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Wednesday, June 22, 2016

ताने-बाने लोकेंद्र शर्मा की जिंदगी के- नौवीं कड़ी।

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उन्नीसवीं सदी के मध्य काल में ऐतिहासिक नगर चित्तौड़गढ़ के पास भांडपी नामक गांव था, जहां 
पंडित धुलीरामजी उपाध्याय रहते थे. इनके चार बेटे थे. नंदरामजी, रामरतनजी, लक्ष्मणजी और शोकिशनजी. लक्ष्मणजी के तीन बेटे थे - गौरीशंकरजी, मोहनलालजी और कजोड़ीमलजी.

गौरीशंकरजी मेरे दादाजी थे. दादी का नाम था, नोजबाई. मेरे पिताजी (बाउजी) अभी बच्चे ही थे कि दादाजी का स्वर्गवास हो गया. दादी (जिन्हें हम भाबा कहते थे), साड़ास में रहती थी. मैंने साड़ास को ही अपने पैतृक गांव के रूप में जाना.

दादाजी के भाई पंडित मोहनलालजी के तीन बेटे थे – मदनलालजी, चंदनलालजी और मुरलीधरजी. दादाजी के दूसरे भाई कजोड़ीमलजी के दो बेटे थे – भैरूलालजी और विष्णुदत्तजी. ये पांच बाउजी के चचेरे भाई थे. बाउजी अपने पिता पंडित गौरीशंकरजी के अकेले बेटे थे और उनकी एक ही सगी बहन थी चंद्रप्रभा देवी, जिन्हें हम बुआजी कहते थे. पंडित गौरीशंकरजी उदयपुर रियासत के कोतवाल थे. बुआजी की शादी का ज़िक्र करते समय मैं बता चुका हूं कि दादाजी पंडित गौरीशंकर जी को जाने कैसे अपने अंत का पूर्वाभास हो गया था, इसलिए अपने सामने ही उन्होंने बेटी (हमारी बुआजी) की शादी चार बरस की उम्र में ही करवा दी थी और बेटे (हमारे बाउजी) का रिश्ता भी उसी समय बरुंदनी की धापूबाई के साथ तय करवा दिया था. दादाजी के गुज़र जाने के कुछ बरस बाद बाउजी का भी बरुंदनी की धापूबाई के साथ विवाह हो गया. यह उस दौर की बात है, जब किसी एक घर का दामाद सारे गांव का दामाद माना जाता था और किसी एक घर की लड़की सारे गांव की बेटी होती थी. धापूबाई के सगे भाई तो एक ही थे, पुरुषोत्तमलालजी, लेकिन परम्परानुसार बाउजी पूरी बरुंदनी के दामाद थे.

बाउजी जब थोड़े बड़े हुए, थोड़ा पढ़-लिख गए, कुछ गांव-शहरों में घूम लिए, तब जाने क्यों उन्हें अपनी पत्नी धापूबाई का नाम कुछ अच्छा नहीं लगा और उन्होंने अपनी पत्नी का नया नाम रखा, प्रेमलता. मुझे याद है अपनी पहली पत्नी के बारे में बाउजी जब भी हमसे बात करते, उन्हें ‘तुम्हारी पहली मां’ कहकर संबोधित करते. हमारी पहली माँ, प्रेमलता को जीवन में बाउजी कभी नहीं भूल पाए. उनके लिए बाउजी के मन में अगाध प्रेम था और उनके इस प्रेम की आलोचना का मैंने स्वयं को कभी अधिकारी नहीं माना, बल्कि पहली पत्नी के प्रति बाउजी का अनुराग, मुझे अक्सर स्तुतियोग्य लगा. जो लोग प्रेम को, केवल देह से जोड़ने की संकीर्ण मनोवृत्ति में जीते हैं, उन्हें मेरी बात ज़रा मुश्किल से ही समझ में आएगी. मुझे लगता है, जो लोग बिस्तर के दायरे से बाहर के प्रेम की कल्पना नहीं कर सकते, वो बड़े अभागे होते हैं. जीवन भर जिसे वो प्रेम समझते हैं, वो देहसीमा से बंधा कर्त्तव्य होता है, आत्मा को छू भी नहीं पाता. ऐसे कुछ देहजीवी मेरे परिवार के पल्ले भी पड़े हैं. जिनके प्रेम की परिभाषा पर, क्रोध से अधिक, मुझे दया आती है. बाउजी ने दूसरी शादी की, नया घर-संसार बसाया, गृहस्थ बने, लेकिन इस बात के कारण, अगर कोई यह कहे कि अपनी पहली पत्नी याद करना उनके लिए पाप है, तो ऐसे सोच को मैं बीमार मानसिकता के अतिरिक्त और क्या कहूं. अलौकिक प्रेम तो अंतर्मन का मंदिर है और मंदिर में हो रही पूजा से, कोई आहत कैसे हो सकता है.

बाउजी ने मेरी जन्मदायिनी माँ पर कभी हाथ उठाना तो दूर, उनसे कभी ऊँचे सुर में भी बात नहीं की. जीवन भर वे पति और पिता के कर्तव्य से रत्ती भर भी नहीं डिगे. घोर आर्थिक-संकट के समय भी उन्होंने संघर्ष को ईश्वर का उपहार माना और हमें भी यही मानना सिखाया. आदर्श की बाउजी ने कोरी बातें ही नहीं की, अपने जीवन को आदर्श का पर्याय बना कर दिखाया. कभी-कभी सोचता हूँ, तपस्वी  जंगलों में ही नहीं, घरों में भी रहते हैं.

अपनी पहली पत्नी से बाउजी को कोई संतान नहीं मिल पाई थी. अगर होती, तो वो हमारे लिए सौतेला भाई या बहन होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पहले प्रसव के दौरान ही प्रेमलता जी और उनके नवजात दोनों का देहांत हो गया था.

दुनिया की दूसरी जंगी लड़ाई शुरू होने से पहले बाउजी दिल्ली के जिस मोहल्ले में रहते थे, उसका नाम था फ़राशख़ाना. फ़राशख़ाने की एक गली में पांच मंज़िला इमारत थी, जिसकी चौथी मंज़िल पर पंडित दयानंद जोशी का घर था. बाउजी इन्हीं के यहां किरायेदार थे. जोशी जी रेलवे में काम करते थे. बाउजी की पहली पत्नी प्रेमलता जी के देहांत को कई बरस हो चुके थे और लोग उनसे दूसरा विवाह करने का इसरार कर रहे थे. पंडित दयानंद जोशी और उनकी पत्नी बाउजी को पुत्रवत मानते थे और उनका भी विचार था कि बाउजी को विवाह करके गृहस्थी बसा लेनी चाहिए. इसी बीच मथुरा की होली वाली गली के निवासी चंद्रभानजी के घर से रिश्ता आया. रिश्ता आया कहना शायद ठीक नहीं, असल में, लड़की पसंद करने के लिए एक तस्वीर भेजी गई थी.
                                       




                             

तस्वीर पसंद आई, तो रिश्ते की बात आगे बढ़ी और लड़की वालों ने अपने परिवार के सबसे समझदार आदमी रेवतीभानजी को लड़का देखने के लिए फ़राशख़ाने भेजा. रेवतीभानजी ने बाउजी को देखा, जांचा-परखा और पंडित दयानंद जोशी से बात पक्की कर ली. जाते समय अपने घरवालों को दिखाने के लिए वे बाउजी की तस्वीर साथ लेते गए.

                                                

इसके कुछ ही दिनों बाद बाउजी (पंडित हरिबल्लभ शर्मा) और भाभी (श्रीमती शांता देवी) पति-पत्नी बन गए. दूल्हे के माता-पिता का दायित्व श्री और श्रीमती दयानंद जोशी ने निभाया. दुल्हन विदा होकर उन्हीं के घर में आई और उन्हीं के घर में बाउजी की नई गृहस्थी का आरंभ हुआ.

घर चौथी मंज़िल पर था और आंगन की जगह बहुत बड़ा आयताकार जाल बिछा था. जाल से नीचे झाँकने पर तीन और जाल दिखाई देते थे. पुरानी दिल्ली के अधिकांश मकानों की बनावट ऐसी ही है. हर मंज़िल पर लोहे का जाल और जाल के चारों तरफ़ कमरों की कतारें. इस मकान में भी जाल के तीन तरफ़ कमरों की कतारें थीं और चौथी तरफ़ नीचे उतरती हुई सीढ़ियां. सीढ़ियों के सामने वाले कमरों में बाउजी की गृहस्थी थी और बाकी दो हिस्सों में, आमने-सामने बरामदे और बरामदे के पीछे वाले कमरे पंडित दयानंद जोशी के पास थे.

हमारी मां, शांता देवी और बाउजी की आयु में बारह वर्ष का अंतर था. मां का बचपन मथुरा की होली वाली गली में बीता था. इसी गली में पंडित चंद्रभानजी रहते थे जिनकी दो संतानें थीं. एक हमारी मां शांता देवी और दूसरे मामा गोपालजी. हमारे नाना चंद्रभान जी के दो भाई थे – बड़े भाई सूरजभान जी और छोटे भाई प्रतापभानजी. प्रतापभान जी की अपनी कोई संतान नहीं थी. सूरजभान जी के तीन बेटे थे, उदयभान, रेवतीभान और मोतीभान और एक बेटी भी थी राधिका. लेकिन राधिका देवी का 1950 में देहांत हो गया और चचेरी ही सही, भाभी के रूप में भाइयो के बीच एक ही बहन बची. रेवतीभान मामाजी इस कुटुंब में सबसे अधिक पढ़े-लिखे और संपन्न थे, शायद इसीलिए रिश्ता पक्का करने की ज़िम्मेदारी उन्हीं को सौपी गई थी. चूंकि रिश्ता तय करने में भूमिका निभाई थी, इसीलिए रेवतीभान जी अपनी बहन के सुख-दुःख की खबर भी लेते रहते थे.

दिल्ली के फ़राशखाने में अपनी नई गृहस्थी आरम्भ किए जाते समय, बाउजी दरियागंज में जवाहरात की एक दूकान में काम करते थे. इसके मालिक थे एक मिर्ज़ासाहब. मिर्ज़ासाहब क़रीब-क़रीब एक तिहाई दरियागंज के मालिक थे. उन के पास इस इलाक़े में कई दूकानें और मकान थे, जिनके किराएदारों से हर महीने किराया-वसूली का काम भी बाउजी के ज़िम्मे था. मिर्ज़ासाहब के कुछ रिश्तेदार इस बात से नाख़ुश भी थे कि ख़ुद मुसलमान होकर मिर्ज़ासाहब एक हिंदू पर इतना ऐतबार करते हैं. यहां तक कि ज़ेवरात की दूकान भी उसके सुपूर्द की हुई है और हज़ारों रुपए का किराया वसूल करने का काम भी उसी को सौंपा हुआ है. सुनकर मिर्ज़ासाहब हंसते और कहते, “मुसलमान का मतलब क्या है? जिसका ईमान मुसल्सल हो, वोही ना? इस ऐतबार से जिसको तुम हिंदू कहते हो, उससे बेहतर मुसलमान मुझे दिखा दो, तो मैं उसे रख लूंगा.” मिर्ज़ासाहब बाउजी को बेटे की तरह प्यार करते थे. बाउजी भी बचपन से पितृहीन रहे थे, शायद इसलिए हर बुज़ुर्ग में अपने पिता की छवि देखते और बेटे जैसा प्यार पाने में कामयाब हो जाते. इधर मिर्ज़ासाहब और उधर पंडित दयानंदजी जोशी, दोनों बाउजी को पुत्रवत मानते थे.

सन् 1943 में दूसरा विश्व युद्ध जवानी पर था और धरती के एक बड़े भू-भाग पर हिटलर की फ़ौजें तोप-गोले बरसा रही थी. उस समय भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था. अगर ब्रिटिश फ़ौजें हार जाती, तो फिर भारत, ब्रिटेन की जगह जर्मनी का ग़ुलाम हो जाता. युद्ध का अंत क्या होगा और इतिहास कौन सी करवट लेगा, यह कोई नहीं जानता था, फिर भी राजधानी होने के कारण दिल्ली में एक अजीब भय का वातावरण छाया हुआ था. लोग अक्सर बातें करते कि हिटलर एक न एक दिन दिल्ली पर ज़रूर बम बरसाएगा. बाउजी की नई गृहस्थी अभी आरंभ हुई ही थी. सन् 40 में मुन्नी का और 42 में मेरा जन्म हो चुका था. बाउजी के मन में विचार आया कि अगर अंत होना ही है, तो जीवन के आख़िरी दिन अपने घर-गांव और अपने लोगों के बीच बिताने चाहिए. इसी सोच के कारण एक दिन उन्होंने दिल्ली छोड़कर भीलवाड़ा जाना तय कर लिया. शायद तब मेरी आयु लगभग एक वर्ष की रही होगी, जब हम भीलवाड़ा के भोपालगंज में आकर बसे और यहीं मेरी चेतना ने जागना और संसार को देखना शुरू किया.

हमारे भीलवाड़ा आने के लगभग दो बरस बाद ही हिटलर की हार हो गई और विश्वयुद्ध समाप्त हो गया. युद्ध में जीत या हार किसी की भी हो, तबाही दोनों ही पक्षों को झेलनी पड़ती है. मित्रराष्ट्रों की जीत बेशक हुई थी, लेकिन युद्ध के ज़ख्मों ने उन्हें भी बुरी तरह घायल कर दिया था. जीत का सेहरा भले ही चर्चिल के सिर पर भी बांधा गया, लेकिन युद्ध से थका-हारा ब्रिटेन भीतर से खोखला हो चुका था. युद्ध के दौरान अंग्रेज़ों ने गांधी जी के साथ एक मौखिक समझौता किया था कि यदि ब्रिटिश सरकार की जीत हुई, तो भारत को आज़ादी दे दी जाएगी, लेकिन इसे पाने के लिए गांधी जी को हिन्दुस्तान के नौजवानों से ये कहना पड़ेगा कि वे अधिक से अधिक संख्या में ब्रिटिश फ़ौजों में भर्ती हों और हिटलर के ख़िलाफ़ लड़ें. 1945 में जब विश्वयुद्ध समाप्त हो गया, तब गांधी जी ने अंग्रेज़ों को उनका वादा याद कराया और इस तरह भारत को आज़ादी देने की प्रक्रिया शुरू हुई. सच पूछिए तो युद्ध के कारण अंग्रेज़ ख़ुद इतना कमजोर हो चुका था कि भारत के बोझ को उठाने की उसमें ताब नहीं थी. कुछ इतिहासकारों का तो यह भी कहना है कि भारत ने आज़ादी ली नहीं, अंग्रेज़ भारत से अपनी जान छुड़ा कर भाग गया.

जो भी हो सन् 47 में भारत आज़ाद हुआ और साथ ही बंटवारे के दंगों का खूनी नाच भी शुरू हुआ. भीलवाड़ा में बाउजी की ‘एच बल्लभ एंड कंपनी’ ने नाम और दाम कमाने शुरू किए ही थे कि शर्णार्थियों की आमद से कंपीटीशन बढ़ा और व्यापार की लगाम बाउजी के हाथ से फिसलने लगी. इसके बाद परिवार भी बढ़ा और बाउजी का संघर्ष भी. पिछले ग्यारह-बारह बरस में साबुन, दूध, अभ्रक, खेती का सामान, यूरिया-खाद, साइकिलें, सीमेंट की चद्दरें और ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड - व्यापार के जाने कितने मोर्चों पर हारने के बाद बाउजी ने एक बरस खेती करते हुए झोपड़ी में भी बिताया. जहां से एक दिन वे थके-हारे-टूटे, बीमार बदन के साथ वापस लौटे. उन दिनों बाउजी बिस्तर पर पड़े जाने क्या सोचा करते. शुक्लाजी के इस मकान में केवल दो ही कमरे थे और बाउजी को आराम मिल सके, ऐसी सुविधा भी नहीं थी. घासीरामजी ताऊजी ने दो-तीन मकान छोड़कर एक दूसरे मकान का इंतज़ाम किया, जिसमें कमरे भी तीन थे और किराया भी कम था. हमलोग अब इस नए मकान में चले गए. बगल के कमरे में एक दक्षिण भारतीय रेड्डी साहब रहते थे. उसके आगे एक नौजवान बीडीओ साहब अपनी नई नवेली दुल्हन के साथ बसे हुए थे. यह मकान प्रताप टॉकिज के इतना नज़दीक था कि रात को जब हम छत पर सोते, तो कभी-कभार सिनेमा घर से छनकर आते फ़िल्म के संवाद और गाने भी सुनाई दे जाते.

बाउजी थोड़ा चलने-फिरने तो लगे थे, लेकिन बहुत बुझे-बुझे रहते. उनके तन-मन की हालत देखकर भाभी की आंखें बार-बार छलक आतीं. सीधे-सच्चे और ईमानदार होने की ऐसी सज़ा क्यों मिली बाउजी को. क्या ऊपर वाले के दरबार में सचमुच कोई न्याय नहीं है? बुआजी भी उदयपुर में थीं. भाभी अपना दु:ख किसके साथ बांटती. एक दिन कुछ सोचकर, सबके सो जाने के बाद चुपके से, रात को लालटेन की रोशनी में, भाभी ने दिल्ली निवासी अपने चचेरे भाई रेवतीभानजी शर्मा को एक खूब लंबी चिट्ठी लिखी. जिसमें अपना सारा दु:ख-दर्द बयान कर दिया. चिट्ठी का जवाब तार से आया. तार में रेवतीभान मामाजी ने लिखा था कि बाउजी वापस दिल्ली आ जाएं. तार पढ़कर बाउजी काफ़ी सोच में पड़ गए. एक दो दिन ही और बीते होंगे कि रेवतीभान मामाजी का भेजा हुआ एक मनीआर्डर मिला, जिसके साथ यह संदेश भी लिखा था, ‘यह दिल्ली आने का रेल किराया है. अब बिना बिलंब किए बाउजी को दिल्ली आ जाना चाहिए.’ काफी सोच विचार के बाद बाउजी ने भी यही उचित समझा कि रेवतीभानजी के सुझाव को स्वीकार कर लिया जाए.

ग्यारह-बारह बरस पहले, जाने क्या-क्या सोचकर बाउजी दिल्ली से भीलवाड़ा आए थे और अब हालात ऐसे बने कि वापस दिल्ली जाने को लाचार थे.

बाउजी दिल्ली चले गए. बुआजी उदयपुर में थीं और अशोक भी उन्हीं के पास था. मुन्नी भाभी के साथ फुन्नू को गोद में लिए स्कूल चली जाती और पीछे से मैं हर प्रकार की बदतमीज़ी करने के लिए आज़ाद हो जाता. घर में पुराने वक्तों की एक साइकिल पड़ी थी, जिसे गिरते-पड़ते मैंने थोड़ा-बहुत चलाना सीख लिया था. साइकिल चलाने में मुझे बहुत मज़ा आता था. कानों के पास से फर्र-फर्र करके हवा पीछे दौडती, तो जादू सा लगता. किसी न किसी बहाने साइकिल लेकर मैं आवारागर्दी करने निकल पड़ता. चेतू को घर में अकेला बंद करके बाहर चले जाने की बात पर, स्कूल से आने के बाद भाभी खूब चिल्लाती, दुखी होती और मेरे ढीठपने से हारकर रोने बैठ जाती, लेकिन मेरे स्वभाव पर इसका कोई असर नहीं पड़ता था. आज सोचता हूं तो लगता है, जितनी नाफ़रमानी और बदतमीज़ी मां के साथ मैंने की, घर में शायद ही किसी और ने की हो.

घर के सामने पहली मंज़िल पर एक संपन्न परिवार रहता था. घर की बड़ी-बड़ी खिड़कियों के पीछे मैंने गोटे-किनारी के चमचमाते कपड़ों में ख़ूब सजी-संवरी औरतें देखी थीं. रात को इसी घर से खूब ज़ोर से  रेडियो बजने की आवाज़ आती. कभी गाने सुनाई देते और कभी-कभी ऐसा लगता जैसे किसी फ़िल्म के साउंड ट्रैक जैसी ड्रामाई आवाज़ें आ रही हैं. यह तो मैंने कई बरस बाद जाना कि भीलवाडा के उस घर जो आवाज़े मैंने सुनी, वो फिल्म की नहीं रेडियो-नाटक की होती थीं, जो आकाशवाणी जयपुर से प्रसारित होते थे. लेकिन तब मुझे कहाँ पता था कि रेडियो-नाटक किस बला का नाम है.

जाने कहां मैंने विलायती ओपेरा के गाने सुन लिए थे और सोचता था की ऐसा रोना-पीटना तो मैं भी मचा सकता हूँ. एक दिन भाभी, मुन्नी, चेतू और फुन्नू के सामने ओपेरा जैसा ‘आआआआआ...’ करके मैंने अपने अंग्रेज़ी गायन का रौब जमाने की कोशिश की. ऊंचे सुर में चिंचिंयाती मेरी आवाज़ मोहल्ले में दूर तक सुनाई दी और तभी सामने के घर से दौड़ती हुई, दो औरतें हमारे घर में घुस आईं. उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. पूछा, “हाय राम क्या हो गया?” तब तक मैं तो चुप हो चुका था, लेकिन भाभी उनके आने का कारण समझकर हंसी के मारे लुढ़की जा रही थीं. औरतें भी छाती पर हाथ रखकर धम से बैठ गईं और पूछा, “कौन? ये मुन्ना आवाजें निकाल रहा था?” फिर मेरी तरफ़ मुड़कर बोलीं, “क्यों रे ऐसी आवाज़ें निकालता है? हमारा तो कलेजा मुंह को आ गया. लगा, पता नहीं क्या अनहोनी हो गई.”
मैं मुस्कुराते हुए झेपने का नाटक कर रहा था. गोटे-किनारी वाली उन औरतों को अपने नज़दीक देख कर दिल में गुदगुदी भी हो रही थी. उधर भाभी की हंसी नहीं रुक रही थी. मुन्नी और चेतू भी खी-खी कर हंसे जा रहे थे. फिर वो औरतें भी हंसने लगीं.

अशोक बुआजी के पास उदयपुर में था, लेकिन उसका भी अकेले वहां मन नहीं लगता था. एक बार मैंने उदयपुर जाने की ज़िद की. लड़-झगड़ कर भाभी से टिकट के पैसे लिए और जाकर ट्रेन में बैठ गया. बुआजी और अशोक दोनों मुझे आया देखकर चौंक गए. बुआजी ने सबसे पहले ये पूछा, “अकेला आया है?” अब तक मैं चालाकियां सीख चुका था, इसलिए कहा, “हां, आपकी याद आ रही थी, सो मिलने आ गया”. भोली बुआजी ख़ुश हो गई और लाड़ से घर के भीतर ले गई. अगले दिन बुआजी तो अपनी ट्रेनिंग के लिए मेडिकल सेंटर चली गईं और अशोक ने मुझे उदयपुर दिखाने की योजना बनाई.

दिन भर इधर-उधर घूमते हुए हमने महाराणाजी का महल, सहेलियों की बाड़ी, पिछोला झील और झील के बीच में बने हुए जगमंदिर, जगनिवास और जाने क्या-क्या देख डाला. अशोक मेरे आने से बहुत उत्साहित था, लेकिन दो-चार दिन बाद ही मुझे वापस लौटना था. जाते-जाते मैं अशोक को बता गया कि इस बार गर्मी की छुट्टियों में हम सब दिल्ली जाने वाले हैं.

मेरे भीलवाड़ा वापस लौटने के कुछ ही दिनों बाद गर्मी की छुट्टियों के कारण स्कूल बंद हो गए और भाभी को भी दो महीने की फ़ुर्सत हो गई. अब जैसा कि सोचा हुआ था, हमने दिल्ली के लिए बिस्तर-पेटी बांधने शुरू किए. ये तैयारी चल ही रही थी कि एक दिन आधी रात को अशोक उदयपुर से भाग कर चला आया. हम सब दिल्ली चले जाएं और वो अकेला उदयपुर में सज़ा काटे, ये कैसे हो सकता था. पहले तो भाभी ने उसे ख़ूब भला-बुरा कहा, फिर जैसा कि वो करती थीं, चुप होकर बैठ गईं. 1956 के जून का तीसरा हफ्ता शुरू हुआ और हम दिल्ली जाने के लिए ट्रेन में सवार हो गए. उन दिनों ट्रेनों में ऐसा भीड़-भड़क्का नहीं होता था. आराम से हम अजमेर पहुंचे. गाड़ी अजमेर तक ही जाती थी. अब हमें इसे छोड़कर दूसरी ट्रेन में सवार होना था. उतरकर हम दिल्ली जाने वाली गाड़ी के प्लेटफॉर्म पर पहुंचे और उसमें सवार हुए. भीड़-भाड़ इस गाड़ी में भी नहीं थी. ट्रेन का इतना लंबा सफ़र जीवन में मैं पहली बार कर रहा था. दिल्ली के बारे में कितनी सारी बातें सुन रखी थी. सारी बातें एक-एक करके याद आ रही थी. भीतर जिज्ञासा के बादल घुमड़ रहे थे. सुना था, दिल्ली में रहने वालों का रंग गोरा हो जाता है. रोमांच के कारण रात को देर तक नींद नहीं आई. मैं खिड़की से बाहर झांकता हुआ, अंधेरी रात में चांद को ट्रेन के साथ-साथ दौड़ते हुए देखता रहा. 16 जून 1956 की सुबह लगभग आठ बजे हमारी गाड़ी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के छोटी लाइन वाले प्लेटफॉर्म पर पहुंची. भाभी के बड़े चचेरे भाई उदयभानजी के बेटे किशन हमें लेने स्टेशन आए थे. उन्हीं के साथ हम सामान उठाकर बाहर आए और तांगे में बैठकर चांदनी चौक पहुंचे.

चांदनी चौक पुरानी दिल्ली का ऐतिहासिक बाज़ार है. जितना ऐतिहासिक है उतना ही मशहूर भी. चांदनी चौक के ठीक मध्य में कभी एक घंटाघर होता था, लेकिन कुछ बरस पहले ढह गया था. फिर भी इस चौराहे का नाम घंटाघर बना हुआ था. घंटाघर चौराहे पर सामने टाउन हॉल नाम की भव्य इमारत थी - अंग्रेज़ों के ज़माने की. अब टाउन हॉल में दिल्ली कॉर्पोरेशन का दफ़्तर था. चौराहे से बायीं तरफ़ मुड़ने पर सड़क सीधे लालकिले तक जाती है और दायीं तरफ़ मुड़ कर फ़तहपुरी मस्जिद तक पहुंचती है. सामने की तरफ़ एक पतली सड़क थी, जिसका नाम था ‘नईसड़क’. ये किताबों, ख़ास तौर पर स्कूल-कॉलेज के कोर्स की किताबों का सबसे बड़ा बाज़ार है. बायीं तरफ़ मुड़ते ही एक ग़ली सी थी - कटरा नील. इसके आगे तीन-चार इमारत पार करते ही हिमाचल रेस्टोरेंट का बोर्ड नज़र आ गया. रेवतीभान मामाजी इसी रेस्टोरेंट के मालिक थे. सीढ़ियां चढ़ते ही सामने रेस्टोरेंट का कांच वाला दरवाज़ा दिखाई दिया. रेस्टोरेंट के बाहर से ही रेलिंगदार सीढ़ियां करवट सी ले कर, ऊपर मामाजी के घर तक चली गयी थीं. रेस्टोरेंट पहली और घर तीसरी मंज़िल पर था.

मामाजी ने बाउजी को भीलवाड़ा से बुलवाकर हिमाचल रेस्टोरेंट में मैनेजर के रूप में नियुक्त कर दिया था. सुबह-सुबह बाउजी खारीबावली  जाते और रेस्टोरेंट के लिए ढेर सारी तरकारियाँ ख़रीदकर लाते. वैसे तो खारीबावली राशन और मसालों के थोक व्यापार का बाज़ार था, लेकिन सुबह-सुबह सड़क के दोनों तरफ़ सब्ज़ीवालों का पटरी-बाज़ार लगता था. सब्ज़ियां एक झल्लीवाले की मदद से रेस्टोरेंट तक पहुंचाई जातीं. दिल्ली की भाषा में झल्ली का मतलब है, बड़ी सी टोकरी. बाउजी का एक स्थाई झल्लीवाला था. बाउजी जहां-जहां से सब्ज़ियां ख़रीदते, झल्लीवाला उनके पीछे-पीछे अपनी टोकरी लेकर चलता और सब्ज़ियाँ उसमें भरता जाता. सब्ज़ियां रेस्टोरेंट तक पहुंचाने के कुछ देर बाद, नहा-धो कर बाउजी काउंटर पर बैठ जाते और रेस्टोरेंट में सुबह के चाय-नाश्ते के लिए ग्राहकों की आमद शुरू हो जाती.

मामाजी का घर बहुत बड़ा नहीं था. बस एक आयताकार बड़ा सा कमरा, एक छोटा कमरा और दोनों को जोड़ती हुई एक छत. छोटे कमरे के सामने रसोई, स्नानघर और संडास था. जीवन में पहलीबार फ्लश वाला संडास मैंने यहीं देखा. छत के एक किनारे पर लोहे की रेलिंग थी, जिससे झांकने पर नीचे चांदनी चौक का बाज़ार दिखाई देता था. सड़क के दोनों तरफ़ पेड़ों की कतारें थी ओर इन्हीं कतारों की बगल में बिछी पटरी पर ट्रामें चलती थी. लोगों को सामने से हटाने के लिए टनटन करती, आगे बढ़ती ट्राम मुझे बहुत आकर्षक लगती. मैं देर तक ट्रामों को आते-जाते देखा करता. मामाजी के बड़े कमरे में दो पलंग थे, जिनकी बगल में ठिगने क़द की अलमारी जैसा एक रेडियोग्राम रखा था. इसे देख कर मुझे भीलवाड़ा  वाला ग्रामोफोन याद आता. कमरे में दूसरी ओर एक पूजा का कोना था. इसी कोने में किसी दाढ़ी वाले साधु की विशाल तस्वीर लगी हुई थी. मामाजी रोज़ इस तस्वीर के आगे बैठकर ध्यान लगाते थे. मुझे ये तस्वीर कुछ-कुछ रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसी लगती थी, लेकिन बाद में बताया गया कि ये महर्षि अरविंद हैं. मामाजी श्रीअरविंद को बहुत मानते थे. यहां तक कि उन्होंने अपनी लड़कियों की तालीम भी पांडीचेरी के श्रीअरविंद आश्रम में करवाई थी. उनकी दो बेटियां विनोद और अंजना तो इस समय भी आश्रम में ही रह रही थीं. दिल्ली में मामाजी के जिन बच्चों से मेरा सामना हुआ, उनमें सबसे बड़ी थी सरोज बहन, फिर मंजू बहन, इसके बाद उनका भाई अरुण और सबसे छोटी अर्चना, जिसे सब बेबी कहते थे. सरोज बहन और मंजू बहन भी कुछ समय श्रीअरविंद आश्रम में बिता चुकी थीं. मामीजी (श्रीमती कृष्णा देवी) भारी बदन की, बेहद शांत और ख़ूब प्यार करने वाली महिला थीं. घर में नानीजी भी थीं, जो एक तरह से घर की मालकिन थीं और सब पर हुकुम चलाया करतीं. रसोईघर वे ही संभालती थीं और इसमें कोई शक नहीं, खाना बहुत अच्छा बनाती थीं. नानीजी रेवतीभान मामाजी की सगी मां नहीं थीं. असल में वो उनकी चाची थीं. चाचा प्रतापभानजी के देहांत के बाद नि:संतान चाची को मामाजी ने अपने पास बुलवा लिया था और उन्हें पूरी तरह से मां का दर्जा दिया हुआ था. नानीजी रोज़ सुबह चार बजे उठकर पैदल-पैदल जमुनाजी नहाने जातीं और लौटने पर सीधे रसोई संभालने में जुट जातीं.

मामाजी को जानवर पालने का भी ख़ूब शौक था. सुना है कि पहले एक तोता रखा था. एक बंदर भी पाला था और जिन दिनों हम चांदनी चौक के इस घर में पहुंचे, एक एप्सो नस्ल का कुत्ता पाला हुआ था. उसका नाम सोनी था. सोनी से सब लोग प्यार करते थे और वो था भी खिलौने जैसा. पहले दिन तो वो हमें देख कर खूब भौंका, लेकिन अगले दिन से पुचकारने पर पूंछ हिलाने लगा. अरुण और बेबी रोज़ शाम सोनी को घुमाने के लिए कंपनीबाग जाते थे. अब मैंने भी उनके साथ जाना शुरू कर दिया. सोनी को घुमाने से ज्यादा मज़ा मुझे आता था, कंपनीबाग के उन झूलों में, जिनपर झोंटे लेना मैं कभी नहीं भूलता.

हरा-भरा कंपनीबाग़, कारपोरेशन की इमारत के पीछे दूर तक फैला हुआ था. जहां इसका फैलाव ख़तम होता था, वहां एक चौड़ी सड़क थी और सड़क के उस पार था, पुरानी दिल्ली का रेल्वेस्टेशन. स्टेशन की भव्य इमारत दूर से ही दिखाई दे जाती थी. सड़क के कम्पनीबाग़ वाले किनारे पर ही थी, दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी. शाम को अक्सर मैं अरुण के साथ लाइब्रेरी जाया करता. किताबों से अटी ढेरों आलमारियों के गलियारे मुझे खासे रहस्यमय जान पड़ते. तब यह पता नहीं था कि आने बरसों में ये गलियारे मेरे पठन-पाठन की दिशा निर्धारित करने वाले थे. हिंदी कथा साहित्य की अंगुली मैंने यहीं थामी. अन्य देसी और विदेशी भाषाओं के अनूदित कथा साहित्य से भी मेरा परिचय यहीं हुआ. उन दिनों की एक और घटना मुझे याद है, जिसने कई दिनों तक मुझे मुदित रखा. लाइब्रेरी में बाल-साहित्य का एक नया कक्ष खुला था. मैं और अरुण इसी कक्ष की नयी मेज़-कुर्सी पर आसीन होकर, किताबों को उलट-पुलट रहे थे कि तभी दरवाज़े के बाहर कुछ हलचल हुई. हमने देखा, खादी के कुरते-पाजामे में सजे एक चश्माधारी महाशय ने कक्ष में प्रवेश किया. साथ में और भी कई लोग थे. आगे-पीछे कैमरेवालों का दल भी था. महाशय ने कक्ष को मुआइने के अंदाज़ में देखा, फिर हमारी मेज़ के पास आकर खड़े हो गए. कैमरेवालों की कई फ्लेश-लाइटें चमक उठीं. फोटो खींचे जा रहे हैं, यह जान कर मैंने अपना हाथ ठोड़ी पर रख कर पोज़ बना लिया. पास खड़े अरुण ने भी मुस्करा कर कैमरे की तरफ देखा, लेकिन फ्लेश की चौंध में उसकी आँखें बंद हो गई.
         
ये सज्जन कौन थे, क्या करने आये थे और फोटो क्यो खींचे गए थे, ये सारी बातें हमें अगले दिन ‘नवभारत टाइम्स’ के मुखपृष्ठ ने बताई, जहां हमारा फोटो छपा था. तस्वीर के साथ समाचार भी था कि भारत के सूचना और प्रसारण मंत्री श्री बी वी केसकर ने, दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के नए बाल-कक्ष का उदघाटन किया. तब मंत्रीजी के साथ फोटो खींचे जाने से ज्यादा ख़ुशी इस बात की हुई थी कि मेरा फोटो अखबार में छपा. ख़ुशी का कारण मेरी यह जानकारी थी कि अखबार में तो फोटो केवल बड़े लोगों के ही छपते हैं.

इस घटना के बाद मुझे यकीन होता हुआ सा लगा कि अब मेरे ‘बड़ा आदमी’ होने में ज्यादा देर नहीं है. 

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