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Wednesday, June 15, 2011

न्‍यूज़-रूम में गाना बजाना: न्‍यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा कड़ी 2

रेडियोनामा पर जानी-मानी समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। इस श्रृंखला का शीर्षक है 'न्‍यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा'। आज दूसरी कड़ी।

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रेडियोनामा के एक पाठक ने लिखा है कि बचपन से जिन आवाज़ों को सुनते और पहचानते आ रहे हैं, उनमे से एक आवाज़ मेरी भी है. इसलिए अपने श्रोताओं के सामने यह स्वीकार करते हुए मैं हिचक रही थी कि रेडियो में नौकरी मैंने स्वेच्छा से नहीं, मजबूरी में की.

पढ़ने-लिखने में अच्छी थी इसलिए घर वाले चाहते थे कि मैं प्रशासनिक सेवाओं में जाऊं जबकि मुझे विश्वविद्यालय में पढ़ाना सबसे अधिक रुचिकर काम लगता था. पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग में नियुक्ति भी हो गयी थी, लेकिन पारिवारिक कारणों से वह नौकरी छोड़कर दिल्ली आना पड़ा. दिल्ली के कई कालेजों में कोशिश की लेकिन बात कुछ बनी नहीं. वे कहते थे इतिहास में एम ए कर लीजिये और मेरा तर्क यह था कि अगर मैं पटना में स्नातकोत्तर छात्रों को पढ़ाने के क़ाबिल थी तो दिल्ली में स्नातक छात्रों को क्यों नहीं पढ़ा सकती. लेकिन सच्चाई यह थी कि मुझे उस समय तत्काल एक अदद नौकरी की बहुत सख्त ज़रुरत थी.

पता चला कि आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में कैजुअल समाचार वाचकों की बुकिंग की जाती है. हालाँकि उनके चयन की प्रक्रिया उन दिनों काफी सख्त थी - अनुवाद पर खासा जोर दिया जाता था और करेंट अफेयर्स की अच्छी जानकारी भी लाज़मी थी. गोयाकि बनारस-पटना से दिल्ली आते-आते मुझे भी वैदिक काल से राजीव काल तक का सफ़र तय करना था. पाठ्य पुस्तक जैसी तन्मयता से अख़बार पढ़ने शुरू किये, पुराने पत्रकारों की शागिर्दी की और पड़ोस में रहने वाले आकाशवाणी के दिग्गज प्रसारणकर्त्ता श्री मेलविल डि मेलो को अपना 'पितु मातु सहायक स्वामि सखा' बनाया. लगभग महीने भर की तैयारी के बाद परीक्षा दे आयी. कुछ दिनों बाद स्वर परीक्षा का भी पत्र आ गया और इस तरह लिखित और मौखिक परीक्षाएं पास करते हुए मैं कैजुअल समाचारवाचक - अनुवादक बन गयी.

जुलाई १९८७ में बुलावा आया और मैं इन-उन देवी-देवताओं का नाम लेते प्रसारण भवन के हिंदी समाचार कक्ष में दाखिल हुई. कंप्यूटर का युग शुरू नहीं हुआ था. कई छोटी-बड़ी मेजों पर मशीन-गनों की तरह टाइप-राइटर सजे हुए थे. उनके पीछे उन्हें चलाने वाले स्टेनो सन्नद्ध थे. उन्हीं में से एक के पास मैं भी बैठ गयी. जादुई दुनिया लग रही थी. रात पौने नौ बजे के बुलेटिन की तैयारियां चल रही थीं. सभी लोग बेहद व्यस्त नज़र आ रहे थे.

मैं जिन स्टेनो के पास बैठी थी, उन्हीं से परिचय बढ़ाना शुरू किया. बड़े सौम्य-से व्यक्ति थे, मोहन बहुगुणा. वे भी बीच-बीच में व्यस्त हो जाते थे. लेकिन जब खाली होते तब मेरे प्रश्नों के उत्तर देते जा रहे थे. कमरे के बीच में एक बड़ी सी मेज़ थी, जिस पर कोई टाइप-राइटर नहीं था. एक तरफ बुर्राक़ सफ़ेद कुरते-पायजामे में एक सज्जन फ़ोन पर बतिया रहे थे और दूसरी तरफ एक महिला बड़े मनोयोग से कुछ पढ़ रही थीं. बहुगुणा जी ने बताया कि वह रामानुज प्रसाद सिंह और विनोद कश्यप हैं, जो पौने नौ बजे का बुलेटिन रिहर्स कर रहे हैं.

अब हम ठहरे उस पीढ़ी के लोग, जिसे पौने नौ के बुलेटिन को वाक़ई आकाश से आती हुई वाणी समझने का संस्कार मिला था. रेडियो से पिप्स आयें और घन गंभीर आवाज़ कहे - "ये आकाशवाणी है" - तबसे लेकर - "समाचार समाप्त हुए" निनादित होने तक कुछ भी बोलना खुद अपनी शामत बुलाने जैसा होता था. बल्कि मेरे और मेरी कुछ सहेलियों के बीच यह क़रार हुआ था कि अगर फ़ोन पर लम्बी बात करनी हो तो यही समय सबसे उपयुक्त है, जब बड़े इस बात पर ध्यान नहीं देते कि हम चौदह मिनट से फ़ोन पर लगे हुए हैं. लेकिन पन्द्रहवां मिनट शुरू होते ही फ़ोन रख देना भी ज़रूरी था. तो उसी पौने नौ के बुलेटिन को अपनी आँखों के सामने बनता-सँवरता देखकर मैं सकते में थी.

तभी बहुगुणा जी ने याद दिलाया कि मैं भी समाचारवाचक हूँ और मुझे जाकर अपने सीनियर्स से मिलना चाहिए. मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी लेकिन मैंने प्रकट तौर पर यही कहा कि वे रिहर्स कर रहे हैं, मैं उन्हें डिस्टर्ब कैसे करूँ.

बहुगुणा जी ने हिम्मत बंधाते हुए कहा - जाइये, अभी बुलेटिन में काफी समय है.

मैं झिझकते हुए विनोद जी के पास पहुंची और उन्हें अपना नाम बताया. विनोद जी शायद ड्यूटी चार्ट बनाती थीं क्योंकि नाम सुनते ही उन्होंने कहा कि हाँ, आज तुम्हें २१:५० का बुलेटिन पढ़ना है. मेरे होश उड़ गए. मैं आकाशवाणी की नियमित टॉकर ज़रूर थी मगर उसकी तो हमेशा रेकॉर्डिंग ही होती थी. कभी किसी लाइव कार्यक्रम में शामिल नहीं हुई थी. दूसरे, विनोद जी से बातें करते हुए दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था कि मुझे लग रहा था- उन्हें भी आवाज़ ज़रूर सुनाई दे रही होगी. मैंने कहा - मैं अभी बुलेटिन नहीं पढ़ सकूंगी.

उन्होंने पूछा - क्यों?

मैंने कहा - पहले काम सीख लूं, उसके बाद बुलेटिन पढूंगी.

कहने लगीं - ठीक है. देखो, वो सज्जन २१:५० का बुलेटिन बना रहे हैं, उनके साथ बैठकर सीखो.

जान बची तो लाखों पाए. मैंने फ़ौरन उन सज्जन को घेरा और उनसे बुलेटिन बनाने के गुर सीखना शुरू कर दिया. वे सज्जन शम्भू बहुगुणा थे और ज़्यादातर २१:५० का बुलेटिन वही बनाते थे, जो खाड़ी और अफ़्रीकी देशों के लिए प्रसारित होता था. बुलेटिन बनाना उन्होंने मुझे दो मिनट में सिखा दिया. पौने नौ के समाचारों की कापियां जमा करो और गत्तों पर लगा लो, फिर जब बुलेटिन शुरू हो तो रेडियो के पास बैठ जाओ और अपने गत्ते बुलेटिन के क्रम के अनुसार लगा लो. इस तरह १५ मिनट का बुलेटिन तैयार हो जायेगा. फिर जो-जो समाचार तुम्हें अच्छे न लगें, उन्हें फेंक दो, बस बन गया बुलेटिन.

वह तो अच्छा हुआ कि जल्द ही मेरा परिचय रविंदर सभरवाल से हो गया, जिन्होंने मुझे सही दिशा-निर्देश दिए, वर्ना मैं आज तक २१:५० ही बना रही होती. रविंदर जी ने मुझे शम्भू जी और २१:५० के बुलेटिन का एक रोचक संस्मरण सुनाया. हिंदी के समाचारवाचक आम तौर पर पाँच मिनट में लगभग साठ पंक्तियाँ पढ़ते हैं. कुछ लोग साठ से अधिक या कम भी पढ़ते हैं, लेकिन औसत गति यही होती है. दस मिनट के बुलेटिन में इससे दुगनी, लगभग १२० पंक्तियाँ तैयार की जाती हैं. हालाँकि उसमें आगे और पीछे मुख्य समाचार भी होते हैं इसलिए कुछ कम पंक्तियाँ पढ़ी जाती हैं लेकिन बुलेटिन बनाने वाले इस बात का ध्यान रखते हैं कि बुलेटिन शोर्ट न हो जाये, यानीकि पंक्तियाँ कम न पड़ जायें. एक बार की बात है कि शम्भू जी की टेलीफ़ोन वार्ता कुछ ज़्यादा ही लम्बी खिंच गयी. उनका बनाया २१:५० का बुलेटिन रविंदर जी को पढ़ना था. जब वे साढ़े नौ बजे तक भी फ़ोन के सम्मोहन से मुक्त नहीं हुए तो रविंदर जी ने उनसे बुलेटिन की मांग की. शम्भू जी ने पाँच मिनट तक विधिवत फोनस्थ मित्र से विदा ली और अगले पाँच मिनट के अंदर गत्तों पर पन्ने टाँककर बुलेटिन रविंदर जी के हवाले कर दिया. विदेश प्रसारण का स्टूडियो दूर था, रिहर्स करने का समय नहीं रह गया था, रविंदर जी बुलेटिन लेकर चली गयीं. इधर शम्भू जी रेडियो के साथ कान लगाकर बैठ गए. किसी ने पूछा - क्या बात है? आज बुलेटिन कैसे सुना जा रहा है?

तो शरारती हँसी हँसकर बोले - मैंने उसे दस मिनट के बुलेटिन में सिर्फ ७० लाइनें दी हैं, देखूं क्या करती है.

उधर, स्टूडियो में रविंदर जी के पसीने छूट गए. सत्तर पंक्तियों को धीरे धीरे पढ़कर और कुछ समाचारों को दोबारा पढ़कर किसी तरह समय पूरा किया.

यह किस्सा सुनाते हुए उन्होंने मुझे बताया कि केवल वाचन ही नहीं अनुवाद, संपादन जो कुछ भी करो, पूरे मनोयोग से करो और हर बुलेटिन को अपनी और आकाशवाणी की प्रतिष्ठा मानकर चलो. रविंदर जी आजकल वाचन नहीं करतीं लेकिन हिंदी समाचार कक्ष की वरिष्ठ और कर्मठ सदस्या हैं. मैं आज भी अगर कहीं अटकती हूँ तो सीधे उन्हीं के पास पहुँच जाती हूँ. वे सभी को खरी- खरी सुनाती हैं लेकिन शम्भू जी से हार गयीं, उन्हें कोई सुधार नहीं सका.

आप सोच रहे होंगे कि मैं बुलेटिन बनाने में क्यों उलझ गयी......वाचन का क्या हुआ? तो दोस्तो, हक़ीक़त यह है कि मैं तीन महीने तक बुलेटिन पढ़ने से बचती रही. फिर एक दिन विनोद जी ने मुझे डांटा कि आखिर तुम पढ़ने से भागती क्यों हो?

मैंने कह दिया - मुझे डर लगता है.

बोलीं - किस बात से डर लगता है?

मैंने कहा - इतनी बड़ी संस्था का इतना महत्त्वपूर्ण काम, कहीं मुझसे कोई ग़लती हो जाये तो?

कहने लगीं - अच्छा, मेरे साथ चलो.

मुझे लेकर न्यूज़ स्टूडियो में गयीं. पहले मुझसे कुछ पढ़वाया. फिर मुझे बताया कि माइक से कितनी दूरी रखूँ, किन अक्षरों का उच्चारण करते समय ध्यान रखूँ कि साँस माइक से न टकराए, साँस को कब और कैसे तोडूँ. उसके बाद पूरा बुलेटिन मुझसे पढ़वाया और खुद पैनल पर बैठकर सुना. जब संतुष्ट हो गयीं तभी मुझे छुट्टी दी.

कितने विशाल ह्रदय और विराट व्यक्तित्व थे वे सब. उन दिनों के हिंदी समाचार कक्ष को याद करती हूँ तो कितने सारे चित्र उभरते हैं. Devkinandan Pande-1 अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन चुके देवकीनंदन पाण्डेय जी, ढीले पायजामे और काली शेरवानी में समाचारवाचक कम और शायर ज़्यादा लगते थे. कमरे में आकर अख़बार उठाते तो पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक बांचने के बाद ही उसे तह करते. नतीजा यह कि संपादक की कोई भी चूक उनकी पैनी निगाहों से हरगिज़ नहीं छिप सकती थी. बुलेटिन पढ़ते-पढ़ते भूल सुधार लेते, फेडर बंद कर संपादक को गाली देते और फिर फेडर खोलकर अगला समाचार पढ़ने लगते.

अशोक वाजपेयी जी अपनी भूलने की आदत की वजह से मशहूर थे. उनके बारे में एक क़िस्सा सुनाया जाता है कि एक दिन आते ही नाराज़ होने लगे कि ये क्या हो रहा है?.........सुबह का बुलेटिन एनाउन्सर से क्यों पढ़वाया गया? मैं घर में दाढ़ी बना रहा था, जब बुलेटिन शुरू हुआ. आवाज़ पहचान में नहीं आई तो मैंने ड्यूटी रूम में फ़ोन किया. उन्होंने बताया कि समाचारवाचक नहीं पहुंचे इसलिए उद्घोषक से पढ़वाया गया. किसकी ड्यूटी थी?

सब लोग चुप. जब किसी ने जवाब नहीं दिया तो उन्होंने खुद आगे बढ़कर ड्यूटी चार्ट देखा...वहां उन्हीं का नाम लिखा हुआ था.

इंदु वाही बहुत अच्छा गाती थीं, ये बहुत कम लोग जानते होंगे. अक्सर मेज़ पर बैठी गुनगुनाती रहती थीं लेकिन खुलकर शायद ही कभी गाया हो. मेरा बेटा शानू उस समय कोई पाँच बरस का रहा होगा. कोई नया गीत सीखकर आया था और चाहता था कि मैं फ़ौरन सुन लूं. मैं आकाशवाणी में थी. मैंने समझाने की कोशिश की कि घर आकर इत्मीनान से सुनूंगी लेकिन बाल हठ...."अभी सुनो" कहकर वो गाने लगा. इंदुजी ने इशारे से पूछा कि गा रहा है क्या. मैंने हाँ में सर हिलाया तो उन्होंने मेरे हाथ से फ़ोन ले लिया और गाना सुनने लगीं.

बाद में उन्होंने शानू से कहा - वाह भाई, आप तो बहुत अच्छा गाते हैं.

शानू भाई बोले - आप कौन हैं?

इंदुजी ने कहा - मैं आपकी इंदु वाही आंटी हूँ.

बोले - आंटी हैं तो गाना सुनाइये.

इंदुजी बोलीं - अभी यहाँ बहुत सारे लोग हैं. जब कोई नहीं होगा तब सुनाऊँगी.

शानू न्यूज़रूम देख चुके थे, बोले - वहां तो हमेशा बहुत सारे लोग रहते हैं तो आप कैसे गायेंगी? मुझे कुछ नहीं पता. आपको अभी गाना पड़ेगा.

और वाक़ई इंदु जी को गाना पड़ा.

कृष्ण कुमार भार्गव जी थोड़ा सा अनुरोध करते ही गा दिया करते थे. गाना हमेशा एक ही होता था -

ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवाँ .........

और सचमुच भार्गव जी अब तक जवानों जैसे सक्रिय बने हुए हैं. वर्षों पूर्व अवकाश ग्रहण कर चुकने के बावजूद नियमित रूप से एफ़ एम गोल्ड का मार्केट मंत्र कार्यक्रम तो करते ही हैं, गाहे-बगाहे खेलों का आँखों देखा हाल भी सुनाते हैं.

चलते-चलते एक बात और याद आ गयी. अब से कोई दस साल पहले हमारे हिंदी समाचार कक्ष में सभी प्रमुख पार्श्वगायकों की आवाजें मिल जाया करती थीं. हरी संधू रफ़ी साहब के ज़बरदस्त फैन हैं और हूबहू उनकी आवाज़ में गा सकते हैं. राजेन्द्र चुघ सही मूड में हों तो मुकेश के गाने सुनाते हैं. संजय बैनर्जी के पीछे पड़-पड़ कर मैंने उन्हें हेमंत दा के दो चार गाने रटवा दिए थे और वो भी महफ़िल से उठकर जाने वालों को "बेक़रार करके हमें यूँ न जाइये" सुनाने लगे थे.

एक दिन कहने लगे - क्यों हम सिर्फ हेमंत कुमार ही क्यों गायेंगे? हम मोहम्मद रफ़ी भी गायेंगे.

हमने कहा - ठीक है, रियाज़ करके आओ. सुनकर बतायेंगे.

दो-चार दिन बाद मैं और हरी संधू समाचार प्रभात पढ़कर वापस न्यूज़ रूम में आकर बैठे ही थे कि संजय सामने आकर खड़े हो गए और दोनों आँखे बंद कर, हाथ फैला कर गाने लगे - चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे ......

मैं पर्स में हाथ डालकर चाय के लिए पैसे निकाल रही थी. मैंने एक चवन्नी संजय के हाथ पर रखी और कहा - बस बाबा, आगे बढ़ो.

इतने ज़ोर का ठहाका लगा कि ड्यूटी रूम से लोग घबड़ाकर भागे आये. लेकिन उसमें मेरा और संजय का भी पूरा-पूरा योगदान था.
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संबधित कड़ियाँ:

यह आकाश वाणी है, अब आप देवकीनंदन पाण्डे से समाचार सुनिए- संजय पटेल

अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए- इरफान (टूटी हुई बिखरी हुई)


12 comments:

pratima sinha said...

ईश्वर का धन्यवाद कि आज मुझे सबसे पहली टिप्पणी टाँकने का अवसर मिल ही गया वरना अपनी मनचाही जगह पर पहले से ही टिप्पणियों का रेला देख कर मन बैठ जाता है कि इतनों के बाद अब मुझे कौन पढेगा ....? बहरहाल शुभ्रा जी के संस्मरणों की इस श्रंखला से जुडना अपने ही मन की दुनिया में फिर से विचरने जैसा है.आकाशवाणी वाराणसी में उदघोषक-ड्यूटी करने के दौरान मैंने भी अनगिनत बार सुना है - “ ये आकाशवाणी है.अब आप शुभ्रा शर्मा से समाचार सुनिये.” लिंक स्टेशन्स पर समाचार के नियत समय से कुछ सेकेंड्स पहले ही क्यू दे देना होता है ऐसे कि बीप्स भी न कटे...आखिर वही तो समाचारों की ‘संकेतधुन’ होती है...टाइमिंग इतनी सही होनी चाहिए कि इधर हमने कहा कि “...अब समाचार दिल्ली केन्द्र से रिले किये जा जाएंगे.” और उधर एक सेकेंड बाद बीप शुरु हो जाए. ऐसे में अपनी तरफ़ से क्यू छोडने के बाद ज़रा भी अन्तराल आने पर दिल खुद ही बीप बन कर बजने लगता है और तभी रुकता है जब दिल्ली वाले सचमुच की बीप न बजा दें.ड्यूटी के दौरान समाचार हमारे लिये अगली तैयारी के लिये मिला थोडा सा समय हुआ करता है, विशेषतौर पर सुबह की सभा में... ऐसे में ज़रा रुक कर,ठहर कर, इत्मीनान से समाचार सुनना नहीं हो पाता था बल्कि हम आवाज़ धीमी कर अगले टेप्स क्यू करने में लग जाते थे....इसके बावजूद , कुछ आवाज़ें हमेशा ज़ेहन में बनी रहने वाली हैं जैसे शुभ्रा जी की आवाज़. ये जानना भी सुखद है कि प्रसारण के समय सिर्फ़ हम बनारस वालों की ही नहीं बल्कि दिल्ली वालों की दिल्ली में और मुंबई वालों की मुंबई में जान अटकी ही रहती है.ये एक ऐसी डर वाली गुदगुदी है जो हमें एक-साथ बाँधे रहती है आखिर आल इंडिया रेडियो जो है :-)एक समानुभूति का ये रिश्ता वाकई बहुत प्यारा है...शायद एक सच्चे गर्व का आधार भी कि एक समय में,एक टीम(इंडिया), एक साथ मिल कर इतने महत्वपूर्ण काम को अंजाम दे रही होती है. आदरणीय शुभ्रा जी आपको पढना सचमुच सुखद है...आप बस यूँ ही लिखती रहें...! और हाँ, इस श्रंखला का तोहफ़ा हमें देने के लिये युनुस भाई को विशेष धन्यवाद !!!
सादर,
साभार...!

यूनुस खान said...

यूनुस खान की टिप्पणी...
शुभ्रा जी दो बड़ी हस्तियों के नाम इस संस्‍मरण में आए हैं, मेलविन डिमेलो और देवकीनंदन पांडे। इनके बारे में ज्यादा जानने की इच्‍छा है

Sarita said...

Shubhra,
You have described your old memories in such a nice way that your description was like "Door-Darshan". It is alive and engrossing from begnning to end..... So many interesting Stories are there behind the screen (Radio).... Big Personalities who served with full sincerity... Thanks for making us remember the names that we had heared decades ago... Your writing skill is indeed great...
With love - Sarita

Manish Kumar said...

अच्छा लगा आपके इस संस्मरण को पढ़ कर ! स्कूल के दिनों तक पौने नौ और आठ बजे के बुलेटन तो सब लोग सुनते ही थर।सात बजे के खेल समाचारों की हमें बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा होती थी। अब तो ार्सा हो जाता है आकाशवाणी की वाणी सुनने में।

sanjay patel said...

शुभ्राजी,
समाचार कक्ष में भी इंसान ही रहते हैं और उनके साथ उनकी फ़ितरतें,विवशताएँ,अनुभव,विनोद और इंसानी तकाज़े भी रहते हैं.

आपको पढ़कर उसी समाचार कक्ष की सैर हो रही है जिसकी गुणवत्ता को समय बीत जाने के बाद ही स्वीकारा जाता है और ग़लतियों पर इल्ज़ाम तत्काल से भी पहले लग जाते हैं.

जारी रहे ये सिलसिला......

sanjay patel said...

यूनुस भाई
आदाब.आपका कमेंट पढ़ने पर मैलविन डिमेलो के साथ सुरजीत सेन भी याद आए जो एक शानदार हॉकी कमेंट्रेटर भी थे.जसदेवसिंह के साथ उसकी अदभुत जुगलबंदी थी. प्रसारण की दुनिया ने डिमेलो और सेन का सही मूल्यांकन नहीं किया. एशियाड की शुभारंभ बेला संभवत: डिमिलो साहब को आख़िरी बार सुना था. क्या तो भाषा विन्यास और कैसा विलक्षण स्वर !

Archana Chaoji said...

Devakinandan Pandey............waah kya aawaaj thi ..dur se hi samachar sunai dete the.

nisha said...

mujhe yaad nahin aata kabhi ki maine koi samachar suna ho bachpan main lekin ye pata nahin tha ki meri duniya aage samchaar vaachko se ghiri hogi wo bhi aap jaise anubhavi aur multi talent logo se
aapka ye article to kuch kuch meri he kahani kahta hai magar main samchar wachika nahin to kya aapke samacharo ka production karke he mujhe garv mahsoos hota hai ki main aap jaise logo ke saath kaam karti hoon

GGShaikh said...

शुभ्रा जी,
बढ़िया चेप्टर...
पर्याप्त अच्छा लिख रही हैं, आप...!
लेखमाला रसपूर्ण बन रही है जहाँ तरलता व ताज़गी भी बरक़रार है...तत्कालीन 'गुज़रा हुआ ज़माना' पर बारीकियां संवादों सहित की... यह एक स्मृतिलेख भी है और आपका तत्कालीन रोज़नामा भी जिसे हम अभी इस जून २०११ में बड़े चाव से पढ़ रहे हैं...बहरहाल on-stage off-stage सब कुछ दिलचस्प...

फ़िर आपके लेखन की सुघड़ता व सहज प्रवाहिता से जो रसनिष्पत्ति हो रही है वह इन आलेखों की
लिटररी वेल्यू भी गढ़ रही है और लेखमाला जैसे एक book version के लायक बनती जा रही है...

लिखते रहिये...सुनाते रहिये...
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वैसे हमारे यहाँ स्वेच्छा का उतना अवकाश नहीं. फ़िर भी ईश्वर ने आपकी नौकरी रेडियो में
लगाकर ठीक ही किया...

रामानुज प्रसाद सिंह, देवकीनंदन पांडे, इंदु वाही.. यह नाम १९७० के आसपास के हमारे पास्ट को
हमारे भीतर आंदोलित कर रहे हैं...

GGShaikh said...

Yunus ji,

We value that you are there behind the good work.

Regards

Yunus Khan said...

फ़रमाईश फ़रमाईश फ़रमाईश।
मेलविन डिमोलो पर लिखिए।
मेलविन डिमोलो पर लिखिए।
मेलविन डिमोलो पर लिखिए।
मेलविन डिमोलो पर लिखिए।
मेलविन डिमोलो पर लिखिए।
मेलविन डिमोलो पर लिखिए।
मेलविन डिमोलो पर लिखिए।

Anonymous said...

shubhra ji mujhe bhi purane din yaad aa gaye, shukriya sat pal

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