जाने-माने ब्रॉडकास्टर और विविध भारती पर हमारे पूर्व साथी लोकेंद्र शर्मा रेडियोनामा पर प्रस्तुत कर रहे हैं अपनी जिंदगी की कहानी- 'ताने-बाने'। आज तीसरी कड़ी। रेडियोनामा पर लोकेंद्र जी का लिखा सब कुछ पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए।
भोपालगंज के जिस मकान में मेरी चेतना ने जागना शुरू किया, वो एक मैदान में अकेली खड़ी हवेलीनुमा इमारत थी. आगे रेतीला मैदान, पीछे जंगली झाड़ियों और पत्थरों से अटा पड़ा खाली इलाका और दाएं-बाएं कच्ची मिटटी भरी सड़कें. इमारत के बनाने में ईंटों का कम, पत्थरों का ज्यादा इस्तेमाल किया गया था. शायद इस इलाके में ज़्यादातर घर ऐसे ही बनाए जाते थे. पूरब में कुछ ही कोस की दूरी पर चितौडगढ़ यानि अरावली परबत की पहाड़ियां थी, जिसके पश्चिमी भाग में रेतीले इलाके का फैलाव शुरू होता था. एक तरफ मेवाड़ी पहाड़, दूसरी तरफ मेरवाड़ी रेत. भीलवाड़ा इन दोनों के बीच में फंसा हुआ शहरनुमा क़स्बा था.
घर के सामने बायीं ओर नीम और पीपल के पेड़ों का एक झुरमुट सा था, जिनकी छाया में एक कुआं था. भाभी (माँ) और बुआजी इसी कुएं से पानी भर कर लाती थीं. मां को हम ‘भाभी’ क्यों कहते थे, इस पर पहले कभी विचार नहीं किया, लेकिन आज सोचता हूं, तो लगता है शायद बुआजी उन्हें भाभी कहती थीं इसलिए देखा-देखी हम भी कहने लगे होंगे. किसी ने रोक-टोक नहीं की तो फिर ‘मां’ सदा के लिए ‘भाभी’ हो गई. बुआजी और भाभी दोनों एक साथ दो-दो घड़े कुएं से भरकर लातीं और रसोईघर के पास वाले पानीघर में रखे भीमकाय मटकों और ड्रम में पलट देतीं. पानीघर को परेण्डी कहा जाता था.
कभी-कभी हमें भी कुएं तक जाना पड़ता, जहाँ बुआजी कुएं से पानी खींच कर बाल्टी हमारे सर पर उड़ेल देती और हमारा स्नान हो जाता. मैंने देखा था कि रस्सी की रगड़ से कुएं की पथरीली मुंडेर पर निशान बन गए थे. पत्थर पर पड़े हुए ये कंटीले निशान मुझे बहुत कलात्मक लगते. बरसों बाद जब स्कूल में एक दोहा पढ़ा, ‘रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान’ तो बरबस ही बचपन में देखे हुए पत्थर के वे निशान याद आ गए थे.
कुआं और कुएं पर छाया सी किए हुए नीम और पीपल के पेड़ों का झुरमुट, हमें अपने घर की छत से दिखाई देता था. कुएं के पीछे एक बहुत बड़ा बाड़ा था. बाड़ा यानी खाली मैदान, जिसके चारों तरफ़ पत्थर की ऊंची दीवार चिन दी गई थी. कुएं के बाएं कुछ ही दूर बाड़े का दरवाज़ा था. दरवाज़े में लोहे का फाटक तो था, लेकिन ये सदा सर्वदा खुला ही रहता था. ये बाड़ा बहुत ही महत्व का इलाका था. रोज सुबह मुंह अंधेरे दूर पास के लोग लोटा लेकर इसी बाड़े में निबटने जाते थे. अंदर झाड़ियां ही झाड़ियां थीं. किसी भी झाड़ी की आड़ में बैठकर लोग नित्यकर्म से निवृत हो लेते. औरतों के लिए जरूरी था कि उजाला फूटने से काफी पहले, अंधेरा रहते ही वे निबटारा पा लें. हम बच्चे थे इसलिए हमारे लिए कोई सामाजिक नियम नहीं था. हम ठाठ से सूरज बांस भर ऊपर आ जाने के बाद ही बाड़े की यात्रा पर निकलते, लेकिन देर हो जाने की वजह से अंदर पगडंडियों और रास्तों पर पैर बचा बचाकर चलते हुए, अपने लिए गंदगी से रिक्त कोई स्थान ढूंढने की कवायद करनी पड़ती.
उन दिनों आमतौर पर घरों में पाखानाघर नहीं होते थे, लेकिन हमारे घर में था. वैसे था तो, मगर एक तरह से नहीं था. क्योंकि उसका इस्तेमाल केवल बीमारों या आदरणीय मेहमानों के लिए ही किया जाता था. फ्लश का तो तब किसी ने नाम भी नहीं सुना था. इसलिए जब पाखानाघर का इस्तेमाल होता था तो जमादारनी को हवेली के आसपास बुहारने के अलावा, वहां मैला साफ करने का अतिरिक्त काम भी करना पड़ता था.
सुबह अपना काम करके जमादारनी चली जाती और दोपहर को नहा-धोकर साफ-सुथरी साड़ी पहनकर एकबार फिर आती. चौक में आते ही, ‘बहूजी राम-राम’ की पुकार लगा कर अपने आने की सूचना देती. भाभी रसोई में से दो रोटी और थोड़ी दाल या सब्जी लाकर उसके फैले हुए आंचल में डाल देती. जमादारनी आशीषें देती और कभी-कभी बाल-बच्चों का हाल-चाल भी पूछती. ये दो रोटी और सब्जी ही उसका वेतन था. किसी त्योहार या पूजा के अवसर पर कभी-कभी भाभी जमादारनी को पुरानी साड़ी-जम्पर भी दे दिया करतीं. जमादारनी से परिवार का बस यही नाता था.
लेकिन जमादारनी का जिक्र आया है, तो एक घटना की बात किए बिना मुझसे नहीं रहा जा रहा. घटना कुछ बरस बाद की है. मैं शायद नौ-दस बरस का था तब. बाबूजी को व्यापार में नुकसान हो गया था. और वे खासे कर्ज़ के नीचे आ गए थे. चिंता उनके माथे पर साफ़ दिखाई देती. किसी से ज्यादा बात भी नहीं करते. अक्सर बरामदे में माथे पर हाथ रखे, मोढ़े पर बैठे दिखाई देते. एक दोपहर जब जमादारनी अपने हिस्से की रोटी लेने आई, तो भाभी से पूछ बैठी, “बाउजी ने कई व्हैग्यो. माथा पर हाथ धरे क्यों बैठ्या रेवें.”
भाभी ने दुखी स्वर में जवाब दिया, “कई बताऊं, बोपार की बातां हैं, घाटो व्हैग्यो है, वणि की चिंता में परेसान हैं.”
“घाटो कई घणो व्हैग्यो ?”
भाभी ने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा, “कतरो व्हैग्यो सो तो मैं कई जाणूं, पण कर्जो हज्जारां को व्हैग्यो है.”
जमादारनी आगे कुछ बोली नहीं, पर उदास हो गई और चुपचाप चली गई. लगभग दो घंटे बाद ही वापस लौटी. बाउजी उस समय बाहर बरामदे में मोढ़े पर ही बैठे थे. जमादारनी उनसे कुछ दूर जाकर खड़ी हो गई. फिर नीचे झुकी और अपने हाथ में थामी हुई एक पोटली बाउजी के पैरों की तरफ़ सरका दी. बाउजी ने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा. वो हाथ जोड़े खड़ी थी. बाउजी ने पोटली की तरफ़ देखा. उसकी झिरी में से सोने-चांदी के कुछ गहने दिखाई दे रहे थे.
“यो कई है लछमी ?” बाउजी आश्चर्यचकित घबराहट से भर गए.
जमादारनी ने कहा, “बोपार में घाटो व्हैग्यो है, वणि बात री चिंता मत करो बाउजी. चार-छह गैणा हैं, आपरा ई दिया थका. अणाने राख लो.”
गहने तो खैर बाउजी क्या रखते, लेकिन उनका गला भर आया. बड़ी मुश्किल से लछमी को समझा बुझा कर गहने वापस लौटाए. उस रात बाउजी से यह सारी बात सुन कर, भाभी की भी आखें भर आई. बोलीं, “लछमी और किसे कहोगे ?”
इस घटना को आज कोई बहुत मुश्किल से सच मानेगा. मेरे सामने न हुआ होता, तो शायद मेरे लिए भी इस पर विश्वास करना मुश्किल हो जाता. लेकिन ये सच है. सच है कि एक ज़माने में ऐसे लोग और ऐसे रिश्ते होते थे. सच पूछो तो जमादारनी का हमारे घर से केवल यही तो नाता था कि हर दोपहर उसे दो रोटी, थोड़ी सब्जी और कभी-कभार पुराने कपड़े या चवन्नी-अठन्नी मिल जाती थी. लेकिन शायद उस दौर के लोगों के लिए सगापन निभाने के लिए इतना भी बहुत था. सीधे-सरल, प्यार और अपनत्व से भरे, जात-बिरादरी की सीमाओं से दूर, ऐसे लोग आज शायद केवल कहानियों और ख़यालों में ही मिलेंगे.
***
घर के ठीक सामने जहां सड़क मोड़ लेती थी, एक खासा घना इमली का पेड़ था. पेड़ के मोटे तने से टिका कर एक पनवाड़ी ने अपनी दूकान सजा रखी थी. दुकानदार के पास एक भोंपूवाला ग्रामोफोन और दो-तीन रिकॉर्ड थे. कभी-कभार मौज में आकर वो रिकॉर्ड बजा देता, तो बेआवाज़ माहौल में दूर तक उसके गानों की आवाज़ गूंजने लगती. यह दूसरी बात है कि पनवाड़ी का ग्रामोफोन हर गाने को दुगुनी स्पीड में बजाता. जो दो-तीन गाने अक्सर सुनाई देते, वो थे, ‘ओ भंगियों के राजा, मेरा नन्हा सा दिल बहला जा’ और ‘ओ जाने वाले बालमवा, लौट के आ, लौट के आ’. एक और गाना था ‘मार कटारी मर जाना, पे अंखियां किसी से मिलाना ना’, यही गाने कभी-कभार सुनाई देते, जो दुगुनी स्पीड की वजह से फटाफट खतम हो जाते. भाभी को ये गाने बहुत पसंद थे. तब तक घर में एक छोटा भाई आ चुका था, भाभी इन गीतों को कभी कभी छोटू को थपकी देकर सुलाते समय, लोरी की तरह गुनगुनाती थी. मैंने उनको काम करते-करते भी कई बार इन्हें गुनगुनाते हुए सुना था.
पनवाड़ी वाले इमली के पेड़ से कुछ दूर एक वट का पेड़ था जिसके चारों ओर चबूतरे का परकोटा सा बना हुआ था. इसके बगल में ही एक पानी का विशाल आयताकार कुंड था. कुंड के चारों तरफ़ भीतर उतरती हुई ढेरों सीढ़ियां थीं. तली में खूब नीचे हरा-हरा पानी दिखाई देता था. हरा इसलिए कि पानी पर ढेर सारी काई जमी थी और चारों तरफ़ से पेड़ों के पत्ते गिर-गिरकर पानी को ढांपे हुए थे. कुंड से सटा हुआ हनुमानजी का एक मंदिर था. सुबह-शाम मंदिर से घंटे-घड़ियाल की आवाज़ें आया करती थीं. पूजा-आरती की जिम्मेदारी पंडित प्रभुदयालजी पर थी. दिन के खाली समय में पंडित जी, मास्टर जी हो जाते और वहीं मंदिर के आंगन में छोटे-छोटे बच्चों की पाठशाला चलाया करते. लाल तिलकधारी पंडित जी छोटे कद के दुबले-पतले, गोरे-चिट्टे आदमी थे. उनके सिर पर बंधा हुआ पीले रंग का बड़ा सा साफा उनके दुबले बदन पर बहुत बड़ा और खासा भारी दिखाई देता था.
भारत को आज़ाद हुए कुछ महीने बीत चुके थे और देश के कुछ हिस्सों में धार्मिक उन्माद कत्लेआम मचाए हुए था. राजस्थान के इस हिस्से में हिंसा की आग अभी नहीं पहुंची थी. मुझे और मुन्नी को प्रभुदयालजी की हनुमान मंदिर वाली पाठशाला में दाखिल करवा दिया गया था. मेरे और मुन्नी के अक्षरज्ञान का पहला मंदिर यही स्कूल बना. पंडिज्जी बनाम मास्साब यानी प्रभुदयाल जी के हाथ में हमेशा एक छड़ी रहती थी, लेकिन उसका इस्तेमाल वे सिर्फ हवा में घुमाने या दीवार पर फटकार कर आवाज़ मचाने के लिए करते थे,जिसे सुनकर शोर मचाते बच्चे दम से चुप हो जाते. लेकिन स्वभावत: कुछ देर बाद शोर धीरे-धीरे फिर से अपनी उसी रफ्तार पर आ जाता. स्कूल मजेदार था और माहौल शानदार. पढ़ाई हमें, पढ़ाई कम और खेल ज्यादा लगती. गिनती सीखते तो सब बच्चे एक साथ चीखते हुए, ’एक दो तीन’ चिल्लाते. स्लेट पर सलेटी से ‘अ आ’ बनाने की कोशिश में कार्टून जैसा कुछ बन जाता. खुद ही बनाते और खुद ही देखकर, खुद पर ही हंसते. दिन अच्छे गुजर रहे थे.
एक दोपहर अचानक किसी ने स्कूल का दरवाजा भड़भड़ाया. मास्टरजी छड़ी घुमाते हुए दरवाजे तक पहुंचे और सांकल खोली. दरवाजे को धक्का मारकर एक आदमी भीतर घुस आया. वो बहुत घबराया हुआ और पसीने-पसीने दिखाई दे रहा था. उसने प्रभुदयाल जी को क्या कहा, सो तो बच्चे समझ नहीं पाए, लेकिन मास्टरजी के चेहरे पर हवाइयां सी उड़ती दिखाई दी. मास्टरजी दरवाजे से ही चिल्लाते हुए लपक कर हमारी तरफ आए और हाथ हवा में उछालते हुए कहा, ‘जाओ जाओ, तुम्हारी छुट्टी, सब बच्चे घर जाओ.’
छुट्टी के नाम पर बच्चों में जोश तो आना ही था. सो शोर मचाते हुए बच्चे अपनी-अपनी स्लेट-पेंसिल उठाकर दरवाजे की तरफ जाने की जल्दी मचाने लगे. इसी बीच मास्टरजी ने फिर से चिल्लाकर कहा, ‘शोर नहीं, शोर नहीं. सब चुपचाप जाओ. आवाज़ नहीं करना.’मास्टरजी के शब्दों ने तो नहीं, लेकिन उनकी घबराहट ने काम किया और बच्चे एकदम चुप होकर दरवाजे से बाहर निकलने लगे. मेरी और अपनी स्लेट-पेंसिल और ‘अ आ’ की पोथी अल्म्यूनियम के छोटे से बक्से में रखकर, मुन्नी ने उसे सिर पर रखा और मुझे चलने का इशारा किया. हम दोनों स्कूल से बाहर आ गए. सड़क पर कुछ लोग बेवजह इधर-उधर दौड़ रहे थे. क्या हो रहा है कुछ समझ में नहीं आया. कुछ ही कदम चलकर हम पनवाड़ी की दूकान तक पहुंच गए. दूकान बंद थी. सामने रेतीले मैदान के उस पार अपना घर दिखाई दिया. बाहर बरामदे में बाउजी और कई सारे लोग खड़े थे. हमें देखते ही बाउजी के एक पार्टनर घासीराम जी डोलिया जोर से चिल्लाए. उनके साथ बाउजी, हरिशंकर भाईसाब और एक-दो और लोग भी चिल्लाए. मेरी कुछ समझ में नहीं आया. मुड़कर देखा, तो पीछे एक आदमी को दौड़कर अपनी तरफ़ आते हुए पाया. आदमी चौखाने वाले तहमत और बनियान में था. उसके उठे हुए हाथ में एक बड़ा सा नंगा छुरा था. मैंने घर की तरफ़ देखा कि बाउजी और उनके पीछे दो-तीन लोग हमारी तरफ़ दौड़ते हुए आ रहे हैं. तहमत वाले आदमी ने एकाएक पलटी मारी और वो दूसरी दिशा में मुड़ गया. बाउजी ने दौड़कर हमें अपनी बाहों में समेटा, पीछे-पीछे आते हरिशंकर भाईसाब ने मुन्नी के हाथ से स्कूल का बस्ता लिया और लगभग हमें घसीटते हुए घर की तरफ़ ले चले. बरामदे का बड़ा फाटक बंद था. उसे खोलकर हमें अंदर धकेला गया और फाटक फिर से बंद हो गया.
मैं और मुन्नी बस चकित थे, क्योंकि समझ कुछ नहीं पा रहे थे. सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुंचे तो देखा, छोटू को गोदी में लिए भाभी मुंडेर के पास खड़ी सड़क की तरफ़ उलझन भरी नज़रों से ताक रही थी. बुआजी ने पीछे से आकर हमें अपनी बांहों में समेटा और जाने क्यों रोने-रोने को हो आई. शायद उन्होंने छत पर से हमारे पीछे छुरा लेकर आते आदमी को देख लिया था.
इस घटना और इन बातों का पूरा मतलब समझने जितनी उम्र तब नहीं थी मेरी. लेकिन बाद में धीरे-धीरे बहुत कुछ समझ में आया.
भीलवाड़ा के रेलवे स्टेशन पर चौबीस घंटे में केवल दो बार ट्रेन आती थी. एक रात को डेढ़ बजे, मऊ जंक्शन से अजमेर की तरफ़ जाती थी और दूसरी दिन में डेढ़ बजे अजमेर से मऊ जंक्शन आती थी. दोनों बार छोटी लाइन की रेल के इंजन की सीटी सुनकर सारा भीलवाड़ा जान जाता कि गाड़ी आई है. दिन में गाड़ी आने के कुछ देर बाद सड़क पर हलचल बढ़ जाती थी. कभी कोई तांगा या बैलगाड़ी और नहीं तो सिर पर सामान लादे हुए कुछ लोग-लुगाई सड़क पर दिखाए दे जाते थे. उस दिन भी दोपहर को जब गाड़ी आई,तो उसमें बड़ी तादाद में सिंधी शरणार्थी भरे हुए थे. जिनमें से कुछ भीलवाड़ा के स्टेशन पर ही उतर गए. उनके शहर में प्रवेश करने की ख़बर फैलते ही दंगाईयों ने मोर्चा खोल दिया.
उस रात घर का माहौल अजीब हलचल भरा था. बाउजी कभी ऊपर आते, आलमारी खोलते और फिर नीचे चले जाते. नीचे चौक में भी कई लोगों की आवाज़ें आ रही थीं. हमें सख़्त ताक़ीद कर दी गई थी कि ऊपर ही रहें. हमें खाना खिलाकर जल्दी ही बिस्तर में सुला दिया गया और हम भी बहुत सारे सवालिया निशानों से लड़ते-लड़ते सो गए. रात जल्दी सोए थे, सो सुबह आंख भी जल्दी खुल गई. सूरज शायद अभी-अभी निकला था. सबकुछ पीली रोशनी में नहाया हुआ सा था. मैंने और मुन्नी ने नीचे जाने का प्रोग्राम बनाया. ऐसा लग रहा था कि अब भी घर में बहुत सारे लोग हैं, लेकिन सुबह की सुस्ती माहौल में भरी हुई थी. नीचे के चौक में आगे-पीछे बरामदे थे. पीछे वाले बरामदे में दो कमरे, बायें हाथ को ऊपर जाने वाली सीढ़ियां और दाएं हाथ को एक दरवाज़ा था, जो बगल वाले बड़े हॉल में खुलता था, लेकिन अक्सर बंद रखा जाता था; क्योंकि हॉल को दूकान बनाने की तैयारियां हो रही थी और उसका रास्ता बाहर के बरामदे से ही रखा गया था.
अजमेर में ‘अजमेर सोप फैक्ट्री’ का एक कारखाना था. उसी की ब्रांच बाउजी और उनके पार्टनर मिलकर भीलवाड़ा में खोलने वाले थे. बड़े हॉल के आधे हिस्से को साबुन जमाने और टिक्कियों में काटने के लिए कारखाने की तरह इस्तेमाल किया जाना था और आगे का हिस्सा साबुन बेचने के लिए दूकान की तरह काम आने वाला था.
मैंने और मुन्नी ने हॉल की तरफ़ खुलने वाले बंद दरवाज़े से कुछ बच्चों के रोने, कुछ औरतों और आदमियों के बात करने की आवाज़ें सुनी. जिज्ञासा को रोकना बहुत मुश्किल था, सो दरवाज़े की झिरी से झांककर हॉल के भीतर का हाल देखा. भीतर बहुत सारे लोगों की भीड़ दिखाई दी. समझ में नहीं आया कि ये कौन लोग हैं और क्या कर रहे हैं. ऊपर के छज्जे से बुआजी ने हमारी जासूसी को देख लिया. वहीं से चिल्लाई, “ए मुन्ना-मुन्नी, कई ताक-झांक कर रिया हो. चलो ऊपर आओ झटपट.”
मुन्नी तो करीब-करीब सहम गई, लेकिन मैंने ऊपर देखते हुए कहा, “बुआजी, भीतर बहोत लोग हैं.”
“कोई नी, तू रैवा दे. ऊपर आओ दोन्यू.”
2 comments:
सर,ताने बाने काफी रोचक मोड ले रहा है...
सर,ताने बाने काफी रोचक मोड ले रहा है...
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