइफलों से हम लोग टारगेट पर निशाना लगाया करते थे. अंडर
ऑफिसर का पद तो ज़्यादातर बन्ना लोगों के लिए ही रहता था मगर मुझे भी सार्जेंट मेजर
का एक पद दिया गया था. सार्जेंट मेजर बनने के बाद मैं दलीप सिंह जी के थोडा और
करीब आ गया था......और मैंने उन्हें साफ़ साफ़ बताया कि सर मुझे ये बायो के
प्रैक्टिकल्स बिलकुल पल्ले नहीं पड़ते. वो सीधे कहते थे “नहीं पल्ले पड़ते तो फेल हो
जाओगे और क्या ?” लेकिन जैसा कि मैंने कहा, अंदर से वो बहुत नरमदिल थे. वैसे वो
जानते थे कि मैं थ्योरी में बुरा नहीं था लेकिन ऊपर से वो सख्त ही बने रहते. हकीकत
ये है कि इसी एन सी सी और इन्हीं दलीप सिंह जी ने सच पूछिए तो मुझे फर्स्ट ईयर टी
डी सी के जूलॉजी और बोटनी के प्रैक्टिकल्स में पास करवाया वरना सच बात ये है कि
मुझे आज भी पता नहीं है कि मेंढक का कौन सा सिस्टम कहाँ होता है?
एक हमारे गुरु जी हुआ करते थे भंडारी साहब. उन दिनों आज की
तरह ५० ब्रांड्स की मोटर साइकिल्स और स्कूटर्स मौजूद नहीं थे. ले दे कर दो स्कूटर
बाज़ार में थे लेम्बरेटा और वेस्पा और मोटर साइकिल्स में रॉयल एनफील्ड, जावा और
राजदूत. राजदूत का एक नया मॉडल उन दिनों आया था रेंजर. पूरे कॉलेज में अकेले
भंडारी सर के पास वो मॉडल था और भंडारी साहब जब काला चश्मा लगाकर सवार होते थे तो
अपने आपको किसी हीरो से कम नहीं समझते थे. क्लास में भी उनकी अकड कुछ अलग ही तरह
की थी. एक सेकंड में वो किसी की भी इज्ज़त दो कौड़ी की कर दिया करते थे. एक साल
साइंस बायो में रहने के बाद जब सेकंड ईयर में मैंने फिर सब्जेक्ट बदल लिए तो एक
दिन इम्तेहान में जाकर देखा कि मेरे हॉल में भंडारी साहब इन्वेजिलेटर हैं. उस दिन
स्टेटिस्टिक्स का पेपर था जिसमे मेरी महारत थी. तीन घंटे के पेपर को पौने घंटे में
सॉल्व करके १५ मिनट में दुबारा चेक करके मैं झपकी लेने लगा तो मेरे पास आये और
मेरे कान में बोले “साइंस तो छोड़कर आ गए क्योंकि तुम्हें वहाँ कुछ पल्ले नहीं पड़ा,
यहाँ आर्ट्स में भी कुछ नहीं आता क्या ?”
मैं मुस्कुराया और मुस्कुरा कर अपनी कॉपी उनके आगे कर दी और
कहा “सर साइंस पढ़ने का यही तो फायदा हुआ कि अब कुछ भी ज्यादा मुश्किल नहीं लगता.
अब देखिये ना आज का पूरा पेपर मैंने तीन घंटे की बजाय एक घंटे में सॉल्व कर दिया.”
उन्हें विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने मेरी कॉपी लेकर पूरी चैक की और मुझे वापस देते
हुए कहा “ शाबाश”. और उस दिन से वो मुझसे मित्रवत व्यवहार करने लगे. यहाँ तक कि जब
मैं १९८१ में सूरतगढ़ में पोस्टेड था वो चैकिंग स्क्वैड में वहाँ आये तो मेरे सिवा
पूरे शहर में किसी को पता नहीं था कि वो आने वाले हैं.
आगे जाकर कुछ ऐसा
इत्तेफाक हुआ कि यही भंडारी साहब बीकानेर में हमारे पडौसी बने. जब तक भाई साहब ने
बीछवाल में हस्पताल और घर नहीं बनाया , जब भी बीकानेर जाना होता था, भंडारी सर से
मुलाक़ात होती ही थे क्योंकि उनका और हमारे घर की एक ही दीवार थी. जब भाई साहब
बीछवाल में शिफ्ट हो गए उसके बाद से भंडारी सर के दर्शन नहीं हुए. उम्मीद है कि वो
उसी तरह तने हुए नौजवान अब भी होंगे.
मैं फर्स्ट ईयर टी डी सी की बात कर रहा था, दलीप सिंह जी ने
मेरी बहुत मदद की और उनकी वजह से ही मैं फर्स्ट ईयर टी डी सी पास कर सका. फिर मेरा
मन नहीं हुआ पी एम् टी देने का क्योंकि अगर मेडिकल कॉलेज में जाता तो चीरफाड करनी
ही थी और अगर मैं बी एस सी करता तब भी मुझे डिसेक्शन तो करने ही पड़ते. हारकर मैंने
सेकंड ईयर में आर्ट्स ले लिया.......
वक्त गुज़रता गया.... मैंने पढ़ाई पूरी की और कई नौकरियों को
नज़रंदाज़ करते हुए रेडियो में आ गया. १९९५-९६ की बात है. एक रेडियो नाटक में भाग
लेने के लिए मुझे खास तौर पर उदयपुर से जयपुर बुलाया गया था. रिकॉर्डिंग पूरी होने
के बाद उदयपुर लौटना था. न ट्रेन में जगह मिली और न फ्लाइट में. हारकर सिंधी कैम्प
आया और बस का टिकट ले लिया. तभी क्या देखा कि सामने से दलीप सिंह जी चले आ रहे
हैं. वही रुआब चेहरे पर, वही रौबीली चाल, बस गर्दन ज़रा सी झुकी हुई. मैं बस-वस सब
भूलकर सर की तरफ चल पड़ा. मैंने झुक कर उनके पाँव छुए तो उन्होंने आशीर्वाद दिया.
मुझे उनकी आँखों में एक अजीब सा अपनापन और स्नेह नज़र आया तो मुझे लगा कि वो मुझे
पहचान गए हैं. वो बोले “कैसे हो यंगमैन ?” वो इसी तरह बोला करते थे कॉलेज के ज़माने
में भी.
मैंने कहा “सर आपका
आशीर्वाद है”
“क्या कर रहे हो आजकल?”
“जी आकाशवाणी में हूँ”
“अच्छा, मेरा एक और स्टूडेंट भी आकाशवाणी में है, लेकिन वो
तो यू पी एस सी से आया हुआ है.”
“जी सर, आया तो मैं भी यू पी एस सी से हूँ, आपके उस दूसरे
स्टूडेंट का नाम क्या है ?”
उन्होंने जैसे गर्व से गर्दन ऊंची करते हुए कहा “ यंगमैन
उसका नाम महेंद्र मोदी है.”
मैं अपने आप को रोक नहीं सका. मैंने अपना सर उनके पैरों में
झुका कर कहा “ सर मैं आपका स्टूडेंट
महेंद्र मोदी ही हूँ.”
उनके चेहरे पर मानो कई रंग आये और कई रंग चले
गए......उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा और बोले “अरे महेंद्र ये तुम हो? आवाज़
से लग रहा था कि ये तुम ही हो लेकिन क्या बताऊँ? नज़र अब काम नहीं करती..... और
मैंने तो सुना था तुम इलाहाबाद में हो...... इसलिए उम्मीद नहीं थी कि तुम यहाँ मिल
जाओगे.”
मैंने कहा “जी सर आपने सही सुना था. मैं इलाहाबाद में ही
था. अभी कुछ ही साल पहले वापस राजस्थान में आया हूँ.”
बहुत देर तक हम दोनों कॉलेज के दिनों को याद करते रहे.
मैंने अपनी वो बस छोड़ दी जिसका टिकट लिया था. वो हालांकि मुझसे पूछते रहे “यंगमैन
कौन सी बस में जाना है तुम्हें ?”
मैं हर बार यही कहता रहा “सर अभी देर है मेरी बस में.”
रात साढे ग्यारह बजे तक हम दोनों बातें करते रहे. साढे
ग्यारह बजे वो बोले “ओके यंगमैन अब मैं जाता हूँ, ये मेरा पता है, कभी जयपुर आओ तो
ज़रूर मिलना.”
मैंने कहा “ जी सर ज़रूर”
मैंने एक बार फिर उनके पैर छुए, एक बार फिर उन्होंने अपने
अंदाज़ में मुझे ढेर सारे आशीर्वाद दिए और वो चल दिए अपनी उसी रौबीली चाल में. मैं
दूर तक उन्हें जाते हुए देखता रहा और फिर मुड गया अगली बस पकड़ने के लिए.
मैंने सोचा था कि अगली बार जब भी जयपुर आऊँगा गुरु जी से
ज़रूर मिलूँगा.... लेकिन मुझे क्या पता था कि इसी मुलाक़ात को मेरी उस महान हस्ती से
आख़िरी मुलाक़ात के रूप में प्रारब्ध ने अंकित कर दिया था.
कुछ ही दिन बाद जयपुर के अपने एक मित्र से खबर मिली......
गुरुदेव दलीप सिंह जी इस दुनिया में नहीं रहे......मेरी आँखों ने अनजाने में ही दो
आंसू टपका दिए...
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