कल मैंने आकाशवाणी के समाचार प्रभाग की मशहूर समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा के रेडियोनामा से जुड़ने का ऐलान किया था और लीजिए आज शुभ्रा जी बाक़ायदा रेडियोनामा पर अवतरित हो रही हैं।
इस आत्मीय आलेख में शुभ्रा जी ने अपने बचपन की एक बेहद महत्वपूर्ण घटना का सुंदर ब्यौरा दिया है।
आज पंडित जवाहर लाल नेहरू की पुण्यतिथि है। इस आलेख के ज़रिए रेडियोनामा उन्हें नमन भी कर रहा है।
ये आलेख शुभ्रा जी की आगामी श्रृंखला से अलग है। उनकी श्रृंखला जून के पहले सप्ताह में शुरू होगी और हर हफ्ते आप तक पहुंचेगी।
......यूनुस ख़ान
बात उन दिनों की है जब गोवा पुर्तगाली शासन से नया-नया मुक्त हुआ था, हालाँकि हवा तब भी साढ़े चार सौ वर्षों की दासता से भारी महसूस होती थी. लोग तब भी देश के अन्य हिस्सों को इंडिया कहते थे, बाज़ारों में विदेशी सामान भरा पड़ा था और समुद्र तट पर १२-१४ वर्ष के बच्चे भी बियर या वाइन का लुत्फ़ लेते देखे जा सकते थे. आकाशवाणी पर भी एमिसोरा डि गोवा का असर बाक़ी था. दोपहर के लंच के बाद लगभग दो घंटे सिएस्टा के लिए नियत थे. केंद्र निदेशक का कमरा बहुत बड़ा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ था. कमरे
की एक पूरी दीवार शीशे की थी, जहाँ से बगीचे का कोना नज़र आता था. कमरे में एक तरफ आरामदेह सोफा- कम- बेड था, जहाँ पुर्तगाली केंद्र निदेशक सिएस्टा का आनंद लेते थे. नए केंद्र निदेशक मेजर अमीन फौजी व्यक्ति थे, जिन्हें आराम के नाम से चिढ़ थी. वैसे भी वह नेहरूजी के 'आराम हराम है' के नारे वाला दौर था. मेरे पिताजी, कृष्ण चन्द्र शर्मा 'भिक्खु' सहायक केंद्र निदेशक थे. दोनों अधिकारियों की पूरी कोशिश रहती कि कम से कम आकाशवाणी से सिएस्टा का चलन ख़त्म हो जाये. लेकिन आह का असर होने के लिए
भी तो एक उम्र दरकार होती है.
गोवा में तब आकाशवाणी के कर्मचारियों को सरकारी आवास उपलब्ध नहीं थे. दोनों बड़े अधिकारी एक होटल में एक-एक कमरा किराये पर लेकर रहते थे. साल में एक बार, गर्मी की छुट्टियों में माँ, डॉ० शकुन्तला शर्मा मुझे लेकर गोवा जाती थीं. उसी एक कमरे में हम दोनों भी समा जाते थे. कमरे में समुद्र की ओर खुलने वाली बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं. उन्हीं में से एक के आगे माँ अपना चूल्हा-चौका जमा लेती थीं. घनघोर मांसाहारी प्रदेश में शाकाहारियों के लिए न तो कोई होटल था और न पंजाबी ढाबा या मारवाड़ी बासा. इसलिए माँ सोचती थीं - डेढ़-दो महीने के लिए ही सही, कम से कम पिताजी को घर का खाना तो खिला दें. आकाशवाणी से होटल की दूरी बस इतनी थी कि पिताजी दोपहर में खाना खाने आ जाते थे. ये और बात थी कि उनके पास एक अदद अम्बेसेडर कार थी जबकि उनका ड्राईवर सिल्वेस्ता मर्सिडीज़ में चलता था. पिताजी अम्बेसेडर में खाना
खाने आते थे, लेकिन शाम को उन्हें घर छोड़ने के बाद सिल्वेस्ता मुझे और मेरे दोस्तों को अपनी मर्सिडीज़ में घुमाने ले जाता था और आइसक्रीम भी खिलाता था.
एक दिन पिताजी खाना खाने बैठे ही थे कि फ़ोन की घंटी बजी. मैंने दौड़कर
फ़ोन उठाया. उधर से आवाज़ आई -
"मिस्टर शर्मा से बात कराइये, हम दिल्ली से बोल रहे हैं."
मैंने कह दिया कि वे खाना खा रहे हैं, लेकिन उधर से आदेश हुआ -" कोई बात
नहीं, उन्हें फ़ोन दीजिये".
मैं ज़रा लाडली बेटी थी, सो अड़ गयी कि थोड़ी देर बाद कर लीजियेगा. लेकिन तब तक दिल्ली का नाम सुनकर पिताजी उठ कर आ गए. नौ साल की उम्र के गुस्से में बिफरी हुई मैं माँ से शिकायत करने उनके पास चली आई. तभी पिताजी को कहते सुना - "हाय, ये क्या हो गया". फ़ोन रखकर पिताजी वहीँ दीवार से लिपटकर बुरी तरह रोने लगे. मैंने इससे पहले कभी उन्हें रोते नहीं देखा था. मैं बहुत डर गयी और माँ के पास सिमट गयी. माँ ने पूछा - "क्या हुआ?" पिताजी ने उसी तरह बिलखते हुए कहा - "नेहरुजी नहीं रहे".
इस पर माँ भी रोने लगीं. दोनों पुराने कांग्रेसी थे और छात्र जीवन में अपने-अपने तौर पर स्वतंत्रता सेनानी रह चुके थे. हालाँकि इस बात के लिए उन्होंने न तो कभी किसी प्रमाण-पत्र का दावा किया और न ही उसका कोई अन्य लाभ उठाया. उस समय नेहरूजी के इन दोनों आत्मीय स्वजनों को रोते देखकर मेरा क्या हाल हुआ
होगा, आप खुद समझ सकते हैं.
नेहरु जी के निधन के बाद सात दिन के राजकीय शोक की घोषणा कर दी गयी. आकाशवाणी से जुड़े लोग इस घोषणा के महत्त्व को समझ सकते हैं. सभी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम बंद, गीत-संगीत का प्रसारण बंद, केवल भक्ति-संगीत और वह भी बिना वाद्य-यंत्रों के. किसी और केंद्र पर शायद इतनी कठिनाई नहीं हुई होगी. लेकिन यहाँ तो स्थिति ही अलग थी. एमिसोरा डि गोवा के आर्काइव्स में भला ऐसा भक्ति संगीत कहाँ से मिलता? मगर प्रसारण तो होना ही था. ठीक समय पर होना था. आज की तरह किसी और स्टेशन को पैच करने की सुविधा मौजूद नहीं थी. अब क्या हो? चारों तरफ गाड़ियाँ दौड़ायी गयीं. जहाँ कहीं भी कोई हिंदी- संस्कृत के विद्वान् थे, सादर आमंत्रित किये गए. गायकों- संगीतकारों को स्टूडियो में बुलाकर रेकॉर्डिंग शुरू की गयी. मैंने वह दृश्य अपनी आँखों से देखा है कि प्रोड्यूसर से लेकर केंद्र निदेशक तक सभी स्पूल-टेप लेकर इधर-उधर दौड़े चले जा रहे हैं. धीरे-धीरे एमिसोरा पर आकाशवाणी का रंग छाने लगा. लेकिन अभी तो सात दिनों तक प्रसारण जारी रखना था.
केंद्र निदेशक मेजर अमीन को याद आया कि माँ ने किसी प्रसंग में बताया था कि परिवार में किसी का निधन होने पर उन्होंने पूरी रात बैठकर गीता पाठ किया था. आकाशवाणी से लौटकर वे सीधे माँ के पास आये. उन्होंने माँ से कहा - मुझे आपसे गीता की रेकॉर्डिंग करानी है. शर्मा जी से ज़िक्र करने की कोई ज़रुरत नहीं है. उनके जाने के बाद आप तैयार रहिएगा, मैं गाड़ी भेज दूंगा. माँ ने उनसे कहा कि यदि कहीं से रामचरितमानस की व्यवस्था हो जाये तो वे उसके कुछ अंश भी रिकॉर्ड करा देंगी. शोक सप्ताह के बीच एक रविवार भी पड़ रहा था. उस दिन एक घंटे का बच्चों का कार्यक्रम होता था. मेजर अमीन उस के लिए भी चिंतित थे. क्या करेंगे, कैसे करेंगे? क्या बच्चों को एक घंटे तक सिर्फ नेहरूजी के विषय में ही बताते
रहेंगे? उनकी यह समस्या भी माँ ने हल कर दी. माँ ने उन्हें बताया कि जब मैं कोई पाँच साल की थी, तब नेहरूजी मेरे स्कूल में आये थे. मैंने जिद करके अपने लिए सैनिकों जैसी वर्दी सिलवाई थी और वही पहनकर स्कूल गयी थी. नेहरुजी आये तो बहुत सारी यूनीफॉर्म-धारी बच्चियों के बीच मैं अकेली सैनिक लिबास में थी. सच पूछिए तो नेहरु चाचा के आगे खुद को किसी ब्रिगेडियर से कम नहीं समझ रही थी. वे जब पास आये तो मैंने जमकर सेल्यूट ठोंका. वे हँसे. मेरा नाम पूछा और मुझे गोद में उठाकर आगे बढ़ गए. नेहरूजी
की गोद में चढ़ने के बाद मेरा क्या हुआ, इसका होश मुझे तो है नहीं . लेकिन लोगों ने बताया कि उन्होंने कहा था - हमें इस जैसी ही बच्चियों की ज़रुरत है. माँ से यह किस्सा सुनकर मेजर अमीन समझ गए कि रविवार की बाल सभा का भी इंतज़ाम हो ही गया समझो. कोई भी कुशल इंटरव्यूअर इस घटना को बड़े आराम से एक घंटे तक खींच सकता था और नेहरु चाचा के प्रति बच्चों के प्यार को भी रेखांकित कर सकता था.
अगले दिन मुस्कुराता हुआ सिल्वेस्ता हमें लेने आया. हम केंद्र निदेशक के उसी खूबसूरत कमरे में बिठाये गए. मेजर अमीन ने फ़ोन उठाकर नंबर घुमाया और कहा - "शर्माजी मेरे आर्टिस्ट आ गए हैं. आप ज़रा इनकी रेकॉर्डिंग की व्यवस्था देख लीजिये." कुछ ही देर में पिताजी - "मे आई कम इन सर" कहते हुए कमरे में दाखिल हुए और उनके आर्टिस्ट्स को देखकर दंग रह गए. आकाशवाणी परिवार के सदस्य होने के नाते हमें उस दिन मात्र एक-एक रुपये की टोकन फीस मिली लेकिन हम उसी दिन से बाक़ायदा आकाशवाणी के कलाकार तो बन ही गए.
-- डॉ0 शुभ्रा शर्मा