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Monday, August 3, 2009

मेरे आस-पास बोलते रेडियो-8

मेरे आस-पास बोलते रेडियो-8 - पंकज अवधिया

इस बार पता ही नही चला कि कब समय निकल गया और मेरे रेडियो का मसाला खत्म हो गया। इस बार न कोई पीछे पडा कि फलाँ-फलाँ आफर है न ही किसी तरह का फोन आया। बस एक दिन अचानक ही रेडियो ने मौन धारण कर लिया। तीन दिन बिन रेडियो कट गये। चौथे दिन मन नही माना और बंगलुरु फोन लगाया। पता लगा कि अभी उनके बात करने का समय नही हुआ है। शहर की उस दुकान का रुख किया जहाँ से इस रेडियो का पहले-पहल कनेक्शन लिया था। दुकान वाले ने कहा कि मन्दी का दौर है और रेडियो की दुकान बन्द पड रही है। शहर से बहुत कम लोगो ने रिचार्ज करवाया है। आप सोच लो, क्या रेडियो के लिये साल का 2000 खर्चना ठीक है? मै वापस आ गया।

दो दिन और कटे जैसे-तैसे। रेडियो का नशा तो नशा ही था। अगले ही दिन दुकान जाकर एक नही दो साल के पैसे दे दिये। कुछ कूट अंक प्राप्त किये और देखते ही देखते रेडियो फिर बोलने लगा। चारो ओर नाना प्रकार के रेडियो है। कोई अति सन्यमित भाषा मे बोल रहा है तो कोई सिरदर्द करने वाली रफ्तार मे। इस बीच मैने अपने पैसे वाले पुराने रेडियो को ही चुना। आज जब मै यह लेख लिख रहा हूँ तो इसका अप कंट्री चैनल अपने पूरे शबाब पर है।

इस बार इच्छा थी कि माता-पिता के कमरे मे भी यह रेडियो लगवा दूँ पर उन्होने साफ इंकार कर दिया। विविध भारती का उनका मोह छूटता नही दिखता। घर मे जब भी रसोई घर का रुख करो या पिताजी के अध्ययन कक्ष का, विविध भारती सुनने को मिल जाता है। मै भी मजाकिये लहजे मे माँ से पूछ लेता हूँ, सुबह आप इस मंजन से दाँत साफ करते है या नही?

मैने इस लेखमाला मे पहले लिखा है कि मेरे भोजन करने के समय रसोई मे सखी-सहेली कार्यक्रम आता रहता है। एक बार टमाटर से त्वचा की देखभाल के विषय मे कुछ बताया जा रहा था। यह उपाय मै सालो से सुन रहा था पर इस बार इसे सुनने पर मुझे अच्छा नही लगा। हाल ही मे टमाटर के खेतो से लौटा था। वहाँ कृषि रसायनो का इतना मनमाना प्रयोग हो रहा था कि दिल दहल गया। ये टमाटर जहर के पिटारे थे। इन्हे खाया ही नही जा सकता था पर कुछ ही देर बाद उन्हे बाजार पहुँचाया गया और फिर वहाँ वह हाथो-हाथ बिक गया। बेचारा खरीददार क्या जाने इन जहरीले पिटारो के बारे मे? मै सोच रहा था कि रेडियो कार्यक्रम सुनकर यदि कोई इसे त्वचा मे लगा ले तो पता नही उस पर क्या गुजरेगी? पर खरीददारो की तरह रेडियो वाले भी सच कहाँ जानते है? जानते होते तो ऐसा करने को नही कहते या बताते कि जैविक विधियो से तैयार टमाटर का प्रयोग ही बहने करे।

कल सुबह कुछ जल्दी ही उठ गया। विविध भारती चल रहा था। तभी किसी उद्घोषक ने कहा कि आप मनचाहे गीत की फरमाइश ई-मेल से भी भेज सकते है, पता है मनचाहे गीत एट जीमेल डाट काम। पिताजी अचानक ही पूछ पडे कि ये जीमेल क्या है? क्या यह सरकारी सेवा है? मैने कहा, नही, यह सरकारी सेवा नही है। पिताजी ने झट से पूछा कि फिर इन्होने विविध भारती वालो को पैसे दिये होंगे तभी तो उनका नाम लिया जा रहा है। मै शांत रहा। पिताजी का प्रश्न गलत नही था। मै भी उम्मीद कर रहा था कि विविध भारती की अपनी वेबसाइट तो होगी ही। कितना अच्छा होता कि ई-मेल मनचाहे गीत एट विविधभारती डाट काम या आर्ग होता। इसी बहाने लोग विविधभारती की साइट पर जाते और रेडियो जाकी के विषय मे जान पाते। बहुत से निजी रेडियो वालो के पास अपनी साइटे है जहाँ श्रोता मँडराते रहते है। मुझे विविध भारती की अपनी कोई अधिकारिक वेबसाइट नही मिली। हाँ, एक वेब पेज मिला पर पुराने ढंग का।

मै इस उधेडबुन मे लगा रहा कि इस बारे मे रेडियोनामा मे कुछ लिखूँ या नही। फिर सोचा अपने ही मन की बात साफ बता सकते है इसलिये प्रयास करने मे क्या हर्ज है?

उम्मीद है कि मै इस लेखमाला को जारी रख सकूँगा।

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

4 comments:

Anonymous said...

जी-मेल वाले मामले में यही उधेड़-बुन मेरी भी है।

annapurna said...

बहुत दिन बाद आपका चिट्ठा पढकर अच्छा लगा। सखी सहेली की आपने अच्छी ख़बर ली। लिखना जारी रखिए…

सागर नाहर said...

डॉक्टर साहब की पोस्ट कई दिनों बाद पढ़ पाया लेकिन पढ़ने में बहुत आनन्द आया।
व्यक्तिगत रूप से मुझे विविध भारती से भी ज्यादा पसन्द था ऑल इन्डिया रेडियो की ऊर्दू सर्विस, परन्तु आजकल रेडेयो पर यह स्टेशन पकड़ता ही नहीं। तकरीबन दस पन्द्रह वर्षों से ऊर्दू सर्विस नहीं सुनी।
बजुत बढ़िया पोस्ट रही आपकी, आगे की कड़ियों का इंतजार है।

Unknown said...

अच्छा लेख है,मनोरंजक और ज्ञानवर्धक दोनों ही| कृषि रसायनो के प्रयोग के मसले पर जनता को आगाह करना भी नेक ख़याल है |

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