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Thursday, November 25, 2010

ये ख़ामोशी श्रोताओं का सरासर अपमान है.





दो दिन सूने सूने निकल गये. ऐसा संगीत मैं सुनता नहीं जो सिवा धक-धक के कुछ और न बजाता हो.
आकाशवाणी के कर्मचारियों ने अपनी मांगों को मनवाने के लिये स्टुडियोज़ और उनमें चलने वाली मशीन को ख़ामोश कर दिया. उनकी ज़रूरतों और मांगों को लेकर मेरे मन में कोई विरोध नहीं लेकिन जो प्रसारणकर्मी हरदम अपने ट्रांसमिशन्स में श्रोताओं को अपनी ताक़त बताते हों वह दावा इन दो दिनों में निहायत असत्य और छद्म भरा महसूस हुआ. मेरे दफ़्तर और घर में कुछ जमा चार रेडियो सेट्स हैं और सुबह काम शुरू होने से लेकर शाम तक विविध भारती या क्षेत्रीय प्रसारण जारी रहता है. रेडियो के चलते कभी घड़ी पर नज़र डालने की ज़रूरत नहीं पड़ती और काम कभी बोझिल प्रतीत नहीं होता.आकाशवाणी दुनिया जहान की हलचलों से हमें बाख़बर भी करता जाता है...समाचार सुना देता है...स्कोर बता देता है. दु:ख तो इस बात का है कि इसी हड़ताल के दौरान बिहार चुनाव के परिणाम भी आने वाले थे और इसी दौरान आकाशवाणी ने गूँगा बनकर अपने सबसे बड़े श्रोता नेटवर्क को निराश ही नहीं किया गँवाया भी. काम निपटाते हुए रेडियो एक अच्छा साथी बन जुगलबंदी करता रहता है. टीवी पर भी परिणाम देखे जा सकते थे लेकिन इसके लिये बस उसी पर नज़र गड़ाए रखना ज़रूरी होता.


बहरहाल जिनको हड़ताल करना थी उन्होंने की. उनके अपने तक़ाज़े हैं और अपना सोच.लेकिन यह बात बार बार मन में ख़लिश पैदा करती रही कि देश की सर्वोच्च और विश्वसनीय प्रसारण सेवा ने एकदम काम ठप्प कर दिया.अपनी बात को मनवाने का कोई न कोई गाँधीवादी तरीक़ा भी हो सकता था. जैसे विविध भारती के उदघोषक तय सकते थे कि हम फ़रमाइशें नहीं पढ़ेंगे या विज्ञापनों का प्रसारण शेड्यूल क्रमानुसार नहीं चलने देंगे.. दर-असल बीते बीस सालों में आकाशवाणी जैसी शीर्षस्थ संस्था निहायत रस्मी तौर पर सक्रिय है. वहाँ काम करने वाले लोगों में अब जज़्बे की निहायत कमी आ गई है. प्रायवेट रेडियो चैनल्स पर मौजूद ग्लैमर भी आकाशवाणी में काम करने वाले कर्मियों की आँख की किरकिरी बनता जा रहा है. केन्द्रीय सरकार के मातहत काम करने वाले आकाशवाणी केन्द्रों के पास बड़े बड़े भूखण्ड और भवन हैं; जहाँ मानव संसाधन की कमी का सवाल ही नहीं उठता.इसके मुक़ाबिल एफ़.एम चैनल्स हज़ार – दो हज़ार वर्गफ़ीट के दफ़्तर में दस-बारह लोगों की टीम लेकर शानदार कार्यक्रम रच देते हैं और लाखों के विज्ञापन कबाड़ कर मोटा मुनाफ़ा भी अपनी कम्पनी को देते हैं.प्रसारण,भाषा लेखन,तकनीक और मार्केटिंग को लेकर एफ़.एम.चैनल्स के पास अपनी छोटी सी लेकिन जुझारू टीम होती है जबकि आकाशवाणी का ये आलम है कि यदि कोई रचनाशीलकर्मी एक अच्छा कार्यक्रम बनाना चाहता है तो उसे कहा जाता है जाइये आप ही शहर में घूम कर प्रायोजक ढूंढ़ लाइये.अब बताइये ऐसी कार्य-संस्कृति में कोई कैसे काम कर सकता है या गुणवत्तापरक कार्यक्रम रच सकता है. ये सारी बातें अपनी जगह एकदम ठीक हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि प्रसारण के शिखर संस्थान के कर्मचारियों का ये अड़ियल रूख़ जायज़ नहीं.

इस बार की हड़ताल प्रसार भारती और सरकार के हुक़्मरानों के लिये भी ख़तरे की घंटी है. उन्हें समझना होगा कि इस तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिये उनके पास क्या वैकल्पित इंतज़ाम हैं. आकाशवाणी की हड़ताल ने श्रोताओं के स्नेह को ज़मीन पर ला पटका है.स्व-हित और सुख के इस अभियान में बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय का नारा थोड़ा बेसुरा लग रहा है.

24 comments:

Unknown said...

वाकई खराब स्थिति है, खालीपन सा लग रहा है, लेकिन सरकारी कर्मचारियों की मनमानी पर कोई रोक लगा सका है भला?

Yunus Khan said...

संजय भाई बेहद विचारोत्‍तेजक लेख। आपकी भावनाओं का हम पूरा सम्‍मान करते हैं। कुछ भीतरी मु्द्दे हैं। जिन पर विचार बेहद आवश्‍यक है।

दिलीप कवठेकर said...

दोनों तरफ़ आग लगी हुई है.

मगर यह खामोशी दिल तोडने वाली थी.

Unknown said...

kuchh bhi ho, aakhir takleef to hum jaise gramin srotaon ko hi hue hai. akhir jaye to jaye kaha? prasar bharti ki redio aur durdarsan ke alawe hamare pas bikalp hi kaha bachata hai

Hathkadh said...

संजय भाई मुझे नहीं मालूम कि आपको हड़ताली कर्मचारियों की छाताधारी संस्था नेफेड के बारे कितना मालूम है लेकिन मैं आपके इन विचारों को इस लिए भी सेल्यूट कर देना चाहता हूँ कि आपकी चिंताएं आकाशवाणी से प्रेम को मजबूत करती है.

स्टील द शो कहावत का अर्थ आप समझते ही हैं तो मूल पीड़ा यही है. कार्यक्रम अनुभाग जन्म से ही रेडियो पर सुनाई देने वाले स्वरों से कुंठाग्रस्त रहा है तो वह चाहता है कि इन आवाज़ों को प्रसारण के क्षेत्र से बाहर कर दिया जाये फिर सभी नैमित्तिक कलाकार हों, जो उनकी हाजरी बजाते रहें और उनकी कुंठाओं पर मरहम लगता रहे.

इसी विभाग में तकनीकी महकमा है जो चाहता है कि कार्यक्रम अनुभाग ही नहीं हो, सभी कार्य आउट सोर्सिंग से हों ताकि तकनीकी कर्मचारी मालिक बने रहे और बाहर से उत्पादित कार्यक्रमों को प्रसारित करते रहें.

ये जो प्रसार भारती को समाप्त करवाना चाहते हैं इन्होने बहुत अच्छे वेतनमान ले रखे हैं और इन्हीं वेतनमानों के साथ पुनः केंद्र सरकार के कर्मचारी बनाने की लालसा से भरे हुए हैं.

आप श्रोताओं के पत्रों को शामिल न करने जैसा आन्दोलन करने की बात कहते हैं मगर सच्चाई ये है कि रेडियो के नियामक तो श्रोताओं को ही कचरा और बोझ मान चुके है उसके लिए हीरे तो विपणन और व्यवसाय के स्रोत मात्र ही हैं. लोक सेवा और जन-प्रसारण का कार्य नज़र अंदाज है दो टके के फ़िल्मी गीतों पर चलने वाले एफ एम से प्रीत हो चली है.

જીવન ના િવિવધ રંગો said...

Shayad Ye Pehla Mauka Hoga Jab Prasaran Khamosh Huva Hoga

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

श्री संजयजी निज़ी रेडियो चेनल्स की जितनी भी तारीफ़ करे, हकीकत तो यही है कि कोई भी निज़ी चेनल किसी भी श्रोताको एक लम्बे समयकाल के लिये किसी भी निश्चीत समय के निश्चीत कार्यक्रम को सुनने के लिये बाद्य बना पायी नहीं है और उन्हों नें लगता है कि मेरी इसी विषय पर दो दिन पहेले की पोस्ट पढ़ी नहीं लगती है, (युनूसजीने भी) । सुरत के एक गुजराती अख़बारमें प्रसार भारती के लिये कुछ दिन पहेले एक लेख़ प्रकाशित हुआ था, जिसमें सभी सरकारी स्थावर मिल्कतें प्रसार भारती को रेकोर्डेड किमतो पर तबदील करने की बात थी, (बाझारी किमत चाहे कितनी भी उपर गई हो), और आज के विनिवेषीकरण के माहोल को ले कर तो बादमें 2जी स्पेक्ट्रम की तरह बड़े उद्योगगृहो को सस्तेमें थमा देने की ही बात सामने आयेगी । हमारे सुरतमें चार निज़ी रेडियो चेनल्स है पर मैं श्री अमीन सायानी साहब की गीतमाला की छाँवमें की हप्तावार प्रसार-प्रचार शृँख़ला को ही सिर्फ़ और सिर्फ़ सुनता रहा था । पर यह तो गुजराती मुहावरे 'रणमां वीरडी' समान बात है । और निज़ी चेनल्स को बढावा देने में भी प्रसार भारती के तर्कहीन विज्ञापन प्रसार दरे ही (जो सरकार तय करती है) वजह रूप है । एक भूतपूर्व सूचना प्रसारण मंत्री एक निज़ी रेडियो चेनल के और उस चेनल के प्रमोटर की कम्पनियोँमें तग़डे शॆयर धारक रहे थे । तो आप सिर्फ़ कर्मचारीयोँ को ही दोषी क्यों मानते है । क्या उनको वेतन गवाँना अच्छा लगता है ? और क्या उन चेनल्स पर प्रसारीत हो रहे विज्ञापन रेडियो श्रीलंका के पूराने दिनों के और विविध भारती के विज्ञापन प्रसारण सेवा के शुरू के करीब 25 सालों की तूलनामें सुनने लायक लगते है ?
पियुष महेता ।
सुरत ।

Anonymous said...

Shri Hathkadh Sahab, kuch batein apki jaankari ke liye....
1. Takniki vibhag hamesha hi out-sourcing ka virodh karta raha hai. Delhi CWG mein takniki vibhag ki hi out sourcing ki gayi thi.
2. Jo prsar bharati samapt karna chahte hain, inhone bahot achche wetan le rakhe hain, bilkul sahi hai. Par inhe abhi tak apni stithi spasht nahi hai. Kyuki ye kaam to Prasar Bharati me kar rahe hain, par ye abhi tak kendra sarkar ke hi karmachari hai, kyuki inhe abhi tak Prasar Bharti ne board me absorb nahi kiya hai. Atah ye kahna ki ye kendra sarkar ke karmachari ban ne ki lalsa se bhare huye hai, bilkul bemani hai. Sahi baat to ye hai ki inhe apne bhavishya ka hi pata nahi ki agey inke saath kya ho sakta hai ? Inki stithi ab adhar me late huye jaisi ho gayi hai.
3. Rahi baat purane awazon ko udghoshna se bahar karne ki, to sarkar ne hi announcers ki bharti band kar di hai, kyuki unhe naimettik udghoshak saste me mil jate hain.

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

इस पोस्ट के पश्वात मैंनें एक पोस्ट एकोर्डियन वादक और इलेक्ट्रीक ओरगन वादक श्री सुमित मित्रा के जनम दिन 25 नवम्बर के उपलक्षमें उन के विषय पर रखी थी जिसे मूझे हटाने को कहा गया था । पर मैनें हटाने की जगह इस संजयजी की पोस्ट को प्रथम पन्ने पर फ़िर से रख़ा था । पर इस ब्लोग के स्थापकोमें से एकने आख़ीर अपना अख़त्यार चला ही दिया और मेरे आलेख़ पर मिली टिपणी सहीत उसे हटा ही दिया । और मेरा बीच वाला रास्ता उन्हें पसंद नहीं आया । जब की संजयजी के ही इसी विषय पर मेरी पोस्ट को पहेले पन्ने पर जारि रख़ंने की किसीने नहीं सोची । यह चमक दमक की दुनिया का कमाल है । हो सकता है कि इसी टिपणी को भी किसी तरह हटाया जायेगा ।

पियुष महेता ।
सुरत ।

sanjay patel said...

पीयूष भाई,प्रणाम.आप हमारे आदरणीय हैं.आपकी पोस्ट को हटाने के पीछे का मंतव्य यह रहा है कि एक ही विषय पर यदि एक ही कम्युनिटि ब्लॉग के लोग अलग अलग दिन लिखेंगे तो शायद हम इसे ज़्यादा प्रभावी बना सकेंगे. आप बहुत परिश्रमपूर्वक रेडियोनामा में शब्दों का भराव करते हैं और इस ब्लॉग से आपका ख़ास अनुराग हम सबको पता है. आपकी उम्र में तो वरिष्ठजन ठीक से अख़बार पढ़ भी नहीं पाते लेकिन आप न जाने कहाँ कहाँ से नई नई बातें रेडियोनामा पर लाते हैं. मैं तो बहुत ही कम लिख पाता हूँ..अभी तक मैंने रेडियोनामा पर कुल जमा १० पोस्ट भी नहीं लिखी है. मंतव्य यही था कि अलग अलग दिन यदि एक ही विषय पर सामग्री जारी होती रहेगी तो शायद इस विषय को ज़्यादा गंभीरता और विस्तार मिलेगा.कृपया अपने ही ब्लॉग के साथियों के बारें में ऐसी नाराज़ी न लाइये...हम सब एक सुनने-बोलने,लिखने-पढ़ने की दुनिया के अच्छे लोग हैं..ऐसे कमेंट जाने से नाहक ही कटुता बढ़ती है. कभी कोई कार्य इरादतन और पूर्वग्रह से नहीं होता है...साथ में काम करते हैं तो सबका मन रखने का जज़्बा होना ही चाहिये. आप तो हमारे वरिष्ठ हैं..आपका वात्सल्य और प्रेम हमारी शक्ति है. मुझे पूरा यक़ीन है कि पोस्ट हटाने के पूर्व आप तक आग्रह ज़रूर पहुँचा होगा और यदि आप इनकार कर देते तो ऐसा होता ही नहीं ..वैसे भी ब्लॉग की दुनिया बहुत सिमटती जा रही है..यदि हम इन छोटी छोटी बातों में अटक गये तो दूर तक कैसे साथ चलेंगे.....छोटे मुँह बड़ी बात कहने के लिये अग्रिम क्षमा याचना भी भेज रहा हूँ.प्रेम-पीयूष बना रहे...

सागर नाहर said...

आदरणीय पीयुष भाई
क्षमा चाहता हूँ यह पोस्ट मैने हटाई है लेकिन उसे डिलीट नहीं किया है, सिर्फ कुछ समय के लिए उसे रोका है, (पोस्ट की टिप्प्णीयां भी सुरक्षित है) एकाद दिन बाद फिर से उसे पोस्ट कर दूंगा। आप भी उसे फिर से पोस्ट कर सकते हैं, डेश बोर्ड पर देखिये आपकी पोस्ट वहाँ है।
आपके मन को जो ठेस लगी है उसके लिए एक बार फिर से क्षमा चाहता हूँ।

annapurna said...
This comment has been removed by the author.
annapurna said...

संजय जी, आपने लिखा - अपनी बात को मनवाने का कोई न कोई गाँधीवादी तरीक़ा भी हो सकता था. जैसे विविध भारती के उदघोषक तय सकते थे कि हम फ़रमाइशें नहीं पढ़ेंगे

आपकी इस बात से मैं सहमत नहीं हूँ, उनका गुस्सा उनके हुक्मरानों पर हैं, उनकी नाराजगी श्रोता क्यों झेले।

Yunus Khan said...

सागर भाई, रेडियोनामा सामूहिक ब्‍लॉग है और आपसी समझदारी से हम सभी इसे चला रहे हैं। आपने जो किया...समय की मांग के मुताबिक़ किया। पियूष भाई समझदार हैं..वो इस बात को समझ सकेंगे।

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

आदरणीय श्री संजयजी, श्री सागरभाई, श्री युनूसजी तथा श्रीमती अन्नपूर्णाजी,
आप सभी के कोमेन्ट्स रेडियोनामा पर संजयजी के आलेख अंतर्गत मेरे नाम पढ़े और मेरे मन को एक आश्वासन मिला कि एक रूप से जो मनकी बात कहाँ देने का मेरा तरीका है, वह अच्छा ही है, कि आप सभी को भी अपनी बात कहने का सामने से मौका मिले और दोस्ती और गहरी बने । पर आप एक बात जरूर स्वीकार किजीये की अगर मेरे मन का उबाल अगर निकल जाता है तो यह सिर्फ और सिर्फ एक दिन की पेदाईश नहीं हो सकती है पर कुछ दिनों से मन, में चल रही बात ही उबाल बन कर निकल आयी होगी ।
पर सबसे पहेले तो संजयजी को धन्यवाद कहना इस लिये चाहता हूँ, कि उन्होंनें जैसे आज तक मेरी शुरूआती पोस्ट को छोड कर कभी कोई टिपणी चाहे नहीं भी दी हो, पर आज सभी की सभी पोस्टो के किये एक साथ संक्षेपमें टिपणी दे दी ।
पर आपने जो ऐसा कहा है कि मूझे बोल कर इस पोस्ट को (चाहे एक छोटी सी समयावधी के लिये ही सही) हटाया गया था, तो इसमें परिस्थिती इस प्रकार हुई थी, कि श्री युनूसजीने मूझे निज़ी बिनती वाला इसी संदर्भमें ई-मेईल भेज़ा था, और उनको उत्तर देते हुए मैनें एक बीच वाला रास्ता लिया था, और आप की पोस्ट को लिन्क बनाकर आप की पूरी बात और साथमें मेरी राय और इसी विषय पर मेरी दो दिन पहेले की पोस्ट कि लिखाई (जिस पर हमारे साथी सदस्यों में से सिर्फ अन्नपूर्णाजीने टिपणी दी थी) को एक साथ रख़ा था । हा, यह जरूर था कि आपने जो आकाशवाणी का सिम्बोल साथ दिख़ाया था वह नहीं था । और जब शाम को देख़ा यह लिन्क वाली पोस्ट और मेरी 25 नवम्बर, 2010 की फिल्मी दुनिया के एकोर्डियन वादक श्री सुमित मित्रा के जनम दिन पर लिख़ी पोस्ट दोनो नहीं दिख़ी तो मैनें अपनी टिपणी दे दी और इस बारेमें सागरभाई जो मेरे इस ब्लोग पर प्रवेष के लिये मूजसे छोटे होते हुए भी मेरे गुरू समान है, और सुरत मेरे घर मूझे मिलने भी आ चूके है और हिन्दी भाषी होते हुए भी मेरे साथ बहोत अच्छी गुजराती भाषामें संवाद करते आ रहे है, उनको भेज़ा । तब उनका फोन आया कि यहाँ पोस्ट युनूसजीने नहीं पर उन्होंने हंगामी रूप से हटाई है । और युनूसजीने इस बात को चाहा था पर उन्होंने ख़ूद नहीं किया था, जब कि एक बार उन्होंनें मेरी श्री अमीन सायानी साहब से विडीयो मुलाकात वाली पोस्ट को अपनी भाषा की शक्ल-सुरत दे कर बहोत ही बेहतरीन बनाया था । और जब की संजयजी की पोस्ट को प्रथम पन्ने पर कुछ दिन रख़ने की बात अगर जरूरी लगती है तो मूझे एक और रास्ता भी दिख़ रहा है, कि संजयजी की पोस्ट को सिर्फ़ कुछ मिनटो के लिये हटाकर तूर्त ही फ़िरसे प्रकाशित कि जाती जो मेरी पोस्ट उसके नीचे चली जाती और मेरी तारीख़ भी सुमितजी की जनम तारीख़ ही रह पाती । पर सागर जी से अनुरोध है कि मेरी पोस्ट को वे जब पुन: प्रकाशित करना उचीत माने तब उसमॆं पोस्टमें ही बड़े अक्षरोमें इस बारेमें संक्षेप्तमें बिना भूले लिख़े, जैसे युनूसजीने मेरी उपर बताई पोस्ट पर लिख़ा था । और कम से कम दो दिन तक प्रथम पन्ने पर रख़ने की व्यवस्था करें । और यही बात मेरी इस आकाशवाणी कर्मचारी आंदोलन की पोस्ट पर भी पुन: प्रथम पन्ने पर ला कर कि जाती है तो इस बारेमें आप सभी के क्या ख़्यालात है, वह मूझे जरूर कहे । (भाग 1)
आप सभी का शुभ: चिन्तक,
पियुष महेता ।
सुरत-395001.

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

एक रूप से अन्नपूर्णाजी का आक्रोश भी सही है, (100वी पोस्ट के बारेमें) कि आज रेडियोनामा को सजीव रख़ा है तो प्रथम उन्होंने और उनके बाद मैनें, तभी उसका पाठक-वर्ग रह पाया है, और आप जैसे कभी कभी ही यहाँ तसरीफ़ लेनेवाले पर अन्य रूप से नामी ( यहाँ मैं आज प्रचलीत नामचीन शब्द गलत मानता हूँ) लेख़को को लोग पढते है । चाहे गुणवत्तामें आप लोग हमारा से आगे क्यों न हो ), पर युनूसजी के बारेमें भी मैनें और अन्यत्र अन्नपूर्णाजीने एक बात नोट की है, कि मेरी करीब दो-सवा दो साल पहेले की सुरत के श्री हरीष रधुवंशी की विडीयो मुलाकात पर उनकी अंतीम टिपणी आयी थी, बादमें उनके रस रुचि वाले मेरे वादक कालाकारो के वारेमें कई चिठ्ठे उन्होंनें शायद पढ़े भी हो पर अनपढ़े ही किये है, जिसमें उनकेर चहिते सेक्षोफोन वादक स्व. मनोहरीदा के देहावसान के रेडियोवाणी से पहेले लिख़े गये चिठ्ठे का भी समावेष है, जिस पर अन्नपूर्णाजीने भी आक्रोश जताया था । तो एक तरफ़आली उन्होंने विविध भारती के हल्लो आप के अनुरोध पर और मंथन कार्यक्रममें कार्यक्रम का हित समझ कर मूझे अच्छा खासा कवरेज दिया था (एक अपवाद को छोड कर जो भी कार्यक्रम के हितमें ही था, यह मैं फ़ोन रेकोर्डिंग पूरी होने के तूर्त ही मानता था) । तो एक छोटी सी टिपणी भी किसी का उत्साह बढाने का काम करती है वह हम सब मानते है । चाहे ख़ूटने वाली बात भी लिख़ी जाती है । या गलती भी बताई जा सकती है । अब सागर भाई को आख़री बात प्यारसे कि मूझे आपने और युनूसजीने देख़ा है और मेरा स्टेमीना थोडा सा अन्य लोगों के मुकाबले कम होने पर लम्बा लिख़ते लिख़ते थोडी थकान महेसूस होने लगती है (इस वक्त भी थोडा रिलेक्स होना जरूरी है) तो जब रात्री करीब 12 बजे गाना और/या विडीयो अपलॉड करके जनम तारीख़ पर पोस्ट रख़ने की घडी जाती है तो जलदी लिख़ाई में कभी केप्स लोक जैसी गलती उंगली के कम दबाव के कारण होन की सम्भवना रहती है, और स्पेलींग गलती कभी थोडे से कम ज्ञान के कारण भी होती है, तो आप मेरी पोस्ट की संख़्या अन्नपूर्णाजी के मुक़ाबले काफ़ी कम होने के कारण सुधार दे और सुघार के बारेमें निज़ी मेइल से बतायें जिससे वही गलतियाँ अगर याद रह जाता है तो दोहराने की सम्भवना कम रहेगी, हो सकता है एक दो बार वही गलती फ़िरसे हो पर उसके बाद तो नहीं होगी । ( कल यही बातें टिपणी में रख़ने की कोशिश की थी, पर अपलॉड ही नहीं हो पाई और मेरी मेहनत बेकार गई थी ।) (आशा है कि युनूसजी मूझे सही रूपमें ही समझदार मानते होगे और कुछ बातो पर थोडे से अगल विचार होटल हुए समझदारी पर शंका नहीं करेंगे ।)
आप सभी का शुभ: चिन्तक,
पियुष महेता ।
सुरत-395001.

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

कुछ शब्द भाषा सॉफ़्टवॆयर अपने आप गलत कर देते है जैसे मन का मेनेजर होते का होटल अगर , लगा नहीं अस्थायी रूप से तो गये काम से ।
पियुष महेता ।
सुरत -395001.

Anonymous said...

Ek baar apne Mumbai safar ke dauraan main Vividh Bharati ke daftar (Shastri Bhavan) Gaya, wahaan main Shri Kishan Sharma ji se mila aur kuchh karyakramo ki khaamiyon ke baare mein bataaya to unka frustration unke shabdon mein aa gaya. Na to apni marzi ke karyakram banaane ki Azadi un dino thee na to Shaayad aaj bhi hai. Main to sochta hoon ki Rachanatmak Azadi Akashvani mein hai hi naheen. Varna yahaan agar aap zyada lokpriya huye to aapka tabaadla kisi kam important aur less popular jagah pe ho jaayega....aisa mujhe lagta hai. Vividh Bharati ke paas itna bhandaar hai ki Koi Bhi FM iske aage tik naheen sakta.

TERE BAGHAIR ZINDAGI DARD BAN KE REH GAYEE said...

Yeh Anonymous Main hi hoon.
Sudarshan Pandey

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

श्री सुदर्शन पान्डेजी,
आपने जो आँखो देख़ी लिख़ी है वह अपनी जगह बिलकुल सही है और मैं भी इसका साक्षी रहा हूँ और इस ब्लोग के अन्य लेख़क और पाठको भी रहे होगे और कहीं हर जगह सिर्फ़ सरकारी ही नहीं पर निज़ी संस्थानोमें भी एक रूप से देख़ा जाय यही हाल है । क्या आप निज़ी चेनल्स के किसी उद्दघोषक को आज के दिनोमें श्री के एल सायगल साहब और स्व. अनिल विश्वास साहब या तलत मेहमूद पर कार्यक्रम प्रस्तूत करते हुए सुना है ? हाँ, वे बात शायद उन हस्तीयों की करेगे पूरे प्रोग्राममें पर साथ साथ प्रस्तूत होने वाले गाने उन हस्तीयोँ के या उन बातों से सम्बंघीत नहीं होगे पर ज्यादा से ज्यादा किशोर कूमार, महमद रफी या मूकेश के ही रहेगे । पूराने गानोके लिये उनकी सोच और पहोंच वहाँ तक सीमीत है । उनके अशिकारी या चेनल्स के मालिक उनको यही कहेंगे कि उनका सरल लक्ष्य युवा वर्ग ही है जो माता-पिता की कमाई पर देख़ा देख़ी कम उपयोगी चीजों को खरीद करता जाता है । जैसे रिंग टोन, कोलर ट्यून्स वगैरह ।
पियुष महेता ।
सुरत-395001.

annapurna said...

यह सच हैं कि निजी चैनलों के कार्यक्रम युवा वर्ग को ध्यान में रख कर ही तैयार किए जाते हैं इसीलिए उनका उद्येश्य मनोरंजन होता हैं, जानकारी देना नही जबकि प्रसार भारती के कार्यक्रम मनोरंजन के साथ जानकारी और कुछ संदर्भो में शिक्षा भी देते हैं और ऐसे कार्यक्रम तैयार करना हरेक के बस की बात नही।

महेन्द्र मोदी said...

मेरा चयन तीन जगह एक साथ हुआ था. बैंक ऑफ इंडिया, कस्टम्स और आकाशवाणी. मैंने बैंक में नोट गिनने और कस्टम्स में पुलिसिया काम करने की बजाय आकाशवाणी की नौकरी को चुना क्योंकि मेरे भीतर बैठे छोटे मोटे कलाकार ने महसूस किया कि जो संतुष्टि मुझे यहाँ मिलेगी उसके सहारे जीवन सुख और शान्ति से कट जाएगा. यू पी एस सी जो कि आई ए एस को चुनता है, उसके बहुत प्रतिष्ठित इम्तहान में बैठा और उसमें चयनित होकर सन १९८० में रेडियो में कार्यक्रम अधिशाषी बन गया....उस वक्त मेरी उम्र ३० वर्ष से भी कम थी. दोस्तों, उस वक्त ७५% से ज़्यादा कार्यक्रम अधिशाषी ५० साल से ज़्यादा उम्र के हुआ करते थे. आस पास के सब लोगों ने कहा "सोते भी रहोगे तो डी डी जी के पद पर पहुँच जाओगे." उस वक्त यही हुआ भी करता था. यू पी एस सी से इस पद पर चयनित लोग ही अधिकांशतः डी जी के पद तक पहुंचे. यहाँ तक कि मुझसे महज़ ५ साळ पहले यानि १९७५ के बैच के लोग ५३-५४ साल की उम्र में डी डी जी के पद पर पहुँच गए और ६-७ बरस तक उन्होंने इस कुर्सी का सुख भोगा...... मगर उसके बाद के बैचेज के जितने भी मुझ जैसे लोग हैं , चाहे उन्होंने कितनी भी मेहनत, डेडिकेशन और ईमानदारी से काम किया.... उसी पद से रिटायर हो गए जिस पर वो यू पी एस सी से चयनित होकर आये थे. क्या कुसूर है हम लोगों का? क्या यही कि हमने रेडियो में रहकर कुछ अच्छा, अपने मन का करने का फैसला किया? जानते हैं, मेरे साथ जो मेरे एक दोस्त कस्टम्स में चयनित हुए थे, आज दिल्ली में ज्वाइंट कमिश्नर हैं और मैं कार्यक्रम अधिशाषी के पद पर ही रिटायर हो गया? ज़रा आप ही बताइये, किस बात की सज़ा मिली मुझे और मेरे साथियों को? मेरे रेडियो के ही इंजीनियर दोस्त समय समय पर प्रमोशन पाते रहे और मैं वहीं बैठा रहा जहां से शुरू किया था. क्या है ये? क्या पूरी दुनिया में ऐसी कोई मिसाल मिलेगी? यहाँ तक कि जब मैं कार्यक्रम अधिशाषी था, जो लोग इंजीनीयरिंग सहायक लगे थे, बिना किसी इम्तहान के स्टेशन इंजीनियर बन गए हैं और जो लोग एल डी सी लगे थे, आज ४ या ५ या ६ प्रमोशन लेकर यू पी एस सी तो छोड़िये बिना किसी छोटे मोटे इम्तहान में बैठे सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव आफिसर बन गए. सबसे दुखद तो ये कि साइंस आफिसर का पद ऐसा हुआ करता था, जिन्हें कोई भी स्टेशन डायरेक्टर अपने चाहीतों में से भर सकता था, वो यू पी एस सी के किसी इम्तहान में शरीक नहीं होते थे. डायरेक्टर अपनी पसंद के किसी भी इंसान को इस पद पर बिठाकर उसे धन्य कर सकता था, आकाशवाणी की नीतियां देखिये कि वो सभी लोग जो साइंस आफिसर के पद पर पीछे के रास्ते से दाखिल हुए डी डी जी के पद पर पहुँच गए और बेचारे गरीब कार्यक्रम अधिशाषी जो हर स्टेशन पर सबसे ज़्यादा जिम्मेदारियां निभाते रहे, उन जिम्मेदारियों को निभाते निभाते बूढ़े हो गए और .... फिर आकाशवाणी की नीतियों को कोसते हुए रिटायर भी हो गए. मैं नहीं कहता कि मैंने कोई बहुत बड़े तीर मारे हैं, मगर मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि मैंने अपने पूरे जीवन में ईमानदारी से आकाशवाणी में काम किया, एक कनाडा के बहुत प्रतिष्ठित प्रोजेक्ट में काम कर विभाग के लिए प्रतिष्ठा हासिल की, एक विश्व सम्मलेन में आकाशवाणी का प्रतिनिधित्व कर उसके नाम को वहाँ तक पहुंचाने का प्रयास किया, एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में जज की भूमिका निभाकर, बी बी सी जैसे संस्थानों के कार्यक्रमों का आकलन किया, कनाडा की एक यूनिवर्सिटी में जब प्रसारण पढ़ाया जाता है तो उसके कोर्स में दो पाठ मेरे काम पर हैं और विविध भारती जैसी संस्था को बरसों तक सफलतापूर्वक चलाया ही नहीं उसकी गोल्डन जुबली के दौरान श्रोताओं का भरपूर प्यार सहेजा...... मगर क्या मिला मुझे ये सब करने का इनाम? यही न कि मैं उसी पद पर रिटायर कर दिया गया बिना किसी प्रमोशन के..... क्या गलती थी मेरी? यही कि मैंने आकाशवाणी को अपना कार्यक्षेत्र बनाया?

महेंद्र मोदी said...

बड़ा दुःख होता है, जब ऐसे में हमारे प्रबुद्ध श्रोता कहते हैं कि हड़ताल क्यों की गयी? श्रोताओं को अच्छे प्रोग्राम से क्यों वंचित रखा? दोस्तों.... होना तो ये चाहिए कि हम अपनी पूरी ज़िंदगी होम करके भी अपने हर अधिकार से वंचित रह गए, इस बात को समझकर सभी श्रोता एकजुट होकर कार्यक्रम स्टाफ का साथ दें पर बड़े अफ़सोस की बात है कि हमारे वही श्रोता जिनके लिए हमारे साथी तमाम कुंठाओं के बावजूद मेहनत से कार्यक्रम तैयार करते हैं, उन्हें कोसते हैं.
मैं अपील करता हूँ आप सबसे कि मैं और मेरे जैसे बहुत से लोग तो वहीं पर रिटायर हो गस्ये जहां से शुरू किया था, मगर अब भी जो लोग बचे हैं और अपने श्रोताओं के प्रति समर्पित हैं, जब भी अपने अधिकारों की कोई लड़ाई लड़ने का प्रयास करें तो आप सब एकजुट होकर उनका साथ दें और अगर आपके पास कोई शक्ति है तो उसका इस्तेमाल करते हुए उन्हें सहयोग दें वरना वो दिन दूर नहीं जबकि जिस तरह का अपमानित जीवन वो जी रहे हैं, वो उनमें से कईयों को आत्महत्या पर मजबूर कर देगा.
मैं क्षमा चाहता हूँ अपने उन सभी साथियों से जिनके उदाहरण मैंने दिए. मेरा मंतव्य उन्हें मिले प्रमोशन पर एतराज़ नहीं है, बस मैं तो यही कहना चाहता हूँ कि कार्यक्रम अधिकारियों को भी उनका हक मिले और सभी श्रोता इस युद्ध में उनका साथ दें.

cgswar said...

आकाशवाणी से जुड़े हर दि‍ल की बात खरी खरी कही है आपने संजय जी।

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