जानी-मानी पूर्व समाचार वाचिका शुभ्रा शर्मा रेडियोनामा पर अपनी श्रृंखला प्रस्तुत कर रही हैं--'पत्ता पत्ता बूटा बूटा'। आज इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी। पुरानी कडियां आप यहां पढ़ सकते हैं।
संगीत का शौक हमारे घरवालों का
पुश्तैनी मर्ज़ है। मेरे परनाना पंडित श्याम सुंदर जी बदलते मौसम के अनुरूप होली,
चैती, कजरी गुनगुनाते रहते थे। उनकी बड़ी बेटी
यानी मेरी नानी केसर कुँवर अपने बाल गोपाल से सारी बतकही गीतों में करती थीं -
सुबह सवेरे- "जागिये ब्रजराज कुँवर पंछी बन बोले", श्रृंगार करते समय- "राधे प्यारी दे डारो ना बंसी मोरी" और भोग
लगाते समय- "आली म्हणे लागे बृंदावन नीको"। संगीत का यही संस्कार
उन्होंने अपनी दोनों बेटियों यानी हमारी माँ-मौसी को भी दिया। तब तक घर में कुत्ते
की फोटू वाला चूड़ी बाजा यानी HMV का ग्रामोफ़ोन आ चुका था और
दोनों बहनें अपने जेब-ख़र्च से पैसे बचाकर ख़ूब रिकॉर्ड खरीदा करती थीं। शादी के बाद
वे दोनों तो पराये घर चली गयीं लेकिन उनके चुन-चुनकर जमा किये रिकॉर्ड, मय ग्रामोफ़ोन के वहीँ रह गये। अब मेरा बचपन चूंकि ननिहाल में बीता इसलिए
मैं अकेली ही इस विरासत की हक़दार बनी।
उन रिकार्ड्स में तिमिर बरन, के सी डे, के एल सहगल, जूथिका रे, सचिन देब बर्मन, हेमन्तो मुख़र्जी, खुर्शीद, नूरजहाँ, जैसे परिचित-अपरिचित बहुत से नाम थे। सच पूछिए तो उन दिनों मेरी दिलचस्पी गानों में कम और ग्रामोफ़ोन की सुई बदलने या उसकी चाभी भरने में ज़्यादा रहती थी। फिर भी गाने कान में पड़ते रहते थे और याद भी हो जाते थे। ऐसा ही एक गाना था --
उन रिकार्ड्स में तिमिर बरन, के सी डे, के एल सहगल, जूथिका रे, सचिन देब बर्मन, हेमन्तो मुख़र्जी, खुर्शीद, नूरजहाँ, जैसे परिचित-अपरिचित बहुत से नाम थे। सच पूछिए तो उन दिनों मेरी दिलचस्पी गानों में कम और ग्रामोफ़ोन की सुई बदलने या उसकी चाभी भरने में ज़्यादा रहती थी। फिर भी गाने कान में पड़ते रहते थे और याद भी हो जाते थे। ऐसा ही एक गाना था --
अम्बुआ की डारी बोले कारी कोयलिया,
आजा बलमुआ हमार।
चार-पांच साल की बच्ची को शायद ये गाना इसलिए भी पसंद आया होगा क्योंकि इसकी रिदम बड़ी ज़बरदस्त है। पैर अपने आप ठुमकने लगते हैं। बाद में जाना कि आशा भोंसले ने इसे पं० निखिल घोष के निर्देशन में गाया था। निखिल जी प्रख्यात बाँसुरी वादक पं० पन्नालाल घोष के छोटे भाई थे और तबला और सितार दोनों में महारत रखते थे।
अम्बुआ की डाली पर कोयलिया बोलने का
मौसम यानी बसंत का मौसम। राग-रंग, यौवन-तरंग का
मौसम। प्रियतम साथ हो तो झूमने इठलाने का मौसम और अगर साथ न हो तो उसे पुकारने का
मौसम।
रंग-रंग के फूल खिले मोहे भाये कोई
रंग ना
अब आन मिलो सजना।
हम स्कूल में थे,
जब भोजपुरी फिल्मों की शुरुआत हुई। पहली फिल्म थी - गंगा मैया तोहेपियरी चढ़इबो। ज़ाहिर है पूरे भोजपुरी-भाषी क्षेत्र में यह फिल्म और इसका संगीत बहुत
पसंद किया गया। मुझे याद है बनारस में उन दिनों हर शादी में रफ़ी साहब का यह
बिदाई-गीत ज़रूर बजता था -
सोनवा के पिंजरा में बंद भइले हाय
राम चिरई के जियरा उदास
टूट गइल डालिया,
बिखर गइल खोतवा, छूट गइल नील रे आकास।
इस फिल्म की अपार सफलता को देखते
हुए उन्हीं कलाकारों को लेकर एक और फिल्म बनी - लागी नाहीं छूटे रामा। इसके गाने
भी खूब मशहूर हुए। उनमे से एक गाना था -
लाल-लाल होंठवा से बरसे ललैया हो के
रस चुएला
जइसे अमवा के मोजरा से रस चुएला।
लागे वाली बतियां न बोल मोरे राजा
हो करेजा छुएला
तोरी मीठी-मीठी बोलिया करेजा छुएला।
गाना बड़ा खूबसूरत है। ख़ास तौर पर
तलत साहब की आवाज़ इसे और भी मीठा बना देती है। लेकिन न जाने क्यों मेरी नानी ने इस
पर टोटल बैन लगा रखा था। गाने ही नहीं देती थीं। कभी भूले भटके शुरू कर दूँ तो
फ़ौरन इशारे से बरज देतीं। अब हम ठहरे उस युग के बच्चे जब इशारा ही काफी होता था।
क्यों,
कैसे, किसलिये जैसे तर्कपूर्ण शब्द बोलने का
अधिकार हमें नहीं दिया जाता था। भारत देश में भले ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था लागू
थी मगर हमारी नानी कुछ मामलों में तानाशाही बरक़रार रखे हुए थीं। नौकरी से अवकाश
ग्रहण कर इन दिनों ग्रेटर नोएडा में रहती हूँ और आम काटते हुए जी खोलकर यह गाना
गाती हूँ - कि जइसे अमवा के मोजरा से रस चुएला, हो जी रस
चुएला।
सच पूछिये तो बच्चन जी की वह कविता
बहुत सही है, जिसमें वे कहते हैं कि बौरे
आमों पर बौराये भँवर न आये, कैसे समझूँ मधु ऋतु आई। अपनी
आत्मकथा के दूसरे भाग 'नीड का निर्माण फिर' में उन्होंने लिखा है कि जिन दिनों वे अपने शोध प्रबंध के सिलसिले में
कैंब्रिज में थे, वहाँ वसंत के आने की चर्चा चली। लेकिन
भारतीय दृष्टि से वसंत का कोई लक्षण नहीं था -
माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा ,फैला-फैला नीला-नीला
बर्फ़ जली-सी पीली-पीली दूब हरी फिर
जिस पर खिलता फूल फबीला
तरु की निरावरण डालों पर
मूँगा-पन्ना और दखिनहटे का झकझोरा
बौरे आमों पर बौराये भँवर न आये
कैसे समझूँ मधु ऋतु आई?
सच तो है आम में बौर आयें,
उन पर मधु के लोभी भौंरे मंडराये, उसकी मादक
गंध से उत्तेजित कोयल कूक उठे, तभी तो पता चलता है कि हाँ,
अब वसंत आ गया है।
द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्मं
स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः।
सुखाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः
सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते।।
पेड़ों पर फूल,
तालाबों में कमल, स्त्रियों में काम, और पवन में सुगंध भर जाती है। भोर और संध्या सुखद लगती हैं और दिन अच्छे
लगने लगते हैं। वसंत के आते ही सब कुछ पहले से अधिक सुन्दर हो जाता है।
यह और बात है कि हमारे पड़ोसी मुल्क
में वसंत "आता" नहीं, "आती"
है।
लो फिर बसंत आई,
लो फिर बसंत आई
फूलों
पे रंग लाई।
पुनश्च :
अभी वसंत से मन न भरा हो तो कुछ गीत
और सुन लीजिए -
१. अम्बुआ की डाली डाली झूम रही है
आली -विद्यापति (1937)
कानन देवी, पहाड़ी सान्याल
कानन देवी, पहाड़ी सान्याल
२. अम्बुआ की डारी से बोले रे
कोयलिया - दहेज (1950)
जयश्री
३. कुहू-कुहू बोले कोयलिया -स्वर्ण
सुंदरी (1958
) लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी
४. सकल बन गगन पवन चलत पुरवाई री
-ममता (1966
) लता मंगेशकर
५. हिय जरत रहत दिन रैन -- गोदान (1963
) मुकेश
10 comments:
जिज्जी!इतना ललित लिखा है कि क्या कहूँ .....सांस रोक कर पढ़ गई पूरा ....ऐसा लगा जैसे सब मेरे मन की बात कह दी हो आपने ....और हाँ ...लाल लाल होठवा से बरसे ला ललाइया गाना हमारे यहाँ भी प्रतिबंधित था ...पर चुपके चुपके खूब गुनगुनाया इसे ...आज पूरा गाना याद है...बधाई जिज्जी ...अगली कड़ी की प्रतीक्षा...
जिज्जी!इतना ललित लिखा है कि क्या कहूँ .....सांस रोक कर पढ़ गई पूरा ....ऐसा लगा जैसे सब मेरे मन की बात कह दी हो आपने ....और हाँ ...लाल लाल होठवा से बरसे ला ललाइया गाना हमारे यहाँ भी प्रतिबंधित था ...पर चुपके चुपके खूब गुनगुनाया इसे ...आज पूरा गाना याद है...बधाई जिज्जी ...अगली कड़ी की प्रतीक्षा...
बताइये भला... हम लोगों को समाचार सुना के खुद गाना सुनती थीं आप... ज़रा इहै बतिया हमरे पिता जी को समाचार के साथ सुना देती तो शायद हम लोग भी कुछ सुन लेते.. वो समाचार सुनने के तुरन्त बाद ही रेडियो बन्द कर देते थे... उनका मानना था कि गाना सुनने से बच्चे बिगड़ जाते हैं... और समाचार सुनने से कुछ बन जाते हैं.. फुल वॉल्यूम करके सुनते थे..
इलाहाबाद जाकर विविध भारती सुनने को मिला तब कुछ गीत-संगीत की जानकारी मिली... और फिर न जाने कैसे अपनी हिन्दी थोड़ी सुधर गयी. कम से कम हाई-फाई कॉलेज की लड़कियों से तो अच्छी ही होगी... वो तो हिन्दी लिखा देखते ही मुँह बनाने लग जाती हैं..
रेडियोसखी, लो मिलाओ हाथ। जब कभी मिलेंगे तो मिलकर गायेंगे।
मनीष बबुआ! गाना न सुनते तो रेडियो में नौकरी भी न पाते। बस इतना धीरे सुनते थे कि चैकिंग करने वालों को सामने खड़े रहकर भी सुनाई न पड़े।
Sarita Lakhotia : Patta Patta Boota Boota ki teesari kadi padh kar tumhara Bachpan aankho ke aage aaye bina nahi raha....Nani, Mummy Mausi sab ki dhoomil yaaden samne aa gayi.....bahut bhavpoorn likha hai Shubhra.....
Bahut hi shandaar lekhan. Gaagar mein Saagar Shubhra didi. Yogendra Kamp.
आपकी लेखनी है या जादू की छड़ी ... इधर आपने घुमाई और उधर हम पहुँच गए वहाँ जहाँ एक नन्ही-प्यारी सी, नटखट, सुरीली बच्ची रेडियो पे कान लगाए चोरी-चुपके गीतों को आत्मसात कर रही है ! ... बचपन से आपके संगीत प्रेम की कहानियां सुन रही हूँ और हर बार ये उतनी ही रोचक, उतनी ही नई सी लगतीं हैं ... आपका वो रेडियो पे सुन-सुन कर गीतों को लिखना ... वो अन्ताक्षिरी में हर बार बाज़ी मार लेना ...उन गीतों से भरे रजिस्टरों का विदाई में आपका आँचल पकड़े पकड़े आपके साथ चले आना ...सब कुछ कितना सुन्दर, कितना अद्भुत !
गीत-संगीत तो जैसे आपकी धमनियों में दौड़ता है. श्वांसों में तिरता है ... तभी तो देखिये कहाँ कहाँ से चुन-चुन कर आप ऐसे दुर्लभ गीतों का गुलदस्ता हम सब के सजा लायीं !
वसंत ऋतु से आपका लगाव जग-ज़ाहिर भी है, अपेक्षित भी ... आप स्वयं जो इतनी कल्पनाशील ... माधुर्य, सौन्दर्यबोध और कलात्मक अभिव्यक्ति से छलकती हुई, इतनी जीवंत जो हैं ... वसंत तो आपके स्वभाव में ही रचा-बसा है ... तभी ना आपका शब्द शब्द मन को वासंती कर गया !
आपके आलेख पर कुछ भी कहना धृष्टता होगी ... पर ये सचमुच उन विरल आलेखों में से है जिनमें हमारे बीते हुए दिनों की, हमारी संस्कृति की, हमारी मिटटी की ख़ुशबू बसी हुई है ... ये तो धरोहर हैं और हमें इन्हें अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखना होगा !
सस्नेह प्रणाम
अर्चना पंत
एक दो गाने और जोड़ लीजिए
अम्बुवा पे गाए कोयलिया गाने
आ मोरे बालम किसी बहाने
(पगडंडी- 1947 D N Madhok_ Khurshid Anwar_Zeenat Begum)
अम्बुवा पे कोयल बोले..
अम्बुवा पे कोयल बोले
सजना, झुला जा हिंडोले
कलियों पे भँवरे डोले
सजना, झुला जा हिंडोले
(मूर्ति 1945 Pt Indra_Bulo C Rani_Khursheed)
अर्चि बहन, माना कि मैं पत्ते-पत्ते बूटे-बूटे के बारे में लिख रही हूँ, पर मुझे चने के झाड़ पर मत चढ़ाओ। तुम्हें तो मेरी कही बातें भी अच्छी लगती हैं और लिखे हुए शब्द भी। औरों को भी लगने दो। सस्नेह।
बिलकुल सागर भाई। यह तो हम सबका मंच है। अभी आम से जी नहीं भरा है। आम पर एक और आलेख आ रहा है,उसमें इन गीतों को जोड़ दूँगी।
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