आकाशवाणी इन्दौर के वरिष्ठ प्रसारणकर्ता नरहरि पटेल की यादें-2
मित्रों, पिछले शनिवार को आकाशवाणी इन्दौर के वरिष्ठ प्रसारणकर्ता और कवि नरहरि पटेल ने मालवा हाउस में अपनी आधी सदी पुरानी यादों को सहेजा। आज उसी का दूसरा भाग रेडियोनामा पर पेश करते हुए प्रसन्नता है। इस ब्लॉग के माध्यम से प्रयास रहा है कि प्रसारण विधा से जुड़ी उन तमाम शख़्सियतों के अनुभवों का दस्तावेज़ीकरण हो सके जिन्होंने किसी भी रूप में रेडियो को समृध्द किया है. गुज़ारिश यह भी है कि यदि हम उन तक नहीं पहुँच पा रहे हों और आप रेडियोनामा के पाठक के रूप में ऐसे किसी व्यक्तित्व से परिचित हैं तो हमें ईमेल द्वारा उनका संपर्क(फ़ोन/मोबाइल/ईमेल) भेजने की कृपा करें; हम आभारी होंगे। तो लीजिये मुलाहिज़ा फ़रमाइये नरहरिजी की आत्मीय रेडियो यात्रा की दूसरी और अंतिम कड़ी....
आकाशवाणी इन्दौर ने मुझे पूरे मध्यप्रदेश में एक सुपरिचित आवाज़ के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसकी वजह थे ऐसे प्रस्तोता जो मेरी अकिंचन क़ाबिलियत को सम्मान देते थे और अतिथि कलाकार के रूप में काम करने की स्वतंत्रता और मौक़ा मुहैया करवाते थे। हाँ यह भी बता दूँ कि आज भगवान की कृपा से मेरे पास ज़िन्दगी को आराम से जीने का सारा साज़ो-सामान है लेकिन पचास से सत्तर के दशक के उस मध्यमवर्गीय परिवेश के मुझ जैसे एक व्यक्ति को आकाशवाणी के इन प्रसारण अनुबंधों से काफ़ी आर्थिक बल भी मिला. यदि यह स्वीकारोक्ति नहीं करूंगा तो शायद वह नमक हलाली कहलाएगी।
मैं रेडियो की वाचिक परम्परा का प्रमुख स्वर बना उसके लिए डॉ. श्याम परमार, नंदलाल चावला, श्री नगरकर (सिने तारिका लीला चिटनीस के भाई) एन.पी. लैले, के.के.नैयर, अमीक़ हनफ़ी, जयदयाल बवेजा, पी.के.शिंगलू, केशव पाण्डे, महेन्द्र जोशी,ब्रज शर्मा (वॉइस ऑफ़ अमेरिका) दीनानाथ, स्वतंत्र कुमार ओझा, भारतरत्न भार्गव(बीबीसी) सत्येन शरत, विश्व दीपक त्रिपाठी - वीरेन्द्र मुंशी (दोनो बीबीसी हिन्दी सेवा) प्रभु जोशी, लक्ष्मेन्द्र चोपड़ा और राकेश जोशी जैसे प्रतिभासंपन्न प्रसारणकर्ताओं और प्रशासकों को श्रेय देना होगा जो प्रतिभा-पहचान के धनी रहे मेरी आवाज़ और क़लम का सही इस्तेमाल करते रहे।
आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे मालवा हाउस की आत्मीय यादें झकझोर देतीं हैं। बच्चों के गीत, किसानों के कार्यक्रम, युववाणी, रेडियो नाटक, रेडियो रूपक के साथ ही आकाशवाणी की उन प्रस्तुतियों की भी याद आती है जो श्रोताओं-दर्शकों की उपस्थिति में सभागारों और खेत-खलिहानों में होती आई हैं।
आकाशवाणी का वह सुनहरा दौर इसलिये भी याद आता है क्योंकि उस व़क़्त की कार्य संस्कृति कुछ ऐसी थी जो आकाशवाणी का पूरा स्टाफ़ बाहर से आने वाले कलाकार को भरपूर सम्मान देता था और उसकी कला का प्रशंसक होता था। मेरे कई नाटकों की रिहर्सल्स रात को ग्यारह-बारह बजे तक चलती रही है और उसके बाद देर रात को मैं अपनी सायकल से आठ-दस मील दूर बसे अपने घर पहुँचता था लेकिन तब भी थकान का नामोनिशान नहीं होता था क्योंकि मालवा हाउस में जाना और किसी प्रसारण का हिस्सा बनना मुझे गर्व से भर देता था.। हिन्दी रेडियो नाटकों ने मुझे अपार लोकप्रियता दी.नमक का दरोग़ा ईदगाह,,(प्रेमचंद) स्वप्न वासवदत्ता(महाकवि भास) नये हाथ(विनोद रस्तोगी) थैक्यू मिस्टर ग्लॉड(अनिल बर्वे)ऑलिवर ट्विस्ट(चार्ल्स डिकेंस) बिराज बहू(शरदचंद्र चटोपाध्याय)दो ध्रुव(वी.एस.खाण्डेकर) हूर का बेटा-बेनहुर (ल्यू वॉलेस), ख़ामोश अदालत जारी है(विजय तेंडुलकर) कुछ एक ऐसे नाटक हैं जो मेरी ज़िंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे और इनके बहाने मेरी आवाज़ को एक मुक़म्मिल पहचान मिली।
आज भी एक वरिष्ठ प्रसारणकर्ता, सलाहकार समिति के सदस्य या कभी ऑडिशन कमेटी के मेम्बर के रूप में मालवा हाउस जाना-आना होता है लेकिन अब मालवा हाउस में न तो पुराने ज़िंदादिल प्रसारणकर्मी हैं और न ही उन जैसा काम करने का ज़ज़्बा। रेडियो ने मुझे अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम दिया,माइक्रोफ़ोन पर साँस का इस्तेमाल सिखाया,मेरी ज़िन्दगी को एक ऐसा नमक दिया जिसका स्वाद मुझे मानसिक रूप से बहुत स्वस्थ बनाता रहा है। मालवा हाउस के परिसर में आज भी कई बूढ़े दरख़्त हैं जो मुझसे अपने मौन के ज़रिये बतियाते हुए पूछते हैं क्यों भाई कैसे हो ? और मुझे इन पेड़ों के पत्तों से एक बार फिर डॉ. श्याम परमार की उस आवाज़ की प्रतिध्वनि सुनाई देती है जैसे वह पूछ रहे हों "अरे भाई आप जैसे लोगों को ही तो ढूँढ रहा हूँ मैं'। आते रहना मालवा हाउस में।
चित्रों में
चित्रों में
- नरहरि पटेल
- जाने माने नाट्य निर्देशक दीनानाथ के साथ हैं नरहरि पटेल
- शरद बाबू के नाटक परिणिता की रेकॉर्डिंग का दृश्य। एकदम बाँई ओर हैं नरहरि पटेल.बीच में स्वतंत्रकुमार ओझा और वीरेन मुंशी.
8 comments:
अच्छी रही दोनों कड़ियाँ. खासकर अंतिम पंक्तियाँ दिल को छू गई. परिणीता नाटक मैंने धारावाहिक के रूप में हवामहल में दो-तीन बार सुना हैं. यह मेरी पसंदीदा रचना हैं. क्या यह उसी की रिकार्डिंग का चित्र हैं...
अन्नपूर्णा
आदरणीय नरहरि जी का पहला आलेख पढ़ते ही लिखना चाह रही थी कि बहुत बहुत अच्छा लगा. उस समय के लोग सचमुच प्रतिभा के कैसे ज़बरदस्त पारखी थे? और रेडियो के नाटकों की तो बात ही क्या थी! घर-घर में कितने चाव से सुने जाते थे. लेकिन यह अंतिम कड़ी वाली बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी. कितनी सारी यादें होंगी. कुछ तो और सुनाइए न. --शुभ्रा
शुभ्राजी से सहमत,
अभी मन नहीं भरा। बाउजी, इतने साल आकाशवाणी को आपने दिए, दो कड़ियों में उसे सवाँरा ही नहीं जा सकता। अभी बहुत सी बाते होंगी खजाने में उन्हे बाहर निकालिए।
और और और चाहिए। ये आखिरी कड़ी नहीं।
युनूसजी से सहमत...यादों का जादुई पिटारा तो अभी खुला ही है...ध्यान से पढ़ें तो बहुत कुछ सीखने को मिलता है...
इन यादो को पड़ के ऐस लगता हे की हम भी रेडिओ की उस दुनिए का हिसा होते ...................दादा याद को ये सफ़र जारी रखिएगा भुत आनंद आता हे पड़ कर
लेकिन अब मालवा हाउस में न तो पुराने ज़िंदादिल प्रसारणकर्मी हैं और न ही उन जैसा काम करने का ज़ज़्बा।...... Aapki is baat se shat-prtishat sahmat hun. ek aadh apvaad zarur mil jaega lekin zyadatar log naam kamane nahin...note kamaane ki udeshya se aate hein. Aur phir afsaraan ka ravaiyya bhi yahi hei ki ..."chhodiye saab, radio kaun sunta hei ".
अभी हम अगली जानकारी के लिये बेक़रार हैं|
!!!!
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