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Saturday, June 25, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग ३२ (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला)

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सेकंड ईयर के इम्तेहानों में मेरी हालत बहुत अच्छी नहीं थी क्योंकि साल की शुरुआत में तो दो गायें भी संभालता था, खेतों की ज़मीनें भी देखने गया, पज़ेशन लेने गया, नाटक भी किये और फिर मेरे साथ के बाकी लोगों को तो सिर्फ सेकंड ईयर आर्ट्स के पेपर देने थे, मगर मुझे एक साथ आर्ट्स के सेकंड ईयर और फर्स्ट ईयर के सारे पेपर्स देने थे. जब इम्तहानों का टाइमटेबल आया तो ये देखकर मुझे पसीना आ गया कि एक दिन सुबह फर्स्ट ईयर फिलॉसफी का पेपर था और शाम को सेकण्ड ईयर इक्नोमिक्स का. मैं भागा हुआ फिलॉसफी के गुरुदेव जोशी जी के पास पहुंचा और उन्हें बताया, गुरुदेव टाइमटेबल तो ऐसा आया है क्या करू? उन्होंने बहुत शान्ति के साथ समझाया “महेंदर..... घबराने की बिलकुल ज़रूरत नहीं है. इससे क्या फर्क पड़ता है कि एक दिन में आपको दो अलग अलग सब्जेक्ट्स के सवालों के जवाब देने होंगे ? आप पढाई तो पहले से कर रहे हैं, जब आप फिलॉसफी का पेपर देने बैठेंगे तब आपका दिमाग छांट छांटकर उस पेपर में आये सवालों के जवाब ही लिखेगा और जब इक्नोमिक्स का पेपर देंगे तो दिमाग अपने आप उस पेपर में आये सवालों के जवाब निकाल कर आपके सामने रख देगा.” गुरूजी से मिलकर थोड़ी शान्ति मिली लेकिन जब तक वो दोनों पेपर्स नहीं हो गए मुझे पूरी तरह से चैन नहीं मिला.

मन में ये डर भी था कि अगर कहीं किसी भी सब्जेक्ट में फेल हो गया, तो न जाने किस किस के ताने सुनने पड़ेंगे कि लो आर्ट्स ली थी, उसमे भी फेल हो गया. सबसे ज़्यादा फिक्र अपने उन नज़दीक के रिश्तेदारों के तानों की ही थी, जो खुद पढ़ नहीं पाए. भाई साहब तो डॉक्टर बन गए थे, उन्हें डॉक्टर बनने से वो रोक नहीं पाए. अब उनका निशाना मैं ही था. वो तो इंतज़ार कर रहे थे कि मैं फेल हो जाऊं और वो मेरे पिताजी और माँ को ताने सुना सकें. मैंने अपनी तरफ से पूरा जोर लगाया. मुझे मदद की तीन लोगों ने. इतिहास में डा. देवडा सर ने , फिलॉसफी में डा. शिवजी जोशी सर ने और इक्नोमिक्स में डा. एल एन गुप्ता सर ने. इन तीनों ने अपने घर के दरवाज़े, २४ घंटे के लिए मेरी खातिर खोल दिए और कहा “जब भी कुछ दिक्कत हो, बिना संकोच घर आओ और हमसे पूछो.” इतना सहारा मेरे लिए काफी था. मैं जुट गया इम्तेहानों में और ठीकठाक नम्बरों से पास हो गया.
इन्हीं दिनों भाई साहब ने पिताजी और माँ को कहा कि उन्हें कुछ दिन पीलवा जाकर, उनके पास रहना चाहिए. पिताजी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उनके साथ जा सकता हूँ? मैंने उन्हें बताया कि मुझे कोई दिक्कत नहीं है जाने में, लेकिन उस छोटे से गाँव में सिवाय खाने और सोने के मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा और मेरी सारी छुट्टियाँ बेकार चली जायेंगी, जबकि मैं इम्तहानों के बाद की इन लंबी छुट्टियों का कुछ इस्तेमाल करना चाहता हूँ. मैं चाह रहा था कि एम् ए के बाद कुछ कॉम्पीटीशन दूं. उनकी तैयारी के लिए लायब्रेरी में बैठ कर कुछ पढाई करना ज़रूरी था. मैं चाहता था कि लायब्रेरी की ये स्टडी मैं शुरू कर दूं और दूसरे, मुझे लग रहा था कि इन छुट्टियों में एकाध ड्रामा भी कर लूं. फिर भी मैंने कहा कि मैं उनके साथ पीलवा जाऊंगा और कुछ दिन उनके साथ रहने के बाद बीकानेर लौट आऊँगा.

एक रोज सुबह हम लोग पीलवा के लिए रवाना हुए. वही रास्ता था. बीकानेर से बस से फलौदी, फलौदी से ट्रेन से लोहावट और लोहावट से फिर बस से पीलवा. तीन टुकड़ों में हुए इस सफर का मुझ पर और पिताजी पर तो कोई खास असर नहीं हुआ, मेरी बीमार माँ बहुत परेशान हो गईं, लेकिन जैसे ही हम लोग पीलवा पहुंचे, माँ ने भाई साहब को देखा, उनकी सारी थकान, सारी परेशानी दूर हो गयी. वो दिन मुझे आज भी याद है. मारवाड लोहावट तक मेरी माँ के चेहरे पर थकान और परेशानी के वो तास्सुर और उसके बाद पीलवा पहुँचने पर भाई साहब को देखकर उनका एकदम ताज़ादम हो जाना. मैंने शायद पहली बार माँ बेटे के बीच के इस रिलेशन को दिल से महसूस किया. मैंने सोचा, अरे अब तक मैंने इस रिलेशन को कभी गहराई से लिया ही नहीं था. मुझे सरदारशहर में रात-रातभर जागकर, मेरी देखभाल करती माँ का चेहरा याद आ गया. मुझे लगा, मैंने अपनी माँ को पहचाना ही नहीं है. या फिर हो सकता है, माँ बेटे के इस सम्बन्ध को ही मैं अब तक समझ नहीं पाया हूँ.
तीन चार दिन मैं पीलवा में रहा. माँ की तबियत काफी ठीक हो गयी थी. मैं वहाँ से बीकानेर आने को तैयार हो गया. सबने कहा, क्या करोगे बीकानेर जाकर, लेकिन मेरे लिए बीकानेर में दो ज़बरदस्त आकर्षण थे. मुझे कभी हॉस्टल में रहने का मौक़ा नहीं मिला था. हालांकि बहुत बंदिशें नहीं थीं मुझपर, लेकिन रहना हमेशा परिवार के साथ ही होता था. मैं चाहता था, कुछ दिन स्वछन्द होकर हॉस्टल लाइफ को जियूं और दूसरी चीज़ थी, स्टेज ड्रामा. छुट्टियाँ थीं और इन छुट्टियों में मैं खूब आराम से रिहर्सल पर जा सकता था और ड्रामा कर सकता था. मैंने पिताजी को साफ़ साफ़ ये सब बताया और उन्होंने बहुत खुले मन से मेरी बात को स्वीकार कर लिया. बस मेरी माँ को ये फ़िक्र थी कि मैं खाना ठीक से खाऊँगा या नहीं, तो मैंने उनसे वादा किया कि मैं ठीक से खाना खाऊंगा.
मैं बीकानेर के लिए रवाना होने लगा, तो भाई साहब ने चार चार किलो के दो डिब्बे मेरे साथ रवाना कर दिए . मैंने पूछा कि ये क्या हैं ? तो उन्होंने कहा , बहुत बढ़िया देसी घी है. खूब खाना और जब एक डिब्बा खतम हो जाए तो मुझे खबर कर देना, मैं दो डिब्बे और रवाना कर दूंगा. मैं वो डिब्बे लेकर बीकानेर आ गया.

अब लंच धन्नी भौजाई बना रही थीं. घी उनके सामने रख दिया गया. लेकिन जो लंच वो बनाती थीं, उसमे घी लगाने की बहुत गुंजाइश नहीं रहती थी. गेहूं के आटे की रोटी में कोई भला कितना घी लगायेगा? आखिर मैंने नाश्ता और रात का खाना अपने हाथ में ले लिया. नाश्ते में दो छोटी छोटी बाजरे की रोटियां बनाता था और उनमे करीब डेढ़ सौ ग्राम घी डालकर गुड और अचार के साथ खा लेता था. लंच जो भी धन्नी भौजाई बनाती थीं, वो खाता था और शाम को जो सब्जी बनाता था उसमे १०० ग्राम घी डाल लेता था. इस तरह कुल मिलाकर दिन भर में कम से कम पाव् भर घी खा लेता था. शाम को दो घंटे खेलने जाता था. वो सारा घी पच जाता था.  जैसे ही एक डिब्बा घी खतम होता था, मैं पीलवा समाचार करवा देता था और कुछ ही दिनों में, जब तक कि दूसरा डिब्बा खतम होता, दो डिब्बे घी के और आ जाया करते थे. कुछ महीनों बाद जब माँ पिताजी बीकानेर लौटे तो मेरी माँ घी की बात पर खूब हंसीं कि बच्चा पैदा करने के बाद जितना घी औरतों को खिलाया जाता है, उससे कहीं ज़्यादा घी महेंदर ने इन दो तीन महीनों में खा लिया था. फिर साथ ही नज़र न लग जाए इसके लिए थुथकारा डालना भी नहीं भूलती थी.
इसी बीच नेशनल थियेटर से बुलावा आया. मोडू सिंह जी ने कहलवाया कि नेशनल थियेटर एक ड्रामा करने जा रहा है और उसमे बीकानेर के सारे अच्छे आर्टिस्ट्स को शामिल करना चाहता है. इस ड्रामा को डायरेक्ट करेंगे, जयपुर के मशहूर डायरेक्टर एच सी सक्सेना जी, जो कि वैसे ए जी ऑफिस में काम करते हैं, मगर इन दिनों उनकी पोस्टिंग बीकानेर में है. लिहाजा मुझे, प्रदीप भटनागर को, एस डी चौहान को और हनुमान पारीक को बुलाया गया है. और भी कई कलाकार थे जो नेशनल थियेटर के थे लेकिन, जैसा कि मैंने पहले लिखा, हम चार लोग किसी एक ग्रुप के साथ बंधे हुए नहीं थे. आज की ज़ुबान में हम लोग फ्री लांसर थे.
मैं चौतीना कुआ पर बने नेशनल थियेटर के दफ्तर पहुंचा. शुरू से ही आदत थी, अगर चार बजे कहीं बुलाया जाए तो ३.५५ पर पहुंचना. मैं वक्त से ५ मिनट पहले पहुँच गया था. जैसे ही ५ मिनट गुज़रे, सही वक्त हुआ, एक पांच फुट के छोटे से आदमी ने न जाने कहाँ से निकल कर दहाड़ते हुए कहा “मैंने जो वक्त दिया था, वो हो गया. मुझे कोई भी लेट आने वाला नहीं चाहिए. अब जो आयें, मोडू सिंह जी, उन्हें वापस भेज दीजिए.”

हम समझ गए, यही हैं हमारे इस ड्रामा के डायरेक्टर एच सी सक्सेना जी. हमने उठकर उनके पाँव छुए. बहुत प्यार से उन्होंने आशीर्वाद दिया. मुझे लगा वाह, पटरी बैठ जायेगी इनके साथ, क्योंकि मेरे उसूलों वाले ही हैं, ये भी. थोड़ी देर में कुछ लोग आये, एच सी सक्सेना जी ने सबको वापस भेज दिया. मैं, प्रदीप भटनागर, हनुमान पारीक और एस डी चौहान एक दूसरे की तरफ देखते रहे और सोचते रहे कि अब क्या होगा? बीकानेर में तो लोगों को आदत ही है, देर से आने की.
कुछ और कलाकार आये. सक्सेना जी ने कहा, मुझे थोड़े कमज़ोर आर्टिस्ट्स चलेंगे, लेकिन ऐसे आर्टिस्ट्स चाहियें जो वक्त के पाबन्द हों.
रिहर्सल शुरू हुई. मेरी और हनुमान पारीक की रेडियो वाली आवाज़ थी, एकदम भारी और बुलंद . सक्सेना जी कहते “महेंद्र, हनुमान, अपनी आवाज़ का वोल्यूम ज़रा कम रखो यहाँ, बाकी लोगों की आवाज़ तुम्हारे बराबर की नहीं है. जब भी कभी जयपुर आओ, हम लोगों के साथ ड्रामा करो, तो अपने इस वोल्यूम का इस्तेमाल करना.” हम दोनों एक दूसरे की तरफ देखते, फिर अपनी आवाज़ थोड़ी कम कर लेते थे.
मेरे साथ जिस लड़की का रोल था, सक्सेना साहब खुद वो संवाद बोलते थे और हर बार कहते थे, ये रोल मेरी बेटी करेगी, जो जयपुर में है. अभी मैं प्रॉक्सी कर रहा हूँ.
रिहर्सल चलती रही. सक्सेना जी प्रॉक्सी करते रहे. पारीक जी नाम के एक सेठ जी, जो इस पूरे ड्रामा का खर्च उठा रहे थे, रोज रिहर्सल में आते थे. एक बहुत ही सुन्दर और सजे धजे तांगे पर वो आया करते थे. ये उनका पर्सनल तांगा था. तांगे का ड्राइवर भी खूब अच्छे साफ़ सुथरे कपडे पहने रहता था. पारीक सेठ जी के हाथ में हमेशा ५५५ सिगरेट का पैकेट और सोने की चेन से बंधा हुआ लाइटर रहता था. रिहर्सल के बाद एक दिन पारीक जी, सक्सेना साहब और मोडू सिंह जी शराब की महफ़िल जमा कर बैठ गए. सब कलाकारों को भी ड्रिंक्स ऑफर किये गए. मैं तो शराब से बहुत दूर था. मैंने साफ़ मना कर दिया. हमारे कुछ साथी ग्लास लेकर बैठ गए. बातें ड्रामा के मुत्तल्लिक ही चल रही थी, इसलये सक्सेना साहब ने मुझे कहा “बहुत अच्छी बात है महेंद्र कि तुम नहीं पीते हो, लेकिन बैठो कुछ देर हमारे साथ, कुछ सीखने को मिलेगा.” मेरे हरी ओम ग्रुप में कभी इस तरह का माहौल नहीं रहा कि हम लोगों में से कोई शराब की बोतल खोलकर बैठे. मुंजाल साहब और महावीर बाबू जैसे एक दो लोग थे, जो इस लाल परी का लुत्फ़ लेते थे, लेकिन उनके वो साथी अलग थे, जिनके साथ वो इस तरह की महफ़िलें जमाया करते थे. लिहाजा ये पहला मौक़ा था कि घर से बाहर मुझे किसी ऐसी महफ़िल में बैठने को कहा जा रहा था, जिसमे शराब के दौर चल रहे थे.

मैंने थोड़ा सोचा और मैं बैठ गया क्योंकि मेरे सामने बैठकर लोग शराब पियें,  मुझे इसमें कोई दिक्कत नहीं थी. शराब को लेकर कभी कोइ घृणा की भावना मैंने संस्कारों में नहीं पाई. मेरे पिताजी अक्सर शाम को खाने से पहले दो पैग लिया करते थे और कहते थे, ये इतनी बुरी चीज़ नहीं है, जितना लोग इसे बदनाम करते हैं. आप दो पैग लीजिए, आपको खाना स्वादिष्ट लगेगा. उसके बाद सोयेंगे तो नींद अच्छी आयेगी. एक लिमिट में रहकर अगर इसे पिया जाए तो ये एक दवा है. आप अगर एक हद से आगे बढ़ेंगे, तो अच्छी से अच्छी चीज़ भी बुरी बन जायेगी. खास तौर पर जो लोग इसे पीकर होश खोने का नाटक करते हैं, वो इसे ज़्यादा बदनाम करते हैं. एक दिन मैंने पिताजी से पूछा कि वो कब से शराब पी रहे हैं? उन्होंने जो जवाब दिया, उसने मुझे चौंका दिया. उन्होंने कहा “तुम्हें मालूम ही है कि मेरे पिताजी तो तभी गुजर गए थे, जब मैं दो साल का था. मैं अपने मामा जी के यहाँ रहकर बड़ा हुआ. मेरी माँ चार बच्चों की देखभाल करती थी. मेरे मामाजी की दो औलादें, मैं और मेरी एक मौसी के बेटे. हम चारों एक साथ ही रहते थे. बीकानेर में सर्दी तो अब भी ज़ोरदार पड़ती है, मगर उन दिनों सर्दी और भी ज़ोरदार पड़ा करती थी. हमारे घर में शराब के बड़े बड़े मर्तबान भरे रहा करते थे और हर मर्तबान के साथ एक छोटा सा ग्लास रखा रहता था. सर्दी के मौसम में मामाजी हम तीनों भाइयों को कहा करते थे ‘जाओ रे छोरों.....मर्तबान में से एक एक ग्लास दारू लेकर पी लो, सर्दी नहीं लगेगी. लेकिन खबरदार, अगर किसी ने एक ग्लास से ज़्यादा पी ली तो डंडे पड़ेंगे.’ हम सब मामा जी से बहुत डरते थे, इसलिए बस एक ग्लास मर्तबान में से लेकर पी लिया करते थे. कभी ये हिम्मत नहीं हुई कि उन्होंने जो हद बनाई, उस हद को हम पार करें और सच बात ये है कि मैं आज भी उसी हद से बंधा हुआ हूँ. दो पैग से ऊपर कभी नहीं पीता.”
मैंने पूछा “उस वक्त आपकी उम्र कितनी थी?”
वो हंसकर बोले “मुझे बहुत अच्छी तरह तो याद भी नहीं, लेकिन जो धुंधली धुंधली याद है, उसके मुताबिक पहली बार जब मैंने इसका स्वाद चखा था, तो मेरी उम्र ४ या ५ बरस रही होगी.”
मैंने ताज्जुब से कहा “क्या.....? आप ४-५ बरस की उम्र से शराब पी रहे हैं?”
“बिलकुल.”
“तब तो मैं बहुत लेट हो गया इस मामले में”

वो हंस कर बोले “तो आओ ना, ले आओ अपना ग्लास. मैं तो कई बार कहता हूँ तुम दोनों भाइयों से कि कोई तो साथ दो मेरा. राजा (भाई साहब का घर का नाम) तो मेडिकल में आने के बाद, फिर भी कभी कभी मेरे साथ बैठ जाता है, लेकिन तुम तो कभी इसे मुंह ही नहीं लगाते. अरे यार तुम तो कलाकार हो और सुना है, कलाकारों की कला निखरती है इस से.”
मैंने ठहाका लगाते हुए कहा “ हाँ आपने सही सुना है. मैं नहीं पीता क्योंकि मुझे अपनी कला के लिए इस नशे की ज़रूरत महसूस नहीं होती. मैं बिना पिए ही जब स्टेज पर जाता हूँ, तो मुझे एक अजीब तरह का नशा महसूस होता है. मैं चाहता हूँ कि ये स्टेज और स्टेज पर की जाने वाली एक्टिंग का नशा, इसी तरह बना रहे, कम ना हो.”
वो बोले “ठीक है, नहीं पीना बहुत अच्छी बात है लेकिन अगर कभी पियो तो छुपाकर पीने की कोई ज़रूरत नहीं. जब पिता के पाँव का जूता बेटे के पाँव में आने लग जाए, तो दोनों के लिए अच्छा ये रहता है कि दोनों दोस्तों की तरह रहें. तो याद रखो कि शराब और सिगरेट बहुत खराब चीज़ें हैं, लेकिन अगर आप शराब या सिगरेट पियें तो मेरे सामने पियें, छुपाकर नहीं. अगर किसी और इंसान ने मुझे कभी आकर कहा कि उसने आपको सिगरेट या शराब पीते देखा है, तो यकीन मानो, मुझे बहुत अफ़सोस होगा और लगेगा कि आप लोगों की परवरिश में कुछ कमी रह गयी है.”
मैंने कहा “आप भरोसा रखिये, मैं कभी छुपाकर नहीं पियूंगा. जिस दिन इसे चखूंगा भी, तो आपको ज़रूर बताऊंगा.”
१९८७ तक मैंने कभी शराब को मुंह नहीं लगाया. मेरे पिताजी जब जब भी मेरे पास आकर रहते थे, अपने रूटीन के मुताबिक, रोजाना खाना खाने से पहले, दो पैग लिया करते थे और मुझसे पूछा करते थे “क्यों कलाकार...... तुमने पैग लगाना शुरू किया या नहीं?”

मेरा जवाब हमेशा यही होता था “जी नहीं, अभी तक तो शुरू नहीं किया है.”
अगस्त १९८७ में मेरा तबादला कोटा हुआ और जहां मुझे सी आई आई डी ए,कनाडा; आर आई डी सी, कनाडा; ए आई बी डी, मलेशिया और आल इंडिया रेडियो के मिलकर शुरू किये गए एक प्रोजेक्ट में काम करना था. हमारी कोऑर्डिनेटर थीं, कनाडा की मिस रॉबर्टा बोर्ग. मेरे दो साथी प्रोग्राम एक्सिक्यूटिव मानिक आर्य और आर पी मीणा और एक फ़ार्म रेडियो ऑफिसर गिरीश वर्मा इस प्रोजेक्ट में मेरे साथ थे. मीणा बियर का शौक़ीन था, मानिक और गिरीश के सब कुछ चलता था. बस मैं एक ऐसा था, जो कुछ भी नहीं पीता था. रॉबर्टा बोर्ग को हम सब लोग दीदी बुलाते थे. दीदी भी मेरे पिताजी की तरह, रोज शाम को बोतल खोल कर, खाना खाने से पहले, तीन चार पैग लिया करती थीं. जब कभी हम लोगों की कोई मीटिंग होती या दफ्तर में काम करने की बजाय, हम सब लोग चम्बल गेस्ट हाउस में, जहाँ दीदी और बाकी सारे विदेशी रुका करते थे, काम कर रहे होते, तो अक्सर काम के बाद व्हिस्की की बोतलें खुल जाया करती थीं. पीने के बाद सब लोग खूब घुल मिलकर गपशप किया करते थे. वो लोग देर तक शराब पीते थे और मैं कोका कोला की बॉटल लिए बैठा रहता. लेकिन कोका कोला भी आखिर कितना पिया जा सकता है? मुझे कभी कभी लगता कि मैं इन लोगों की कंपनी से बाहर हो रहा हूँ.
इसी बीच मुझे और दीदी को एक मीटिंग के लिए, कनैडियन हाई कमीशन से बुलावा आ गया. मैं और दीदी दिल्ली गए और होटल ताज पैलेस में रुक गए. अब दीदी ने मुझे कैनेडियन लोगों के अदब कायदे बताए, क्योंकि दूसरे दिन मीटिंग के बाद, हम दोनों को वहाँ डिनर के लिए भी बाकायदा बुलावा भेजा गया था. दीदी ने कहा कि डिनर में वाइन तो लेनी ही होगी वरना होस्ट बुरा मानेगा.
दूसरे दिन जब मीटिंग पूरी होते होते रात हो गयी थी. डिनर हमें वहीं हाई कमिश्नर के साथ लेना था. वाइन का एक ग्लास सबके साथ मुझे भी लेना पड़ा. डिनर के दौरान और भी तरह तरह की इम्पोर्टेड शराब परोसी गयी. पीने के लिए बस शराबें ही शराबें थीं. मैंने दीदी से इशारे से पूछा कि मैं पानी की जगह क्या पियूं? तो उन्होंने इशारे से व्हाइट वाइन की ओर इशारा किया. मैं दो तीन प्याले व्हाइट वाइन के पी गया. थोड़ी देर बाद सर हल्का सा घूमता हुआ सा लगा.
डिनर खत्म हुआ और हम लोग होटल ताज पैलेस में आ गए. दीदी ने पूछा कि पहली बार अल्कोहल लेकर कैसा लग रहा है? मैंने जवाब दिया कि हल्का हल्का सर चकरा रहा है. वो बोलीं, चेंज करके मेरे कमरे में आ जाओ, लगता है तुमने जितनी वाइन पी है, वो तुम्हारे वज़न के हिसाब से नाकाफी थी. मैं चेंज करके उनके रूम में चला गया. उन्होंने अपने फ्रिज से व्हिस्की की बोतल निकाली और दो पैग बना कर, एक मेरे सामने रख दिया. मैंने ग्लास उठाया और सिप करने लगा. वाइन का स्वाद मुझे बुरा नहीं लगा था मगर व्हिस्की का स्वाद मुझे कुछ खास पसंद नहीं आया. उधर दीदी को देखा तो बड़ा ताज्जुब हुआ कि वो व्हिस्की के हर सिप को, बहुत ही स्वाद ले लेकर पी रही हैं. व्हिस्की को इस तरह ऑन द रॉक्स(सिर्फ बर्फ डालकर, बिना पानी या सोढा मिलाए) इतना स्वाद लेकर चुस्कियां भरकर पीते हुए, तब तक मैंने किसी को नहीं देखा था. अब तो मेरा बेटा भी कई बार जब कोई बहुत खास शराब का पैग बनाकर मुझे देता है तो बताता है, डैडी..... ये शराब ऑन द रॉक्स ही पी जाती है. और हम दोनों बाप बेटे उस ड्रिंक का आनंद ऑन द रॉक्स ही लेते हैं. खैर ये तो अभी की बात है, जब गंगा में न जाने कितना पानी बह गया और मैंने न जाने कितने ड्रम व्हिस्की पी डाली. उस वक्त  मैंने दो पैग किसी तरह गले से उतारे और मैं अपने कमरे में आकर सो गया. ऐसी गहरी नींद आयी कि दूसरे दिन देर तक सोता रहा. अगले ही दिन वायुदूत की फ्लाइट पकड़कर हम लोग कोटा आ गए. इस बीच मुझे समाचार मिला कि मेरे पिताजी कोटा आ रहे हैं. तब तक मैं अकेला ही कोटा में रह रहा था क्योंकि मेरी पत्नी की पोस्टिंग सूरतगढ़ थी. मुझे आकाशवाणी कॉलोनी में जगह नहीं मिली थी, इसलिए रेलवे स्टेशन के करीब, कैप्टन अवस्थी के घर के पिछवाड़े में, एक कमरा और एक किचन किराए पर ले रखा था. मैं पिताजी को रेलवे स्टेशन से लेकर घर आया. शाम हो चुकी थी, खाना बनाने लगा. खाना बनाते बनाते मैंने पिताजी से कहा “जानते हैं, अभी मैं दिल्ली गया था. कैनेडियन हाई कमीशन में जो डिनर था, शराब उसका ज़रूरी हिस्सा था, इसलिए मुझे भी शराब पीनी पडी.”
वो बोले “ गुड...... इसमें इतना दुखी होने की क्या बात है? लाओ मेरे बैग में व्हिस्की की बोतल रखी है, आज बाप-बेटा जाम टकराते हैं.”
और उस शाम मैंने अपने पिताजी के साथ पहली बार ड्रिंक्स का आनंद लिया. १९८७ से लेकर १९९५ तक जब तक पिताजी ज़िंदा थे, हम जब भी साथ होते तो हफ्ते में दो तीन बार, मैं ड्रिंक्स में उनका साथ दिया करता था. कई देशों में घूमा,  फाइव और सेवन स्टार होटेल्स के बार में भी बैठा, इतने लोगों के साथ इतनी तरह के ड्रिंक्स लिए, लेकिन जो आनंद मुझे पिताजी के साथ घर में दरी पर या डायनिंग टेबल पर बैठकर, बिलकुल साधारण सी हिन्दुस्तानी व्हिस्की को पीकर आता था, वो आनंद उनके जाने के बाद कहीं नहीं मिला, कभी नहीं मिला.
माफी चाहता हूँ, मैं बहुत आगे बढ़ गया. ये तो बहुत बाद की बातें हैं मैं बात कर रहा था अपने कॉलेज के दिनों की. नेशनल थियेटर में रिहर्सल चल रही थे एक नाटक की. रिहर्सल के बाद, ड्रामा पर पैसा खर्च करने वाले पारीक जी, मोडू सिंह जी, डायरेक्टर सक्सेना साहब और कुछ कलाकार व्हिस्की पीने लगे और मैं उनके बीच हो रही ड्रामा की बातों से अपनी जानकारी बढाने लगा. 

बस इसीतरह रिहर्सल चलती रही.
कुल मिलाकर एक हफ्ता बचा था शो होने में और सक्सेना जी ने बताया कि उनकी बेटी रेखा आ रही है. अब कल से वो भी रिहर्सल में हिस्सा लेगी.
सभी लोग इंतज़ार कर रहे थे कि ड्रामा के सारे कैरेक्टर्स आ जाएँ और ड्रामा पूरी तरह से रिहर्स किया जा सके.
अगले ही दिन एक बहुत खूबसूरत लड़की, सक्सेना साहब के साथ आई. सक्सेना साहब ने सबसे उसका परिचय करवाया. सभी लोग बहुत सावधान होकर बैठ गए, जयपुर की एक खूबसूरत लड़की अब उनके साथ रिहर्सल जो करने वाली थी. जैसे ही उसका रोल आया, रेखा ने अपना डायलोग बोला.... और सक्सेना साहब जोर से चिल्लाये.
लड़की सहम गई. सक्सेना साहब बोले “किस तरह बोल रही हैं आप डायलॉग ? आपको यहाँ रोमांटिक होना है.”
लड़की खामोश खडी रही. सक्सेना साहब फिर चिल्लाये “रोमांस का अर्थ समझती हैं   ना?” 
रेखा बहोत सहमकर बोली “जी पापा.”
“तो ज़रा रोमांटिक हो कर बोलो ये डायलॉग.”

रेखा ने अपनी तरफ से थोड़ा रोमेंटिक होते हुए डायलॉग बोला. हम लोग रोजाना बिना रेखा के ही रिहर्सल कर रहे थे. उसकी प्रॉक्सी कभी सक्सेना साहब कर लेते थे और कभी कोई दूसरा आर्टिस्ट. अब आज एक तरफ तो एक दम एक नई लड़की आकर सामने खडी हो गयी थी और दूसरी ओर उसे डाँट भी पड रही थी. मैं बहुत हडबडा गया और जो डायलॉग हमेशा ठीक से बोलता था, सक्सेना साहब जिसकी तारीफ़ किया करते थे, आज वही डायलॉग कुछ इस तरह बोलने लगा मानो वो आगा हश्र कश्मीरी का कोई पारसी ड्रामा हो. मेरा डायलॉग सुनते ही सक्सेना साहब ठहाका लगा कर हंस पड़े. उन्हें लग गया कि मैं उनकी लड़की को देखकर नर्वस हो रहा हूँ. वो मेरे पास आये. रेखा का हाथ पकड़कर मेरे हाथ में दिया और बोले “महेंद्र, पारसी ड्रामा करना होगा तो मैं तुम्हें बताऊँगा. अभी तो ये तुम्हारी मोडर्न प्रेमिका है. इससे थोड़ा सॉफ्ट होकर बोलने की कोशिश करो. तुम को-एज्युकेशन में पढ़े हो?”
मैंने कहा “जी नहीं”
“अच्छा इसीलिये नहीं जानते हो कि रोमेंटिक होने का क्या अर्थ है?”
मुझे बहुत बुरा लगा. मैंने अपने आपको सम्भाला और जितना हो सकता था, अच्छी तरह से डायलॉग बोला. एक दो बार रिहर्स करके मेरी डायलॉग डिलीवरी सही हो गयी.
सक्सेना साहब खुश हो गए और बोले “शाबाश...... बिलकुल इसी मूड को बना कर रखो...... इसी तरह तुम्हें पेश आना है अपनी प्रेमिका से.”
मैं बहुत असमंजस में था. बीकानेर एक छोटी सी जगह थी, जहां नाटकों की रिहर्सल के दौरान मर्दों को औरतों को छूने की भी इजाज़त नहीं रहती थी. बस रिहर्सल के आखिरी दिनों में डायरेक्टर ये समझा देता था कि औरत को किस  तरह से, कहाँ और कब, थोड़ी सी देर के लिए, अलामती तौर पर यानि प्रतीकात्मक रूप से छूना है.
एक दो दिन की रिहर्सल में सब कुछ ठीक हो गया. रेखा ने भी बिंदास होकर वो सीन करने शुरू कर दिए, जिनमे वो पहले दिन गडबडा रही थी. मेरी हिचकिचाहट भी काफी हद तक दूर हो चुकी थी. रिहर्सल में पूरा मज़ा आने लगा था.
इसी बीच सक्सेना साहब का बेटा अजय कार्तिक भी बीकानेर आ चुका था. अजय बहुत अच्छा आर्टिस्ट था, लेकिन उसकी एक ही कमजोरी थी और वो थी, उसकी आवाज़. सक्सेना साहब जैसे बुलंद आवाज़ इंसान के बेटे की आवाज़ बहुत ही फुसफुसी और कमज़ोर थी. वो जब बोलता था, तो पता ही नहीं लगता था कि वो मर्द है या औरत.
रिहर्सल पूरी हुई और नाटक के शो का दिन आ गया. शो बहुत अच्छा रहा. शो के बाद खाने और पीने का इंतज़ाम भी किया गया था, लेकिन सक्सेना साहब के बेटे अजय ने कहा “यार यहाँ इन बूढ़े लोगों के साथ बैठ कर क्या पियेंगे हम लोग? चलो कहीं और चलते हैं.” अब सवाल ये था कि कहाँ जाकर महफ़िल जमाई जाए. इधर पारीक सेठ जी ने बताया कि शिकार करके कुछ तीतर-बटेर मंगवाए गए हैं. नौजवान लोग अगर उनके साथ खाना नहीं खाना चाहते, तो हम में से एक आदमी नेशनल थियेटर चला जाए और खाना पैक करवा कर ले आये..

मैंने कहा, इन दिनों मैं घर में अकेला हूँ, आप लोग चाहें तो मेरे घर बैठकर खा पी सकते हैं. हनुमान पारीक, प्रदीप भटनागर, अजय कार्तिक और एक दो और नौजवान लोग, मेरे साथ मेरे घर आ गए. चौहान जी नेशनल थियेटर रुक गए ताकि खाने पीने का सामान वहाँ से लाया जा सके.
मेरे घर आकर हम लोग गपशप करने लगे. वक्त गुजर रहा था, लेकिन चौहान जी खाना लेकर नहीं आ ही नहीं रहे थे. सबके पेट में चूहे कूद रहे थे और सब व्हिस्की के लिए भी बहुत उतावले हो रहे थे. इंतज़ार करते करते एक घंटा गुजर गया. अजय बोला “यार अब भूख बर्दाश्त नहीं हो रही है.... कुछ करो.”
मैंने किचन में जाकर बिस्सा जी के मोटे भुजिया निकाले और पिताजी की अंदर रखी हुई व्हिस्की की एक बोतल निकाली. पैग बने और बिस्सा जी के मोटे भुजिया के साथ गले के नीचे उतरने लगे. आधा घंटा और गुजरा था कि छमछम करता पारीक जी का पर्सनल तांगा आकर घर के सामने खडा हुआ. मैंने दरवाजा खोला. देखा तांगे का ड्राइवर, चौहान जी का हाथ पकड़कर नीचे उतार रहा है. हम सबको फिक्र हुई कि आखिर चौहान जी को क्या हो गया है? वो बुरी तरह लडखडा रहे थे और तांगे के ड्राइवर से अपना हाथ छुडा रहे थे. कह रहे थे, “मैं नशे में नहीं हूँ...........देखो.... देखो महेंद्र जी...... देखो प्रदीप जी........आप...... आप भी .... देखो हनुमान जी..... मैं कहाँ नशे में हूँ..... ये देखो वन.......टू....थ्री....... और फ्रीज........... और इतना कहते ही धडाम से गिर पड़े. हम लोग उन्हें उठाकर अंदर लाये. पलंग पर लिटाया. ड्राइवर से पूछा कि क्या हो गया ये इन्हें? इतना नशा कैसे चढ गया? तो ड्राइवर ने पूरी बात बताई. उसने कहा “चौहान जी जब नेशनल थियेटर में आये, तो सक्सेना साब, हमारे पारीक साब और मोडू सिंह जी दारू पी रहे थे. सबने चौहान जी को कहा कि  खाना तैयार होने में थोड़ी देर है, तब तक एक दो पैग यहीं लगाकर चले जाओ, फिर वहाँ पी लेना और सब लोग खाना खा लेना. चौहान जी ने हाँ भर दी. मोडू सिंह जी ने एक ग्लास में पैग बनाकर चौहान जी को पूछा कि पानी कितना डालूँ? चौहान जी ने जवाब दिया “नहीं मैं पानी नहीं पीता”. मोडू सिंह जी भी नशे में तो थे ही, उन्हें चौहान जी की बात चुभ गयी. वो बोले “अच्छा चौहान जी, हम तो साले पानी ही पीते हैं....? जा रे छोरा..... अंदर बड़े वाली अलमारी में के के (राजस्थान की प्रसिद्ध शराब केसर कस्तूरी, जिसे राजपूतों में हर साल खरीदकर अंदर सहेजकर रख देने का रिवाज है, ताकि वो आगे आने वाली पीढ़ियों के काम आ सके) की बोतल पडी है, आज चौहान जी को शानदार दारू पिलाते हैं. लड़का एक बोतल निकालकर लाया जिसमे ४०-५० साल पुरानी शराब थी. मोडू सिंह जी ने एक बड़ा सा पैग बना कर चौहान जी को पूछा, “चौहान जी, केसर कस्तूरी में भी पानी नहीं?”
चौहान जी पता नहीं किस मूड में थे, बोले “नहीं हुकुम”
मोडू सिंह जी ने वो बड़ा सा पैग, चौहान जी को पकडा दिया. चौहान जी ने एक घूँट भरा....... अंदर तक आग की एक लकीर सी खिंच गयी लेकिन क्या कर सकते थे? पानी मिलाने से तो पहले ही इनकार कर चुके थे. किसी तरह एक पैग खतम किया. पुरानी केसर कस्तूरी फ़ौरन असर नहीं करती. इसलिए चौहान जी को कुछ खास पता नहीं लगा. मोडू सिंह जी को चौहान जी की बात इस क़दर लग गयी थी कि उन्होंने एक के बाद एक तीन चार पैग चौहान जी को पिला दिए. केसर कस्तूरी और वो भी ४०-५० साल पुरानी....... बस चौहान जी आधे घंटे में पूरी तरह उलट गए......पूरे अंटा गफील हो गए........ बड़ी मुश्किल से मैं इन्हें लेकर आया हूँ.  
सबने खाना खाया और सब मेरे घर पर ही पड़कर सो रहे. सुबह जब चौहान जी को ये सारा वाकया सुनाया गया तो उन्हें कुछ भी याद नहीं था. उसी दिन मैंने अपने मन में अहद किया , दारू नहीं पीनी, कभी नहीं पीनी, हालांकि मुझे पता नहीं था कि आने वाले २५ बरस में, ऐसा वक्त आएगा कि मैं अपने अहद पर टिका हुआ नहीं रह पाऊंगा .
तब से लेकर अब तक हम सभी कलाकार चौहान जी से जब भी मुलाक़ात होती है तो उन्हें एक बार तो ये पूछ कर छेड़ ही लेते हैं....... कैसे चौहान जी...... कैसे  वन टू थ्री ......... फ्रीज............ और हर बार वो खिसियाकर हंस पड़ते हैं.




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