सबसे नए तीन पन्ने :

Tuesday, May 18, 2010

न कोई रहा हैं न कोई रहेगा

आज याद आ रहा हैं साठ के दशक की फिल्म का गीत, फिल्म का नाम हैं गोवा या जौहर महमूद इन गोवा

जैसा कि नाम से ही लगता हैं इसमे आई एस जौहर और महमूद की मुख्य भूमिका हैं। महमूद इसमे अलग रूप में हैं, क्रांतिकारी की भूमिका हैं। गोवा मुक्ति आन्दोलन पर बनी इस फिल्म में सोनिया साहनी की महत्वपूर्ण भूमिका हैं और यह सिम्मी ग्रेवाल की पहली फिल्म हैं।

इस फिल्म के एकाध गीत अब भी विविध भारती पर सुनाई देते हैं पर यह गीत नही सुने बहुत लंबा समय हो गया। इस गीत को शायद दो गायकों ने गाया हैं, नाम मुझे याद नही आ रहे - शायद मन्नाडे, मुकेश, रफी साहब...

गीत के कुछ बोल याद आ रहे हैं -

न कोई रहा हैं न कोई रहेगा
न कोई रहा हैं
हैं तेरे जाने की बारी विदेशी
ये देश आजाद हो के रहेगा
मेरा देश आजाद हो के रहेगा
न कोई रहा हैं

हलाकू रहा हैं न हिटलर रहा हैं
---------- मूसा भी -----------

सिकंदर की ताक़त को पोरस ने देखा
मुगलों की ताक़त को ------- ने ------
जब खूनी नादर ने छेड़ी लड़ाई
तो दिल्ली की गलियों से आवाज आई
लगा ले तू कितना भी जोर सितमगार
ये देश आजाद हो के रहेगा
मेरा देश आजाद हो के रहेगा
न कोई रहा हैं

चीन से चाओ और माओ भी आए
-------------------------

पता नहीं विविध भारती की पोटली से कब बाहर आएगा यह गीत…

7 comments:

Unknown said...

बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |

बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर

सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |

बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !

आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब

केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।

फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।

विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से

माधव( Madhav) said...

heart rendering

http://madhavrai.blogspot.com/

honesty project democracy said...

विचारणीय व रोचक प्रस्तुती /

मनोज कुमार said...

संग्रहणीय प्रस्तुति!

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

संजीव कवि की प्रस्तूती कितनी भी सराहनिय हो पर यह मंच तो पोस्ट के बारेमें टिपणी के लिये ही है नहीं की अपनी प्रस्तूती के लिये । गाने के बारेमें कुछ भी नहीं लिख़ कर अपने अस्तीत्व की पहचान के लिये यह सरासर दूरओपयोग है । आश्चर्य यह है कि अन्य टिपणी लेख़कोने भी प्रथम टिपणी को ही ध्यान में रख़ा है नहीं की अन्नपूर्णाजी की प्रस्तूती को । तो अन्नपूर्णाजी को कहना है कि यह गाना करीब पिछले तीन सालमें शायद दो या तीन बार भूले बिसरे गीतमें पूरा नहीं पर सम्पाद्दित प्रस्तूत किया गया है । और वह सेंसरशीप भी सरकार द्वारा प्रेरीत है । पडौसी देशो द्वारा अवैध रूपसे अपने कब्जेमें रख़े मुल्को या अपने कब्जेमें वैध रूप से होते हुए मूल्को के लिये बूरे इरादे से उन पडोसी देशो द्वारा ख़ड़े किये गये विवादो को ले कर हमारी सरकारों की स्वमान की भावनाको त्याग कर उन देशों की गलत भावनाओं का ख़याल रख़ना इस निती का नतीज़ा है ।
पियुष महेता ।
सुरत-395001.

annapurna said...

धन्यवाद पीयूष जी !

टिप्पणियों पर स्थिति स्पष्ट करने के लिए। मुझे लगता हैं इस पोस्ट को बिना ठीक से पढ़े ही टिप्पणियाँ दे दी गई।

गीत पर जानकारी के लिए। मुझे लगता हैं अब शायद यह गीत विविध भारती से सुनवाया जा सकता हैं।

रोमेंद्र सागर said...

संजीव कवी की प्रस्तुति और फिर उसपर भांति भांति की टिप्पणियाँ ...देख खासा आश्चर्य हुआ ! मैं पीयूष जी से सौ प्रतिशत सहमत हूँ...नामालूम लोग इन बातों का ध्यान क्यूँ नहीं रखते ....यह तो यूँ हुआ की किसी शादी के मंडप में आकर कोई मर्सिया पढने लगे ! खैर अपनी अपनी समझ है ...अब क्या कहा या किया जाए ....
बाक़ी एक बदिया गीत की याद ताज़ा करने के लिए शुक्रिया ....

Post a Comment

आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

अपनी राय दें