मुझे आकाशवाणी, बीकानेर ने ड्रामा कलाकार के तौर पर चुन तो
लिया था, मगर अब तक किसी प्रोग्राम के लिए नहीं बुलाया था. अब चूंकि मैं बीकानेर
के प्रोफेशनल स्टेज पर काम करने लगा था, मुझे अपने आप में कई गलतियाँ महसूस होने
लगी थीं. मुझे लग रहा था कि आकाशवाणी मुझे किसी प्रोग्राम के लिए बुलाये, उससे
पहले जहां तक हो सके, भाषा के वो दोष जो मुझमें हैं, दूर कर लेने चाहिए. स्टेज पर
जिन कलाकारों के साथ मैं काम कर रहा था, उनमें से ज़्यादातर पर तो मुझसे ज़्यादा राजस्थानी भाषा का असर था. बीकानेर
में
मुझे कोई डायरेक्टर भी ऐसा नज़र नहीं आ रहा था, जो कि मेरी खामियों को दूर कर
सके. स्कूल की बड़ी क्लास में आने के बाद से इंसान अक्सर यार दोस्तों के साथ ज़्यादा
रहता है. स्कूल में तो जो लोग मेरे साथ थे, सब राजस्थानी में ही हिन्दी अंग्रेज़ी
सब बोलते थे, कॉलेज में मेरे हरी ओम ग्रुप के दोस्तों में से अशोक, महावीर, हरि
कृष्ण मुंजाल पर पंजाबी भाषा सवार थी और बाकी पर मारवाड़ी. मुझे लगा कि अगर मुझे
कहीं से एक टेप रिकॉर्डर मिल जाए, तो मैं खुद को थोड़ा ठीक कर सकता हूँ. लेकिन सवाल
ये था कि टेप रिकॉर्डर आये कहाँ से? आजकल के नौजवानों को ये बात बड़ी अजीब सी लगेगी,
क्योंकि आजकल तो हर बच्चे के पास मोबाइल होता है और हर मोबाइल में एक रिकॉर्डर
होना ज़रूरी है. रिकॉर्डर अमूमन रेडियो स्टेशन पर ही होते थे और वो भी बड़े बड़े.
मुझे याद है, कुछ वक्त पहले सरहदी गांधी
खान अब्दुल गफ्फार खान ने बीकानेर का दौरा किया था. मैं भी उनका भाषण सुनने
स्टेडियम गया था और इत्तेफाक से डायस के बिलकुल पास ही बैठा था. मैंने देखा
आकाशवाणी के लोग जो रिकॉर्डर लेकर आये थे, उन्हें दो दो लोगों ने उठा रखा था. तो
बड़ा मुश्किल था, टेप रिकॉर्डर का इंतजाम करना.
मेरे भाई साहब के मेडिकल कॉलेज के कुछ बहुत जिगरी दोस्त थे,
डॉक्टर रविन्द्र गहलोत, डॉक्टर पूनम शर्मा, डॉक्टर पूनम जोशी, डॉक्टर कैलाश नारायण
पाण्डेय, डॉक्टर प्रदीप गुप्ता, डॉक्टर राजेन्द्र शर्मा, डॉक्टर राम चंद्र शर्मा,
डॉक्टर राधा किशन सोनी, डॉक्टर राधा किशन सुमन, डॉक्टर नवल किशोर पारीक वगैरह
वगैरह. जब तक ये मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे थे, अक्सर सभी हमारे घर आते रहते थे. एम्
बी बी एस पास करने के बाद इनमें से कुछ एम् एस या एम् डी करने में जुट गए, कुछ
लोगों की पोस्टिंग भाई साहब की ही तरह छोटे छोटे गाँवों में हो गयी. वैसे तो ये
सभी डॉक्टर भाई साहब के जिगरी थे, मगर रवि भाई साहब(डा. रविन्द्र गहलोत), कैलाश
भाई साहब, पूनम जोशी भाई साहब और पूनम शर्मा भाई साहब ऐसे लोग थे, जो कॉलेज के
दिनों में अक्सर हमारे घर रहकर भाई साहब के साथ ही पढाई किया करते थे. जिस तरह इन
चारों का हमारे घर में आना जाना था, ठीक उसी तरह भाई साहब का भी इनके घरों में आना
जाना था. यहाँ तक कि मैं भी इन सबके घर, बिलकुल अपने दोस्तों के घर की तरह आया जाया
करता था. खास तौर पर रवि भाई साहब के तो घर का हिस्सा ही बन गया था मैं . उनकी माँ
को हम लोग बाई कहते थे और पिताजी को बाऊजी. उन दिनों उनकी दादी जी भी ज़िंदा थीं.
सभी लोग मेरा बहुत लाड रखते थे. उनके भाई बहन सरला जीजी, शशि, गजेन्द्र, मानो मेरे
सगे भाई बहन ही थे. मैं अक्सर उनके घर आया जाया करता था. रवि भाई साहब घर हैं या
नहीं, इसका मेरे जाने आने पर कभी कोई फर्क नहीं पड़ा. रवि भाई साब शुरू से ही बहुत
तेज दिमाग़ के इंसान रहे थे. कभी कभी बीकानेर के रेलवे फाटक के पास खड़े होते और
कोई मालगाड़ी गुजर रही होती तो उनपर लिखी हुई दस-बारह अंकों की संख्याओं को जुबानी
जोड़ने लगते और बहुत तेज़ी से वो ये काम कर लिया करते थे. एक चीज़ उनकी बहुत बड़ी
दुश्मन हुआ करती थी, नींद. कई बार वो हमारे घर आकर रात में वहीं रहते थे पढाई के
लिए. दस बजते बजते उनको नींद आने लगती थी. अब मेरी शामत आती थी. वो मुझसे कहते
“महेंदर तू तो अभी देर तक पढेगा, मुझे मालूम है. तू ऐसा करना, मुझे एक बजे उठा
देना...... और हाँ भायला एक कप चाय भी बना देना, ताकि मेरी नींद उड़ जाए.”
मैं कहता “भाई साहब प्लीज़ आप कोई और काम सौंप दो मुझे, आपको
उठाना बहुत भारी काम है, आप उठते ही नहीं हो”
हमेशा उनका यही जवाब होता था “आज उठ जाऊंगा, पक्का उठ
जाऊंगा, आज तुझे बिलकुल तंग नहीं करूँगा.”
मैं क्या कहता और कहता भी तो वहाँ सुनता कौन, क्योंकि आखिरी
जुमले का आखिरी लफ्ज़ पूरा करने से पहले तो उन्हें खर्राटे आने लगते थे. रात में एक
बजे उन्हें उठाने से पहले चाय बनाता. अब शुरू होती मशक्कत उन्हें उठाने की. मैं
आवाजें देता, उन्हें पकड़कर जोर जोर से हिला देता, लेकिन उनकी नींद नहीं टूटती थी.
वो नींद में ही बडबडाते रहते “पन्द्रह मिनट और सो लेने दे प्लीज़”. मैं कहता “आधा
घंटा हो गया है आपको उठाते उठाते.” कभी कभी तो बहुत जोर से डांट दिया करते थे,
लेकिन उससे क्या होता? उन्हें उठाने की ड्यूटी तो पूरी करनी ही होती थी. किसी तरह
झिन्झोड़कर, उन्हें चाय का कप हाथ में पकड़ा देता. वो कहते “अब तू जा सो जा, मैं उठ
गया हूँ.” मैं पूछता “आप अच्छी तरह से होश में आ गए हैं ना?” उनका जवाब होता “हाँ
यार जाग गया हूँ, अब क्या स्टाम्प पेपर पर लिख कर दूं तुझे?” मैं अपने कमरे में
जाकर सो जाता. सुबह नींद खुलती थी, डॉक्टर रविन्द्र गहलोत के चिल्लाने से. वो
मुझपर चिल्ला रहे होते थे कि मैंने उन्हें रात को उठाया ही नहीं. और सच बताऊँ, वो
जीनियस डॉक्टर तब भी बहुत जीनियस था और आज भी बहुत जीनियस है, लेकिन साथ ही ये भी
एक हकीकत है कि वो उस वक्त भी बहुत खब्ती थे और आज भी उतने ही खब्ती हैं. एम् बी
बी एस करने के बाद उनकी पोस्टिंग, झालावाड के पास एक छोटे से गाँव में हो गयी थी.
वो जा चुके थे, लेकिन मेरा उनके घर आना जाना बदस्तूर जारी था. इधर कैलाश भाई साहब
की पोस्टिंग भी एक छोटे से गाँव में हो गयी थी, जहां अपने स्टाफ की एक नर्स के साथ
प्रेम सम्बन्ध हो गया. किसी एक से सम्बन्ध जुड़ने का अर्थ बाकी पूरी दुनिया से
ताल्लुक तोड़ लेना तो नहीं होता, लेकिन न जाने क्यों उन्होंने बस वो एक सम्बन्ध
क्या जोड़ा, पूरी दुनिया से नाता तोड़ लिया. अभी कुछ महीने पहले मेरे भाई साहब के
निधन से एक महीने पहले जब भाई साहब मुम्बई आये हुए थे तो ४२ साल बाद पता नहीं डॉक्टर
कैलाश नारायण जी को क्या उपजी कि उन्होंने भाई साहब के मोबाइल पर फोन किया और भाई
साहब के साथ साथ मुझसे भी डेढ़ दो घंटे तक बात की.
पूनम शर्मा भाई साहब के बड़े भाई भागीरथ जी, जो पहले टेलीफोन
ऑपरेटर थे, राजस्थान एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेज़ में आ गए थे और किसी ट्रेनिंग के
लिए कुछ दिन इंग्लैण्ड गए थे. जब वो इंग्लैण्ड से लौटे तो अपने डी ए में से कुछ
पैसे बचाकर एक चीज़ खरीद् करके लाये. वो चीज़ थी एक छोटा सा कैसेट रिकॉर्डर. पूनम
भाई साहब वो कैसेट रिकॉर्डर लेकर हमारे घर आये. मैंने उसे हाथ में लिया तो मुझे
लगा, मुझे भी ऐसा ही रिकॉर्डर चाहिए. उन्होंने उसे एक पूरे दिन के लिए मेरे
सुपुर्द कर दिया. मैं बार बार अपनी आवाज़ उसपर रिकॉर्ड करके सुनता रहा. लेकिन पराई
चीज़ तो आखिर पराई चीज़ ही ठहरी. शाम को वो रिकॉर्डर मुझसे बिछड गया. भाई साहब ने जो
पीलवा से बीकानेर आये हुए थे, मेरी आँखों में उस रिकॉर्डर के प्रति उठ रहे मोह को
देख लिया था. उन्होंने मुझसे वादा किया कि चाहे कहीं से भी मंगाना पड़े, वो मुझे एक
कैसेट रिकॉर्डर ज़रूर दिलवाएंगे. मुझे लगा, उनके कहने से ही रिकॉर्डर नहीं आ जाता
है. उनकी भी नौकरी लगे कुछ ही तो महीने हुए थे. पिताजी भी रिटायर हो चुके थे.
रिकॉर्डर खरीदने के लिए पैसा कहाँ से आएगा ? मैं बस ठंडी सांस भरकर रह गया.
पूनम भाई साहब जोधपुर चले गए थे और भाई साहब पीलवा. थोड़े ही
दिन बाद भाई साहब ने समाचार करवाए कि
उन्हें कुछ दिन के लिए फलौदी लगाया गया है और फलौदी में किसी के पास एक टेप
रिकॉर्डर कम रेडियो है जिसे उन दिनों टू इन वन कहा जाता था. वो उसे बेचना चाहता है.
मैं एक बार फलौदी जाकर उसे देख लूं. अगर वो मेरे काम का होगा तो भाई साहब मेरे लिए
वो खरीद देंगे. मैं भी कॉलेज में आते ही ट्यूशंस करने लगा था, क्योंकि मेरा हमेशा
ये मानना रहा कि हर स्टूडेंट को कॉलेज की अपनी पढाई के साथ साथ ट्यूशन पढ़ानी
चाहिए. होता ये है कि जब हम स्कूल में होते हैं तो मार्क्स स्कोर करने के हिसाब से
पढाई करते हैं, जिसमें कोर्स के कुछ नापसंद हिस्से हम छोड़ देते हैं. आगे जाकर
नौकरी के लिए हम जो भी इम्तहान देते हैं, उनकी बुनियाद स्कूल की पढाई ही होती है.
ऐसे में वो छोड़े हुए हिस्से हमें बहुत परेशान करते हैं. अब अगर हम १०वीं ११वीं के
बच्चों को ट्यूशन पढायेंगे तो पढ़ाते वक्त तो सारा ही कोर्स पढ़ाना पडेगा. इस तरह
हमारी पीछे की रही कमियां दूर हो जायेंगी. इसके साथ साथ कुछ पैसा जेब में आने लगता
है तो इंसान कम से कम अपने कुछ खर्च खुद उठा सकता है. मुझे
लगा, यहाँ तो एक रिकॉर्डर खरीदने पर भी सवाल खडा हो रहा था कि इतने पैसे कहाँ से
आयेंगे? इसमें तो रेडियो भी साथ में है, तो ये तो और भी महंगा होगा. इतने पैसों का
इंतजाम मैं और भाई साहब कहाँ से करेंगे? एक बार सोचा कि उन्हें मना करवा दूं,
लेकिन फिर सोचा एक बार फलौदी हो आता हूँ. इस बहाने एक दो दिन भाई साहब के साथ रहना
हो जाएगा. रही रिकॉर्डर की बात तो उसके लिए वहाँ जाकर भी मना किया जा सकता है.
मुझे क्या पता था कि कुदरत इस सफर के बहाने मेरी झोली में एक ज़बरदस्त तजुर्बा
डालना चाहती है.
बीकानेर से बस पकड़कर मैं फलौदी पहुँच गया. उन दिनों न तो
सड़कें आज जैसी अच्छी हुआ करती थीं और न ही बसें बहुत तेज चलने वाली. बीकानेर से
कोलायत, भाप होते हुए फलौदी पहुँचने में करीब सात घंटे लगा करते थे. मैं सुबह आठ
बजे रवाना हुआ था और दिन में तीन बजे फलौदी पहुँच गया था. भाई साहब वहाँ डाक बंगले
में रह रहे थे. मुझे लेने बस स्टैंड पर आ गए थे. मैं उनके साथ डाक बंगले चला गया.
शाम को एक साहब एक बड़ा सा टू इन वन लेकर आए. मैंने देखा सोनी का बहुत अच्छा सैट
था. हालांकि सैकंड हैंड था, लेकिन देखने में बिलकुल नया लग रहा था. मुझे लग रहा था,
ये काफ़ी महंगा होगा. भाई साहब ने पूछा “क्यों.......पसंद है?” मैं तो मन ही मन में
उसकी कीमत का अंदाजा लगा रहा था. हडबडा कर बोला “दिखाई तो बहुत अच्छा दे रहा है
लेकिन..........” मैं बात पूरी करूं उससे पहले ही जो साहब वो टू इन वन लेकर आए थे,
बोले “आप दो दिन बजा कर देख लो, रिकॉर्ड करके देख लो. कोई दिक्कत नहीं है, घर की
ही बात है.” भाई साहब बोले “ठीक है, आप आज इसे यहीं छोड़ दीजिए, आपको कल तक बता
देंगे कि हम इसे खरीद रहे हैं या नहीं.” वो साहब उसे हमारे पास छोड़कर चले गए.
मैंने रेडियो चलाकर देखा, कैसेट रिकॉर्डर बजा कर देखा, उस पर रिकॉर्डिंग करके
देखा. हर कसौटी पर वो खरा उतर रहा था. उस रात मैं शायद एक डेढ़ घंटे से ज्यादा नहीं
सो पाया. बाकी टाइम टू इन वन को ही जांचता रहा. सुबह भाई साहब हस्पताल चले गए और
मैं फिर जुट गया उसी रिकॉर्डर में. दोपहर में भाई साहब वापस आए तो पूछने लगे
“क्यों ठीक है ये? कोई खराबी तो नहीं है इसमें?” मैंने कहा “ खराबी तो कुछ भी नज़र
नहीं आ रही, लेकिन ये बहुत महंगा होगा. आपको कितनी कीमत बता रहे हैं वो ?” भाई
साहब हंसकर बोले “तू उसकी चिंता मतकर. मेरी बात हो गयी है उनसे. मैं तीन चार महीने
में थोड़े थोड़े करके उनको रुपये दे दूंगा. अगर तुझे पसंद है, तो तू इसे ले जा.”
मैंने कहा “ नहीं नहीं, इसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी डा. साहब, मेरे ट्यूशन से कमाए कुछ
रुपये रखे थे मेरे पास, वो लाया हूँ मैं, हाँ जो कम पड़ें वो आप दे देना.” इस तरह
मेरे बचाए हुए रुपये और भाई साहब की इतने महीनों की बचत हम दोनों ने उन साहब को
सौंप दी, जिनका वो टू इन वन था. उसी रात भाई साहब को किसी मीटिंग के लिए जोधपुर
जाना था, इसलिए तय किया गया कि वो अपनी सरकारी जीप से जोधपुर निकल जायेंगे और मैं रात
की बस पकड़कर, उस टू इन वन को लेकर बीकानेर चला जाऊंगा. बस रात दस बजे रवाना होने
वाली थी ९ बजे भाई साहब ने अपनी जीप से मुझे बस स्टैंड पर छोड़ दिया और खुद जोधपुर
के लिए रवाना हो गए. मुझे वहाँ बैठे कोई पांच मिनट हुए होंगे कि एक बूढा सा दाढ़ी
वाला इंसान मेरे करीब आया. उसके हाथ में कुछ पत्रिकाएं थीं. मेरे पास आकर वो बोला
“बेटा एक पत्रिका खरीदोगे क्या?”
मैंने कहा “बाबा बस इतनी हिलती है, ऊपर से रात का सफर है,
क्या करूँगा पत्रिका लेकर? कल भी रात को सो नहीं पाया था, आज थोड़ी नींद
निकालूँगा.”
बाबा मुस्कुराया और बोला “हाँ बेटा नींद बहुत ज़रूरी है
इंसान के लिए, लेकिन पेट खाली हो तो कम्बख्त नींद भी नहीं आती.”
मैंने कहा “बाबा मैं आपका मतलब नहीं समझा.”
बाबा बोला “ देखो बेटा कोई ज़बरदस्ती नहीं है.......लेकिन
तुम मुझसे मतलब पूछ रहे हो तो बता रहा हूँ कि मैं एक प्राइवेट स्कूल में टीचर था.
जो कुछ कमाता था, बच्चों पर खर्च कर देता था. रिटायर हुआ तो मुझे जो पैसा मिला
उससे बच्चों को काम शुरू करवा दिए, यही सोचकर कि बच्चे कुछ कमाएंगे तो मुझे भी
बुढापे में दो वक्त की रोटी नसीब हो जायेगी. अब मैं बिलकुल खाली हो गया था. थोड़े
ही दिन बाद मेरी बीवी को ऊपर से बुलावा आ
गया. वो मुझे इन बच्चों और बहुओं के हाथों में छोड़कर चल दी.”
मैंने देखा बाबा की आँखें छलछला आई हैं. मुझे समझ नहीं आया
कि बाबा को क्या कहूँ. कुछ लम्हों तक अपने आपको संभालने की कोशिश करने के बाद वो
बाबा बोला “मेरी बीवी के जाते ही मैं बहुओं की नज़रों में चुभने लगा. एक दिन मुझे
अपने ही उस घर से निकालकर बाहर फेंक दिया गया.”
“फिर अब कहाँ रहते हो बाबा? और क्या खाते हो?”
“ये बस अड्डा ही अब मेरा घर है बेटा. यहाँ के एक बुकसेलर से
ये पत्रिकाएं ले आता हूँ और इन्हें बेचकर जो कुछ कमीशन मिलता है, उसी से दो रोटी
सुबह और दो शाम को खा लेता हूँ. और मुझे चाहिए भी क्या? लेकिन बेटा आज एक भी
पत्रिका नहीं बिकी, इसलिए सुबह से अन्न का एक दाना भी पेट में नहीं गया है. खाली
नल का पानी पीकर भी कब तक पीऊँ? पानी भी तभी अच्छा लगता है जब पेट में अनाज हो.”
ये कहकर बाबा ने अपनी धोती के पल्लू से अपनी आँखें पोंछ ली. मैंने कहा “लाओ बाबा
आप कोई एक पत्रिका दो मुझे. अभी रास्ते में ना सही बीकानेर पहुंचकर पढ़ लूंगा” बाबा
ने नीहारिका का नया अंक निकालकर मुझे दे दिया. मैंने जेब से दो रुपये निकालकर बाबा
के हाथ पर रख दिए. नीहारिका मेरी पसंदीदा, कहानियों की मैग्जीन थी. बाबा ने रुपये
लिए और ढेर सारे आशीर्वाद देते हुए वो चला गया. मुझे लगा कि बाबा को बहुत जोर से
भूख लगी थी, वो निश्चित रूप से खाना खाने बस अड्डे के ढाबे की तरफ गया होगा. बस
में अभी भी आधा घंटा बाकी था. मैं म्युनिस्पैलिटी के बल्ब की अंधी अंधी रोशनी में,
नीहारिका के पन्ने पलटने लगा. उस रोशनी में दो पेज पढ़ने में करीब बीस मिनट निकल
गए. तभी देखा बस लग रही थी. मैं जाकर ड्राइवर के बिलकुल पीछे वाली सीट पर बैठ गया,
क्योंकि वहाँ पाँव रखने के लिए काफी जगह होती है और उस जगह में मैं अपना टू इन वन
रख सकता था. ड्राइवर मेरी तरफ देख कर मुस्कुराया और पूछा “नया लिया है क्या?”
मैंने बताया कि नहीं सैकंड हैंड है. तो बड़ी तारीफ़ वाली नज़रों से देखकर बोला “
बाबूजी लगता तो बिलकुल नया है.”
थोड़ी ही देर में बस भर गयी और चल पडी बीकानेर की ओर. पिछली
रात की नींद बाकी थी, इसलिए बस के हिलने से मुझे झपकियाँ आने लगीं. थोड़ी देर तक
मैं झपकियाँ लेता रहा लेकिन वहाँ कोई पलंग तो बिछा हुआ नहीं था कि मैं आराम से सो
जाऊं. बस की सीटें बहुत खराब हालत में थी, इस वजह से मेरी पीठ में दर्द होने लगा
था. बस भाप पहुँचने वाली थी कि मैंने तय कर लिया, अब सोऊँगा नहीं. मुझे याद आई
नीहारिका की. मैंने बैग में से नीहारिका निकाली और पढ़ने की कोशिश करने लगा. लेकिन
मेरी सीट के ऊपर लाल रंग की लाइट लगी हुई थी, जिसकी रोशनी में पढ़ना मुमकिन नहीं
था. मैंने इधर उधर निगाह डाली. चौथी लाइन में ड्राइवर के उल्टी तरफ यानि कंडक्टर
साइड में जो दो की सीट थी, उसके बिलकुल ऊपर पीलापन लिए हुए सफ़ेद लाइट लगी हुई थी.
मुझे लगा कि अगर वो सीट मिल जाए तो मैं बीकानेर पहुँचने तक नीहारिका पढ़ सकता हूँ.
मगर उस सीट पर तो एक पगड़ी वाला बैठा हुआ था. मैं ये सब सोच ही रहा था ड्राइवर साहब
ने मुझसे हँसते हुए पूछा “क्या हुआ बाबूजी नींद पूरी हो गयी?”
मने कहा “नहीं यार कल रात बिलकुल सोया नहीं हूँ, बहुत जोर
से नींद आ रही है लेकिन बस की सीटें बहुत खराब है, पीठ दुखने लगी है.”
ड्राइवर जोर से हंसा और बोला “ बाबूजी, कभी आपने हमारे बारे
में सोचा है? पूरी रात बिना सोये बस चलाते हैं हम लोग.”
मैंने कहा “भाई अपना अपना काम है ये तो. आपने ये नौकरी करना
तय किया है तो रात की नींद तो कुर्बान करनी ही होगी.”
“हाँ साहब आप ये कह सकते हैं, मैं भी जब आपकी उम्र का था,
खूब पढता था. चाहता था कि फ़ौज में जाऊं, लेकिन घर के हालात कुछ इस क़दर बिगड़े कि
प्राइवेट बस का ड्राइवर बन कर रह गया. वैसे आप क्या करते हैं बाबूजी?”
मैंने कहा, “भाई , कॉलेज में पढता हूँ. और हाँ रेडियो का
आर्टिस्ट हूँ” पता नहीं यहाँ ये कहने की क्या ज़रूरत थी,लेकिन अब तो कह गया था.
ड्राइवर फ़ौरन बोला “अरे हाँ, आप बोलते हैं तो लगता है
रेडियो सुन रहा हूँ. मेरे भी एक बेटा और एक बेटी है. दोनों पढ़ने में बहुत होशियार
हैं. मैं चाहता हूँ कि वो मेरी तरह ड्राइवरी न करे. मेरी बेटी की बोली भी बहुत
मीठी है, क्या वो भी रेडियो में काम कर सकती है?”
मैंने कहा “क्यों नहीं? अगर उसकी आवाज़ अच्छी है और जुबान
साफ़ है तो वो भी रेडियो पर काम कर सकती है.”
ड्राइवर मुझसे इसी तरह की बातें कर रहा था कि बस भाप पहुँच
गयी. जैसे ही बस भाप में रुकी, जिस सीट पर मेरी निगाह थी उस पर बैठी हुई सवारी उठी
और अपना सामान समेटकर नीचे उतर गयी. मैं फ़ौरन खडा हुआ और अपना बैग लेजाकर उस सीट
पर रख दिया. इधर मैंने चौथी लाइन की कंडक्टर साइड की सीट पर बैग रखा और उधर एक
आदमी आकर मेरी, ड्राइवर के बिलकुल पीछे वाली सीट पर बैठने लगा. ड्राइवर ने उसे
रोका और मेरी तरफ इशारा किया कि वो मेरी सीट है, तभी मैं आगे की तरफ आया और सोचने
लगा कि अपने टू इन वन का क्या करूं ? वो तो पीछे वाली सीट में फिट होगा नहीं.
ड्राइवर मुझसे बोला “ बाबूजी यहीं बैठो ना? पीछे झटके लगेंगे.”
मैंने कहा “भैया यहाँ लाइट सही होती, तो यहीं बैठता, दरअसल
अब सोना नहीं चाहता और मेरे पास एक पत्रिका है, उसे पढ़ना चाहता हूँ. इसलिए भाई
बैठूंगा तो वहीं, लेकिन इस टू इन वन को कहाँ रखूँ?”
उसने फिर एक बार इसरार किया “अरे बाबू जी इसकी फिकर आप मत
करो मैं ध्यान रख लूंगा लेकिन बहुत झटके लगेंगे वहाँ, आप दुखी हो जायेंगे. और हाँ,
आपसे बातें करके बहुत अच्छा लग रहा था. नींद उड़ गयी थी, आप यहाँ से उठकर जायेंगे
तो कहीं ऐसा न हो कि मुझे नींद आने लग जाए.”
फिर ज़रा सा मुस्कुराते हुए बोला “ज़रा सोचिये कि मुझे नींद आ
जायेगी तो क्या हो जाएगा?”
मुझे लगा कि रोजाना ड्राइवरी करने वाला इंसान, भला उसे क्या
नींद आयेगी ? वो मुझसे मजाक कर रहा है शायद. मैं अपनी जिद पर अडा रहा कि मुझे तो
नीहारिका पढनी है और वो मैं पीछे की सीट पर जाकर ही कर सकता हूँ. मैं बस पीछे आकर
बैठ गया और नीहारिका पढ़ने लगा.
मुझे बाद में समझ आया कि उसने अपने सफर में, मुझे अपना साथी
बनाने की भरपूर कोशिश की थी, लेकिन होता तो वही है ना, जो मंजूरे खुदा होता है.
बस भाप से निकल कर कोलायत की तरफ चल पडी. कोलायत की
रोशनियाँ नज़र आने लगी थीं कि अचानक ज़ोरदार धमाका हुआ और पूरी बस एक दम उछल गयी. बस
में सब लोग सो रहे थे, लेकिन मैं तो नीहारिका पढ़ रहा था, इसलिए जाग रहा था. ज़ोरदार
झटका लगा, तो मैं एक दम से खडा हो गया. बस में घुप्प अन्धेरा हो गया था. मैंने
टटोलकर देखा कि मेरे आगे की सीट टूटकर मेरे पैरों पर आ गयी थी. जिस सीट पर मैं
बैठा था, वो भी टूटकर मेरे बराबर बैठी सवारी के भार से पीछे की तरफ गिर गयी थी. बस
का इंजन बहुत जोर से आवाज़ कर रहा था मानो न्यूट्रल में खड़ी बस का ऐक्सीलरेटर किसी
ने पूरा दबा दिया हो. पूरी बस में लोगों के चिल्लाने की आवाजें गूँज रही थीं. कुछ
देर मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया. फिर मैंने अपने हाथ, पैर, सर, सब चैक
किये...... मुझे कोई चोट नहीं लगी थी. अब मैंने सबसे पहले बस में से बाहर निकलने
की सोची. अँधेरे में टटोलते टटोलते मैंने दरवाज़ा ढूंढा और बाहर कूद पड़ा. मेरे
उतरने के दो ही मिनट बाद देखा कि एक शख्स और दरवाज़े से बाहर निकल रहा है. वो बस का
खलासी था.मेरी आँखें भी अब तक अँधेरे में देखने की थोड़ी आदी हो गयी थी. मैंने देखा,
पुराने स्टाइल के एक नाक वाले ट्रक और हमारी बस में कुछ इस तरह से टक्कर हुई थी कि
ट्रक का पूरा नाक, बस के दायें आधे हिस्से में घुस गया था. खलासी ने कहा “भाई साहब
लगता है, हम दो ही सही सलामत बचे हैं. सबसे पहले तो इस बस का इंजन बंद करना पडेगा,
वरना आग लग जायेगी. उसने बस के ऊपर चढ़कर पता नहीं कहाँ से, एक पाइप का टुकड़ा और एक
टॉर्च निकाली. हमने बस के डीज़ल टैंक का ढक्कन खोला और पाइप डालकर सारा डीज़ल बाहर
निकाला. इस काम में आधा घंटा लग गया.
इंजन के बंद होते ही बस के अंदर की चीख पुकार
और जोर से सुनाई पड़ने लगी. अब हम दोनों टॉर्च लेकर अंदर घुसे. ट्रक इतनी बुरी तरह
से बस के अंदर घुसा था कि ड्राइवर, उसके पीछे की दो लंबी सीटों पर बैठे ६ लोगों की
जगह बस मांस के लोथड़े नज़र आ रहे थे. पूरी बस की सीटों के नीचे कसे हुए स्क्रू टूट
गए थे और लोग सीटों के नीचे पड़े हुए चिल्ला रहे थे. मैंने और खलासी ने मिलकर खून
से लथपथ लोगों को बाहर निकाला और सड़क के किनारे के रेत के धोरों पर लिटाया. तभी एक
बस आती हुई दिखाई दी. मैंने हाथ देकर उसे रोका और बताया कि इस तरह एक्सीडेन्ट हो
गया है. फ़ौरन उस बस की सवारियों को कोलायत में उतार दिया गया और बस हमारे पास आ
गयी. जितने भी लोग ज़िंदा बचे थे, सबको उस बस में डाला गया. मैं एक्सीडेन्ट वाली बस
के आगे के हिस्से की तरफ गया तो मुझे जोर से चक्कर आ गया. अपने आपको थोड़ा सम्भाला,
तो देखा जिस जगह पर मैं फलौदी से भाप तक बैठा था और लाइट ठीक न होने की वजह जिस
जगह को छोड़कर पीछे आया था, वहाँ बैठे हुए इंसान के परखच्चे उड़ गए थे, ड्राइवर के
भी परखच्चे उड़ गए थे और मेरे सोनी के टू इन वन के भी परखच्चे उड़ गए थे. वो ड्राइवर
जो मुझसे वहीं बैठने का इतना इसरार कर रहा था, क्योंकि उस सीट पर बैठकर सफर आराम
से किया जा सकता था, न जाने किस सफर पर रवाना हो गया था.
हम लोग नई आई बस में सवार हुए.... न जाने कितने घायलों को
हमने उस बस में लादा और कितनी लाशों को....... मुझे कुछ होश नहीं था. लोगों की चीख
चिल्लाहट मुझे फिर एक बार सरदारशहर के कसाइयों के उस मोहल्ले में ले गयी थी जहां
रोज सुबह सुबह बकरों के बाड़े में से एक बकरे को निकाला जाता था तो सारे बकरे चिल्ला
पड़ते थे. उस बकरे को ज़िबह करने की जगह ले जाया जाता तो बाड़े में क़ैद बाकी बकरे एक
बार शायद ये सोचकर खामोश हो जाते थे कि चलो आज उनकी जान बच गयी. फिर जब उस बकरे को
ज़िबह किया जाता तो उसके हलक़ से एक दर्दनाक चीख उभरती थी और पूरे माहौल में गूँज जाती
थी. एक बार फिर से बाड़े में बंद सारे बकरे उस चीख के साथ आवाज़ मिलाते हुए चीख पड़ते
थे, शायद ये सोचकर कि आज बच गए तो क्या हुआ, हश्र तो हमारा भी यही होना है, आज
नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों. मुझे लगा, अगर मैंने उस बाबा से नीहारिका न ली होती
तो पहली लाइन की उस सीट को छोड़कर क्यों पीछे और उल्टी तरफ जाता? और अगर ड्राइवर के
बार बार कहने पर या अपने टू इन वन के मोह में उस सीट पर बैठा रहता, तो कहानी कुछ
और ही होती. मौत से एक बार फिर मैं इतनी नज़दीक से रूबरू हो चुका था, मौत जैसे बस
मुझे छूते हुए निकल गयी थी. लेकिन मौत से बड़ी हकीकत शायद इस दुनिया में और कोई
नहीं है. कब तक इंसान इससे बच सकता है?
मैंने सर झटककर इन ख्यालों को झटकने की कोशिश की. थोड़ा थोड़ा
उजाला होने लगा था. जैसे जैसे उजाला बढ़ रहा था बस के अंदर का मंज़र और खौफनाक होता
जा रहा था. मैंने अपने कपड़ों पर निगाह डाली. ज़ख़्मी लोगों को उठा उठा कर इधर उधर
करने में मेरे सारे कपडे खून से लाल हो चुके थे. हालांकि मुझे कहीं खरौंच भी नहीं
आई थी, लेकिन अपने कपड़ों को खून से तरबतर देखना मुझे बहुत डरावना लग रहा था. मैंने
फिर अपने दिमाग को काबू में करने की कोशिश की. देखा, जस्सूसर गेट आ रहा था. यानि
हम लोग बीकानेर में घुस रहे थे. अचानक मेरे ज़ेहन में आया, अब तक इंसानियत के नाते
जो करना चाहिए था, वो सब कर दिया. क्या ज़रूरी है कि पुलिस के सवाल जवाब के चक्कर
में पड़ा जाए? मैंने फ़ौरन फैसला ले लिया. जस्सूसर गेट पर एक सैकंड के लिए बस रुकी
और मैं बैग लेकर उतर पड़ा. बस मुझे छोड़कर हस्पताल गयी या पुलिस स्टेशन, मुझे कुछ
पता नहीं. मैंने अपनी तरफ से पुलिस से पीछा छुडा लिया था. मुझे कहाँ पता था कि
मेरी ज़िंदगी में आगे जाकर एक ऐसा हादसा होने वाला है, जिसकी बदौलत मेरी ज़िंदगी के
आठ बरस पुलिस और अदालत की नज़र हो जायेंगे.
जस्सूसर गेट पर रवि भाई साहब का घर था. मैं सीधा उनके घर
पहुंचा. घंटी का बटन दबाया. बाई (रवि भाई साहब की माँ) ने दरवाज़ा खोला. मेरे खून
से तरबतर कपडे देखते ही उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं. वो जोर से चिल्लाईं “ अरे
महेंदरा, कईं होग्यो रे ?(अरे महेंद्र क्या हो गया रे)...........” और धड़ाम से
बेहोश होकर गिर पड़ीं. बाऊजी आ गए, शशि भी आ गयी, दादी जी भी आ गईं. मैंने सबको बताया
कि एक्सीडेन्ट हुआ है, लेकिन मुझे ज़रा भी चोट नहीं लगी है. बाई के चेहरे पर पानी
छिड़क कर उन्हें होश में लाया गया और उन्हें बताया गया कि मैं बिलकुल ठीक हूँ. मुझे
ठीक देखकर उन्हें तसल्ली हुई. मैं दिन में नहा धोकर कपडे बदलकर अपने घर पहुंचा. दूसरे
दिन अखबार से पता लगा कि कुल आठ आदमी मारे गए थे इस हादसे में, जिनमें दोनों
गाड़ियों के ड्राइवर भी शामिल थे. एक बार फिर से कुचले हुए जिस्मों की तस्वीरें
मेरी आँखों के सामने थीं. बहुत दिन तक मैं ज़ेहनी तौर पर बहुत परेशान रहा.अक्सर रात
में मुझे ख्वाब में भी वही एक्सीडेन्ट दिखाई देता और मैं चौंक कर जाग जाता.
इंसानी दिमाग में कभी एक़ तो कभी उससे बिलकुल उलटा ख़याल आने
लगता है, ये उसकी फितरत है. एक ओर जहाँ मैं ये सोच रहा था कि अगर वो नीहारिका नहीं
खरीदता तो ड्राइवर के बिलकुल पीछे वाली सीट से नहीं हटता और मेरा भी वही हश्र होता
जो मेरी जगह आकर बैठने वाले शख्स का हुआ था, वहीं जेहन में ये भी आता है कि हो
सकता है ये एक्सीडेन्ट ड्राइवर को नींद की झपकी लगने से हुआ हो. मुझे ड्राइवर ने
कहा भी था कि मैं वहीं बैठा रहूँ ताकि वो मुझसे बात करता रहे और उसे नींद न आए.
अगर मैं उसकी बात मानकर वहीं बैठा रहता तो शायद उसे झपकी नहीं लगती ये पूरा हादसा
ही टल जाता. तो क्या मैं ही उस हादसे के लिए ज़िम्मेदार था? ये सवाल आज भी कई बार
मेरी आत्मा को परेशान करता है.