रेडियो वालों (रेडियो कर्मचारियों और श्रोताओं दोनों) का काम चाय के बिना नहीं चल सकता। दिलचस्प बात ये है कि कई महत्त्वपूर्ण आयडियाज़ 'चाय-पान' के दौरान ही आते हैं। इस एक चाय ने जाने कितने गुल खिलाए हैं रेडियो में। आज जानी-मानी न्यूज़-रीडर शुभ्रा शर्मा अपनी श्रृंखला में लेकर आईं हैं समाचार-कक्ष का चाय-पुराण।
हमारे हिंदी समाचार कक्ष में जितना महत्त्व अनुवाद, संपादन और वाचन का है, उतना ही चाय का भी है. जब तक बुलेटिन का प्रसारण नहीं होता तब तक यही तीनों बातें सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बनी रहती हैं. लेकिन बुलेटिन पूरा होते ही सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न होता है कि आज चाय कौन पिलाएगा. बात दो-चार चाय की तो होती नहीं. न्यूज़ रूम में एक समय में कम से कम पंद्रह चायार्थी मौजूद होते हैं. ऐसे में बेचारे चाय पिलाने वाले को भी सोचना पड़ता है....किसे याद रक्खूँ, किसे भूल जाऊँ ....
जन्मदिन, विवाह की सालगिरह, बच्चों के परीक्षा परिणाम जैसे विशेष अवसर हों तो लोग ख़ुद ही ख़ुशी-ख़ुशी चाय मंगवा देते हैं. नयी गाड़ी, नया फ्लैट या नयी पोस्टिंग भी इसी श्रेणी में आती है, जब चाय पिलायी जाती है.
कुछ दोयम दर्जे के अवसर भी आते हैं...जैसे अख़बार में नाम या फोटो छपना, मोहल्ले या शहर स्तर का कोई पुरस्कार मिलना, बच्चे को मनचाहे कॉलेज में प्रवेश मिलना, चिटफंड या लॉटरी जीतना, वगैरह वगैरह.... लोग इन अवसरों को छिपाने की कोशिश में रहते हैं लेकिन किसी न किसी स्रोत से ख़बर न्यूज़ रूम तक पहुँच ही जाती है और चाय पिलाना लाज़मी हो जाता है.
पुरानी परंपरा के अनुसार पहली बार मेजर बुलेटिन (जैसे सुबह आठ या रात पौने नौ बजे का) पढ़ने या बनाने वाले को भी चाय पिलानी पड़ती है. अगर वह इस परंपरा को निभाने में आनाकानी करे तो उसे सहज ही छोड़ा नहीं जाता. वसूली करने वाले बड़े सख्त दिल लोग हैं. बातों से टाले नहीं जा सकते. इनमें मेरा नाम भी काफ़ी ऊपर आता है. ऊपर लिखी बातों के अलावा मैंने कमीज़ या साड़ी सुन्दर लगने के उपलक्ष में भी भाई लोगों को चाय पिलवायी है. बल्कि हमारे एक सहयोगी जोगिन्दर शर्मा तो यहाँ तक कहते थे कि ये काशी की बाम्हन सुबह-सुबह जजमान की तलाश में ही ऑफिस आती है.
इन तमाम गौरवशाली परम्पराओं के बावजूद कई दिन ऐसे भी होते हैं जब कोई जजमान हाथ नहीं लगता, तब ख़ुद ही पैसे ख़र्च कर चाय पीनी पड़ती है. हालाँकि इसमें बड़ा जी दुखता है.
एक बार यह नयी परंपरा शुरू करने की भी कोशिश हुई कि हर व्यक्ति सिर्फ अपनी चाय के पैसे दे लेकिन इतनी अधिक लोकतान्त्रिक परंपरा हिंदी समाचार कक्ष में निभ नहीं सकी. छुट्टे पैसों यानी चिल्लर का अभाव भी इसके आड़े आया.
दरअसल हमारे इस चाय प्रेम के लिए काफ़ी हद तक शिफ्ट ड्यूटी भी ज़िम्मेदार है. सुबह की ड्यूटी हो तो नींद भगाने के लिए, दोपहर की हो तो काम का मूड बनाने के लिए और शाम की हो तो खाना हज़म करने के लिए चाय की ज़रुरत पड़ती ही है.
अबसे कोई बीस साल पहले की याद करूँ तो सुबह की ड्यूटी तब इतने सवेरे शुरू होती थी कि घर से निकलते समय चाह कर भी कुछ खाया नहीं जा सकता था. आठ बजे के बुलेटिन तक पूरा ध्यान उसी में लगा रहता था. लेकिन सवा आठ के बाद इतने ज़ोर की भूख लगती कि संयम नहीं होता था. ऐसे में वो गाना याद आता था.....कहाँ जायें हम दो मोहब्बत के मारे .... अंतर सिर्फ इतना था कि यहाँ मोहब्बत के बजाय भूख के मारे होते थे और दो से कहीं ज़्यादा होते थे.
आकाशवाणी की कैंटीन में तब तक चूल्हा जलने की प्रक्रिया शुरू हो रही होती थी, जबकि वहां से थोड़ी सी दूरी पर समाचार एजेंसी यू एन आई की कैंटीन में तब तक न सिर्फ चूल्हा जल चुका होता था, बल्कि इडली-उपमा-वडा भी तैयार हो चुका होता था. इसलिए हम सब अक्सर बच्चन जी के शब्दों में ..... बस वही एक राह पकड़कर चल पड़ते थे और इच्छानुसार नाश्ता पा जाते थे.
विशेष अवसरों पर अच्छे बुलेटिन की शाबाशी के रूप में भी चाय-नाश्ते की परंपरा थी. मुझे याद है, वह १५ अगस्त पर मेरी पहली ड्यूटी थी. लाल क़िले से प्रधान मंत्री के भाषण का सीधा प्रसारण होना था और उसके फ़ौरन बाद हिंदी का बुलेटिन जाना था. भाषण का आलेख नहीं था, टीवी या रेडियो से सीधा प्रसारण सुनकर उसे नोट करना था....फिर उसे न्यूज़ आइटम के रूप में सम्पादित करना था और महत्त्वपूर्ण बातों का हेडलाइन के रूप में उल्लेख करना था. इन सब कामों के लिए वरिष्ठ संपादक और स्टेनो पहले से तैनात थे लेकिन फिर भी यूनिट के प्रभारी अविनाश गोयल जी बराबर मौजूद थे. हर व्यक्ति को सहयोग दे रहे थे, हर काम पर बारीकी से नज़र रख रहे थे. बुलेटिन के प्रसारण के बाद उन्होंने सबको बधाई दी और कलेवा (गोल मार्केट की एक प्रसिद्ध मिठाई की दुकान) से बढ़िया नाश्ता मंगवाकर सबको खिलाया.
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बुलेटिन की किसी बारीकी को लेकर दो-तीन लोगों में मतभेद हो जाता है, या फिर
किसी राजनीतिक या साहित्यिक विषय पर गर्मागर्म बहस छिड़ जाती है, तब उनका कैंटीन में बैठकर, चाय की चुस्कियों के साथ मुद्दे की उलझन को सुलझाना तो समझ में आता है. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो बिला वजह, सिर्फ पैसे बचाने की नीयत से, चुपचाप एक-दो लोगों के साथ खिसक जाते हैं और चाय-पानी कर आते हैं.
ऐसे एक सज्जन के बारे में मुझे भी बताया गया था. कहा तो यहाँ तक गया था कि इनसे चाय पीकर दिखाओ तो जानें. मैंने चुनौती स्वीकार कर ली और मौके की तलाश में रहने लगी. उन्हीं दिनों पुणे में राष्ट्रीय खेलों का आयोजन हुआ. आकाशवाणी की ओर से उन सज्जन को कवरेज पर भेजा गया. उन दिनों स्टेट्समैन अख़बार में हर हफ्ते 'लिसनिंग पोस्ट' नाम से आकाशवाणी के कार्यक्रमों की समीक्षा छपा करती थी. उस कॉलम में खेलों की कवरेज की काफी प्रशंसा छपी. मैंने उसे काटकर नोटिस बोर्ड पर चस्पाँ कर दिया. वे जब पुणे से लौटकर आये तो मैंने उन्हें बधाई दी और वह कटिंग दिखाई. वे बड़े खुश हुए. बस, लोहा गर्म देख मैंने फ़ौरन वार किया.
कहा - देखिये, आपकी इतनी तारीफ छपी है, हम सब की चाय तो बनती है न?
पीछे से किसी ने आवाज़ लगायी - नहीं जी, इस पर तो पकौड़े और बर्फी भी बनती है.
न्यूज़ रूम में तब तेरह लोग मौजूद थे. किसी ने इंकार नहीं किया. सब यही कहते गये कि हाँ-हाँ, बड़ी ख़ुशी की बात है. हम भी खायेंगे.
लेकिन असली मज़ा तब आया, जब उस दिन की दावत से वंचित रह गये हमारे एक साथी ने कहा - शुभ्रा, सुना है कि तूने तो कटड़ा दुह लिया.
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