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Wednesday, June 29, 2011

shifts के किस्‍से: न्‍यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा कड़ी 3


रेडियोनामा पर जानी-मानी समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। आज तीसरी कड़ी। पुरानी सभी कडियों को पढ़ने के लिए आप टैग news room se shubhra sharma का इस्‍तेमाल कर सकते हैं।

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न्यूज़ रूम से यादों का सिलसिला क्या शुरु हुआ जैसे हम सभी रेडियो-प्रेमी पुराने दिनों की यादों की रिमझिम फुहारों से भीग उठे. न्यूज़ रूम के मेरे उन शुरुआती दिनों के साथी डॉ हेमंत जोशी ने कहा कि उनकी यादें ताज़ा हो गयीं. संजय पटेल भाई ने लेख में आये नामों के अलावा और भी बहुत से नाम याद दिलाये. लोकेन्द्र शर्मा जी अपनी यादों का पिटारा खोलने को तैयार हो गए. और यूनुस खान ने तो फरमाइशों की झड़ी ही लगा दी. उनकी आधी फरमाइश तो मैंने पूरी कर दी है - मेलविल डि मेलो साहब के बारे में अपना संस्मरण भेजकर. आधी फिर कभी.

आज जो बात सबसे ज़्यादा याद आ रही है, वहीँ से शुरुआत करती हूँ. पहले-पहल रात की ड्यूटी मिला करती on-air-radio थी. नौ बजे से ढाई बजे तक. एक या डेढ़ महीने में ड्यूटी लगती थी और एक बार में सिर्फ छह. यानी लगातार छह रातों का जागरण. बाद में मैंने इसका एक तोड़ निकाल लिया था. बजाय छह रात लगातार रात की ड्यूटी करने के, एक रात और एक तड़के की ड्यूटी एक साथ करने लगी. इस तरह एक रात जागने के बाद एक रात सोने को भी मिल जाता था. यह भी सुविधा थी कि प्रशासनिक स्टेनो नौटियाल जी ड्यूटी लगाने से पहले फ़ोन करके पूछ लेते थे कि अगले सप्ताह आपकी ड्यूटी लगने जा रही है, आप उपलब्ध हैं या नहीं. इस एक फोन कॉल के कारण कितना झमेला बच जाता था. अगर हमें कोई असुविधा होती तो हम कह देते थे और हमारी ड्यूटी नहीं लगायी जाती थी.

तड़के शिफ्ट की ड्यूटी तीन बजे से शुरू होती थी हालाँकि उसके लिए ऑफिस की गाड़ी सवा दो बजे ही मेरे घर पहुँच जाती थी. बनारसी होने के नाते नहाने का मर्ज़ मुझे शुरू से रहा है. डेढ़ बजे का अलार्म लगाती और नहा-धोकर गाड़ी के इंतजार में कालोनी के मेन गेट पर जाकर बैठ जाती थी. सर्दियों में भी यही सिलसिला जारी रहा. नतीजतन ऐसा ज़बरदस्त ज़ुकाम हुआ कि लगभग ढाई महीने माइक के सामने फटक भी नहीं सकी. लेकिन इस आदत की वजह से ऑफिस के सभी ड्राईवर मुझसे बहुत खुश रहते थे कि मैं उन्हें कभी इंतजार नहीं करवाती थी. उन दिनों का एक मज़ेदार क़िस्सा याद आ गया. पहले वही सुन लीजिये.

एक दिन ड्राईवर राजेंद्र सिंह ने मुझे पिक-अप करने के बाद कहा - ज़रा संभलकर बैठिएगा.

मैंने कहा - क्यों क्या बात है?

बोला - कुछ नहीं, आपको एक मज़ा दिखाता हूँ. 

मैं ज़रा पाँव जमाकर बैठ गयी और गेट के ऊपर लटका हैंडल कसकर पकड़ लिया.

अगले पिक-अप के लिए हम एक गेट के अन्दर जाकर, कई बार दाहिने-बाँये मुड़ते हुए आखिर एक फ्लैट तक पहुंचे. कोई सात मिनट तक हॉर्न बजाने के बाद एक महिला ने बालकनी से इशारा किया कि ठहरो आ रही हूँ. और पूरे दस मिनट बाद वे गाड़ी में प्रविष्ट हुईं. बैठते ही उन्होंने मेरी तरफ सवाल दाग़ा - न्यू ?

मैंने शराफत से हाँ में सर हिला दिया.

उन्होंने फिर पूछा - इंग्लिश?

मैंने कहा - जी नहीं, मैं अभी-अभी हिंदी में कैज़ुअल न्यूज़रीडर चुनी गयी हूँ.

उनका अगला सवाल मुझे चौंका गया - नहाकर आई हो क्या?

मैंने डरते डरते हामी भरी, जैसे यह बड़ी शर्मिंदगी की बात हो. 

उन्होंने मुझे समझाया - ऐसी बेवकूफी मत किया करो. बेकार बीमार पड़ जाओगी. इस ड्यूटी पर आने के लिए जो कपड़े पहनने हों, रात ही में पहन कर सो जाओ. और जब गाड़ी हॉर्न दे तब आकर उसमें बैठ जाओ. इस तरह नींद कम से कम ख़राब होती है.

अब तक हम उनकी कालोनी से बाहर मेन रोड पर आ गये थे. मैंने देखा कि उन्होंने भी मेरी तरह छत से लटकता हैंडल पकड़ा और आँखे बंद कर लीं. जब तक गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ी, वे गहरी नींद में थीं.

राजेन्द्र ड्राईवर ने फुसफुसा कर मुझसे कहा - संभलना.

और अगले मोड़ पर गाड़ी कुछ ऐसी अदा से मोड़ी कि मेरे साथ बैठी मैडम मेरे साथ बैठी न रह सकीं बल्कि 'नागिन सी भुइं लोटी' पायी गयीं.

बाद में उनसे अच्छा परिचय हो गया था. वे विदेश प्रसारण सेवा की एनाउंसर थीं और पापा को भी जानती थीं. लेकिन उनकी पल भर में सो जाने वाली अदा ऐसी दिलफ़रेब थी कि बस कुछ मत पूछिए. एक बार मैं खाड़ी देशों के लिए २३:४५ से २३:५५ तक प्रसारित होने वाला बुलेटिन पढ़ने पहुंची. उन्होंने मुझे क्यू किया. मैंने बुलेटिन शुरू कर दिया. उन्होंने कंसोल पर एक बाँह फैलायी, उस पर सर टिकाया और क्षण भर में जा पहुंची स्वप्नलोक में. इधर मेरा बुलेटिन ख़त्म हो रहा था. मैं बार-बार उनकी तरफ देख रही थी कि वे उठें और मेरा फेडर बंद करें. पर शायद उस दिन उनके सपने कुछ ज़्यादा ईस्टमैनकलर में रंगे हुए थे. मैंने बुलेटिन समाप्त कर दिया. वे फिर भी नहीं उठीं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था क्या करूँ. आख़िरकार मैं कुर्सी से उठी, उनके पास जाकर धीरे से उनका कन्धा हिलाया. वे चौंककर जागीं. एक आश्वस्त करने वाली मुस्कान मेरी दिशा में फेंकी और फेडर ऑन करके कहने लगीं - अभी आप सुन रहे थे समाचार. भारतीय समय के अनुसार इस समय रात के साढ़े बारह बजा चाहते हैं......जबकि उस समय बारह भी नहीं बजे थे.    

उन दिनों आकाशवाणी से "चौबीस घंटे - हर घंटे" समाचार प्रसारित नहीं होते थे. ज़्यादातर स्टेशन ग्यारह बजे और बचे हुए बारह बजे समाचार प्रसारित करने के बाद सभा समाप्त कर देते थे. साढ़े बारह बजे के ग्रेट ब्रिटेन के बुलेटिन के बाद सीधे ०४:३५ पर दक्षिण-पूर्व एशिया का ही बुलेटिन होता था. यानीकि एक बजे से चार बजे तक कोई खास काम नहीं होता था. बस, कहीं कोई अप्रत्याशित घटना न हो जाये, इसलिये न्यूज़ रूम में मौजूद रहना ज़रूरी था. समय काटे नहीं कटता था. सर्दियों में तो स्वेटर बुन लेती थी पर गर्मियों में किताबें भी नींद के झोंके रोकने में कारगर साबित नहीं होती थीं. सरकारी कैंटीन यों तो २४ घंटे चलने का दावा करती थी, मगर रात ग्यारह बजे के बाद उससे चाय तक की उम्मीद रखना फ़िज़ूल था. उसका कौन सा कर्मचारी, किस बोतल के तरल पदार्थ का सेवन कर, कहाँ लुढ़का पड़ा होगा, यह देवता भी नहीं बता सकते थे, मनुष्य की तो बिसात ही क्या.

ऐसे में बातचीत के अलावा समय काटने का और कोई साधन नहीं था. इसीलिए उन दिनों जिन सहकर्मियों से जान-पहचान और दोस्ती हुई, बहुत गहरी और पक्की हुई. उमेश जोशी, हेमंत जोशी, मुकेश कौशिक, अजित गाँधी, रवि कपूर, राकेश चौधरी, रीता पॉल, सतपाल जी और छाया जी ऐसे ही कुछ नाम हैं. इनमें से कुछ लोग फिर कभी नहीं मिले, लेकिन जो मिल जाते हैं, उनके साथ मानो २५ वर्ष पुराने दिन भी वापस लौट आते हैं और हम उन मस्ती भरे दिनों को याद कर हँस लेते हैं.

इनमें से एक थे - जयभगवान पाराशर. विनोद जी के बाद वही मेरे दूसरे गुरु बने. रोहतक के पास के किसी गाँव में अध्यापक थे और ढाई बजे तक ड्यूटी करने के बाद न जाने कहाँ से बस पकड़कर सीधे स्कूल पहुँचते थे. एक-दो साल के बाद उन्हें कभी नहीं देखा लेकिन उँगली पकड़कर चलना सिखाने वाले बड़े भाई जैसी उनकी छबि आज तक मन में है. उसके बाद एक छोटा भाई भी मिला - शुभेंदु अमिताभ के रूप में. काफी दिनों तक उसके साथ रस्मो-राह रही. बल्कि जिस दिन सवेरे आठ बजे का समाचार प्रभात अपने मौजूदा रूप में शुरू हुआ, उस दिन मुख्य बुलेटिन राजेन्द्र अग्रवाल जी ने, समीक्षा मैंने और समाचार पत्रों की सुर्ख़ियाँ शुभेंदु ने पढ़ी थीं. इस बात का मुझे आजतक गर्व है जबकि कुछ अन्य लोगों को आज तक मलाल है.

कुछ संपादकों से भी जान-पहचान हुई. इनमें सबसे पहले तो वही शम्भू जी थे, जिनकी चर्चा मैं पिछली कड़ी में कर चुकी हूँ. उनके अलावा भी कुछ उल्लेखनीय हस्तियाँ थीं, जैसे सुरेश मिश्र जी, जो सुना है एक दिन पौने नौ का बुलेटिन बनाते-बनाते अचानक बाहर चले गये. लोगों ने सोचा कि किसी से मिलने या किसी अन्य आवश्यक काम से गये होंगे, कुछ देर में लौट आयेंगे. जब आधे घंटे तक नहीं लौटे तो इधर-उधर फोन करके ढूँढा गया. कुछ पता नहीं चला. किसी जानकार ने कहा घर पर फोन करके देखो, वहाँ तो नहीं पहुँच गये. वाक़ई वे घर पहुँच गये थे. पान खाने निकले थे, अपने घर जाने वाली बस दिख गयी तो उसी में चढ़ गये.

एक नन्दगोपाल गोयल जी थे. होम्योपैथी के डॉक्टर थे या शायद शौकिया दवा देते थे. बुलेटिन बनाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी, बस उन्हें इसको-उसको फोन करके ये बताना अच्छा लगता था कि वे आकाशवाणी में ड्यूटी पर हैं. एक-एक समाचार की कई- कई कापियां टाइप करा लेते कि कहीं कम न पड़ जायें और स्टूडियो में जाकर यही भूल जाते थे कि कौन सी ख़बर पढ़वा चुके हैं और कौन सी बाकी है. कभी बांये हाथ का गत्ता आगे बढ़ाते तो कभी दाहिने हाथ का. कई बार तो समाचार उनसे छीनकर पढ़ना पड़ता था. बाद में इस दुर्दशा से बचने के लिए मैं काफी देर पहले उनसे बुलेटिन मांग लेती थी और ख़ुद ही उसे अंतिम रूप दे देती थी. बेचारे बड़ा अनुगृहीत महसूस करते थे और हर बार मुझे मोटापा कम करने की अचूक दवा लाकर देने का वादा करते थे.

एक रिटायर्ड फ़ौजी खनका जी भी आया करते थे. सुबह ६ बजे का बुलेटिन बड़ी निष्ठा से बनाते और पढ़वाते थे. उसके बाद हम सबको ज़बरदस्ती कैंटीन लेकर जाते और चाय पिलवाते थे.

कभी-कभी राजेन्द्र धस्माना जी आया करते थे. उनके बारे में एक क़िस्सा मशहूर था. एक दिन उन्हें सुबह आठ बजे का बुलेटिन बनाना था. कोई चार बजे ऑफिस आये और काम में लग गये. जब बुलेटिन प्रसारित हो गया तो लोगों ने कहा - चलिए कैंटीन में चलकर चाय पी जाये.

बोले - नहीं मैं घर जाऊंगा.

लोगों ने कहा - ऐसी भी क्या जल्दी है, चाय पीकर चले जाइएगा.

तब बोले  - रात पिताजी का देहांत हो गया है. घर में अभी शायद किसी को पता भी न हो. दरअसल ऑफिस आने से पहले उनके कमरे में गया, तो देखा वे जा चुके हैं. तो मैंने सोचा तुम लोग इतने कम नोटिस पर संपादक कहाँ से लाओगे, इसलिए उनका दरवाज़ा बाहर से बंद करके चला आया. अब जाकर सारे इंतजाम करने होंगे.

चाय की ज़िद करने वाले अवाक् खड़े रह गये. ऐसी कर्तव्य निष्ठा भी होती है आज के ज़माने में!

Sunday, June 26, 2011

..आखिरकार सपना बन गया हकीकत!

मित्रों, इन दिनों रेडियोनामा पर हम शुभ्रा शर्मा जी के संस्मरण प्रकाशित कर रहे हैं। इस श्रंखला की अब तक जितनी भी कड़ियाँ प्रकाशित हुई है उन्हें आप सुधी पाठकों ने बहुत सराहा और प्रोत्साहन दिया। इस कड़ी में हम आज आपके लिए एक और मशहूर समाचार वाचिका क्लेयर नाग के संस्मरण प्रकाशित कर रहे हैं। यह आलेख हमें जागरण-याहू .कॉम से मिला है। हम चाहते हैं कि रेडियो से जुड़ी सारी जानकारियाँ और समाचार वाचकों के संस्मरण हम यहाँ एकत्रित कर सकें।

..आखिरकार सपना बन गया हकीकत!
नई दिल्ली। रांची के दूर-दराज के एक आदिवासी कस्बे की रहने वाली और वहीं पली-बढ़ी क्लेयर नाग के लिए देश की राजधानी को अपना बसेरा बनाना और आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में समाचार वाचिका बन करोड़ों लोगों को दुनियाभर में पल-पल घटित हो रही घटनाओं की जानकारी देने का माध्यम बनना, किसी सपने के सच हो जाने जैसा था।

आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में 27 बरस सेवाएं देने के बाद पिछले साल मार्च में सेवानिवृत्त हुईं क्लेयर बचपन से ही लीक से हटकर कुछ करना चाहती थीं। पिता की प्रेरणा से अखबार पढ़ना शुरू किया और धीरे-धीरे देश-दुनियाभर की खबरों में रुचि जग उठी। राजनीति शास्त्र में एम.ए. क्लेयर शादी के बाद 1980 में दिल्ली आई। उस समय तक उन्होंने आकाशवाणी भवन में कदम तक नहीं रखा था। एक दिन समाचार पत्र में छपे आकाशवाणी के विज्ञापन को देख उनके मन में आस जगी और तुरत-फुरत आवेदन कर डाला। लिखित परीक्षा, स्वर परीक्षा और साक्षात्कार की सीढि़यां एक-एक कर के पार होती चली गई और एक दिन क्लेयर ने खुद को आकाशवाणी के समाचार कक्ष में पाया।

क्लेयर बताती है कि उन दिनों आकाशवाणी में देवकीनंदन पांडे, विनोद कश्यप, रामानुज प्रसाद सिंह, जयनारायण शर्मा, मनोजकुमार मिश्र, अशोक वाजपेयी, राजेंद्र अग्रवाल जैसे मंजे हुए समाचार वाचक थे। मुझे विद्वानों के बीच काम करने और उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। शुरू-शुरू में मुझे कुछ संकोच हुआ लेकिन मेरे आत्मविश्वास ने मुझे टिकाए रखा।

वे बताती है कि उन दिनों माइक पर आने का मौका सहजता से नहीं मिलता था। उनका चयन समाचार वाचक एवं अनुवादक पद पर हुआ था। बीते दिनों को याद करते हुए क्लेयर कहती हैं कि उन दिनों अनुवाद खूब कराते थे और पूरी तरह मंजने के बाद ही माइक पर आने का मौका मिल पाता था। क्लेयर के लिए यह काम एकदम नया था और उस पर देवकीनंदन पांडे, विनोद कश्यप, अशोक वाजपेयी जैसे दिग्गजों की उपस्थिति। शुरू-शुरू में उन्हे कुछ परेशानी हुई लेकिन वरिष्ठों के मार्गदर्शन की बदौलत धीरे-धीरे सब सहज होता चला गया।

क्लेयर ने आकाशवाणी पर खबरे पढ़ने की शुरूआत 'धीमी गति के समाचार' वाले बुलेटिन से की। करीब साल भर बाद उन्हे पहली बार पांच मिनट का बुलेटिन पढ़ने का मौका मिला। पहले दिन के समाचार वाचन के अनुभव के बारे में पूछने पर क्लेयर ने बताया कि समाचार बुलेटिन समाप्त होते ही उद्घोषक उनसे मिलने आए और उन्हे बहुत सराहा। उसके बाद क्लेयर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। धीरे-धीरे लोग आवाज पहचानने लगे। रांची के लोग तो बहुत ही खुश हुए। उन्हे लगता है कि समाचार प्रभाग में अस्सी के दशक के माहौल में और अब में जमीन आसमान का अंतर आ गया है। बुलेटिनों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है और उसी हिसाब से काम भी पहले की तुलना में काफी बढ़ गया है। टाइपराइटरों की जगह कंप्यूटर ने ले ली है। इससे संपादन अपेक्षाकृत आसान हो गया है। वे कहती हैं कि जब उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की थी तो उस समय लगता था कि हम पर बड़ों का साया है। उनसे जितना सीखेंगे अच्छा होगा, लेकिन कंप्यूटर युग में जीने वाले आजकल के बच्चों को लगता है कि जिन चीजों की उन्हे जानकारी है, बड़े उनके बारे में नहीं जानते। इसलिए बड़ों की बाते गंभीरता से सुनना, उनका सम्मान करना और उनसे सीखने की कोशिश करना जैसी बाते अब पुरानी पड़ गई है। आकाशवाणी श्रव्य माध्यम है। श्रोता एक-एक शब्द सुनकर आत्मसात करते है इसलिए सभी को अपना काम जिम्मेदारी से काम करना चाहिए। उनका मानना है कि नए लोगों में समय की पाबंदी की भी कमी है, जबकि आकाशवाणी में एक-एक क्षण कीमती होता है।

क्लेयर आकाशवाणी में बिताए अपने दिनों को याद कर कहती है कि उन्होंने पूरी ईमानदारी और निष्ठा से काम किया और बदले में आकाशवाणी ने भी उन्हे बहुत कुछ दिया।

Saturday, June 25, 2011

सेक्सोफोन वादक सुरेश यादवसे एक साक्षात्कार

रेडियोनामा के पाठको और दर्शको,

आपको याद होगा मैनें दि. 16 जून, 2011 को रेडियो श्रीलंका की उद्दघोषिका कांचनमालाजी के जन्मदिन की पोस्ट के अंतर्गत बताया था कि उस दिन कई प्रकार के सेक्सोफोन और अन्य विन्ड वाद्यो के जानेमाने वादक कलाकार सुरेश यादवजी से मुलाकात का दृष्यांकन करने वाला था । वैसे सैद्धांतिक तौर पर यह मुलाकात एक लम्बे समय से तय थी. तो इस बार उनके सुरत आने का समाचार जब उन्होंने मुझे दिया तब मेरी खुशी का तो कहना ही क्या ? मैं समय तय करके उनके पास पहूँचा और जैसा भी परिणाम अपने मर्याद्दित साधनो से मैं पा सका वह आप के सामने प्रस्तुत है ।

तो दृष्यांकन को नीचे देखिये और सुनिये उनके संगीतमय जीवन के बारेमें ।


               

पियुष महेता । सुरत-395001.

Friday, June 24, 2011

रेडियो की गोल्डेन वॉयस : मेलविल डि मेलो

जैसा कि आप जानते हैं कि रेडियोनामा पर आकाशवाणी की मशहूर समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने संस्‍मरण लिख रही हैं--'न्‍यूज़रूम से शुभ्रा शर्मा'। पिछली कड़ी में जब उन्‍होंने मशहूर समाचार-वाचक मेलविल डिमेलो का जिक्र किया तो मैंने उनसे फ़रमाईश की उनसे जुड़ी यादें लिखने की। विस्‍तार से वो बाद में लिखना चाहती हैं, पर फ़ौरन उन्‍होंने ये संस्‍मरण भेजा है। ये उनकी श्रृंखला से इतर आलेख है।

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कोई १९८६-८७ की बात होगी. मैं पटना विश्वविद्यालय में लेक्चरर की नौकरी छोड़कर दिल्ली आ गयी थी और यहाँ एक अदद नौकरी की तलबगार थी. कालेजों से निराश होने के बाद स्कूलों में भी अर्ज़ियाँ भेजने लगी थी. बेटा शानू शाम को घर में बैठने नहीं देता था. धूप कम होते ही उचकना शुरू कर देता था कि बाहर घुमाने ले चलो. वाकर था, लेकिन उसमें बैठना इसे बिलकुल नहीं भाता था. घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही, कभी हैंडल तो कभी हुड पकड़कर खड़ा हो जाता. इतना उधम मचाता कि मेरे लिए अकेले उसे संभाल पाना मुश्किल हो जाता. तब पापा भी मेरे साथ जाने लगे. हम दोनों में से एक उस बन्दर को संभालता और एक उसकी गाड़ी को. तब कहीं शाही सवारी आगे बढ़ पाती.

हम कालकाजी विस्तारखंड के फ्लैट नंबर ११६ में रहते थे, जो प्रथम तल पर है. ठीक सामने वाले ब्लाक में melville de mello भूतल पर १२१ नंबर फ्लैट में मेलविल डि मेलो अपनी पत्नी के साथ रहते थे. सामने पड़ जाने पर दुआ-सलाम होता रहता था, लेकिन आना-जाना नहीं था. शानू भैया को शायद पालने में ही यह आभास हो गया था कि वे बड़े होकर जिस व्यवसाय को चुनने वाले हैं, (वे भारतीय जन संचार संस्थान से रेडियो-टी वी पत्रकारिता का डिप्लोमा लेकर इंडिया टुडे ग्रुप में काम कर रहे हैं) उस क्षेत्र की महान हस्ती के सामने से गुज़र रहे हैं. या फिर शायद श्रीमती डि मेलो के बनाये केक का लोभ रहा हो, लेकिन अपनी शाम की सैर का समापन वे हर रोज़ श्री डि मेलो की गोद में चढ़कर और श्रीमती डि मेलो की पाक विद्या का जायज़ा लेकर ही करने लगे.

हमारे फ्लैट्स में उन दिनों शाम के समय भी कुछ देर पानी सप्लाई होता था. पापा पानी भरने चले जाते और मैं और शानू कुछ समय डि मेलो साहब के साथ गुज़ारते. थोड़ी बहुत सुख-दुःख की बातें होतीं. इसी दौरान मैंने ज़िक्र किया कि मैं नौकरी की तलाश में हूँ.

उन्होंने गहरी पैनी दृष्टि मेरी तरफ डालकर पूछा - तुमने कभी ब्रॉडकास्टिंग के बारे में नहीं सोचा?

मैंने हंसकर कहा - सोचा तो था, लेकिन सफल नहीं हुई.

कहने लगे - क्यों?

तब मैंने उन्हें बताया कि बहुत पहले, बी ए पास करने पर मैंने रेडियो में काम करने की बात सोची थी मगर पापा ने बात वहीँ ख़त्म कर दी थी. उनका कहना था कि तुम अपनी प्रतिभा से, अपनी मेहनत से आगे बढ़ोगी पर कहने वाले यही कहेंगे कि भिक्खुजी की बेटी है, इसीलिए बढ़ावा दिया जा रहा है.

यह लांछन मेरे स्वाभिमान को हरगिज़ गवारा न होता इसलिए मैंने दोबारा कभी इस बात का ज़िक्र भी नहीं किया.

डि मेलो साहब ने कहा - यह बात अब तो लागू नहीं होती. अब तो शर्मा को रिटायर हुए ज़माना बीत चुका है.

रेडियो से जुड़े तमाम परिचितों में केवल तीन ही लोग थे, जो पापा को शर्मा कहते थे....शर्माजी या भिक्खुजी नहीं. एक पुराने डी जी - पी सी चैटर्जी साहब, दूसरे पाराशर साहब और तीसरे डि मेलो साहब.

तो उस समय डि मेलो साहब ने ही मुझे रेडियो की ओर प्रेरित किया. उन्होंने बताया कि समाचारवाचकों की कैजुअल बुकिंग होती है और मुझे उसके लिए कोशिश करनी चाहिए. उन्होंने फ़ोन करके अपने परिचितों से पूछा कि कब और कहाँ आवेदन करना है. और तब तक मेरे पीछे पड़े रहे जब तक मैंने आवेदन नहीं भेज दिया. मेरे लिखित परीक्षा पास करने पर वे पापा से भी ज़्यादा खुश हुए. न जाने क्यों उनकी दिली ख्वाहिश थी कि मैं आकाशवाणी में काम करूँ. ऐसे अहैतुक बंधु जीवन में कितने मिलते हैं भला?

यह हमारा बड़ा दुर्भाग्य है कि हमने ऑल इंडिया रेडियो/ आकाशवाणी को घुटनों चलना सिखाने वाले और फिर उसे अपने पैरों पर खड़े होने में मदद देने वाले लोगों का कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं रखा है. यूनुस भाई का अनुरोध मिलने के बाद मैंने आकाशवाणी के कई इतिहास उलट-पुलट डाले लेकिन किसी में ऐसे पथ प्रदर्शक लोगों के विषय में कोई ठोस जानकारी नहीं मिली. कई किताबों में "ग्रेट ब्रॉडकास्टर" मेलविल डि मेलो और उनके द्वारा सुनाये गये महात्मा गाँधी के अंतिम संस्कार के आँखों देखे हाल का उल्लेख भर मिला लेकिन वे कब आकाशवाणी में आये, कब अवकाश प्राप्त किया, किन पदों पर रहे और उनकी क्या विशिष्ट उपलब्धियां रहीं - इन सब बातों पर ऐसी तमाम किताबें चुप्पी साधे हुए हैं.

पुस्तकों से निराश होकर मैंने इंटरनेट का सहारा लिया. नयी पीढ़ी के इस नए संसाधन ने पूरी तरह निराश भी नहीं किया. मसलन उससे मुझे पता चला कि डि मेलो साहब ने मसूरी के सेंट जॉर्ज कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की थी. कुछ दिन फौज में भी रहे लेकिन वहां ख़ुद उनके एक अफसर ने उन्हें अपनी "गोल्डेन वॉयस" का बेहतर इस्तेमाल करने की सलाह दी और इस तरह ऑल इंडिया रेडियो को यह गोल्डेन वॉयस मिली.

४ जून १९८९ को वे दुनिया से साइन आउट कर गये. इन्टरनेट के एक लेख से ही पता चला कि अन्य एंग्लो-इंडियन लोगों की तरह उन्हें दफनाया नहीं गया, बल्कि उनकी वसीयत के मुताबिक उनका दाह संस्कार किया गया था. उनके देहांत के बाद उनकी पत्नी अपने रिश्तेदारों के पास ऑस्ट्रेलिया चली गयी थीं. जब वे अपना यह फ्लैट बेचकर जा रही थीं, तब अपने "लिटल एंजल" शानू से मिलने आयी थीं. डि मेलो नाम वाले किसी व्यक्ति के साथ हमारी वही आख़िरी मुलाक़ात थी.       

Wednesday, June 22, 2011

सुनिए मन्‍‍ना डे को 'नाच रे मयूरा' के बारे में

विविध भारती का आरम्‍भ तीन अक्‍तूबर 1957 को हुआ था।
सभी जानते हैं कि पंडित नरेंद्र शर्मा विविध-भारती की स्‍थापना के मुख्‍य-आधार बने।

विविध-भारती पर जो पहला गीत बजा, वो कोई फिल्‍मी गाना नहीं था। उसे इस अवसर के लिए पंडित जी ने स्‍वयं लिखा था। बाद में एच.एम.वी. ने इसे अपने अलबम वर्षा-ऋतु का हिस्‍सा भी बनाया। एक बहुत संदर गीत है ये। राग है मियां की मल्‍हार।

मन्‍नादा इन दिनों बैंगलोर में रहते हैं। मई में मैंने उन्‍हें जन्‍मदिन की बधाई दी तो वो बड़े प्रसन्‍न हुए। तभी इस गाने का जिक्र भी चला। इसलिए उन्‍हीं दिनों दोबारा फोन करके मैंने अपने मोबाइल फोन पर मन्‍ना दा को रिकॉर्ड किया। मक़सद था ये जानना कि इस गाने की रिकॉर्डिंग से जुड़ी कौन सी यादें हैं उनकी।
ये रही इस रिकॉर्डिंग की ऑडियो फाइल। ये बातचीत केवल पांच मिनिट की है।




इस बातचीत को सुनकर इसका शब्‍दांकन किया है हमारे मित्र सागर नाहर ने।

यूनुस खान: दादा ये जो गाना  है नाच रे मयूरा, इसके बारे में आपको क्या बातें याद आती है?


मन्ना डे: अनिल दा, अनिल बिस्वास साहब,  उन दिनों में अनिल बिस्वास का नाम बहुत ज्यादा था और मेरे ख्याल से वो एक एसे म्युजिक डिरेक्टर थे जिनके लिए हर म्युजिक डिरेक्टर के दिल में एक बहुत बड़ी जगह होती  थी। तो अनिल दा ना जाने क्यूं मुझसे बहुत- बहुत खुश थे, मेरे गाने की जो स्टाइल है उससे और अनिल दा बोला (बोले ) कि जब अच्छी चीज बनेगी तब मैं तेरे को मैं बोलूंगा। और definitely उन दिनों में  अगर अनिल बिस्वास कहें  कि  " आओ  मेरे गाने के लिए आओ; it is to be an event...definitely सो, अनिलदा जब  वो गाना बनाया और रिहर्सल करने के लिए मैं उनके घर पर गया, नरेन्द्र जी वहां बैठे थे।  नरेन्द्र शर्मा जी।

एक छोटा कद का आदमी बहुत ही.. यानि बहुत ही क्या बताएं जैसे कि educated atmosphere was manna da there and  उन्होंने कहा...नरेन्द्रजी बोले.. मन्नाजी  पहली मर्तबा आप गा रहे हैं मेरे गाने...मैं कोशिश करूंगा आपको खुश करने के लिए... मैने कहा आप क्या खुश करेंगे, आप तो बुजुर्ग लोग हैं, और आप अनिल दा  के साथ काम कर रहे हैं। ये मेरे लिए बहुत है कि अनिल दा (ने) मुझे चुना।  इस गाने के लिए। तब गाना.......नरेन्द्र शर्मा जी vividh bharati में I think he was very powerful person in vividh bharati........so that was the occasion. तो गाना रिकॉर्ड किया, विविध-भारती के लिए। and that songs became talking subject in the industry also. 

I remember  (गीतकार) शैलेंद्र (ने) एक मर्तबा पूछसे पूछा कि, इन दिनों अच्छा क्या गाया मन्ना दा आपने? एक गाना प्राईवेट सोंग वो विविध भारती के लिए अनिल दा ने बनाया वो मुझसे गवाया उन्होने और फिर मैने सुनाया नाच  रे मयूरा, खोलकर सहस्‍त्र नयन, देख सघन मगन गगन देख सरस स्वप्न जो आज हुआ  पूरा । तो हमारे शैलेन्द्र जी बोले " मन्ना दा क्या अनुप्रास है, 'देख सघन गगन मगन'। ये नरेन्द्र शर्मा के अलावा कौन लिख सकता है!!!! तो उन्होंने शेलेन्द्र जी मुझसे लिखवा लिया वो गाना कि आप लिख दीजिए मुझे वो गाना.. हम अपने पास रख लेंगे।
 
मुझे ये हुआ कि  भई अनिल दा chose me and narendra sharma ji he was also happy with my singing and later on ... मेरी लड़की; बड़ी लड़की रमा  जिनका नाम है  जो अभी अमेरिका में है, वो कॉलेज में पढ़ती थी और उनके साथ एक लड़का पढ़ता था जिनका नाम था परितोष, परितोषजी थे नरेद्र  शर्मा जी के बेटा, रमा बोला कि डैडी आपने  गाया उनका गाना परितोष बोल रहा था। मैने कहा  नहीं भई.. तो  नरेन्द्रजी का लड़का है, उनका बेटा । तो मैने कहा क्यूं नहीं बुलाती तुम उनको। इस  सिलसिले में परितोष हमारे घर आना शुरु हुआ। और परितोष एक छोटी सी पिक्‍चर बनाने लगा। पिक्चर में नरेन्दर जी  लिख रहे थे.. द सब्जेक्ट वास नरेन्दर जी, एंड  गाने भी वो लिख रहे थे। मैने तीन चार भी गाने गाए थे उसमें। नरेन्द्र जी ने लिखे थे। और नरेन्द्रजी के बारे में मैं यह कहूंगा इतना याने.. ब्यूटीफुल पर्सनालिटी थी ; इतना छॊटा सा आदमी थे लेकिन जहाँ नरेन्दर जी कभी किसी जगह भी एन्टर लिया  तो बिल्कुल जैसे बल्ब जल जाता था, जो मुझे बहुत अच्छा लगता था। और उनकी जो ये है ना बात करने का तरीका इतना अच्छा इतना soft, इतना polished होता था कि उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।

यूनुस खान.. दादा बहुत बहुत शुक्रिया आपने ये बातें कीं।

ये रहा वो अनमोल गीत।

नाच रे मयूरा, नाच रे मयूरा
खोलकर सहस्र नयन, देख सघन गगन मगन
देख सरस स्वपन जो के आज हुआ पूरा
नाच रे मयूरा, नाच रे मयूरा

गूँजे दिशी\-दिशी मृदंग प्रति पल नव राग रंग
रिमझिम के सरगम पर, रिमझिम के सरगम पर
छिड़े तान पूरा
नाच रे मयूरा, नाच रे मयूरा

सम पर सम सा पर सा
aalaap
सम पर सम सा पर सा
रे प ग म रे प म प नि ध ध नि प प नि ध ध नि सा
म म रे सा नि सा रे स नि नि प म
ग म रे सा ग म रे सा ग म रे सा
सम पर सम सा पर सा
उमड़ घुमड़ घन बरसा, घन बरसा
सागर का सजल गान क्यों रहे अधूरा
नाच रे मयूरा, नाच रे मयूरा

Monday, June 20, 2011

शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों की साप्ताहिकी 19.6.11

शास्त्रीय संगीत के दैनिक कार्यक्रम संगीत सरिता में दो पद्धतियों का आनंद देती श्रृंखला प्रसारित हुई - कर्नाटक पद्धति के कुछ राग और उनकी मान्यताएं आमंत्रित कलाकार हैं शकुन्तला नरसिम्हन इसके पहले भाग में विभिन्न रागों की चर्चा हुई। पट्टनम सुब्र्हामण्यम ने लगभग 150 साल पहले राग कट्टन पुट्टूवलम बनाया। यह अंग्रेजो का शासन काल था इसीसे इस राग की गायन शैली में अंग्रेजियत हैं लेकिन इसके स्वर राग शंकराभरणम से लिए गए, इन्ही स्वरों का हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का राग हैं - बिलावल। इस राग में शेष गोपालम का गायन सुनवाया गया और जल तरंग वादन भी सुनवाया। राग सौराष्ट्रम और मध्यमावती के बारे में बताया कि इनमे मंगलम गाया जाता हैं। यह अच्छी जानकारी दी कि कार्यक्रम का समापन मंगलम से किया जाता हैं ताकि कार्यक्रम के दौरान अगर राग और गायन शैली आदि को लेकर कोई अशुभ बात हुई हो तो इससे वातावरण ठीक हो जाए। इनके स्वर ही ऐसे हैं कि वातावरण शांत लगता हैं। इन दोनों रागों के हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के समान राग बताए - राग भैरवी और बिलावल राग सौराष्ट्रम के लिए और मध्यमावती के लिए राग मदमादी सारंग। ख्यात गायिका एम एस सुब्बा लक्ष्मी का मंगलम गायन और डा एम रमणी का बाँसुरी वादन सुनवाया। दूसरे भाग में 19 वी शताब्दी के तिरूअनन्तपुरम के राजा स्वाति तिरुनाल की हिन्दी रचनाएं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय पद्धति में प्रस्तुत की गई जो ख्यात कवि और संगीतज्ञ थे। संस्कृत, मलयालम और हिन्दी में उन्होंने रचनाएं की। राग वृन्दावनी सारंग में गायन - चलिए कुंजन हो तुम हम श्याम हरि और इस राग पर आधारित फिल्म चश्मेबद्दूर का गीत सुनवाया - कहाँ से आए बदरा। राग धनाश्रयी की चर्चा हुई जिसके स्वर हिन्दुस्तानी पद्धति के राग भीमपलासी के समान हैं। राग धनाश्रयी में शिवस्तुति सुनवाई - सीस गंग भस्म अंग और राग भीमपलासी में रामराज्य फिल्म का सरस्वती राणी का गाया गीत सुनवाया - वीणा मधुर-मधुर बोल। ये दोनों शास्त्रीय गायन ध्रुपद शैली में थे। हिन्दुस्तानी पद्धति के राग दरबारी कानडा में भगवद गीता के प्रसंग पर आधारित रचना सुनवाई - देवो के पति इंद्र तारों के पति चन्द्र जिसमे कर्नाटक पद्धति के राग पल्लवी के स्वर हैं। इन रागों पर चर्चा भी हुई और राग दरबारी पर आधारित मेरे हुजूर फिल्म का मन्नाडे का गाया गीत सुनवाया - झनक झनक तोरी बाजे पायलिया। अंतिम दो कड़ियों में राग भैरवी पर चर्चा हुई कि दक्षिण की भैरवी अलग हैं जिसमे काफी थाट के स्वर लगते हैं। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय पद्धति की भैरवी में कहरवा ताल में रचना सुनवाई -रामचंद्र प्रभु तुम बिन प्यारे कौन खबर ले। प्रचलित दादरा ताल में सुनाया - विश्वेश्वर दर्शन कर। इस राग पर आधारित डा हरिवंश राय बच्चन की सरस्वती वन्दना सुनवाई - माता सरस्वती शारदा जिसे लताजी और दिलराज कौर ने फिल्म आलाप के लिए गाया हैं। समापन कड़ी में दोनों पद्धतियों में भैरवी के स्वर गाकर सुनाए जिससे फर्क समझ में आया। श्रृंखला का समापन किया फिल्म दूज का चाँद के मन्नाडे के गाए इस गीत से - फूल गेंदवा न मारो लगत करेजवा पे चोट। समापन पर श्रोताओं को पता भी बताया गया जिससे कार्यक्रम के सम्बन्ध में श्रोता पत्र लिख सके, पता हैं - संगीत सरिता, विविध भारती सेवा, पोस्ट बॉक्स नंबर 19705 मुम्बई - 400091

सुबह 7:30 बजे 15 मिनट के लिए प्रसारित इस श्रृंखला को चित्रलेखा (जैन) जी के सहयोग से रूपाली रूपक जी ने प्रस्तुत किया, तकनीकी सहयोग दिनेश (तापोलकर) जी का रहा। इस तरह कर्नाटक और हिन्दुस्तानी दोनों ही संगीत शैलियों के संगम का आनंद मिला। अब प्रतीक्षा हैं रविन्द्र संगीत के प्रसारण की.....

गुरूवार को रात 7:45 पर 15 मिनट के लिए प्रसारित हुआ साप्ताहिक कार्यक्रम राग-अनुराग जिसमे विभिन्न रागों पर आधारित फिल्मी गीत सुनवाए गए। शुरूवात अच्छी हुई, बहु चर्चित राग खमाज पर आधारित गाइड फिल्म का गीत सुनवाया लता मंगेशकर और साथियो की आवाज में - इन आँखों से नैना लागे रे। इसके बाद ऐसा राग सुनवाया जो कम ही सुनवाया जाता हैं, राग भटियार जिस पर आधारित सुरैया का गाया फिल्म रूस्तम सोहराब का उदास मूड का गीत सुनवाया - ऐ दिलरूबा। यहाँ तक ठीक रहा पर तीसरा गीत राग भीमपलासी पर वही सुनवाया जो सुबह संगीत सरिता में सुनवाया गया था, रामराज्य फिल्म से। इस लोकप्रिय राग में किसी गायक की आवाज में अच्छे मूड के गीत का चुनाव बेहतर होता क्योंकि अभी तक गायिकाओ के ही गीत सुनवाए गए थे और समापन भी युगल गीत से था। यह युगल गीत राग आसावरी पर आधारित था, इस राग की चर्चा बहुत अधिक नही होती। इस तरह रागों का संयोजन अच्छा रहा पर गीतों का नही।

चलते-चलते हम आपको बता दे कि यह सभी कार्यक्रम हमने हैदराबाद में एफ़ एम चैनल पर 102.8 MHz पर सुने।

Wednesday, June 15, 2011

न्‍यूज़-रूम में गाना बजाना: न्‍यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा कड़ी 2

रेडियोनामा पर जानी-मानी समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। इस श्रृंखला का शीर्षक है 'न्‍यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा'। आज दूसरी कड़ी।

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रेडियोनामा के एक पाठक ने लिखा है कि बचपन से जिन आवाज़ों को सुनते और पहचानते आ रहे हैं, उनमे से एक आवाज़ मेरी भी है. इसलिए अपने श्रोताओं के सामने यह स्वीकार करते हुए मैं हिचक रही थी कि रेडियो में नौकरी मैंने स्वेच्छा से नहीं, मजबूरी में की.

पढ़ने-लिखने में अच्छी थी इसलिए घर वाले चाहते थे कि मैं प्रशासनिक सेवाओं में जाऊं जबकि मुझे विश्वविद्यालय में पढ़ाना सबसे अधिक रुचिकर काम लगता था. पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग में नियुक्ति भी हो गयी थी, लेकिन पारिवारिक कारणों से वह नौकरी छोड़कर दिल्ली आना पड़ा. दिल्ली के कई कालेजों में कोशिश की लेकिन बात कुछ बनी नहीं. वे कहते थे इतिहास में एम ए कर लीजिये और मेरा तर्क यह था कि अगर मैं पटना में स्नातकोत्तर छात्रों को पढ़ाने के क़ाबिल थी तो दिल्ली में स्नातक छात्रों को क्यों नहीं पढ़ा सकती. लेकिन सच्चाई यह थी कि मुझे उस समय तत्काल एक अदद नौकरी की बहुत सख्त ज़रुरत थी.

पता चला कि आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में कैजुअल समाचार वाचकों की बुकिंग की जाती है. हालाँकि उनके चयन की प्रक्रिया उन दिनों काफी सख्त थी - अनुवाद पर खासा जोर दिया जाता था और करेंट अफेयर्स की अच्छी जानकारी भी लाज़मी थी. गोयाकि बनारस-पटना से दिल्ली आते-आते मुझे भी वैदिक काल से राजीव काल तक का सफ़र तय करना था. पाठ्य पुस्तक जैसी तन्मयता से अख़बार पढ़ने शुरू किये, पुराने पत्रकारों की शागिर्दी की और पड़ोस में रहने वाले आकाशवाणी के दिग्गज प्रसारणकर्त्ता श्री मेलविल डि मेलो को अपना 'पितु मातु सहायक स्वामि सखा' बनाया. लगभग महीने भर की तैयारी के बाद परीक्षा दे आयी. कुछ दिनों बाद स्वर परीक्षा का भी पत्र आ गया और इस तरह लिखित और मौखिक परीक्षाएं पास करते हुए मैं कैजुअल समाचारवाचक - अनुवादक बन गयी.

जुलाई १९८७ में बुलावा आया और मैं इन-उन देवी-देवताओं का नाम लेते प्रसारण भवन के हिंदी समाचार कक्ष में दाखिल हुई. कंप्यूटर का युग शुरू नहीं हुआ था. कई छोटी-बड़ी मेजों पर मशीन-गनों की तरह टाइप-राइटर सजे हुए थे. उनके पीछे उन्हें चलाने वाले स्टेनो सन्नद्ध थे. उन्हीं में से एक के पास मैं भी बैठ गयी. जादुई दुनिया लग रही थी. रात पौने नौ बजे के बुलेटिन की तैयारियां चल रही थीं. सभी लोग बेहद व्यस्त नज़र आ रहे थे.

मैं जिन स्टेनो के पास बैठी थी, उन्हीं से परिचय बढ़ाना शुरू किया. बड़े सौम्य-से व्यक्ति थे, मोहन बहुगुणा. वे भी बीच-बीच में व्यस्त हो जाते थे. लेकिन जब खाली होते तब मेरे प्रश्नों के उत्तर देते जा रहे थे. कमरे के बीच में एक बड़ी सी मेज़ थी, जिस पर कोई टाइप-राइटर नहीं था. एक तरफ बुर्राक़ सफ़ेद कुरते-पायजामे में एक सज्जन फ़ोन पर बतिया रहे थे और दूसरी तरफ एक महिला बड़े मनोयोग से कुछ पढ़ रही थीं. बहुगुणा जी ने बताया कि वह रामानुज प्रसाद सिंह और विनोद कश्यप हैं, जो पौने नौ बजे का बुलेटिन रिहर्स कर रहे हैं.

अब हम ठहरे उस पीढ़ी के लोग, जिसे पौने नौ के बुलेटिन को वाक़ई आकाश से आती हुई वाणी समझने का संस्कार मिला था. रेडियो से पिप्स आयें और घन गंभीर आवाज़ कहे - "ये आकाशवाणी है" - तबसे लेकर - "समाचार समाप्त हुए" निनादित होने तक कुछ भी बोलना खुद अपनी शामत बुलाने जैसा होता था. बल्कि मेरे और मेरी कुछ सहेलियों के बीच यह क़रार हुआ था कि अगर फ़ोन पर लम्बी बात करनी हो तो यही समय सबसे उपयुक्त है, जब बड़े इस बात पर ध्यान नहीं देते कि हम चौदह मिनट से फ़ोन पर लगे हुए हैं. लेकिन पन्द्रहवां मिनट शुरू होते ही फ़ोन रख देना भी ज़रूरी था. तो उसी पौने नौ के बुलेटिन को अपनी आँखों के सामने बनता-सँवरता देखकर मैं सकते में थी.

तभी बहुगुणा जी ने याद दिलाया कि मैं भी समाचारवाचक हूँ और मुझे जाकर अपने सीनियर्स से मिलना चाहिए. मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी लेकिन मैंने प्रकट तौर पर यही कहा कि वे रिहर्स कर रहे हैं, मैं उन्हें डिस्टर्ब कैसे करूँ.

बहुगुणा जी ने हिम्मत बंधाते हुए कहा - जाइये, अभी बुलेटिन में काफी समय है.

मैं झिझकते हुए विनोद जी के पास पहुंची और उन्हें अपना नाम बताया. विनोद जी शायद ड्यूटी चार्ट बनाती थीं क्योंकि नाम सुनते ही उन्होंने कहा कि हाँ, आज तुम्हें २१:५० का बुलेटिन पढ़ना है. मेरे होश उड़ गए. मैं आकाशवाणी की नियमित टॉकर ज़रूर थी मगर उसकी तो हमेशा रेकॉर्डिंग ही होती थी. कभी किसी लाइव कार्यक्रम में शामिल नहीं हुई थी. दूसरे, विनोद जी से बातें करते हुए दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था कि मुझे लग रहा था- उन्हें भी आवाज़ ज़रूर सुनाई दे रही होगी. मैंने कहा - मैं अभी बुलेटिन नहीं पढ़ सकूंगी.

उन्होंने पूछा - क्यों?

मैंने कहा - पहले काम सीख लूं, उसके बाद बुलेटिन पढूंगी.

कहने लगीं - ठीक है. देखो, वो सज्जन २१:५० का बुलेटिन बना रहे हैं, उनके साथ बैठकर सीखो.

जान बची तो लाखों पाए. मैंने फ़ौरन उन सज्जन को घेरा और उनसे बुलेटिन बनाने के गुर सीखना शुरू कर दिया. वे सज्जन शम्भू बहुगुणा थे और ज़्यादातर २१:५० का बुलेटिन वही बनाते थे, जो खाड़ी और अफ़्रीकी देशों के लिए प्रसारित होता था. बुलेटिन बनाना उन्होंने मुझे दो मिनट में सिखा दिया. पौने नौ के समाचारों की कापियां जमा करो और गत्तों पर लगा लो, फिर जब बुलेटिन शुरू हो तो रेडियो के पास बैठ जाओ और अपने गत्ते बुलेटिन के क्रम के अनुसार लगा लो. इस तरह १५ मिनट का बुलेटिन तैयार हो जायेगा. फिर जो-जो समाचार तुम्हें अच्छे न लगें, उन्हें फेंक दो, बस बन गया बुलेटिन.

वह तो अच्छा हुआ कि जल्द ही मेरा परिचय रविंदर सभरवाल से हो गया, जिन्होंने मुझे सही दिशा-निर्देश दिए, वर्ना मैं आज तक २१:५० ही बना रही होती. रविंदर जी ने मुझे शम्भू जी और २१:५० के बुलेटिन का एक रोचक संस्मरण सुनाया. हिंदी के समाचारवाचक आम तौर पर पाँच मिनट में लगभग साठ पंक्तियाँ पढ़ते हैं. कुछ लोग साठ से अधिक या कम भी पढ़ते हैं, लेकिन औसत गति यही होती है. दस मिनट के बुलेटिन में इससे दुगनी, लगभग १२० पंक्तियाँ तैयार की जाती हैं. हालाँकि उसमें आगे और पीछे मुख्य समाचार भी होते हैं इसलिए कुछ कम पंक्तियाँ पढ़ी जाती हैं लेकिन बुलेटिन बनाने वाले इस बात का ध्यान रखते हैं कि बुलेटिन शोर्ट न हो जाये, यानीकि पंक्तियाँ कम न पड़ जायें. एक बार की बात है कि शम्भू जी की टेलीफ़ोन वार्ता कुछ ज़्यादा ही लम्बी खिंच गयी. उनका बनाया २१:५० का बुलेटिन रविंदर जी को पढ़ना था. जब वे साढ़े नौ बजे तक भी फ़ोन के सम्मोहन से मुक्त नहीं हुए तो रविंदर जी ने उनसे बुलेटिन की मांग की. शम्भू जी ने पाँच मिनट तक विधिवत फोनस्थ मित्र से विदा ली और अगले पाँच मिनट के अंदर गत्तों पर पन्ने टाँककर बुलेटिन रविंदर जी के हवाले कर दिया. विदेश प्रसारण का स्टूडियो दूर था, रिहर्स करने का समय नहीं रह गया था, रविंदर जी बुलेटिन लेकर चली गयीं. इधर शम्भू जी रेडियो के साथ कान लगाकर बैठ गए. किसी ने पूछा - क्या बात है? आज बुलेटिन कैसे सुना जा रहा है?

तो शरारती हँसी हँसकर बोले - मैंने उसे दस मिनट के बुलेटिन में सिर्फ ७० लाइनें दी हैं, देखूं क्या करती है.

उधर, स्टूडियो में रविंदर जी के पसीने छूट गए. सत्तर पंक्तियों को धीरे धीरे पढ़कर और कुछ समाचारों को दोबारा पढ़कर किसी तरह समय पूरा किया.

यह किस्सा सुनाते हुए उन्होंने मुझे बताया कि केवल वाचन ही नहीं अनुवाद, संपादन जो कुछ भी करो, पूरे मनोयोग से करो और हर बुलेटिन को अपनी और आकाशवाणी की प्रतिष्ठा मानकर चलो. रविंदर जी आजकल वाचन नहीं करतीं लेकिन हिंदी समाचार कक्ष की वरिष्ठ और कर्मठ सदस्या हैं. मैं आज भी अगर कहीं अटकती हूँ तो सीधे उन्हीं के पास पहुँच जाती हूँ. वे सभी को खरी- खरी सुनाती हैं लेकिन शम्भू जी से हार गयीं, उन्हें कोई सुधार नहीं सका.

आप सोच रहे होंगे कि मैं बुलेटिन बनाने में क्यों उलझ गयी......वाचन का क्या हुआ? तो दोस्तो, हक़ीक़त यह है कि मैं तीन महीने तक बुलेटिन पढ़ने से बचती रही. फिर एक दिन विनोद जी ने मुझे डांटा कि आखिर तुम पढ़ने से भागती क्यों हो?

मैंने कह दिया - मुझे डर लगता है.

बोलीं - किस बात से डर लगता है?

मैंने कहा - इतनी बड़ी संस्था का इतना महत्त्वपूर्ण काम, कहीं मुझसे कोई ग़लती हो जाये तो?

कहने लगीं - अच्छा, मेरे साथ चलो.

मुझे लेकर न्यूज़ स्टूडियो में गयीं. पहले मुझसे कुछ पढ़वाया. फिर मुझे बताया कि माइक से कितनी दूरी रखूँ, किन अक्षरों का उच्चारण करते समय ध्यान रखूँ कि साँस माइक से न टकराए, साँस को कब और कैसे तोडूँ. उसके बाद पूरा बुलेटिन मुझसे पढ़वाया और खुद पैनल पर बैठकर सुना. जब संतुष्ट हो गयीं तभी मुझे छुट्टी दी.

कितने विशाल ह्रदय और विराट व्यक्तित्व थे वे सब. उन दिनों के हिंदी समाचार कक्ष को याद करती हूँ तो कितने सारे चित्र उभरते हैं. Devkinandan Pande-1 अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन चुके देवकीनंदन पाण्डेय जी, ढीले पायजामे और काली शेरवानी में समाचारवाचक कम और शायर ज़्यादा लगते थे. कमरे में आकर अख़बार उठाते तो पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक बांचने के बाद ही उसे तह करते. नतीजा यह कि संपादक की कोई भी चूक उनकी पैनी निगाहों से हरगिज़ नहीं छिप सकती थी. बुलेटिन पढ़ते-पढ़ते भूल सुधार लेते, फेडर बंद कर संपादक को गाली देते और फिर फेडर खोलकर अगला समाचार पढ़ने लगते.

अशोक वाजपेयी जी अपनी भूलने की आदत की वजह से मशहूर थे. उनके बारे में एक क़िस्सा सुनाया जाता है कि एक दिन आते ही नाराज़ होने लगे कि ये क्या हो रहा है?.........सुबह का बुलेटिन एनाउन्सर से क्यों पढ़वाया गया? मैं घर में दाढ़ी बना रहा था, जब बुलेटिन शुरू हुआ. आवाज़ पहचान में नहीं आई तो मैंने ड्यूटी रूम में फ़ोन किया. उन्होंने बताया कि समाचारवाचक नहीं पहुंचे इसलिए उद्घोषक से पढ़वाया गया. किसकी ड्यूटी थी?

सब लोग चुप. जब किसी ने जवाब नहीं दिया तो उन्होंने खुद आगे बढ़कर ड्यूटी चार्ट देखा...वहां उन्हीं का नाम लिखा हुआ था.

इंदु वाही बहुत अच्छा गाती थीं, ये बहुत कम लोग जानते होंगे. अक्सर मेज़ पर बैठी गुनगुनाती रहती थीं लेकिन खुलकर शायद ही कभी गाया हो. मेरा बेटा शानू उस समय कोई पाँच बरस का रहा होगा. कोई नया गीत सीखकर आया था और चाहता था कि मैं फ़ौरन सुन लूं. मैं आकाशवाणी में थी. मैंने समझाने की कोशिश की कि घर आकर इत्मीनान से सुनूंगी लेकिन बाल हठ...."अभी सुनो" कहकर वो गाने लगा. इंदुजी ने इशारे से पूछा कि गा रहा है क्या. मैंने हाँ में सर हिलाया तो उन्होंने मेरे हाथ से फ़ोन ले लिया और गाना सुनने लगीं.

बाद में उन्होंने शानू से कहा - वाह भाई, आप तो बहुत अच्छा गाते हैं.

शानू भाई बोले - आप कौन हैं?

इंदुजी ने कहा - मैं आपकी इंदु वाही आंटी हूँ.

बोले - आंटी हैं तो गाना सुनाइये.

इंदुजी बोलीं - अभी यहाँ बहुत सारे लोग हैं. जब कोई नहीं होगा तब सुनाऊँगी.

शानू न्यूज़रूम देख चुके थे, बोले - वहां तो हमेशा बहुत सारे लोग रहते हैं तो आप कैसे गायेंगी? मुझे कुछ नहीं पता. आपको अभी गाना पड़ेगा.

और वाक़ई इंदु जी को गाना पड़ा.

कृष्ण कुमार भार्गव जी थोड़ा सा अनुरोध करते ही गा दिया करते थे. गाना हमेशा एक ही होता था -

ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवाँ .........

और सचमुच भार्गव जी अब तक जवानों जैसे सक्रिय बने हुए हैं. वर्षों पूर्व अवकाश ग्रहण कर चुकने के बावजूद नियमित रूप से एफ़ एम गोल्ड का मार्केट मंत्र कार्यक्रम तो करते ही हैं, गाहे-बगाहे खेलों का आँखों देखा हाल भी सुनाते हैं.

चलते-चलते एक बात और याद आ गयी. अब से कोई दस साल पहले हमारे हिंदी समाचार कक्ष में सभी प्रमुख पार्श्वगायकों की आवाजें मिल जाया करती थीं. हरी संधू रफ़ी साहब के ज़बरदस्त फैन हैं और हूबहू उनकी आवाज़ में गा सकते हैं. राजेन्द्र चुघ सही मूड में हों तो मुकेश के गाने सुनाते हैं. संजय बैनर्जी के पीछे पड़-पड़ कर मैंने उन्हें हेमंत दा के दो चार गाने रटवा दिए थे और वो भी महफ़िल से उठकर जाने वालों को "बेक़रार करके हमें यूँ न जाइये" सुनाने लगे थे.

एक दिन कहने लगे - क्यों हम सिर्फ हेमंत कुमार ही क्यों गायेंगे? हम मोहम्मद रफ़ी भी गायेंगे.

हमने कहा - ठीक है, रियाज़ करके आओ. सुनकर बतायेंगे.

दो-चार दिन बाद मैं और हरी संधू समाचार प्रभात पढ़कर वापस न्यूज़ रूम में आकर बैठे ही थे कि संजय सामने आकर खड़े हो गए और दोनों आँखे बंद कर, हाथ फैला कर गाने लगे - चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे ......

मैं पर्स में हाथ डालकर चाय के लिए पैसे निकाल रही थी. मैंने एक चवन्नी संजय के हाथ पर रखी और कहा - बस बाबा, आगे बढ़ो.

इतने ज़ोर का ठहाका लगा कि ड्यूटी रूम से लोग घबड़ाकर भागे आये. लेकिन उसमें मेरा और संजय का भी पूरा-पूरा योगदान था.
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संबधित कड़ियाँ:

यह आकाश वाणी है, अब आप देवकीनंदन पाण्डे से समाचार सुनिए- संजय पटेल

अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए- इरफान (टूटी हुई बिखरी हुई)


Monday, June 13, 2011

साप्ताहिकी 12-6-11

दिन का पहला-पहला कार्यक्रम हमने सुना 6:30 बजे - तेरे सुर और मेरे गीत जो युगल गीतों का कार्यक्रम हैं। इसके बाद 7 बजे प्रसारित होता हैं पुराना लोकप्रिय कार्यक्रम भूले-बिसरे गीत। पहले कार्यक्रम में अधिकतर गीतों का चुनाव अच्छा रहा जैसे आराधना, पाकीजा, गुमराह फिल्म का यह गीत - इन हवाओं में इन फिजाओं में तुझको मेरा प्यार पुकारे। दोनों में साठ के दशक की फिल्मो के गीत सुनवाए, एक्का-दुक्का गीत पचास और सत्तर के दशक के भी थे। कभी-कभार आधे-आधे घंटे के ये दोनों ही कार्यक्रम मुझे लगभग एक जैसे लगे। फर्क सिर्फ इतना कि एक में सिर्फ युगल गीत सुनवाए गए। इसमे हलाकू जैसी फिल्मो के गीत सुनवाए गए और मिर्जा ग़ालिब फिल्म का तलत महमूद और सुरैया का गाया यह गीत - दिले नादाँ तुझे हुआ क्या हैं जो अक्सर भूले बिसरे गीत कार्यक्रम में सुनवाया जाता हैं। हद तो तब हो गई जब सोमवार को नागिन का हेमंत कुमार और लता जी का गाया युगल गीत पहले कार्यक्रम में सुना फिर अगले ही दिन इसी फिल्म का दूसरा गीत भूले बिसरे गीत कार्यक्रम में सुना। युगल गीतों के कार्यक्रम में गीतों का चुनाव तर्क संगत होने से दोनों कार्यक्रम अलग-अलग हो जाएगे जो अच्छा रहेगा।

भूले बिसरे गीत कार्यक्रम में सुमन कल्याणपुर,शमशाद बेगम जैसी आवाजे सुनना, राकेट टार्जन, सात समुन्दर पार जैसी भूली बिसरी फिल्मे और कुछ ऐसे गीत सुनना भी अच्छा लगा जिससे जुड़े सभी नाम भूले-बिसरे हैं - फिल्म का नाम मतलबी दुनिया, गायिका सुलोचना चौहान, गीतकार रमेश मेहता, संगीतकार भरत चौहान, गीत के बोल - हमको इण्डिया बहोत पसंद। ऐसे लोकप्रिय गीत भी शामिल थे जो अक्सर सुनवाए जाते हैं जैसे - मैं प्रेम की गलियों का राजा तू रूप की नगरी की रानी। कार्यक्रम तो अच्छा रहा लेकिन बहुत पुराने सुनहरे दौर के गीत सुनने को नही मिले जैसे लाल मोहम्मद के स्वर बद्ध किए, सुरेन्द्र, श्याम, उमा देवी के गाए गीत। अगर हो सके तो सप्ताह में एक दिन पचास के दशक और उससे पहले के गीत सुनवाइए।

7:30 बजे संगीत सरिता में बढ़िया श्रृंखला प्रसारित हुई - उपशास्त्रीय संगीत के विभिन्न रूप। इन विभिन्न रूपों को बताया ख्यात ठुमरी गायिका शोभा गुर्टू ने जिनसे चर्चा की ख्यात गायिका सरला भिड़े ने। इस श्रृंखला को छाया (गांगुली) जी ने 1992 में तैयार किया था। इसमे होरी, कजरी, झूला, लोक गीत, बारहमासी, समापन कड़ी में भैरवी लोकगीत पर चर्चा हुई, राग पीलू, शिवरंजनी, माज खमाज, पहाडी, जौनपुरी में शोभा जी ने गाकर सुनाया साथ ही शास्त्रीय गायन और वादन भी सुनवाया गया - रसूलन बाई का ठुमरी गायन, पंडित रविशंकर का सितार वादन, उस्ताद नजाकत अली खां और सलामत अली खां की गाई पहाडी ठुमरी, उस्ताद रज्जब अली खां का गायन, उस्ताद बरकत अली खां की गाई भैरवी ठुमरी। इस तरह शुद्ध शास्त्रीय संगीत का आनंद देने वाले, अब बंद हो चुके कार्यक्रम अनुरंजनि की कमी नही खली। हर दिन राग पर आधारित फिल्मी गीत भी सुनवाए गए। संग्रहालय से बेहतरीन प्रस्तुति। इसके बाद प्रसारित हुआ विचारोत्तेजक कार्यक्रम त्रिवेणी जिसमे चर्चा हुई कि जीवन जीना भी एक कला हैं जिसने जाना वो सफल हुआ, संस्कृति की बात चली कि हम पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहे हैं, जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं, वक़्त को दोष दिए बिना उसका सामना करना चाहिए, यही भाव अगले दिन भी थे पर इसे जल धारा के समान जीवन के रूप में प्रस्तुत किया गया, यह भी चर्चा चली कि जीवन में हर दिन एक चुनौती हैं, सकारात्मक सोच बनाए रखे, समाज की स्थिति पर इस मुहावरे को बताते हुए चर्चा की - जहां चने हैं वहां दांत नही और जहां दांत हैं वहां चने नही, जीवन में आगे बढ़ने के दो रास्ते हैं, एक लंबा मेहनत का रास्ता और दूसरा छोटा रास्ता जिसमे कई गलत बाते हैं। चर्चा के दौरान विषय पर आधारित तीन फिल्मी गीत सुनवाए गए, नए-पुराने गीतों का चुनाव बढ़िया रहा जैसे - अपने हुए पराए किस्मत ने क्या दिन दिखलाए हाय रे धीरज कौन बंधाए, ये तो जिन्दगी हैं कभी खुशी हैं कभी गम और नई फिल्म जन्नत का गीत - दुनिया का क्या .... पत्थर को छू कर मैं सोना बना दूं जन्नत यहाँ। दोनों ही कार्यक्रमों की संकेत धुन बढ़िया हैं।

दोपहर के प्रसारण में फरमाइशी फिल्मी गीतों के एक-एक घंटे के दो कार्यक्रम प्रसारित हुए - 12 बजे प्रसारित हुआ आधुनिक तकनीक से सजा कार्यक्रम SMS के बहाने VBS के तराने। यह एक घंटे का दैनिक सजीव (लाइव)प्रसारण हैं। इसमे गाने सुनने के लिए किसी इन्तेजार की जरूरत नही, तुरंत फरमाइश भेजिए और तुरंत सुनिए अपनी पसंद का गीत। फरमाइशी खतों की परम्परा से दूर इस इंस्टेंट फरमाइशी कार्यक्रम से युवावर्ग सहज ही विविध भारती से आकर्षित हो गया। फरमाइशी गीत सुनना भी आसान हैं, बस, मोबाइल के मैसेज बॉक्स में जाकर टाइप करना हैं - vbs - फिल्म का नाम - गाने के बोल - अपना नाम और जगह (शहर,गाँव) का नाम और भेज दे इस नंबर पर -5676744

और इन संदेशों को 12 बजे से 12:50 तक भेजने के लिए कहा गया और यह भी कहा गया कि हर सन्देश में दो श्रोताओं के नाम ही भेजे ताकि अधिक SMS शामिल किए जा सकें। कार्यक्रम के शुरू में फ़िल्मों के नाम बताए गए और कार्यक्रम के अंत में अगले दिन की फ़िल्मों के नाम बताए गए ताकि फरमाइश भेजने में आसानी हो। पूरे सप्ताह अधिकाँश फिल्मे सत्तर के दशक की रही। फिल्मो के चुनाव में विशेष अवसरों का भी ध्यान रखा गया। बुधवार को ऎसी फिल्मे चुनी गई जिनमे डिम्पल कपाडिया ने अभिनय किया और शुरूवात की उनकी महत्वपूर्ण फिल्म बौबी के गीत से। इस दिन उनका जन्मदिन था। श्रोताओं की फरमाइश पर विभिन्न मूड के गीत सुनवाए जैसे फिल्म प्रेमनगर का गीत - ठंडी हवाओं ने साजन को नटखट बना दिया, मौसम के अनुसार छतरी न खोल उड़ जाएगी गीत, प्रतिज्ञा फिल्म से यमला पगला दीवाना गीत भी शामिल था। इस कार्यक्रम की संकेत धुन सुन कर लगता हैं मोबाइल बज रहा हैं या SMS आ रहा हैं। इस कार्यक्रम को साइमन परेरा जी, राजीव (प्रधान) जी, गणेश (शिंदे) जी के तकनीकी सहयोग से हम तक पहुंचाया गया और पूरे सप्ताह इस कार्यक्रम को प्रस्तुत किया विजय दीपक (छिब्बर) जी ने।

दोपहर 1:30 बजे का समय रहा मन चाहे गीत कार्यक्रम का। एक घंटे के इस कार्यक्रम की प्रस्तुति पारंपरिक और आधुनिक दोनों ढंग से हैं यानि दो दिन बुधवार और गुरूवार को ई-मेल से भेजी गई फरमाइश से गीत सुनवाए जाते हैं और शेष दिन पुराने तरीके से पत्रों से प्राप्त फरमाइश के अनुसार गीत सुनवाए जाते हैं। नए-पुराने गीतों के लिए श्रोताओं ने फरमाइश भेजी। सोमवार को बीते दिन मनाए गए पर्यावरण दिवस को ध्यान में रख कर बूँद जो बन गई मोती फिल्म से यह गीत भी शामिल किया - हरी भरी वसुंधरा पे नीला-नीला ये गगन। ईमेल से पुरानी और बहुत पुरानी जैसे सरस्वती चन्द्र और दादीमाँ फिल्मो के गीत सुनने के लिए भी फरमाइश भेजी और वीरजारा जैसी नई फिल्मे भी शामिल थी।

इन दोनों कार्यक्रमों के बीच में 1:00 बजे आधे घंटे के लिए प्रसारित होता हैं कार्यक्रम हिट-सुपरहिट जिसे रात 9 बजे दुबारा प्रसारित किया जाता हैं। रविवार को छोड़कर हर दिन किसी एक कलाकार पर केन्द्रित हिट-सुपरहिट गीत सुनवाए जाते हैं। सोमवार को संगीतकार आदेश श्रीवास्तव के जन्मदिन के अवसर पर उन्ही पर केन्द्रित रहा यह कार्यक्रम। शिल्पा शेट्टी अभिनीत फिल्मो के गीत सुनवाए गए जबकि पिछली रात एक ही फनकार कार्यक्रम उन्ही पर केन्द्रित था जिसका स्वरूप हिट-सुपरहिट जैसा ही था। अभिनेता विनोद खन्ना, संगीतकार सलीम-सुलेमान, निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट, गायक शान के गीत सुनवाए गए। गीतों के साथ कलाकार से सम्बंधित कुछ जानकारी भी दी गई। रविवार को आयोजन रहा - फेवरेट फाइव। इसमे कोई एक कलाकार आमंत्रित होते हैं, अपने पसंदीदा पांच गीत बताते हैं इस बार आमंत्रित रही बीते समय की मशहूर अभिनेत्री कामिनी कौशल। यह दूसरी कड़ी थी। अपनी पसंद के बेहतरीन गाने सुनवाए जिसमे वो फिल्मे शामिल थी जिसमे उन्होंने काम किया। बहुत पुरानी फिल्म जेलर जिसमे सोहराब मोदी के साथ काम किया, पुरानी फिल्म दो रास्ते का गीत भी शामिल था और देश भक्ति गीत भी - मेरा रंग दे बसंती चोला।

दोपहर बाद के प्रसारण में सोमवार से शुक्रवार तक 3 बजे से एक घंटे के लिए प्रसारित हुआ महिलाओं के लिए कार्यक्रम, गुरूवार तक हैलो सहेली कार्यक्रम में हर दिन दो प्रस्तोता सखियाँ आपस में बतियाते हुए कार्यक्रम को आगे बढाती हैं साथ ही फरमाइश के गीत भी सुनवाए जाते हैं। प्रस्तोता सखियाँ रही - ममता (सिंह) जी, निम्मी (मिश्रा) जी, शहनाज (अख्तरी) जी। प्रस्तुति में हल्का सा परिवर्तन अच्छा लग रहा हैं, खासकर गुरूवार के प्रसारण में। गुरूवार को गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के चर्चित उपन्यास आँख की किरकिरी का वाचन हुआ। पता चला कि यह पिछले सप्ताह ही शुरू हुआ। ममता जी बहुत अच्छा पढ़ कर सुना रही हैं। हमारा अनुरोध हैं कि चारो दिन यह उपन्यास पढ़ कर सुनाइए। हर दिन इसका कुछ अंश सुनना सुखद रहेगा। अब पूरे प्रसारण में सखियों के पत्र पढ़ने के बजाय केवल अंतिम आधे समय में पत्र पढ़े जा रहे हैं और शुरू का आधा घंटा किसी विषय पर दोनों प्रस्तोता सखियाँ बतियाती हैं। सोमवार को पर्यावरण दिवस के सन्दर्भ में बतियाते हुए अच्छी सलाह दी कि घर में जब भी कोई शुभ दिन हो तब एक पेड़ लगा दे। व्यंजनों में मूंग की दाल का पराठा और सखियों के पत्रों से टमाटर का हलवा बनाना बताया गया। स्वास्थ्य और सौन्दर्य के नुस्के बताए। सफल महिलाओ की गाथा में नसीमा हुर्जूर के बारे में बताया जो रीढ़ की हड्डी की समस्या से विकलांग हुई फिर प्रशिक्षित होकर आत्मनिर्भर बनी। इसके लिए आलेख उन्नति (वोहरा) जी ने तैयार किया।

बुधवार को कुछ तकनीकी खराबी से आवाज ठीक से सुनाई नही दी पर तुरंत ही ठीक कर दिया गया। सखियों की फरमाइश पर हर दिन अलग-अलग दौर के फिल्मी गीत सुनवाए गए। बहुत पुराने गीत जैसे भीगी रात फिल्म का गीत -दिल जो न कह सका, पुराने गीत जैसे मेघा रे मेघा रे मत परदेस जा रे। हर दिन सखियों के पत्र पढ़े गए जिनमे से घरेलु नुस्के बताए गए, दोस्ती, पूजा का महत्त्व बताया। शुक्रवार को प्रसारित हुआ हैलो सहेली कार्यक्रम। श्रोता सखियों से फोन पर बातचीत की ममता (सिंह) जी ने। विभिन्न स्तर की श्रोता सखियों से बात हुई - छात्र, कम शिक्षित, अशिक्षित गृहणीयों ने फोन किए। एक सखि ने बातो ही बातो में खम्मन ढोकला बनाने की विधि बता दी। एक ने बताया कि उसके पास कुछ छात्र आते हैं जिन्हें वो फैशन डिजाइनिंग सिखाती हैं। सखियों की पसंद पर नए-पुराने गीत सुनवाए गए जैसे नागिन फिल्म से - तेरे संग जीना तेरे संग मरना, कुछ ऐसे गीत भी सुने जो बहुत ही कम सुनवाए जाते हैं। कार्यक्रम के समापन पर बताया गया कि इस कार्यक्रम के लिए हर बुधवार दिन में 11 बजे से फोन कॉल रिकार्ड किए जाते हैं जिसके लिए फोन नंबर भी बताए - 28692709 मुम्बई का एस टी डी कोड 022 दोनों कार्यक्रमों के लिए अलग-अलग संकेत धुन सुनवाई गई। प्रस्तुति मनीषा(जैन)जी की रही सहयोग रीता (गोम्स)जी का।

सप्ताहांत में इस एक घंटे का प्रसारण अलग रहा। 3:30 बजे तक शनिवार को प्रसारित हुआ सदाबहार नगमे कार्यक्रम जिसमे मेरे सनम, ससुराल जैसी साठ के दशक की फिल्मो के सदाबहार गीत सुनवाए गए। रविवार को प्रसारित हुआ कार्यक्रम सदाबहार नगमे सन्डे स्पेशल। मेरे लाल फिल्म का गीत सुनवाया - पायल की झंकार हंसते हंसते ढूंढें तेरा प्यार रस्ते रस्ते जिसे बहुत दिन बाद सुनना अच्छा लगा। तीसरी मंजिल, अनुपमा फिल्मे भी शामिल थी। 3:30 बजे नाट्य तरंग कार्यक्रम में शनिवार और रविवार को नाटक सुनवाया - दुल्हन का दाम। इस नाटक के मूल लेखक हैं लोमेर दाई और हिन्दी रूपान्तरकार हैं आरती दास बैरागी और निर्देशक हैं तरूण आजाद डेका। परम्पराओं के नाम पर महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को दर्शाया गया। पंचायत ने महिला के हक में फैसला सुनवाया। अच्छी प्रेरणादायी रचना, प्रस्तुति दिल्ली केंद्र की रही।

शाम 4 से 5 बजे तक हर दिन प्रसारित हुआ कार्यक्रम पिटारा जिसमे हर दिन अलग-अलग कार्यक्रम प्रसारित हुए। इसकी अपनी संकेत धुन हैं और हर कार्यक्रम की अलग संकेत धुन हैं। इसमे सोमवार का कार्यक्रम महत्वपूर्ण रहा - सेहतनामा। इस कार्यक्रम में डा गीता बिरला से युनूस (खान) जी की बातचीत प्रसारित हुई। बातचीत का विषय था - यकृत प्रत्यारोपण (लीवर ट्रान्सप्लानटेशन)। बताया कि शराब पीने से लीवर खराब हो जाता हैं, हेपीटाईटीस के शिशुओं को लगाए जाने वाले टीको की जानकारी दी। पीलिया रोग और अन्य संक्रमण की जानकारी भी दी। महत्वपूर्ण बात यह बताई कि लीवर के प्रत्यारोपण में 80-90% मामलों में सफलता मिली हैं। लीवर देने वाले से 60% भाग निकाला जाता हैं और दूसरे को लगाया जाता हैं और बहुत जल्द दोनों में लीवर अपने पूरे आकार में आ जाता हैं क्योंकि शरीर का यही एक ऐसा अंग हैं जो तेजी से बढ़ता हैं। इसीलिए लीवर दान देने के लिए सन्देश भी दिया। अन्य महत्वपूर्ण बात यह बताई कि ब्रेन डेथ यानि मस्तिष्क पहले काम करना बंद करने पर लीवर निकालना आसान होता हैं और अगर ह्रदय काम करना पहले बंद कर दे तो थोड़ा कठिन हो जाता हैं। प्रत्यारोपण के बाद डाक्टर की देखरेख में नियमित दवाई लेने से कोई समस्या नही होगी। इस काम में 10-20 लाख का खर्च हैं। इस कार्यक्रम को सुनील भुजबल जी के तकनीकी सहयोग से तनूजा कोंडाजी कानरे जी ने प्रस्तुत किया।

बुधवार को आज के मेहमान कार्यक्रम में मेहमान रही कवियित्री और गीतकार माया गोविन्द जिनसे बातचीत की अमरकांत (दुबे) जी ने। शुरू में इस कार्यक्रम की संकेत धुन के स्थान पर इस श्लोक का गायन सुना - अथ स्वागतम शुभ स्वागतम, आनंद मंगल मंगलम, इत प्रियम भारत भारतम। बातचीत की शुरूवात अच्छी हुई और आगे भी अच्छा बढी, जानकारी मिली कि बचपन से ही रेडियो की कलाकार हैं, फिर संगीत, नृत्य की शिक्षा ली, नाटको में काम किया, विवाह हुआ और टूटा। मंच पर काव्य प्रस्तुति द्वारा अभिनेता भारत भूषण से मुलाक़ात और फिल्म जगत में प्रवेश। उनके गीतों पर चर्चा हुई, गीत सुनवाए। क़ैद फिल्म के गीत करा ले साफ़ करा ले, कानो का ये मैल को लेकर चर्चा अच्छी रही कि फिल्म की सिचुएशन के अनुसार गीत लिखे फिर कार्यक्रम समाप्त हो गया। एक महत्वपूर्ण बात रह गई, उनके कुछ गीतों की आलोचना हुई कि गीत द्विअर्थी हैं। इस मुद्दे पर चर्चा हो सकती थी पर इस मुद्दे को छुआ भी नही गया। इस कार्यक्रम को रमेश (गोखले) जी के सहयोग से शकुन्तला (पंडित) जी ने प्रस्तुत किया। शुक्रवार को प्रसारित हुआ सरगम के सितारे जिसमे बातचीत हुई पार्श्व गायक मनहर उदहास से। यह सातवी कड़ी थी। बातचीत की युनूस (खान) जी ने। नब्बे के दशक की फिल्म जान के शीर्षक गीत के बनने की चर्चा की। संगीतकार ओ पी नय्यर से मुलाक़ात की चर्चा की और खेद जताया कि यह भेंट तब हुई जब नय्यर साहब फिल्म जगत छोड़ चुके थे। अमिताभ बच्चन के साथ किए गए स्टेज शोज की भी चर्चा की। इस कार्यक्रम को विनायक (रेणके) जी के तकनीकी सहयोग से तनूजा कोंडाजी कानरे जी ने प्रस्तुत किया। रविवार को प्रस्तुत हुआ कार्यक्रम उजाले उनकी यादो के जिसमे पार्श्व गायक मन्नाडे से कमल (शर्मा) जी की बातचीत प्रसारित हुई। शुरूवाती बात हुई कि चाचा के सी डे के माध्यम से फिल्मो में आए। शंकर राव व्यास को याद किया। शुरू में उच्चारण में होने वाली दिक्कतों की भी चर्चा की। सहगल साहब और पंकज मलिक को याद किया। यह गीत भी सुनवाया - केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूले। विभिन्न गीतों के लिए उन्हें मिले एवार्ड्स की भी चर्चा हुई। इस कार्यक्रम को कैलाश नाथ वर्लीकर जी के तकनीकी सहयोग और कमला (कुंदर)जी के सहयोग से कमल (शर्मा) जी ने प्रस्तुत किया।

मंगलवार, गुरूवार और शनिवार को प्रसारित हुआ कार्यक्रम हैलो फरमाइश जिसमे फोन पर कई श्रोताओं ने विविध भारती के विविध कार्यक्रमों को पसंद करने की बात बताई। विभिन्न स्तर के श्रोताओं ने फोन किया - छात्र, अलग-अलग तरह का काम करने वाले जैसे टेलर, ब्रेल लिपि सिखाने वाले टीचर। अपने-अपने काम के बारे में बताया। साथ ही कुछ और बाते भी पता चली जैसे राजस्थान में गर्मी बहुत हैं। नए-पुराने गीतों की फरमाइश की - बसंत बहार, महबूब की मेहदी जैसी फिल्मो से। 5 बजे दिल्ली से प्रसारित समाचार के 5 मिनट के बुलेटिन के बाद प्रसारित हुआ कार्यक्रम गाने-सुहाने। इसमे नए और कुछ पुराने गीत सुनवाए गए जैसे नई फिल्मे खट्टा मीठा, ढाई आखर प्रेम का, कुछ पुरानी फिल्मे - डर, दिल का रिश्ता फिल्म का शीर्षक गीत भी शामिल था।

शाम बाद 7 बजे प्रसारित हुआ फ़ौजी भाइयों के लिए कार्यक्रम जयमाला जिसमे SMS से प्राप्त फरमाइश के अनुसार गीत सुनवाए जाते हैं। हर दिन लगभग सभी दौर की फिल्मो के गीत सुनवाए गए, पुरानी फिल्म आँखे का गीत - मिलती हैं जिन्दगी में मोहब्बत कभी-कभी, कुछ पुराना देश भक्ति गीत - दिल दिया हैं जाँ भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए, आज के दौर का गीत यमला पगला दीवाना फिल्म से - इश्क का मंजन घिसे हैं पिया। फ़ौजी भाइयो को SMS करने का तरीका भी बताया गया - मोबाइल के मैसेज बॉक्स में जाकर टाइप करना हैं - vjm - फिल्म का नाम - गाने के बोल - अपना नाम और रैंक जरूर लिखे और भेज दे इस नंबर पर - 5676744

शनिवार को विशेष जयमाला प्रस्तुत किया चरित्र अभिनेता ए के हंगल ने। अपनी पहली फिल्म शागिर्द की चर्चा के साथ पर्यारण की चर्चा की। एक फ़ौजी जवान का किस्सा भी सुनाया। लोकप्रिय गीत सुनवाए। जयमाला के बाद 7:45 पर 15 मिनट के लिए अलग-अलग कार्यक्रम प्रसारित हुए। सोमवार को पत्रावली में श्रोताओं के पत्र पढ़े रेणु (बंसल) जी ने और उत्तर दिए कमल (शर्मा) जी ने। विभिन्न राज्यों से जिलों, शहरो और दूरदराज के गाँव से पत्र आए। कुछ नियमित श्रोताओं ने पत्र भेजे और कुछ नए श्रोताओं के भी पत्र पढ़े गए। लगभग सभी कार्यक्रमों की तारीफ़ थी। कुछ पत्रों में फरमाइशे भी थी। अंत में डाक पता बताया गया जिससे कुछ श्रोता अगर अब पत्र भेजना चाहे तो उन्हें दिक्कत न हो - विविध भारती सेवा, पोस्ट बॉक्स नंबर 19705 मुम्बई 400091

मंगलवार, शुक्रवार और रविवार को सुना कार्यक्रम गुलदस्ता जिसमे मंगलवार को नए शायर और गुलोकारों को सुना - कतिल शिफाई, इब्राहिम अश्क, भूपेन्द्र, राजकुमार रिजवी। शुक्रवार को गैर फिल्मी गीत सुनवाए गए - मधुकर राजस्थानी, योगेश की रचनाएं, मन्नाडे, सुमन कल्याणपुर को सुना। रविवार को दो गजले सुनवाई, आगाज में अंदाज नया रहा, एक एलबम से निदा फाजली का कलाम सुनवाया और आखिर में बेगम अख्तर साहिबा को सुना - दिल में तमन्ना भी नही - कलाम फ़िराक गोरखपुरी का हैं। इस तरह अच्छी विविधता रही। बुधवार को इनसे मिलिए कार्यक्रम में संगीतकार जोडी के संगीतकार दिलीप सेन से निम्मी (मिश्रा) की बातचीत का दूसरा और अंतिम भाग प्रसारित हुआ। सुनकर लगा कि यह बातचीत पिटारा कार्यक्रम के अंतर्गत प्रसारित होती तो ठीक होता, इस कार्यक्रम में नए कलाकारों से संक्षिप्त बातचीत अच्छी लगती हैं। गुरूवार को राग-अनुराग कार्यक्रम में राग शिवरंजनी, भैरवी और कम चर्चित राग विभास पर आधारित फिल्मी गीत सुनवाए गए। फिल्मी गीतों का चुनाव अच्छा रहा, अच्छी विविधता रही। शनिवार को सामान्य ज्ञान के कार्यक्रम जिज्ञासा में सोन चिरय्या के साथ विभिन्न पक्षियों के लुप्त होने के कगार पर होने की चर्चा की। मेढक की त्वचा के प्रोटीन के विभिन्न रोगों में किए जाने वाले उपयोग की चर्चा की। फ्रेंच ओपन टेनिस की चर्चा हुई। एम ऍफ़ हुसैन को श्रद्धांजलि दी।

रात 8 बजे का समय रहा हवामहल का जिसकी गुदगुदाती वर्षों पुरानी संकेत धुन आज भी शुरू और अंत में सुनवाई जाती हैं। रविन्द्रनाथ मैत्र के लिखे मूल बंगला नाटक - मानमयी गर्ल्स स्कूल का सत्येन्द्र शरत द्वारा किया गया हिन्दी रेडियो नाट्य रूपांतर - कितना सच कितना झूठ का धारावाहिक प्रसारण सुना। इसमे पति-पत्नी का नाटक कर गाँव के स्कूल में नौकरी पाई जाती हैं। पत्नी का नाटक करने में उसे उलझन होती हैं और वह वापस जाना चाहती हैं पर जा नही पाती क्योंकि परस्पर पनपे प्रेम का अहसास हो जाता हैं। निर्देशक हैं लोकेन्द्र शर्मा और सहायक हैं पी के ए नायर। इस बार कलाकारों के नाम भी बताए गए - कमल शर्मा, सुधीर पाण्डेय, सुलक्षणा खत्री, अमरकान्त दुबे, शैलेन्द्र कौल, आशा शर्मा, प्रतिभा शर्मा, अशोक सोनावणे, अरूण माथुर।

रात 9:30 बजे आज के फनकार कार्यक्रम प्रसारित किया गया। विख्यात अभिनेत्री नर्गिस पर यह कार्यक्रम अच्छा लगा, यह महत्वपूर्ण जानकारी मिली कि वह पहली अभिनेत्री हैं जिसे पद्मश्री मिला। शिल्पा शेट्टी और डिंपल कपाडिया पर प्रस्तुत कार्यक्रम हिट-सुपरहिट जैसा लगा। गीतकार असद भोपाली पर कार्यक्रम भी ऐसा ही था सिर्फ यहाँ उनकी रिकार्डिंग के कुछ अंश सुनवाए गए लेकिन उनसे सम्बन्धी अच्छी जानकारी नही मिल पाई सिवाय एक महत्वपूर्ण बात के कि पुराना गीत हंसता हुआ नूरानी चेहरा और अस्सी के दशक की फिल्म मैंने प्यार किया का गीत कबूतर जा जा जा उन्ही के लिखे हैं। डिंपल कपाडिया पर केन्द्रित कार्यक्रम में गाने वही सुनवाए जो दोपहर 12 बजे सुनवाए थे। हद तो तब हो गई जब सागर फिल्म के दो और बौबी फिल्म के तीन गाने सुनवाए जबकि कई महत्वपूर्ण बाते नही बताई जैसे बाद में उन्होंने सार्थक सिनेमा में अपनी अभिनय क्षमता दिखाई, दृष्टि फिल्म का सिर्फ नाम बताया कि उसके लिए एवार्ड मिला, कोई चर्चा नही की। यह कार्यक्रम बिलकुल भी अच्छा नही था। बेहतर होता दो कार्यक्रमों के स्थान पर केवल हिट-सुपरहिट कार्यक्रम ही तैयार किया जाता। फिल्मकार संजय लीला भंसाली पर कार्यक्रम ठीक रहा। पूरे सप्ताह इस कार्यक्रम को विजय दीपक छिब्बर जी ने प्रस्तुत किया। सहयोग पी के ए नायर जी का रहा। इस कार्यक्रम का प्रसारण हर दिन के बजाय सीमित करने से ठीक रहेगा, अन्य समय कोई और कार्यक्रम प्रसारित करने से विविधता और रोचकता बढ़ेगी। हिट-सुपरहिट और इस कार्यक्रम की अपनी-अपनी संकेत धुन हैं।

रात 10 बजे छाया गीत में अमरकांत जी ने दिल की बाते की और प्यार की चर्चा की, शागिर्द, ज्वैल थीफ और दिल हैं कि मानता नही जैसी फिल्मो के गीत सुनवाए। ममता (सिंह) जी ने प्यार के अहसास की चर्चा की, गाने अधिकतर पुराने ही सुनवाए - ये किसने गीत छेड़ा। राजेन्द्र (त्रिपाठी) जी ने शायराना अंदाज में रोमांटिक गीत सुनवाए - नजरो से कह दो प्यार में मिलने का मौसम आ गया। रेणु (बंसल) जी ने मोहब्बत की चर्चा की और यह शरारती गीत भी सुनवाया - ये परदा हटा दो ज़रा मुखड़ा दिखा दो हम प्यार करने वाले हैं कोई गैर नही। कमल (शर्मा) जी ने प्यार में प्रतीक्षा की चर्चा की, एक ऐसा गीत भी सुनवाया जो कम ही सुनवाया जाता हैं - ऐसा होता तो नही ऐसा हो जाए अगर। इस तरह सभी ने प्यार की चर्चा की पर युनूस (खान) जी की प्रस्तुति हट कर रही, ऐसे गीतों की चर्चा की जो कम ही सुनवाए जाते हैं, ज्यादातर ऐसे गीत सुनवाए जिसे मैंने शायद ही पहले कभी सुना हो जिनमे से एक गीत हैं - तुझे दूं मैं क्या तू ही बता जो देना हैं मालिक ने पहले ही दिया। कुछ गीत जाने-पहचाने भी रहे। 10:30 बजे आधे घंटे के लिए आपकी फरमाइश कार्यक्रम प्रसारित हुआ जिसमे फरमाइश पर पुराने गाने जैसे एक बार मुस्कुरा दो फिल्म और बहुत पुरानी जैसे बरसात फिल्म से यह गीत सुनवाया - हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का। नई फिल्मो दबंग और सुर के गीत भी शामिल थे। मन चाहे गीत की तरह यहाँ भी बुधवार और गुरूवार को ई-मेल और शेष दिन पत्रों से प्राप्त फरमाइशे पूरी की गई। शनिवार को रात 9:30 से 11 बजने से कुछ पहले तक प्रसारण सुनाई नही दिया केवल खरखराहट थी।

भूले बिसरे गीत, त्रिवेणी, मन चाहे गीत, पिटारा, जयमाला, आपकी फरमाइश कार्यक्रम प्रायोजित रहे। प्रायोजक के विज्ञापन भी प्रसारित हुए। श्रोताओं की सुविधा के लिए दिन भर के कार्यक्रमों का विवरण बताया गया झरोका के अंतर्गत सुबह 6:55 पर, आगे के कार्यक्रमों का विवरण दोपहर 12:55 शाम 6:55 पर, और रात 11 बजे अगले दिन के सभी कार्यक्रमों की जानकारी दी गई जिसमे प्रायोजित कार्यक्रमों के लिए प्रायोजक के नाम भी बताए गए। रात 11:05 पर समाचारों के दिल्ली से प्रसारित 5 मिनट के बुलेटिन के बाद प्रसारण समाप्त होता रहा।

मन चाहे गीत और आपकी फरमाइश कार्यक्रम में फरमाइश भेजने के लिए पता बताया गया, पता वही हैं जो हमने पत्रावली के लिए बताया, केवल ऊपर कार्यक्रम का नाम लिखना हैं।

ई-मेल आई डी - manchahegeet@gmail.com apkifarmaish@gmail.com

चलते-चलते हम आपको बता दे कि यह सभी कार्यक्रम हमने हैदराबाद में एफ़ एम चैनल पर 102.8 MHz पर सुने।

Thursday, June 9, 2011

यादें हवामहल के 'मुंशी इतवारीलाल' की। (लेखक नरेश मिश्र से फोन पर बातचीत)

रेडियो की दुनिया काफी विराट है। और एफ.एम.रेडियो के इस दौर में चारों तरफ़ युवा पीढ़ी का शोर है।
पर रेडियो की इस दुनिया की मज़बूत नींव रखने में और उस पर ये सुनहरा संसार खड़ा करने में अग्रज पीढ़ी का जबर्दस्‍त योगदान रहा है। रेडियोनामा पर हमने एक प्रयास शुरू किया है, रेडियो की इस अग्रज पीढ़ी से जुड़ने का। इस सीरीज़ में आप अग्रज प्रसारणकर्ताओं के टेलीफ़ोन पर किए गए इंटरव्‍यू सुनेंगे। इन्‍हें मैं अपने मोबाइल फोन पर रिकॉर्ड कर रहा हूं। और रेडियोनामा की टीम के हम लोग मिलकर इन्‍हें अंकित भी करेंगे। संभवत: पाक्षिक रूप से हर बुधवार को हम हाजिर होंगे। 

पहले चरण में इलाहाबाद के कुछ प्रसारण दिग्‍गजों को चुना गया है। आपको ये बता दूं कि इस श्रृंखला की प्रेरणा इलाहाबाद के हमारे मित्र 'डाकसाब' ने दी है। (प्रेरणा और संपर्क-सूत्र वग़ैरह सब) हालांकि इसका आग़ाज़ पिछले महीने ही होना था। पर अनेक कारणों से ये हो ना सका। संयोग से आज 'डाकसाब' का जन्‍म-दिन है। तो डाक-साब से ये कहते हुए कि 'तेरा तुझको अर्पण, क्‍या लागे मोरा'। जन्मदिन की शुभकामनाओं सहित।
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विविध-भारती का सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम रहा है 'हवामहल'। और हवामहल ने रेडियो नाटक की दुनिया को समृद्ध करने में अपना महती योगदान दिया है। दरअसल वो दौर रेडियो नाटकों का सुनहरा दौर था। जब देश के विभिन्‍न केंद्रों पर नाटक रिकॉर्ड होते और उन्‍हें विविध-भारती भेज दिया जाता। जहां से वो सारे देश को सुनाई देते। हास्‍य-नाटिकाओं की बहार होती थी उन दिनों। 'लोहा सिंह', 'मुंशी इतवारीलाल', 'म्‍यूजिक मास्‍टर भोलाशंकर' और 'बहरे बाबा' जैसी श्रृंखलाओं ने तब धूम मचा रखी थी। मुंशी इतवारीलाल वाली सीरीज़ को लिखते रहे श्री नरेश मिश्र। नरेश जी पहले पत्रकार थे और फिर इलाहाबाद आकाशवाणी में स्क्रिप्‍ट-राइटर बने। तकरीबन बीस साल उन्‍होंने 'मुंशी इतवारीलाल' सीरीज़ लिखी। आकाशवाणी परिवार की सबसे लंबी श्रृंखला है ये। और इन दो दशकों में इसकी लोकप्रियता हमेशा एक जैसी ऊंची बनी रही। आपको बता दें कि मुंशीजी की भूमिका इस सीरीज़ के निर्देशक विनोद रस्‍तोगी स्‍वयं करते थे। विनोद रस्‍तोगी आकाशवाणी नाटकों का बड़ा नाम रहे हैं। बहरहाल...इतना लंबा अनुभव रखने वाले नरेश मिश्र से मैंने केवल 'मुंशी इतवारीलाल' के बारे में ये बातचीत अपने मोबाइल फोन पर रिकॉर्ड की है।

बातचीत की अवधि है क़रीब छब्‍बीस मिनिट।
इतना सुनने का धीरज (या फुरसत) जिन लोगों के पास नहीं है, उनके लिए इस बातचीत की इबारत भी

यूनुस- नरेश जी नमस्‍कार कैसे हैं आप

नरेश- हां मैं ठीक हूं।

यूनुस- नरेश जी मुंशी इतवारीलाल अपने समय की बहुत ही मशहूर हास्‍य-नाटिकाओं में से एक रही है और आप इसके लेखक हैं। हमें इसके इतिहास के बारे में बताईये

नरेश मिश्र- इसका इतिहास 1964 से शुरू होता है। मेरा करियर फ्रीलान्‍सर के रूप में शुरू हुआ। और आकाशवाणी में आने से पहले मैंने कई संस्‍थाओं में काम किया। न्‍यूज़पेपर्स लिमिटेड, हिंदुस्‍तान टाइम्‍स, गांधी मेमोरियल ट्रस्‍ट का प्रकाशन विभाग, अकबर मेमोरियल ट्रस्‍ट का प्रकाशन विभाग। इन संस्‍थाओं में नौकरी करने के बाद मैं आकाशवाणी में सन 1967 में आया। लेकिन 'मुंशी इतवारीलाल' की शुरूआत 1964 से ही हो गयी। ऐसा था कि ....जो आकाशवाणी इलाहाबाद के ड्रामा प्रोड्यूसर थे विनोद रस्‍तोगी, जिनका बड़ा नाम हे ड्रामा के क्षेत्र में, तो उनके दिमाग़ में आया कि एक हास्‍य-नाटिका शुरू की जाए। क्‍योंकि उस समय आकाशवाणी के विभिन्‍न केंद्रों से बहुत अच्‍छी हास्‍य नाटिकाएं प्रसारित हो रही थीं। आकाशवाणी पटना से लोहा सिंह, आकाशवाणी लखनऊ से बहरे बाबा, आकाशवाणी जयपुर से 'म्‍यूजिक मास्‍टर भोलाशंकर'। तो उसी तरह की एक हास्‍य नाटिका जो है इलाहाबाद से प्रसारित करने की योजना थी। और रस्‍तोगी जी दारागंज में ही रहते थे। रहने वाले तो वो फ़र्रूख़ाबाद के थे, लेकिन जब रेडियो में आए तो दारागंज में ही उन्‍होंने आके मकान लिया। और इसी मुहल्‍ले में मेरा जन्‍म हुआ है, तो मुझसे उनका परिचय हो गया। तो उन्‍होंने ये प्रस्‍ताव मेरे सामने रखा और कहा कि एक कन्‍सेप्‍ट बनाओ और फिर मुझसे डिस्‍कस करो। क्‍योंकि हम एक हास्‍य-नाटिका शुरू करना चाहते हैं। तो मैंने कन्‍सेप्‍ट बनाया। और मेरे ज़ेहन में एक कायस्‍थ परिवार आया, जिसके ख़ानदान के पुरखे अवध के नवाब के ज़माने में मीर-बख़्शी के ओहदे पर तैनात थे, ऐसा मेरे ज़ेहन में आया। और एक इड्डा मियां थे, मैं जब बीमार पड़ा तो इड्डा मियां मेरे बड़े शुभचिंतक थे। वो कहते थे—‘भैया भगवान के फ़ज़ल से आप ठीक हो जायेंगे। आपकी सेहत बहाल हो जायेगी’। तो भगवान के फ़ज़ल से जो वाक्‍यांश है वो मैंने उनका पकड़ लिया। (आगे चलकर कादर ख़ान ने एक फिल्‍म में इस जुमले को अपनाया और बेहद लोकप्रिय किया)

एक और बात मैं आपको बताऊं। मेरी एजुकेशन संस्‍कृत पाठशाला में हुई है। उर्दू से मेरी वाकफियत बहुत कम है। लिपि के बारे में तो मैं बिल्‍कुल नहीं जानता लेकिन भाषा को लेकर के कोई दिक्‍कत इसलिए नहीं होती क्‍योंकि आमतौर पर हम जो बोलचाल की भाषा का इस्‍तेमाल करते हैं उसमें उर्दू होती ही है। और हिंदी और उर्दू को मैं अलग नहीं मानता। अच्‍छा, मेरे तीन बहुत अज़ीज़ दोस्‍त थे। एक नसीमउद्दीन। एक इख़लाक उद्दीन और एक मंज़ूर आलम। नसीमुद्दीन तो बंटवारे के वक्‍त पाकिस्‍तान चले गए और सेक्रेटियेट में वहां एक बड़े ऊंचे ओहदे पर तैनात हो गए। और बहुत ही ग़रीब परिवार से थे। पिता उनके सुनारी का काम करते थे। मां के देहांत के बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। मेरी मां बचपन में ही मर गयी थी तो हम दोनों एक ही दुख से दुखी रहते थे। एक दूसरे से बहुत पटती थी। दूसरे जो इख़लाक थे वो यहां इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में थे। अभी दो साल पहले उनका इंतकाल हुआ। और मंज़ूर आलम यहां से एयर-फोर्स में भर्ती हो गयी। इन तीनों के साथ हमारा जो उठना बैठना था, उससे उर्दू के संस्‍कार मिल गये थे और कायस्‍थ परिवार में तो मेरा एक तरह से पालन-पोषण ही हुआ है। कायस्‍थों का जो रहन-सहन है उससे मेरी वाकफियत बहुत ज़्यादा थी। यानी कहने को आप मुझे ब्राह्मण कह सकते हैं पर ज्‍यादातर मेरी जिंदगी कायस्‍थ परिवारों में गुज़री। तो एक तरह से ये संयोग था जिससे ‘मुंशी इतवारीलाल’ के लेखन में मुझे मदद मिली।

इस तरह से ‘मुंशी इतवारीलाल’ का कंसेप्‍ट बना। स्क्रिप्‍ट लिखी गयी। डिस्‍कस हुआ। और उसके बाद फिर विनोद रस्‍तोगी ने अपनी डायलॉग अदाकारी के कई नमूने पेश किये। उसमें से जो टीम को सबसे अच्‍छा लगा, उसे ही उन्‍होंने डेवलप किया। तो कहने का मतलब ये है कि ‘मुंशी इतवारीलाल’ के प्रोडक्‍शन में बड़ी मेहनत होती थी। ये आकाशवाणी इलाहाबाद का बहुत शाहकार प्रोडक्‍शन माना जाता था इसलिए इस पर सबकी नज़र रहती थी। और आगे चलकर जब वो ‘विविध-भारती’ से ब्रॉडकास्‍ट होने लगा तब उसकी क़ीमत बढ़ने लगी। और बहुत बड़ा प्रोत्‍साहन था। इसके तमाम उदाहरण हैं। जिनका अनुभव मैंने किया। और कुछ ऐसे अनुभव थे जो कि विनोद रस्‍तोगी को हुए। इनमें से एक अनुभव मैं शेयर करना चाहूंगा अगर आप चाहें तो।

मेरी ससुराल इटावा में है। उन दिनों एक ट्रेन चलती थी ‘असम मेल’। आजकल इसे नॉर्थ-ईस्‍ट फ्रंटियर कहते हैं। जब मैं प्‍लेटफॉर्म पर पहुंचा तो ट्रेन चलने लगी थी। तो सामने जो डिब्‍बा दिखाई दिया वो उसी में चढ़ गया। बाद में जब मैंने देखा तो पाया कि सारे मिलेटरी वाले बैठे हैं। एक भी सिविल व्‍यक्ति नहीं है। तो मुझे लगा कि ग़लती हो गयी। मैं मिलेट्री के कोच में बैठ गया। ये राजपूताना रायफल्‍स के लोग थे जो राजस्‍थान जा रहे थे। मैं बाथरूम के पास खड़ा था। क्‍योंकि बैठने का सवाल ही नहीं उठता। कैप्‍टन वहां से गुज़रा तो उसने मेरी तरफ़ देखा। बोला—‘आप कैसे इस डिब्‍बे में आ गए। ये तो मिलेट्री के लिए रिज़र्व है।’ मैंने उससे कहा—‘वक्‍त नहीं था, ऐन वक्‍त पर ट्रेन छूट रही थी। मैं चढ़ गया। फ़तेहपुर में उतर जाऊंगा’। वो भला शख्‍़स था कि बोला नहीं। बाथरूम से लौटा, अपनी सीट पर बैठ गया, थोड़ी देर मुझे देखता रहा। फिर बोला, आप बैठ जाईये, फतेहपुर में उतर जाईयेगा। मैंने उससे शुक्रिया कहा और बैठ गया। उस समय ‘मुंशी इतवारीलाल’ पुस्‍तक रूप में प्रकाशित होने वाला था, और उसका प्रूफ मेरे पास पड़ा था। मैंने सोचा कि डेढ़ घंटे का वक्‍त कैसे गुज़ारूंगा। तो मैं बैठकर प्रूफ पढ़ने लगा।

कैप्‍टन ने पूछा कि ये आप क्‍या पढ़ रहे हैं तो मैंने कहा, मुंशी इतवारीलाल हास्‍य नाटिका अगर आपने कभी सुनी हो। तो वो कहने लगा, अरे हम लोग तो इसे एक साथ बैठकर सुनते हैं। उन दिनों टेलीविजन था ही नहीं। तो सैनिकों के मनोरंजन का भी एकमात्र साधन रेडियो ही था। उससे आपका क्‍या ताल्‍लुक है। मैंने कहा कि वो नाटिका मैं ही लिखता हूं। कहने लगा कि आप तो मुंशी इतवारीलाल नहीं हैं। मैंने कहा, हां मैं मुंशी इतवारीलाल नहीं हूं। उसके हीरो विनोद रस्‍तोगी हैं। मैं सिर्फ लिखता हूं। उसने अपने तमाम साथियों को बुलवा लिया। आओ आओ मुंशी इतवारीलाल से मिलवाते हैं। और फिर उसने इतने सवालात पूछे। कैसे लिखते हैं, कैसे प्रोडक्‍शन होता है, कैसे रिहर्सल होती है। मुंशियानइ कौन हैं, फिदा हुसैन कौन हैं। उस ज़माने में उसके जो अच्‍छे चरित्र थे, उन सबके बारे में पूछना शुरू कर दिया। डेढ़ घंटे का वक्‍त बड़े आराम से गुज़र गया। मुझे पता भी नहीं चला। फतेहपुर स्‍टेशन आ गया। तो मैंने सोचा कि मैंने कहा था कि फतेहपुर में उतर जाऊंगा तो बैग लेकर उतरने लगा। अब वो कैप्‍टन जो था, वो चाय-नाश्‍ता लेने के लिए प्‍लेटफार्म पर उतर गया था। जैसे ही मैं उतरने लगा, उसने सामने आकर कहा, क्‍या आप अभी तक मुझसे नाराज़ हैं, मैंने कहा, भई नाराज़गी की तो कोई बात नहीं है। आपने मुझे बैठने की जगह दी, मैंने कहा था कि मैं फतेहपुर में उतर जाऊंगा, तो मैं जनरल डिब्‍बे में चला जाता हूं। उसने कहा, नहीं मैं आपको जाने नहीं दूंगा। चाय पिलाई, नाश्‍ता कराया। और बाकी सफ़र कानपुर तक का, जो लगभग पैंतालीस मिनिट का होता है, वो भी मुंशी इतवारीलाल का बयान करने में ही गुज़र गया। जब कानपुर में मैं उतरने लगा, मैंने इजाज़त ली, कहा बड़ा अच्‍छा वक्‍त कटा आपके साथ। तो उसने मेरा बैग उठा लिया। और प्‍लेटफार्म तक आया और कहा कि मैंने अनजाने में आपसे जो ऐतराज किया था, इस डिब्‍बे में चढ़ने का उसके लिए आप मुझे माफ़ कर दीजिए। मैंने कहा, ऐसी कोई बात नहीं है। डिब्‍बा आपके लिए रिज़र्व था। किसी सिटिज़न को उसमें घुसना नहीं चाहिए। आपकी मेहरबानी है कि आपने अपने साथ सफ़र करने दिया। तो मुझे पहली बार लगा कि ‘मुंशी इतवारीलाल’ की लोकप्रियता बहुत है।


इसी तरह का किस्‍सा विनोद रस्तोगी के साथ भी हुआ। उन्‍हें श्रीनगर रेडियो स्‍टेशन पर मुंशी इतवारीलाल को मंच पर प्रस्‍तुत करने जाना था। और टिकिट हो चुके थे। ऐन वक्‍त पर उनकी पत्‍नी कहने लगीं कि मुझे भी कश्‍मीर घूमना है। तो उनको भी साथ ले लिया। जम्मू तक तो कोई प्रॉब्‍लम थी नहीं। जम्‍मू से श्रीनगर फ्लाइट से जाना था। और उसमें तो ऐन वक्‍त पर रिज़र्वेशन मिलता नहीं। तो ‘बड़े भैया’ के नाम से मशहूर विजय बोस काउंटर पर गये और उन्‍होंने मुंशी इतवारीलाल का परिचय करवाया। और कहा कि हम लोग एक टिकिट और चाहते हैं क्‍योंकि मुंशी इतवारीलाल की मुंशियाइन तो साथ हैं लेकिन उनकी धर्मपत्‍नी भी यात्रा करनी चाहती हैं। जो काउंटर पर तैनात व्‍यक्ति था वो बहुत हंसा। और बोला- अभी दो टिकिट खाली हैं। मैं आपको दे देता हूं। उसने भी मुंशी इतवारीलाल के बारे में बहुत कुछ पूछा।


श्री विद्याभूषण अग्रवाल, जो (मशहूर लेखिका) ममता कालिया के पिताजी थे, अब तो उनका देहांत हो गया है। इलाहाबाद रेडियो स्‍टेशन के डायरेक्‍टर थे। तो लौटकर विनोद रस्‍तोगी ने सारा किस्‍सा बताया। बहुत प्‍यार करते थे अग्रवाल जी। कहने लगे, पंडित तू बड़ा अभागा है। देख, ये जो बनिया है, ये मुंशी इतवारीलाल के नाम पर पूरा हिंदुस्‍तान घूम रहा है। और मैं तुझे जाने की परमीशन देने को तैयार हूं। लेकिन पता नहीं क्‍यों तुझे ये सब अच्‍छा नहीं लगता। लेकिन मुझे कुछ बीमारियां थीं, जिनके रहते मैं यात्रा से बचता था। मैंने उन्‍हें बताया कि ऐसी बात नहीं है। मेरी कुछ मजबूरियां हैं। इसलिए मैं नहीं जाता।

एक बार नागपुर में एक नाटक-सम्‍मेलन हुआ। जितनी हास्‍य-नाटिकाएं उस ज़माने में आकाशवाणी में हो रही थीं सबको बुलाया गया। वहां म्‍यूजिक मास्‍टर भोलाशंकर, लोहासिंह, बहरे बाबा सब इकट्ठा हुए। वहां रेडियो के डायरेक्‍टर जनरल भी मौजूद थे। तो उन्‍होंने ‘मुंशी इतवारीलाल’ को सर्वश्रेष्‍ठ हास्‍य–नाटिका बताया। मुझे बड़ा अच्‍छा लगा। और बहरे बाबा से भी अप्रत्‍यक्ष परिचय हुआ। उन्‍होंने पूछा कि कौन हैं इसके लेखक। तो विनोद रस्‍तोगी ने बताया कि इलाहाबाद में रहते हैं। आपके ही समाज के हैं। बाद में एक मज़ेदार बात ये हुई कि रमई काका, जो चंद्रभूषण त्रिवेदी हैं, इनकी भतीजी को मैंने अपनी बड़ी बहू बनाया। कान्‍यकुब्‍जों में बहुत दहेज लिया जाता है। आपको शायद पता होगा। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी को भी यही एक शोक था। कम दहेज की वजह से उनकी बिटिया सरोज ने बड़ा कष्‍ट उठाया। उसका देहांत हो गया। उसी की याद में उन्‍होंने ‘सरोज-स्‍मृति’ लिखी। तो जब दहेज की बात आई तो मैंने कहा, हां दहेज तो लेना है। वो बहुत चौंके, क्‍या दहेज लेना है। मैंने कहा कि रमई काका अगर समधी की तरह गांव के दरवाजे तक मुझसे मिलने आएं, तो मैं ये शादी करूंगा। (ठहाका) मुझे अच्‍छी तरह से याद है कि रमई काका दमा के मरीज़ थे। और वो लखनऊ से उन्‍नाव उनका घर है, तो एक आदमी स्‍कूटर से उन्‍हें लेकर आया। समधी के रूप में जब मिले तो गले से लगा लिया। और मज़ाक़ भी किए। बताईये साहब मुझे और क्‍या चाहिए। कोई क्‍या देगा। जो अपनी लड़की दे रहा है, उससे बड़ी कौन सी चीज़ हो सकती है, जिसे लेकर मैं धन्‍य हो जाऊंगा। वो तस्‍वीर मेरे पास आज भी है। जिसमें हम दोनों गले मिल रहे हैं। रमई काका का काफी बीमारी के बाद निधन हो गया। तो मुंशी इतवारीलाल से कई तरह की यादें जुड़ी हुई हैं।

यूनुस—कितना पेमेन्‍ट मिलता था आपको मुंशी इतवारीलाल लिखने का।

नरेश मिश्र—जैसा कि मैंने आपको बताया कि मैं फ्री लान्‍सर था, सन चौंसठ से तीन बरस तो मैंने बाहर से लिखा। फिर 1967 में दो सितंबर को आकाशवाणी में मुझे स्क्रिप्‍टराइटर के तौर पर तैनाती मिल गयी। तो पेमेन्‍ट मिलना बंद हो गया। पर उससे पहले चालीस रूपये मूल फीस मिलती थी। और दोबारा प्रसारण की फीस मिलती थी सवा छह रूपए। बहुत सारे रेडियो स्‍टेशन इसे रिपीट करते थे। और उसका हिसाब कैश विभाग में आता था। अच्छी खासी रकम हो जाती थी। तब महंगाई ज्‍यादा तो थी नहीं। चार सौ रूपए का मूल वेतन पाने वाला बहुत रईस माना जाता था तब। उस समय अगर आपको दो सौ तीन सौ रूपए हर महीने रॉयल्‍टी मिल रही है, तो उस ज़माने के हिसाब से बड़ी बात होती थी।

यूनुस—कुल मिलाकर कितनी झलकियां लिखीं होंगी आपने मुंशी इतवारीलाल के नाम से।

नरेश‍ मिश्र--मैंने बीस बरस इसे लिखा। कई सौ झलकियां लिखीं। इनमें से चालीस या पचास पुस्‍तक के रूप में संग्रहीत हैं। मुंशी इतवारीलाल को हम कई वातावरण में ले गये। मुंशी इतवारीलाल का ट्रान्‍सफर करा दिया मुंबई। मुंबई में वो नन्‍हीं के पेइंग गेस्‍ट हो गए। उसका एक बेटा था कुमार। बिगड़ैल। और पहले जब मुंशी इतवारीलाल थे तो उनके साथ बाबू बाबूलाल थे। फिदा हुसैन हमेशा साथ रहे। वो मुंबई भी चले गए साथ में। फिर मुंशी इतवारीलाल लौटकर गांव आ गये। तो गांव की समस्‍याओं पर भी लंबे समय तक लिखा जाता रहा। जिसमें एक परसादीलाल नाम के कैरेक्‍टर को इंट्रोड्यूस किया गया। एक बजरंगी पहलवान को लाया गया। परसादी लाल युक्तिभद्र दीक्षित बनते थे। वो आज भी जीवित हैं। एक बात मैं आपको बता दूं कि आकाशवाणी इलाहाबाद में स्‍टाफ और बाहर से आने वाला ऐसा कोई भी जाना माना नाटक का आर्टिस्‍ट नहीं था जिसने मुंशी इतवारीलाल में काम नहीं किया (यूनुस--क्‍या बात है, बहुत बढिया) जिसने मुंशी इतवारीलाल में काम नहीं किया, उसे आकाशवाणी इलाहाबाद का बहुत अच्‍छा ड्रामा आर्टिस्ट नहीं माना जाता था। चंद्रकान्‍ता ने बुआ का रोल किया था। आज भी जीवित हैं। 95 बरस की उम्र है उनकी। अदभुत रोल करती थीं। अवधी टच था। मैं पंचायत घर में स्क्रिप्‍ट लिखता था। वहां अवधी में लिखना पड़ता था। पर मुंशी इतवारीलाल अलग लिखा जाता था। उसकी खुशबू अलग होती थी। उसका माहौल अलग होता था। और मैं आपको यकीन दिलाना चाहता हूं कि उन्‍नीस बरस के दौरान कोई ऐसा मौक़ा नहीं आया जब मैंने उसे दफ्तर में बैठकर लिखा हो। हमेशा घर पर लिखा। और हमेशा तीन चार दिन ज़ाया किये पंद्रह मिनिट की स्क्रिप्‍ट के लिए। कई कई बार उसे री-राइट करना पड़ता था। कभी कभी रस्‍तोगी जी के सवालात आते थे। तो फिर से लिखना पड़ता था। और ये बड़ी मेहनत का काम था। और हर प्रोडक्‍शन के बाद एक मीटिंग होती थी, कि अब आगे क्‍या कंसेप्‍ट लेना है, क्‍या करना है।

एक और मज़ेदार बात बताना चाहता हूं। एक बार सहारिया साहब स्‍टेशन डायरेक्‍टर थे। तो एक मीटिंग हुई, जैसी कि रेडियो की तिमाही मीटिंग होती है। तो उसमें एक बहस चली कि कौन से प्रोग्राम बंद कर देने चाहिए और कौन से नए शुरू करने चाहिए। तो मेरे एक मित्र हैं , जो डी डी जी (उप महानिदेशक) होकर रिटायर हुए, बड़े अच्‍छे मित्र हैं मेरे। आजकल अमरीका में हैं। वो वहां प्रोग्राम एक्‍जीक्‍यूटिव थे। उन्‍होंने कहा कि मुंशी इतवारीलाल को बंद कर देना चाहिए। पंद्रह बरस से ज़्यादा हो गए हैं अब वो बासी हो गया है। सहारिया साहब स्‍टेशन डायरेक्‍टर थे और मिलेट्री कोटे से इस पद पर आए थे। उन्‍होंने कहा--'मुंशी इतवारीलाल पीक/शिखर नहीं है। वो एक प्‍लेटो/पठार है। और अगर आप एवरेस्‍ट के पीक पर चढ जायें तो ज्यादा देर रह नहीं सकते। आपको उतरना पड़ता है। लेकिन पठार पर आप आराम से रह सकते हैं। उसमें तो बाग हैं, बग़ीचे हैं, जानवर हैं, लोग हैं, बोली है, भाषा है, लोकगीत हैं। ये सब है।' तो उन्‍होंने इसकी पठार से तुलना की। इसलिए उसको बंद नहीं किया जा सकता। उन्‍होंने इस सुझाव को नहीं माना।

तो इस तरह से तमाम यादें जो हैं मुंशी इतवारीलाल से जुड़ी हुई हैं।

यूनुस--नरेश जी मुंशी इतवारीलाल जिस तरह से अपना परिचय देते हैं उसे आपने पुस्‍तक में लिखा है।

नरेश मिश्र--मुंशी इतवारीलाल और उनके जो सहयोगी पात्र हैं, उन्‍होंने अपना तार्रूफ़ खुद करवाया है। मैं कुछ पात्रों का परिचय आपको सुनाता हूं।

मुंशी जी कहते हैं--
दुश्‍मनों का दुश्‍मन यारों का यार हूं मैं
मीर-बख्‍शी हूं, मुहब्‍‍बत का तलबगार हूं मैं
गुलशने-कौम का हर दिन अजीज है ऐ दोस्‍त
नीयत-ए-बद के लिये ज़हर भरा ख़ार हूं मै।

मुंशियाइन कहती हैं--


ब्‍याहता हूं मीर-बख्‍शी की, शायरी से उन्‍हें मुहब्‍बत है
रोऊं अपने करम पे या कि हंसूं, जिंदगी भर की मुसीबत है।

बेटी ग़ज़ल कहती है--
अपने पापा की मैं हूं प्‍यारी ग़ज़ल, अपनी मम्‍मी की आंख का सपना
प्‍यार मुझको मिला विरासत में, बांटना उसको काम है अपना।

प्‍यारेलाल कहते हैं--
अपने फन में जनाब आला हूं, मीर बख्‍शी का साला हूं।

बुआ जी कहती हैं--(वो हमेशा मंदिर बनवाने के लिए चंदा जमा करती रहती हैं)
ये बड़ा है कष्‍ट हरे कृष्‍णा
हो गयी दुनिया भ्रष्‍ट हरे कृष्‍णा
चंदा कर बनवा दूं मैं मंदिर तेरा
बस इतना ही इष्‍ट हरे कृष्‍णा।

बाबूलाल कहते हैं--
एक रूपैया तीन अठन्‍नी मेरा यही कमाल
श्रीमान कहते हैं मुझको बाबू बाबूलाल।

यूनुस--नरेश जी ये अदभुत बातचीत रही। और मुंशी इतवारीलाल से जुड़ी जो बातें आपने हमें बताई हैं, बहुत अदभुत हैं। इनके बारे में हमें पता नहीं था। अगली बार कुछ और किस्‍से आपसे सुनेंगे। बहुत धन्‍यवाद।

नरेश मिश्र- शुक्रिया।

Wednesday, June 1, 2011

मैच का फै़सला बाद में होगा: न्यूज़रूम से शुभ्रा शर्मा (कड़ी 1)

प्रिय मित्रो
रेडियोनामा पर आकाशवाणी की मशहूर समाचार वाचिका शुभ्रा शर्मा का एक संस्‍करण आप पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुण्‍यतिथि पर पढ़ और सराह चुके हैं। हमें खु़शी है कि आज से शुभ्रा जी अपने संस्‍मरणों की पाक्षिक श्रृंखला लेकर आ रही है--न्‍यूज़रूम से शुभ्रा शर्मा। व्‍यस्‍तताओं की वजह से वो एक बुधवार छोड़कर ही लिख सकेंगी। उनका हौसला बढाएं और अपनी राय देते रहें। ........यूनुस ख़ान
 




रेडियोनामा पर अवतरित होते ही ऐसा लगा उतरी नहीं बल्कि सीधे सातवें आसमान पर चढ़ा दी गयी. चारों ओर से इतनी प्रशंसा, इतना अपनापन, ऐसा स्वागत. सच कहती हूँ मैंने इसकी कल्पना तक नहीं की थी. करती भी कैसे? लगभग २५ वर्ष से आकाशवाणी पर समाचार पढ़ती आ रही हूँ. कभी जाना ही नहीं कि लोग मेरे नाम से परिचित हैं या नहीं. अक्सर यही सुनने को मिला कि आजकल रेडियो सुनता ही कौन है. सरकारी सर्वेक्षणों के आंकड़े भी यही साबित करने पर आमादा रहते हैं कि आकाशवाणी के कार्यक्रम या तो पान वाले की दुकान पर सुने जाते हैं या फिर चलती ट्रक में. बल्कि एक घटना तो मेरे साथ ऐसी हुई, जिसे सुनकर आप हंसेगे लेकिन है सोलहों आने सच.

हुआ यों कि एक बार बड़ी-बड़ी हस्तियों से सुशोभित एक बड़े से कार्यक्रम में भूल से किसी ने मुझे भी बुला लिया था. भूल ही हुई होगी क्योंकि इतने सारे गण्यमान्य लोगों में मुझे भूले से भी अपना कोई परिचित नज़र नहीं आ रहा था. तभी तीन-चार लोगों का एक दल मुझे संकोच से इधर-उधर घूमते देख सहानुभूतिपूर्वक मेरे पास आया. उनमे से एक सज्जन ने कहा - "माफ़ कीजियेगा मैंने आपको पहचाना नहीं."

मैंने उन्हें अपना नाम बताया और यह भी जोड़ दिया कि मैं आकाशवाणी में समाचार वाचन करती हूँ.

चारों लोगों ने जैसे बहुत कुछ समझते हुए हाँ में सर हिलाए.

फिर उनमे से एक सज्जन बोले - "वही तो, मैं  बड़ी देर से सोच रहा था कि आपका चेहरा बड़ा जाना पहचाना लग रहा है. अब समझ में आया कि आपको अक्सर ख़बरें पढ़ते देखा है."

जब चारों लोग एक बार फिर सहमति में सर हिला चुके तब मैंने विनयपूर्वक उन्हें बताया कि मैं टीवी पर नहीं रेडियो पर ख़बरें पढ़ती हूँ और दिखाई नहीं सिर्फ सुनाई देती हूँ.

दरअसल रेडियो का समाचारवाचक बड़ा ही निरीह और दयनीय प्राणी होता है. वो कहावत है न कि "गरीब की जोरू, सबकी भाभी" - वह हमारे ऊपर हूबहू लागू होती है. भूल करते हैं समाचार लिखने या अनुवाद करने वाले और डांट खाता है समाचारवाचक. विदेशी खिलाडियों या नेताओं के नामों को नए-नए तरीकों से लिख देता है स्टेनो और झिडकियां खाता है समाचारवाचक. और तो और, स्टूडियो में कभी कलम घसीटकर तो कभी हाथ-मुंह के अजीबोग़रीब इशारे करके नए-नए निर्देश देता है संपादक और उन्हें न समझने का दोष मढ़ा जाता है समाचारवाचक के सर. एक दिन मेरे एक संपादक बोले - "आप तो इशारे भी नहीं समझतीं". मैंने कहा - "आपने ज़रा देर कर दी, २०-२५ बरस पहले करते तो समझने की पूरी कोशिश करती."

बहरहाल, समाचार कक्ष का बड़े से बड़ा अपराधी भी श्रोताओं की नज़र से ओझल रहता है - सामने आता है तो बस बेचारा समाचारवाचक. भूल अनुवादक करे, स्टेनो करे या संपादक करे, श्रोता को इससे क्या लेना देना? वह तो सिर्फ समाचार पढ़कर सुनाने वाले को ही दोषी मानता है. यही जान पाता है कि आज शुभ्रा शर्मा ६ बजे के बुलेटिन में ६ बार अटकी. यह कोई नहीं जान पाता कि शुभ्रा शर्मा के सामने जो कागज़ आया था उस पर लिखा हुआ था - अमरीका केविदेश मंत्री श्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि ........अब अगर शुभ्रा शर्मा यह जानती है कि श्री क्लिंटन

वह थे जिन पर महाभियोग लगते लगते बचा था और श्रीमती क्लिंटन वह, जो उस समय चट्टान जैसी दृढ़ता से उनके साथ खड़ी रही थीं....... तो ज़ाहिर है कि वह क्षण भर को तो अटकेगी ही. श्रोता इस श्री -श्रीमती के द्वंद्व को देख नहीं पाता इसलिए उसे पढ़ने वाले में ही दोष नज़र आता है.

ऐसे समय के लिए अधिकारियों के निर्देश भी दुधारी तलवार जैसे होते हैं. कभी तो कहेंगे -  "जो कुछ आपके सामने लिखकर आएगा वही पढ़िए. ऊपर से लेकर नीचे तक इतने लोगों की नज़र से गुज़री हुई खबर ग़लत नहीं हो सकती". इस आशय का प्रपत्र भी निकलवा देंगे.

और फिर तीसरे ही दिन कहेंगे - "मान लीजिये कि उनसे ग़लती हो गयी लेकिन क्या आपको नहीं देखना चाहिए था. आप इतनी सीनियर हैं, आपने ग़लत कैसे बोला."

ऐसे मामलों में सबसे बढ़िया रवैया राजेंद्र अग्रवाल जी का होता था. पहले चुपचाप खबर पढ़कर एक तरफ रख देते थे. कोई टोका-टोकी नहीं, कोई बहस-मुबाहिसा नहीं. फिर जब उठकर स्टूडियो जाने लगते, तब चलते-चलते कहते - "हाँ भाई, ये जो ऐसा लिखा हुआ है, ये ऐसा ही पढ़ना है न?" अब बेचारे संपादक महोदय घबड़ाते कि पता नहीं कौन से आईटम में क्या ग़लती रह गयी है, इतनी जल्दी कैसे ढूंढें. सो, वे तत्काल शरणापन्न हो जाते. कहते, "अरे भाई ठीक कर लीजिये न". अग्रवाल जी मुस्कुराते हुए स्टूडियो चले जाते और लौटने पर ग़लती सुधारने की एवज़ में संपादक से चाय मंगवाते.

उन्हें देखकर हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी ने भी एक दिन कुछ ऐसा ही पराक्रम कर दिखाया. एक दिन स्टूडियो से लौटकर बोले - "आज तो चाय नहीं कॉफ़ी पिलानी होगी. हमने तुम्हारी नौकरी बचायी है".

संपादक ने कहा - "कॉफ़ी के साथ पकौड़े भी खा लीजियेगा, पहले ये तो बताइए ग़लती क्या है".

कहने लगे - "देखो तुमने क्या लिख दिया था, पर हमने संभाल दिया".

क्रिकेट का आईटम था. लाहौर के मैच का हाल बताया गया था और अंतिम वाक्य था कि अगला मैच फैसलाबाद में होगा, जिसे वे पढ़ आये थे अगले मैच का फैसला बाद में होगा.

इसके विपरीत हमारे एक-दो साथी ऐसे भी हैं, जो ऐसी कोई ग़लती देखते ही आगबबूला हो जाते हैं. गत्ता( जिन पर समाचारों के पन्ने क्लिप करके दिए जाते हैं ताकि माइक पर उनके सरसराने- फडफड़ाने की आवाजें न आयें ) जोर से पटककर ललकारते हैं - "ये किसका काम है? इतना भी नहीं जानते कि हिलेरी क्लिंटन आदमी है कि औरत. अरे यार, सरकार अख़बार खरीदने के पैसे देती है. कभी तो अख़बार पढ़ लिया करो".

इसके विपरीत मनोज जी (स्वर्गीय मनोज कुमार मिश्र) इस तरह की कोई भूल देखते थे तो उसे चुपचाप सुधार लेते थे और पलटकर कभी उसका ज़िक्र तक नहीं करते थे. बुलेटिन पूरा रिहर्स करते थे. फ़िज़ूल की एक भी बात नहीं करते थे. अपने काम से काम रखते थे. लेकिन बुलेटिन के संपादन और वाचन दोनों में महारत रखते थे. हाँ, उनके आने-जाने का समय उनकी मन-मर्ज़ी का होता था, इसीलिए लोग उन्हें राजा साहब कहते थे.

पुराने लोगों में एक जयनारायण शर्मा जी भी थे. ज़्यादातर सवेरे की ड्यूटी करते थे. सरकारी गाड़ी से कोई सवा चार बजे आते. एक तरफ के दरवाज़े से अन्दर आकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते और दूसरे दरवाज़े से बाहर चले जाते थे. कोई सवा पाँच बजे फिर नमूदार होते और धड़ाधड़ ६ बजे का बुलेटिन बनाने में लग जाते थे. मैं तब कैजुअल न्यूज़रीडर के तौर पर रात की ड्यूटी करती थी. ड्यूटी चार्ट में उनका नाम देखकर मुझे बड़ा अच्छा लगता. बड़ी राहत महसूस होती कि चलो ६ या ७ बजे तक रुकना नहीं पड़ेगा. कह भी देते कि जाना हो तो चली जाओ, हम ६ बजे का बुलेटिन देख लेंगे. बस एक ही बुरी आदत थी उनमें. गालियाँ बहुत देते थे. कोई चुटकुला सुना रहे हों, या ऑफिस की कोई गप या कोई और बात....बग़ैर गाली के पूरी ही नहीं होती थी. पहले-पहल तो मुझे बहुत बुरा लगता था पर कहती कैसे? लेकिन बाद में थोड़ी झिझक मिट जाने पर मैंने उन्हें टोका और कहा कि अब से जब भी समाचार कक्ष में कोई महिला होगी तब आप गाली नहीं देंगे. कहने लगे कि कोशिश कर सकता हूँ वादा नहीं कर सकता.  मैंने कहा अगर हमारे सामने गाली देंगे तो जुरमाना भरना पड़ेगा. बोले कि भाई, साला टाइप हलकी-फुलकी गाली का और महिलाओं की शान में गुस्ताख़ी वाली गालियों का एक सा रेट तो नहीं होना चाहिए. काफी मोल-भाव के बाद तय हुआ कि पहले प्रकार की गालियों पर २५ पैसे और दूसरे प्रकार की गाली पर एक रुपया देना होगा. मैंने गालियों का हिसाब जोड़ना शुरू कर दिया. कुछ रुपये जमा हो जाने पर उन्होंने एक बार सबको चाय भी पिलवा दी लेकिन उसके बाद मुकर गए. बोले कि बड़ी गाली का आठ आना ही तय हुआ था. मैं हिसाब ही जोड़ती रह गयी और वे रिटायर होकर चले भी गए.

          -----शुभ्रा शर्मा

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