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Wednesday, April 20, 2016

ताने-बाने, लोकेंद्र शर्मा की जिंदगी के--पहली कड़ी।



जाने-माने ब्रॉडकास्‍टर और विविध भारती पर हमारे पूर्व साथी लोकेंद्र शर्मा रेडियोनामा पर प्रस्‍तुत कर रहे हैं अपनी जिंदगी की कहानी- 'ताने-बाने'। आज पहली कड़ी। रेडियोनामा पर लोकेंद्र जी का लिखा सब कुछ पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए




कहानी से मेरा परिचय नानी और दादी की कहानियों के साथ नहीं हुआ. नानी मथुरा में रहती थीं और वहीं बहुत पहले ही उनका देहांत हो गया था
, सो उनको तो कभी देखा ही नहीं. दादी राजस्थान के एक गांव में रहती थीं और हम भीलवाड़ा में थे, इसलिए उनसे कहानी सुनने का अवसर ही नहीं मिला.
शायद पहली बार कहानियां मैंने पड़ोस में आकर बसे एक शरणार्थी सिंधी परिवार के बच्चों से सुनी. सुनी हुई उन बातों को आज कहानीकहने का जी नहीं करता, क्योंकि उन बच्चों की ज़बानी जो सुना, वो खून में लिथड़ी हुई घटनाओं का आँखों देखा हाल था. मैं पांच-छह बरस का था और सिंधी बच्चे भी कुछ तो मेरी ही उम्र के आस-पास के और कुछ मुझसे भी छोटे और कुछ बड़े. ढ़ेर सारे थे. शायद आठ-नौ. उनके घर में सिर्फ एक मर्द था फत्तूमल. दोहरे बदन वाला, लालाजी जैसा मोटा. मैंने उसकी आवाज़ बहुत कम सुनी थी. हमेशा चुप और उदास रहता था. बस सुबह-सुबह ब्रह्ममुहूर्त में, सिन्धी में वो कोई भजन गाता था. मुंह अँधेरे के सन्नाटे में उसकी आवाज़ दूर दूर तक सुनाई देती. अगर वो सिन्धी में नहीं गाता, तब भी मेरी उम्र इतनी नहीं हुई थी कि भजन के अर्थ समझ सकूं. लेकिन एक बात आज भी याद है, उसके गाने में एक विलाप सा सुनाई देता था. एक बार मैंने मुन्नी (मेरी बड़ी बहन) से कहा भी था कि ये गाता है या रोता है. बाउजी ने मेरी बात सुन ली थी और डांट लगाई, ऐसे नहीं कहते.

फत्तूमल के घर में उसके अलावा चार औरतें और ढेर सारे बच्चे थे. हमारे मकान के बाहरी बरामदे में कई दूकानें थीं. पिछले कोने की एक दूकान में उसने सुनार की दूकान खोल ली थी. गर्मियों की दोपहर में, जब बड़े लोग कमरों में अंधेरा करके सो जाते, तो हम बच्चों का जमघट्टा सीढियों में अपनी मंडली जमा कर बैठ जाता. मूला, श्यामू, भोजू और रज्जा नाम आज भी याद है. उनके और बाकी बच्चों के साथ मैं और मुन्नी सांस रोककर उनकी बातें सुनते. पाकिस्तान से लुट-पिटकर आए हुए इन बच्चों ने, दंगों में अपने माता-पिता, चाचा-ताऊ, बड़े भाई, भाभी पता नहीं किस किसको अपने सामने कटते-मरते देखा था. वही सब बातें अलग-अलग घटनाओं के रूप में सुनने को मिलती. एक दिन श्यामू चुपचाप जाकर, घर के किसी ट्रंक में छुपा कर रखी, एक टूटी हुई तलवार उठा लाया. वो आधी तलवार अब भी सूखे हुए खून में रंगी थी. श्यामू के पिताजी, फत्तूमल के छोटे भाई थे. इसी तलवार से लड़ते हुए मारे गए थे. श्यामू ने खुद उन्हें कटते हुए देखा था. अपने पिताजी की बात करते-करते श्यामू रोने लगा. चुप कराना किसी को नहीं आता था सो वो रोता रहा था. उसकी हिचकियों के अलावा मुझे बस एक सन्नाटा सुनाई देता रहा था.

कहानियों ने मेरे ज़हन में इसी सन्नाटे के साथ प्रवेश किया. टूटे-फूटे शब्दों और बेतरतीब बातों से कच्ची उम्र में जो चित्र कल्पना में उभरे, वो लंबे समय तक बार-बार याद आते रहे. बाद में जब थोड़ा बड़ा हुआ, मैं इसी तरह सुनी हुई बातों, आस-पास के लोगों और घटनाओं के ताने-बाने बुनने लगा. कभी सुनी-देखी बातों में कुछ अपना जोड़-तोड़ मिलाया, तो कभी दो-तीन बातों को एक दूसरे में गूंथ कर एक नयी बात गढ़ डाली. यही सब करते-करते शायद नौवीं-दसवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते उन बातों को कहानियों की शक्ल में काग़ज पर भी उतारने लगा. शुरू की कुछ कहानियां तो बेकार गई, लेकिन बाद में कुछ कहानियां साप्ताहिक हिन्दुस्तानऔर नवभारत टाइम्समें छपीं. लेकिन ये सब बहुत बाद की बातें हैं. तब की, जब भीलवाड़ा और बचपन पीछे छूट चुका था.

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कहानी सोचने की कसरत भले ही बहुत कच्ची उम्र में शुरू कर दी थी, लेकिन आज जब पैंसठ-सत्तर बरस बाद, अपनी कहानी लिखने बैठा हूं, तो भीतर पता नहीं क्यों ढेर सारी उलझन और घबराहट महसूस कर रहा हूं. क्या क्या कहूं, कितना छुपाऊं, मन के किस कोने को ऊघाड़ूं और किसे ढांपूं. यही ढेर सारी बहस मेरे भीतर हो रही है. पता नहीं कितना कुछ है, जो घुमड़ कर बाहर आ जाना चाहता है. और पता नहीं कितना है, जो मुंह छुपाकर सिर्फ रोना चाहता है. लगता है लेखन की इतनी कठिन परीक्षा से पहले कभी नहीं गुजरा. आज का लिखना स्वंय को एक बार फिर से जीने जैसा है. फिर से उसी राह पर चलने जैसा, जिस पर जाने कितनी ठोकरें, जाने कितने कांटे और जाने कितने ज़ख्मों का सामना हुआ. पीछे मुड़ कर देखता हूँ, तो तिहत्तर बरस लम्बा रास्ता कहीं उबड़-खाबड़, कहीं सीधा-सपाट और कहीं आड़ा-तिरछा नज़र आता है. कहा जा सकता है कि यह कोई अजूबा नहीं है. सबकी जीवन-यात्रा ऐसी ही होती है. लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि सब की एक जैसी नहीं होती.
देखा तो नहीं पर इतिहास की किताबों में पढ़ा है, दुनिया की दूसरी जंगी-लड़ाई 1 सितम्बर 1939 को शुरू हुई और 2 सितम्बर 1945 तक चली. इन बरसों का इंसानी इतिहास खूनी पन्नों से भरा है. धरती पर चारों तरफ तोपें गरजती, गोलियां चलती, गांव-शहर उजड़ते और हजारों-लाखों लोग मौत की नींद सो जाते. भारत की ज़मीन पर वैसे तो केवल पूर्वी सीमा को छोड़कर और कहीं बारूदी खेल नहीं हुआ. लेकिन भारत में बरतानवी राज था और विलायत की फौजें हिटलर के ख़िलाफ लड़ रही थीं, इसलिए भारत में भी जाने कब किसके माथे पर आकर बम गिरेगा, ये सोच सोचकर लोग घबराए फिरते थे. सुना है कि मारकाट के उन दिनों में कभी कभी कोई दिन ऐसा भी आता था, जब तोपें बारुद नहीं उगल पातीं और युद्ध के मैदानों में सन्नाटा घिरा रहता, शायद सेनापतियों के दल अगली लड़ाई की योजना बनाने में मशगूल हो जाते होंगे.

सन 1942 में जब जंग जवानी पर थी, तब ऐसा ही एक दिन आया था - 25 अक्टूबर. इस दिन कोई ख़ास बड़ी घटना-दुर्घटना नहीं हुई. मौका अच्छा था, सो सोच समझकर उस दिन मैंने धरती पर आना तय किया और अवतरित होने के लिए राजधानी दिल्ली चुनी.
कुछ बरस पहले बाउजी की एक पुरानी फ़ाइल् मिली थी और उसमें नत्थी एक काग़ज़ दिखाई दिया था. इस काग़ज़ पर बाउजी की लिखावट में मेरे पैदा होने का रोजनामचा दर्ज था. लिखा था तीसहज़ारी आरोग्य सदन, दिल्ली, दूसरी मंजिल, कमरा नंबर दो, बिस्तर नंबर पांच. समय रात के 9.35, दिन रविवार, दिनांक 25 अक्टूबर सन 1942’.

यूं पैदा तो हो गया, लेकिन लड़ाई के ज़माने में हुआ था, सो ये नहीं जान पाया कि पूरी ज़िंदगी लड़ाई के मैदान जैसी ही होने वाली है.
धीरे-धीरे जब दुनिया दिखाई देने और थोड़ी-थोड़ी समझ आने लगी, तब मैंने अपने आपको राजस्थान के एक कस्बे में पाया. जिसका नाम था भीलवाड़ा. बाद में जाना कि जब मैं एक-डेढ़ बरस का था तभी, दिल्ली छोड़ कर बाउजी यहाँ आ गये थे. कस्बे में जहां हमारा हवेलीनुमा घर था, वो भीलवाड़ा का नया इलाका था. आजकल आबादी के कारण पसरते हुए शहरों में, ऐसे इलाकों को सबर्ब कहा जाता है. भीलवाड़ा के हमारे सबर्ब का नाम भोपालगंज था. आज तो भीलवाड़ा राजस्थान के शहरों में गिना जाता है, लेकिन सन 48-49 में वो बाकायदा एक कस्बा ही था. यह दूसरी बात है कि तब भी आसपास के गांवों में रहने वाले लोग भीलवाड़ा को शहर और हमें शहरवाला कहते थे. भीलवाड़ा से लगभग 22-24 कोस की दूरी पर साड़ास नाम का हमारा पैत्रिक गांव था, जो चित्तोड़गढ़ जिले में आता था. उन दिनों आने-जाने के लिए पक्की सड़कें नहीं थीं. गाँव जाने के लिए कच्चे रास्तों और पगडंडियों पर चल कर या बैलगाड़ी में सवार हो कर जाना पड़ता था. रास्ते में दो नदियाँ भी पार करनी पड़ती थीं   बेडच और बनास. मेरी दादी साड़ास के अपने पुश्तैनी मकान में रहती थीं. मकान मिट्टी की दीवारों और खपरैल का था, जिसे हम साल, दो साल में कभी एक-आध बार देख पाते. हमारी पुश्तैनी ज़मीन और खेत भी इसी गांव में थे. दादी को हम भाबाकहते थे.
पता नहीं कब किसने, शायद भाबा ने ही बताया था कि जब मेरे दादाजी पंडित गौरी शंकर जी का देहांत हुआ तब बाउजी की उम्र करीब पांच या छः बरस की थी. बारह बरस की उमर तक पहुँचते पहुँचते वो घर छोड़कर चले गए थे. कई बरस बाद जब एक दिन मैंने बाउजी से पूछा था कि क्या ये सच है, तो वो सिर्फ मुस्कुरा दिए थे. मैंने फिर पूछा था, कहां गए थे, तो उसी मुस्कान के साथ बाउजी ने बताया था पहले जावरा गया था, फिर बनारस.

असल में बाउजी ज्योतिष पढ़ना चाहते थे और इसी इरादे से बनारस गए थे. लेकिन ज्योतिष के लिए गणना में पारंगत होना बहुत आवश्यक है. गणना का अर्थ है, गणित. और गणित में बाउजी कच्चे थे. हिसाब-किताब तो जीवन भर, न कभी प्यार में कर पाए, न व्यापार में.  
सच पूछो तो बाउजी का जीवन हम बच्चों के लिए हमेशा किसी रहस्य-कथा सा रहा. एक बार घर का कबाड़ उलटते-पलटते समय, कहीं से एक लोहे का टोपा निकल आया. मुझे बड़ी हैरानी हुई कि ये क्या है. तब बताया गया कि यह बाउजी का टोपा है, जब वो बम्बई के फायरब्रिगेड में ड्राइवर थे, तब का है. इसी तरह एक दिन अपनी धींगा-मस्ती में मैं टांड पर चढ़ गया, तो वहां रखा हुआ एक हारमोनियम और तबलों की जोड़ी दिखाई दी.  साथ में बाउजी की लिखावट में राग-रागनियों की सरगम लिखी हुई एक कापी भी थी. भाभी ने बताया कि जब बाउजी गाना सीखते थे, तब की है.
बाउजी के बारे में मैं सब कुछ जानता हूं, यह बात दावे के साथ मैं जीवन में कभी नहीं कह पाया, आज भी नहीं कह सकता.
भीलवाड़ा में जहां हमारा घर था उसके सामने एक रेतीला मैदान और मैदान के उस पार स्टेशन से गांव तक जाने वाली सड़क थी. सड़क के उस पार एक पेंच था. सब पेंच कहते थे, इसलिए हम भी उसे इसी नाम से जानते थे. लेकिन असल में वो एक मिल था, जहां कपास की बिनाई-धुनाई की जाती थी. पेंच का मुख्यद्वार हमारे घर के ठीक सामने सड़क के उस पार था. लेकिन यह पेंच के परकोटे का कोना था. और यहीं से स्टेशन से आती हुई सड़क दाएं मुड़कर, हमारे घर के सामने तीर सी सीधी हो जाती और दूर तक दिखाई देती रहती थी. उन दिनों सड़कें डामर की नहीं होती थीं. ईंट-रोड़ी और बजरी को, रोड रोलर की मदद से समतल बना दिया जाता था और कभी-कभार मशकवाले मजदूर उसपर पानी का छिड़काव कर दिया करते. सामने की सड़क जहां जाकर आंखों से ओझल होना शुरू होती, वहां एक सिनेमा घर था - महाराणा टॉकिज. महाराणा टॉकिज की छत के दोनों कोनों से, सड़क की तरफ हाथ सा फैलाए हुए लोहे के दो खंभे बने हुए थे, जिनसे रोशनी के दो बड़े-बड़े हंडे लटकाए गए थे. रात को जब बिजली के ये हंडे जलते, तो खूब जोर की रोशनी करते. रोशनी दूर-दूर तक फैली हुई दिखाई देती. बिजली की रोशनी भीलवाड़ा भर में शायद यही थी. सडकों और घरों में मिटटी के तेल की लालटेनें जलाई जाती थी. रात को महाराणा टॉकीज के हंडों के चारों तरफ़ हजारों की तादाद में कीट-पतंगे मंडराने लगते. रोशनी हमारे घर के बरामदे में भी आती और साथ में पतंगों की परछाईयां भी दीवार पर नाचती हुई दिखाई देती. मैं और मुन्नी भी साथ में नाचते. असल में कीट-पतंगों की परछाईयों के साथ नाचती हुई अपनी छायाओं को दीवार पर नाचता हुआ देखकर हमें सिनेमा का मजा आता.

चाहे जितनी हुडदंगबाज़ी करूं, बुआजी मुझे तो कुछ नहीं कहतीं, लेकिन मुन्नी को लड़की होकर उछल-कूद मचाने पर डांटने से कभी नहीं चूकतीं. वे गाँव के पुराने विचारों में रची-बसी थीं. उनका पारम्परिक विश्वास था कि लड़की और लड़के के व्यवहारों में अलग-अलग मर्यादाएं होनी चाहिए. मुन्नी की डांट-डपट होती, तो हमारे खेल में व्यवधान पड़ जाता, बुरा भी लगता. इसके बावजूद बुआजी के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा ज़रूर था, जिसका मेरे अस्तित्व और सोच या कहूं पूरे जीवन पर गहरा असर रहा है. लेकिन जब जब वे मुन्नी के उछल-कूद करने और चीखने-चिल्लाने जैसी बातों पर डांट लगातीं और मैं मुन्नी को एकाएक सहम कर चुप हो जाते देखता, तो मेरे भीतर कहीं एक विरोध पनपता. उन दिनों तो शायद इसलिए कि मुन्नी मेरे साथ नहीं खेलेगी तो मैं अकेला कैसे खेलूंगा. लेकिन आने वाले बरसों में ज्यों-ज्यों बड़ा हुआ, मेरा यह विरोध भी बड़ा होता गया और एक विद्रोह बनकर ज़हन में सर उठाने लगा. केवल लड़की होना ऐसी वजह कैसे हो सकती है, जिसके कारण मुन्नी पर पाबंदियां लगाई जाएं.

वैसे तो यह बात मेरी समझ में कई बरस बाद आई कि मेरे भीतर जो एक विरोध जाग रहा था, यह नयी बात नहीं थी. हर नई पीढ़ी ने सदा अपने पुरखों की सोच को नकारा है. हर नए दौर ने, गुजरे हुए दौर के ख़िलाफ आवाज़ उठाई है. हर युग ने पिछले युग के विरोध में क्रांति की है. शायद इसी ऐतिहासिक परम्परा का परिणाम था कि मुझमें भी ऐसी ही किसी क्रांति के अंकुर फूटने शुरू हो रहे थे. यही वो अंकुर थे, जिन्होंने बरसों बाद, एक वृक्ष का रूप ले लिया और मेरे विचारों को तार्किक और वैज्ञानिक सोच की छाया में ला खड़ा किया.

लेकिन ये सब बातें बाद में.

1 comment:

RAKESH BHARTIYA said...

रोचक है। अगली कड़ी का इंतज़ार है

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